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माफ़ी



रमेश बाबू की पत्नी को लास्ट स्टेज का कैंसर बता डॉक्टरों ने दिल्ली एम्स रेफर कर दिया। वैसे रमेश बाबू ने अपने जीवन में कभी पत्नी को उतना महत्व नहीं दिया। उनके लिए तो मां और बड़ी बहिन सुरेखा ही सब थे। मां के जाने के बाद रमेश बाबू के घर में उनकी बड़ी बहन की चलती रही। बहन की सलाह ही उनके लिए सर्वोपरि थी।
उनकी पत्नी शकुंतला ने एक दो बार अपनी राय देने की कोशिश भी की लेकिन रमेश जी ने हमेशा उसे दरकिनार ही रखा। धीरे धीरे उसने मौन की चादर ओढ़ खुद के वजूद को खत्म कर घर के कामों व बच्चों की देखभाल को ही अपनी नियति मान लिया
लेकिन जब से पत्नी के कैंसर की खबर सुनी तब से उनके आंसू ही नहीं थम रहे थे। वो बार बार शकुंतला का हाथ पकड़ उससे कहते "मुझे छोड़ कर मत जाना शकुंतला, इस जीवन संध्या में मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है।" शकुंतला भी उनका ये हाल देख दुखी थी। लेकिन साथ ही साथ उसके चेहरे पर संतोष के भाव भी थे। आखिरी समय में उसे पति का वो प्रेम व सम्मान मिल रहा था, जिसके लिए वो उम्र भर तरसी थी। वो उन्हें तसल्ली देते हुए बोली " तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाली । अभी तो मुझे बच्चों की शादी करनी है , बहू व पोते पोतियों को देखना है।"
कहते कहते उसके मुंह से खून की धार बह निकली। ये देख रमेश बाबू व बच्चों की चीख निकल गई। उन्होंने बेटी को कहा" बुआ को फोन कर जल्दी अा जाएं , तब तक मैं तेरी मम्मी को दिल्ली ले जाने की तैयारी करता हूं। " लेकिन मौत ने शकुंतला को फिर हरा दिया।
खबर सुनते ही घर में रिश्तेदारों व पड़ोसियों का जमावड़ा लग गया। सब इस दुख की घड़ी में परिवार के साथ खड़े थे। सुरेखा आते ही अपने भाई के गले लग गई खूब रोई। क्रिया के बाद सब पड़ोसी व रिश्तेदार चले गए।
रमेश जी ने सुरेखा से कहा "जिज्जी तुम कुछ दिन यही रुक जाओ , बच्चे अपनी मां के जाने के बाद एकदम टूट गए हैं। तुम्हारे साथ से उन्हें तसल्ली मिलेगी। घर तो तुम्हारे बेटा बहू संभाल ही लेंगे।"
यह सब सुन सुरेखा थोड़ा गंभीर होते हुए बोली "भाई तेरी बात सही है। लेकिन तुम तो जानते हो दिवाली सिर पर है। दिवाली के लिए दुकान में लाखों का सामान भरा है। बेटा तो नौकरी पर चला जाता है और तेरे जीजा जी अकेले कैसे दुकान संभालेंगे। भाई लोग साल भर कमाई के लिए दिवाली का इंतजार करते हैं। बच्चे अब इतने भी छोटे नहीं हैं। आज ना कल तो उन्हें खुद को संभालना ही होगा। भाई तू समझ रहा है ना मेरी बात को । मेरी मजबूरी ना होती तो मैं जरूर तेरे पास रूक जाती, पर क्या करूं, काम धंधा भी तो जरूरी है।
रमेश बाबू अपनी बहन की बातें सुन अवाक रह गए जिसे उसने भगवान का दर्जा दिया था , वह ऐसी स्वार्थी निकलेगी उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उन्होंने उठते हुए बस इतना ही कहा" जाओ जिज्जी, जान तो गई , अब माल का नुकसान नहीं होना चाहिए।" और आंसू भरी नजरों से शकुंतला की तस्वीर की ओर देखने लगे मानो अपने गुनाहों की माफी मांग रहे हो उससे।