Usaki rato me subah nahi thi books and stories free download online pdf in Gujarati

उसकी रातों में सुबह नहीं थी

उसकी रातों में सुबह नहीं थी

जयंती रंगनाथन

उसने अपना नाम बताया—सौम्या।

मां कहती थी कि मैं हमेशा अपने से अमीर घर की लड़कियों से दोस्ती करती हूं। हम हाल ही में एक किराए के घर में रहने आए थे और सौम्या मेरे घर के सामने एक आलीशान कोठी में रहती थी।

हमारा घर छोटा था। दो बहनें, एक भाई, एक दादी और मां-पापा। पापा के पास एक स्कूटर। भाई के पास एक साइकिल। घर में कुल जमा एक मोबाइल।

और उसके घर में ना जाने कितने कमरे। कितनी गाडिय़ां, कितने मोबाइल।

मैं स्कूल में नई थी। आठवीं में यूं भी नए दोस्त बनाना मुश्किल होता है। सब पहले से अपना गुट बना चुके होते हैं। सौम्या का भी एक गुट था। पर वह कुछ अलग-थलग सी रहती थी। मैंने आगे बढ़ कर दोस्ती की। वह कुछ बेपरवाह लगी। अमीर लड़कियों में ये सब बातें होती हैं। कुछ झक्की होती हैं, तो कुछ घमंडी।

फिर मैंने उसे अपने जन्मदिन पर घर बुलाया। वह आई, अपने लाल बैग में से निकाल कर उसने उपहार दिया। भाई देखते ही फुसफुसाया--मोबाइल।

सच में। वह मेरे लिए मोबाइल लाई थी। मेरी आंखें चमकने लगीं। मां ने उसकी कुछ ज्यादा खातिर की। उसे दही बड़े पसंद आए। जाते समय मां ने एक बड़े से डिब्बे में उसे पैक करके दे दिया।

मेरा रुतबा बढ़ गया। बड़ी कोठी वाली सौम्या की सहेली पूर्णा। सौम्या अपने परिवार के बारे में कभी कुछ नहीं बताती। मेरे सवाल सुन कर वह अनमनी हो जाती। मुझे यहां-वहां से पता चला कि कुछ सालों पहले उसकी मम्मी गुजर गईं। बड़ा परिवार था। कई सारी ज्वैलरी की दुकानें थी। एक सिनेमा थियेटर, दो रेस्तरां।

फिर उसका जन्मदिन आया। उसने एक दिन पहले कह दिया कि वह अपना जन्मदिन घर पर नहीं मनाती। पर जन्मदिन वाले दिन मेरे भाई ने उकसाया--तुम्हारी इतनी अच्छी दोस्त है। पास में रहती है। उसने तुम्हें मोबाइल दिया तो तुम्हें भी तो उसे कुछ देना चाहिए। तुम जा कर उसे विश तो कर सकती हो ना?

भाई की बात में तर्क था। बहुत सोच कर मैंने अपने पुराने एक सिल्क के लहंगे से अपनी दीदी की मदद से बैग तैयार किया। दीदी हाथ के कामों में अच्छी थी। बैग में मैंने दस रुपए वाले दो चॉकलेट भी रख दिए।

मैं इससे पहले कभी उसके घर नहीं गई थी। पर हिम्मत करके मैं उसके घर पहुंची। सेक्योरिटी ने ना जाने मुझसे कितने सवाल पूछे। डटी रही। आखिरकार उसने फोन लगाया। कहा कि बेबी की दोस्त आई है। अंदर आने दें?

पता नहीं उसे क्या कहा गया? सिक्योरिटी ने मुझे वहीं बैठने को कहा--तनिक रुको। अभी बड़े मालिक निकलने वाले हैं। उनके जाने के बाद तुम्हें अंदर भेजेंगे।

दस मिनट बाद एक बड़ी सी गाड़ी कोठी के बाहर निकली। इसके बाद सिक्योरिटी गार्ड ने मुझसे कहा, ‘बरामदे में जाओ। वहीं बेबी जी आवेंगी।’

मैं बरामदे तक पहुंची ही थी कि सौम्या आ गई। उसन पीले रंग का लहंगा पहन रखा था। बालों की चोटी। माथे पर बिंदी। लगा कि उसे मुझे वहां देख कर खुशी नहीं हुई। मैंने हैप्पी बर्थडे कह कर गिफ्ट पकड़ा दिया। उसने ले लिया। फिर बोली, ‘हम लोग बाहर जाने वाले हैं। कल स्कूल में मिलेंगे।’

वह मुड़ कर चली गई अंदर। मैं ठगी सी खड़ी रही। आंखें बरसने को हो उठीं। मैं बहुत मुश्किल से सिक्योरिटी गार्ड को पार कर बाहर निकली। बिल्कुल सामने मेरा घर। कहीं कोई मुझे देख ना रहा हो। मैं जल्दी से पास की गली में निकल गई। आंख से जार-जार आंसू बह रहे थे। घर जा कर सबको क्या बताऊंगी?

आधा घंटा मैं गली के किनारे वाली मंदिर की सीढिय़ों पर बैठी रही। अंधेरा होने लगा। मैं उठ कर तेज कदमों से चलती हुई घर आ गई।

रसोई से दाल पकने की महक आ रही थी। मुझे देखते ही भाई लपक कर मेरे पास आया, ‘तू आ गई? कैसा रहा? खाने को क्या मिला?’

मैंने अपने को संभाल कर कहा, ‘बहुत कुछ। सब तो मैं खा भी नहीं पाई। हर तरफ लाइट्स थे। गाना चल रहा था। एक तरफ एक सुंदर सा पेड़ था। उसमें ना जाने कितनी चीजें टंगी थी। बर्गर, पिज्जा, जो मन हो, वहां से निकालो और खा लो।’

‘इतनी जल्दी क्यों आ गई? पूरा रह कर आना था ना?’

मैंने रुक कर जवाब दिया, ‘हां, रुक तो सकती थी। सौम्या ने कहा भी। पर मैं दूसरे बच्चों से क्या बातें करती? सब नए थे ना…’

‘तुझे रिटर्न गिफ्ट नहीं दिया?’ भैया ने पूछा।

‘सौम्या जब बाहर तक छोड़ने आई ना, तो उसने कहा कि मेरा रिटर्न गिफ्ट वह कल स्कूल ले आएगी।’

भाई यह सब दीदी को बताने चले गए। मैं चुपचाप कमरे में आ गई। इंतजार था कि मां कब खाने पर बुलाएंगी। शायद यह सोच कर ना ही बुलाए कि यह तो सौम्या के घर खा कर आई होगी। पेट की भूख बड़ी थी कि मन में अवहेलना की आग, समझ में नहीं आया।

...

रात सबके सोने के बाद मैंने बिस्तर के नीचे से अपना छोटा सा पर्स निकाला। उसमें मैं साल भर पैसे जमा करती थी। फिर दिवाली में कुछ लेती थी। उसमें कुल जमा उनतीस रुपए निकले। इतने में तो कोई अच्छी चीज आ नहीं सकती थी। अपने लिए रिटर्न गिफ्ट के नाम पर क्या लूं?

सुबह पैसे साथ रख लिए। स्कूल के बाहर मुझे सौम्या नजर आई, मैंने हिकारत से उसकी तरफ देखा और सिर घुमा कर अंदर चली गई।

क्लास में हम साथ बैठते थे। और कोई जगह खाली नहीं थी। वह मेरे पास बैठने आई, तो मैंने गुस्से से कहा, ‘कहीं और जा कर बैठो।’

वह धीरे से बोली, ‘मेरी सीट है, मैं यहीं बैठूंगी।’

मैं अपना बस्ता ले कर पीछे चली गई। लंच टाइम में सब अपना डिब्बा खोल कर बैठे। सौम्या केक ले कर आई थी। मैं चिढ़ कर बोली, ‘किस बात का केक? कोई बर्थडे तो था ही नहीं। मैं गई थी इसके घर गिफ्ट ले कर। वहां क्या हुआ इससे पूछो।’

सौम्या अचानक उठ गई और जोर से बोली, ‘तुम क्यों आई थी? मैंने बुलाया था क्या?’

मैं मुठ्ठियां भींच कर बोली, ‘तुम भी तो आई थी मेरे बर्थ डे पर।’

वह उसी रौ में बोली, ‘तुमने मुझे इनवाइट किया था। मैंने तो नहीं बुलाया था…’

‘मैं तुम्हारे लिए गिफ्ट ले कर आई थी…।’

‘मैं तुम्हें वापस कर दूंगी कल ही तुम्हारा गिफ्ट।’

‘मैं भी ला दूंगी तुम्हारा स्टुपिड मोबाइल।’

हम दोनों तेज आवाज में बोल रहे थे। किसी तरह दोस्तों ने हमें अलग किया। इसके बाद मैं रोने लगी। सबसे कह रही थी कि उसने मेरे साथ क्या-क्या किया। जबकि मैं सिर्फ सौम्या से यह जानना चाहती थी कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?

सौम्या से दोस्ती टूट गई। मैंने कह तो दिया था कि मोबाइल लौटा दूंगी। पर मुझे समझ नहीं आया कि घर में सबसे कहूंगी क्या। हां, जाते समय एक सेकंड हैड किताब की दुकान से एक कॉमिक खरीद कर ले गई अपना रिटर्न गिफ्ट दिखाने।

अगले दिन सौम्या स्कूल आते ही मेरी सीट पर मेरा दिया बैग फेंक कर चली गई। सिल्क का कपड़ा पुराना तो था ही, एक तरफ से फट गया। मैंने बैग उसकी तरफ उछाल कर जोर से कहा, ‘तुमने बैग फाड़ दिया। अब क्यों लौटा रही हो? ’

उसने बैग को उलट-पुलट कर देखा, कुछ नहीं बोली, बस उसे ले कर वापस चली गई। इसके बाद उसने मोबाइल के बारे में भी कुछ नहीं पूछा।

...

हमारी बातचीत बिलकुल बंद हो गई। आठवीं के बाद अगले साल हमारे सेक्शन बदल गए। मैं उसे कभी कभार देखती, स्कूल में आते हुए या खेल के मैदान में। कुछ दिनों तक मुझे उसकी दोस्ती सालती रही। । कई बार मन हुआ कि उसे रोक कर पूछूं। पर ऐसा कर नहीं पाई।

दसवीं के बाद मैंने उसके बारे में उड़ती-उड़ती खबर सुनी कि उसका किसी लड़के से अफेयर चल रहा है। शायद अपने घर के ड्राइवर से। हम लड़कियों ने खूब चटकारे ले कर यह खबर सुनी। ग्यारहवीं के बाद उसने स्कूल छोड़ दिया।

अर्से बाद, मैंने उसे दिल्ली में कनाट प्लेस में देखा। मैं दिल्ली यूनिवरसिटी में पढ़ने आई थी। हॉस्टल में रहती थी। साइकोलॉजी पढ़ती थी। नवंबर की एक सुहानी शाम मैं अपने मित्रों के साथ घूम रही थी। वह एक रेस्तरां से निकलती दिखी। पहचानी शक्ल। दिमाग पर जोर डालना पड़ा। रंगे हुए बॉय कट बाल। जरूरत से ज्यादा दुबली। अजीब से कपड़े। मुझे देख कर वह ठिठक गई, ‘पूर्णा?.. राइट? अहा, लांग टाइम बड्डी।’

मैं अचकचा गई। छह साल का फासला। मैं मुस्कराई, ‘कैसी हो सौम्या? ’

वह कुछ चहक कर बोली, ‘अच्छी हूं। मजे कर रही हूं। फिर पता नहीं क्या हुआ, मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘वो जो तुमने मुझे एक बार गिफ्ट दिया था ना एक बैग, मेरे बर्थडे पर, वो आज भी है मेरे पास। ’ उसकी आंखें चमकने लगी थीं और मेरी आंखों में कौतुहल भर गया।

सौम्या के पीछे एक विदेशी हिप्पी सा दिखने वाला युवक खड़ा था। सौम्या को उसने पीछे से टहोका। सौम्या मेरा हाथ छोड़ आगे बढ़ गई, बाइ कहती हुई।

कितने सवाल रह गए उस समय वहां। मैं बटोर कर सुलझाना चाहती थी। सौम्या को रोक कर पूछना चाहती थी कि उसने वह फटा हुआ पुराने कपड़े से बना बैग आज तक क्यों रखा है अपने पास।

मैं उसके बारे में जितना सोचती, पाती कि मैंने उसके साथ कुछ गलत किया था। उसने तो सच में मुझे नहीं बुलाया था अपने घर? मैंने तो उसे अपनी बात कहने का मौका भी नहीं दिया।

आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति ले कर मैं अमेरिका चली गई। डॉक्टर पूर्णा राव बन कर लौटी। बैंगलोर के एक नामी अस्पताल से बतौर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट जुड़ गई। मां-पिता मेरे साथ रहते थे। रात पहुंचती तो मां खाना गर्म कर देती। फिर उनके साथ खूब बतियाती, अगले दिन के लिए दिमाग खाली भी तो करना था। बत्तीस की हो चली थी मैं। मां शादी के लिए कहती, तो हंस देती। मन तैयार नहीं था। फिलहाल तो काम ही रास आ रहा था।

मां ने फिर से राग छेड़ा, ‘पूर्णा, कोई तो होगा तेरे लायक? शादी क्यों नहीं कर लेती? ’

इस बार मैंने गंभीरता से कहा, ‘ठीक है, तुम ही देख लो। ’

मां खुश, उन्हें एक काम मिल गया। इस बीच मुझे मुंबई जाना पड़ा एक सेमिनार के लिए। मां ने एक नाम और पता पकड़ा दिया कि यह शख्स तुमसे मिलेगा। अपने होटल के कमरे में मत बुलाना। रेस्तरां में मिलना। ठीक से बात करना। डॉक्टर है।

मैंने हामी भर दी। सोचा कि मिल भी लूंगी, एक शाम ठीक कट जाएगी।

सेमिनार वाले दिन सुबह ही डॉक्टर विश्वास का फोन आ गया। शाम को होटल के ही कॉफी शॉप में मिलना तय हुआ।

शाम तक थक गई। मन हुआ उसे मना कर दूं। पर वह समय से पहले आ पहुंचा। हम कॉफी शॉप छोड़ कर बार में आ बैठे।

वाइन की चुस्की और फिश फिंगर के बीच बातचीत शुरू हुई। खत्म होने का नाम ही नहीं लिया। तय हुआ कि अगले दिन लंच पर मिलेंगे। सेमिनार एक बजे खत्म हुआ। दो बजे हम मिले।

शाम तक गपशप की। रात को डिनर रख हम साथ रहे। जाते-जाते उसने पूछा, ‘कल घर पर एक छोटा सा गेट-टुगेदर रख लूं? अपने दोस्तों से तुम्हें मिलाना चाहता हूं।’

मैंने हां कह दिया। शाम को विश्वास मुझे लेने होटल आ गया। मैं हमेशा की तरह जीन्स और कुर्ते में तैयार थी। बस, चेहरे पर हल्का सा मेकअप था।

विश्वास के घर पर ठीक सी भीड़ थी। वह अपने दोस्तों से मिलवा रहा था। डॉ रूपा और उनके पति डॉ अवनीश। मीरा भाटिया फिल्में बनाती हैं। ये हैं इनके पार्टनर फिलिप्स। प्रोफेसर मोहसिन और उनकी पार्टनर...

मोहसिन सत्तर के आसपास पहुंचे हुए थे। सफेद बाल, दाढ़ी, चेहरे पर झुर्रियां और उनकी पार्टनर लंबी, तन्वी सी... सौम्या…

क्या यह सौम्या थी? वह खोई-खोई सी थी। मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा, ‘सौम्या, मैं पूर्णा... हम भोपाल में साथ में पढ़ते थे।’

उसके चेहरे पर अजीब से भाव आए। उसने धीरे से सिर हिलाया। विश्वास मुझे आगे ले गया। मैं पीछे मुड़ कर उसे देखती रही। वह बार काउंटर में पहुंच गई थी और अपने लिए बड़ा सा जाम भर रही थी।

मैं सबसे मिलने के बाद एक बार फिर सौम्या के पास आ गई। उसने अबकि औपचारिक होते हुए कहा, ‘विश्वास और तुम्हारे लिए मुझे बड़ी खुशी है। अच्छी जोड़ी रहेगी तुम दोनों की।’

मैं जरा रुक कर बोली, ‘सौम्या, पिछली बार जब तुम्हें दिल्ली में देखा था, तो बात नहीं कर पाई थी। तुम मुंबई में कब से हो?’

उसने मेरी तरफ देखा, उसकी आंखों में खालीपन था। लगा कि इस तरह उसे कई बार देखा है। हां, स्कूल में जब पहली बार मिली थी, तब भी ऐसी ही नजरें थी उसकी।

सौम्या ने सोच कर कहा, ‘कई साल हो गए। इट्स ए कूल प्लेस,’ और वह अपना जाम उठा कर मोहसिन के पास चल दी।

कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं किसी और को सौम्या समझ रही हूं? पर थी तो वही, बाईं गाल पर बड़ा सा काला तिल, वही बादामी आंखें। मैं पहचानने में गलती नहीं कर सकती।

खाने-पीने का दौर चला। मेरी नजरें सौम्या से हट नहीं रही थीं। अचानक सौम्या जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई। विश्वास तुरंत पहुंच गया। डॉक्टर था, उसे पता था कि क्या करना है।

सौम्या को बेडरूम ले जा कर विश्वास ने उसे दवाई दी। बाहर आ कर कहा, ‘स्ट्रेस है। डिहाइड्रेशन हो गया है। इसलिए तो मैं सभी यंग और खूबसूरत लड़कियों से कहता रहता हूं कि शराब के अलावा पानी भी पिया करो।’

दो-तीन लोग हलके से हंसे। धीरे-धीरे मेहमानों ने विदा लेना शुरू किया। बस मोहसिन और सौम्या रह गए। सौम्या को होश आ गया था, पर कमजोरी थी। विश्वास ने कहा कि मोहसिन और वो यहीं रह जाए। घर जा कर कहीं तबीयत और बिगड़ ना जाए।

विश्वास हम सबके लिए ब्लैक कॉफी बना लाया। मोहसिन परेशान लग रहे थे।

मैंने पूछ लिया, ‘आप सौम्या को कितने समय से जानते हैं?’

वे चौंके, फिर अनमने भाव से कहा, ‘यही कोई छह महीने से।’

मैंने रुक कर कहा, ‘एक समय में मैं और सौम्या एक ही क्लास में पढ़ते थे, दोस्ती भी थी, फिर किसी छोटी सी बात पर लड़ाई हो गई, बस... ’

मोहसिन पता नहीं क्या सोचने लगे। बड़ी देर बाद पूछा, ‘सौम्या से मुझे शिकायत नहीं है। मैं उसे ले कर परेशान रहता हूं। जो बच्चियां बचपन में एब्यूस का शिकार होती हैं, कई तरह के कॉम्पलेक्स होते हैं उनके अंदर।’

मैं चौंकी, ‘बचपन में कुछ हुआ था उसके साथ? ’

‘उसने पूरी बात नहीं बताई। टुकड़ों-टुकड़ों में बताई है कभी-कभी। वह गोद ली बच्ची थी। मां जब तक रही, ठीक ठाक परवरिश हुई उसकी। पर शायद दस या ग्यारह साल की थी, जब मां गुजर गई। इसके बाद एक बड़े परिवार में उसे कभी वो दर्जा नहीं मिला, जो एक बच्चे को मिलना चाहिए। जिसे वह पापा कहती थी, उसने ही... ’

मैं अंदर तक सुलगने लगी। मेरी आंखों के आगे बारह-तेरह साल की, आठवीं में मेरे साथ पढऩे वाली सौम्या आ गई। मुझे लगा मेरे अंदर कुछ टूटने सा लगा है। उसकी आंखों में वो खालीपन, उसका दुनिया से बेखबर रहना, उसका मुझे अपने घर के अंदर ना बुलाना, किसी दोस्त को अपने परिवार वालों से ना मिलाना, अपने परिवार की सुख-समृद्धि से असंपृक्त रहना...

मेरे दिमाग में फ्लैश सा होने लगा। आज कितना आसान लग रहा है सबकुछ समझना। और उस समय शायद मैंने उसकी पहले से दुरूह जिंदगी को और भी पेचीदा बना दिया था।

मैं काफी खत्म कर उठी। कप किचन में रखने के बहाने बैडरूम का दरवाजा खोल बिस्तर पर सोई सौम्या को देखने लगी। उस वक्त उसके चेहरे पर किसी किस्म का मलाल नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। मैं धीरे से उसके पास गई, उसके ठीक से चादर उढ़ा दिया और उसका हाथ थाम कर वहीं बैठ गई।

मोहसिन और विश्वास भी कमरे में आ गए। मोहसिन को देख मैं उठ गई। मोहसिन ने मुझे बैठने का इशारा किया और धीरे से फुसफुसाहटों में बोले, ‘मैडम, विश्वास बता रहा था कि आप एक नामी साइकॉलोजिस्ट है। आप उससे बात करेंगी? आप तो रोज ऐसे कई पेशेंट का इलाज करती होंगी? ’

मैंने सिर हिलाया, ‘सौम्या को आप बैंगलोर ले आइए। मेरे घर में रहेगी। आप चिंता ना करें, अब उसकी गुत्थियों को सुलझाना मेरी जिम्मेदारी है।’

मोहसिन के चेहरे से लगा कि उनके सिर से कोई भार उतर गया हो।

...

बैंगलोर से मुंबई आने के बाद अगले दिन सुबह-सुबह विश्वास का फोन आ गया। वो जैसे यह खबर सुनाने को बेताब थे, ‘सौम्या और मोहसिन का झगड़ा हो गया है। सौम्या ने मोहसिन से यहां तक कह दिया कि वह उनमें अपने गोद लिए पिता की झलक देखती है। अब उनके साथ नहीं रहना चाहती। मुझसे मिलने आई थी कल रात। तुम्हारे नाम एक पैकेट दे गई है कि जल्द से जल्द तुम तक पहुंचा दूं। मैं वैसे भी नैक्सट वीक आ रहा हूं बैंगलोर तुम्हारी फैमिली से मिलने, लेता आऊंगा।’

‘कहां चली गई सौम्या?’

‘नो आयडिया… तुम्हारी फ्रेंड है, तुम्हें पता होगा…’

मैं उत्सुक थी यह जानने को... क्या छोड़ कर गई है सौम्या मेरे लिए? इससे अच्छा होता कि हम आमने-सामने बैठते, कुछ वो कहती, कुछ मैं। शनिवार को विश्वास को आना था। उसने एयरपोर्ट से फोन किया, मुझे लगा वो टेक ऑफ की सूचना दे रहा है। पर वो तो थोड़ा तनाव में था, ‘पूर्णा, मुझे पता नहीं था कि तुम्हारी फ्रेंड तुम्हारे लिए गिफ्ट में एक पिस्तौल भेजेगी। सामान की चैकिंग हुई, तो उस लिफाफे में से एक पुरानी पिस्तौल निकली। पुलिस की पूछताछ चल रही है। साथ में एक लेटर भी है। शायद उससे कुछ क्लू मिले।’

विश्वास की आवाज कांप रही थी। उसने बताया कि उसने मोहसिन को भी वहां बुलवा लिया है। पुलिस की इन्क्वायरी होने के बाद वह फ्लाइट बोर्ड करेगा।

आधे घंटे बाद विश्वास का फोन आ गया कि जांच पूरी हो गई। पुलिस ने पिस्तौल अपने कब्जे में कर लिया है और वह रात की फ्लाइट से बैंगलोर आ रहा है।

रात साढ़े बारह बजे उसकी फ्लाइट लैंड हुई। मैं पिताजी के साथ उसे लेने एयरपोर्ट पहुंची। वह कुछ बदहवास सा लगा। मुझसे मिलते ही फिर से कहा, ‘तुम्हारी दोस्त से मेरा पुलंदा बंधवाने का पूरा इंतजाम कर रखा था। ऐसे दोस्त हैं तुम्हारे?’

मैंने कहना चाहा—दोस्त कहां थी वो मेरी? हां, बनाना जरूर चाहती थी। बचपन में कुछ वक्त हमने साथ बिताए थे। जिंदगी के इस मोड़ पर शायद वह मेरे साथ कुछ बांटना चाहती थी।

होटल में उसका कमरा बुक था। उसे अपनी गाड़ी से छोडऩे गए। होटल पहुंचते ही उसने कहा, ‘रात बहुत हो गई है। मैं आराम करना चाहता हूं। कल मिलेंगे।’

दरवाजा खोल वह बाहर निकला। मैं और पापा भी निकले। वह आगे बढ़ गया रूम चैक करवाने। उस एक क्षण में मुझे वह निहायत आत्मकेंद्रित व्यक्ति लगा। इस व्यक्ति के साथ मेरा लंबा चलना मुमकिन नहीं लग रहा।

मैंने पीछे से पुकारा, ‘मिस्टर विश्वास, मुझे मेरी दोस्त का पैकेट दे दें। अगर आपको आपत्ति ना हो तो?’

विश्वास चिंहुक कर पीछे मुड़ा, उसने अपना किटबैग खोल कर एक फटा हुआ पैकेट मुझे थमा दिया और इस बार कुछ रूखे स्वर में बोला, ‘मैडम, आप दूर रखिए अपने ऐसे दोस्तों से मुझे।’

मैं हलका सा मुस्करा कर पलट कर होटल से बाहर आ गई। पापा गाड़ी के पास खड़े थे। ड्राइवर ने तुरंत गाड़ी स्टार्ट कर दिया।

पापा को सोने भेज कर मैंने अपने लिए बड़े कप में चाय बनाया और बालकनी में आ गई। झूले पर बैठ कर मैंने छोटा लैंप जला लिया। सौम्या का भेजा पैकेट हाथ में था। पीले रंग का लिफाफा। बुरी तरह खोला गया। गुस्से में। मैंने हलके से लिफाफे पर हाथ फेरा। अंदर से कुछ कपड़ा सा झांक रहा था—ओह, वही पर्स... सिल्क का पर्स, जो अपनी अंतिम अवस्था में था। पर्स के नीचे कुछ पन्ने। बड़े-बड़े अक्षरों में सौम्या ने लिखा था—

मेरी मुक्ति का दिन आ गया है...जीने की वजह नहीं रही। जिस वजह, गुस्से और सीने में धधकते आग के साथ जी रही थी, वह मर गया।

तुम्हें समझ नहीं आ रहा होगा कि मैं क्या कह रही हूं और तुमसे क्यों कह रही हूं। पर लगता है कि अगर मुझे कोई समझ पाएगा तो वो तुम ही होगी।

कल रात तुम्हारे घर आने से पहले मुझे पता चला कि मेरा पिता मर गया है। पिछले तीन साल से वह मुंबई में था, कैंसर हो गया था उसे। दरअसल उसे मरना तो मेरे हाथों था...

मैंने बहुत पहले तय कर लिया था...शायद जब मैं ग्यारह साल की थी। मम्मी के मरने के बाद ही। उस आदमी ने मुझे पहले भी कभी अपनी बेटी नहीं माना था। मम्मी बचा कर रखती थी मुझे। मेरे ग्यारहवें जन्मदिन पर उस आदमी ने कहा कि वह मुझे कोई बहुत बड़ा तोहफा देने जा रहा है। उसने मुझे ऐसा तोहफा दिया कि तोहफों के नाम से नफरत हो गई। रातें मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर होती थीं। घर में सबको पता था, पर कोई कुछ कहता नहीं था। एक अनाथ बच्ची को रहने-खाने की जगह दे रहे थे, क्या यह कम था?

मैं घर से भाग गई। उस राक्षस से बचने के लिए। मैं अपने आप से भागती रही। ड्रग एडिक्ट बन गई। कॉर्ल गर्ल बन गई। मौका ढूंढ़ती रही कि जिंदगी में एक बार जब वो मेरे सामने आएगा, तो मैं उसे ऐसी मौत दूंगी कि...

उसी के पीछे-पीछे मैं नेपाल से दिल्ली, दिल्ली से गोआ और फिर मुंबई आ गई। मोहसिन के साथ रहना मेरे लिए मुफीद था क्योंकि सेक्स में उसकी रुचि नहीं थी।

मेरे रहने का प्रयोजन खत्म हो गया। वो मर गया। मैंने बहुत पहले नेपाल में उसे मारने के लिए एक पिस्तौल खरीदी थी। इसमें गोली है भी या नहीं, मुझे नहीं पता। तुम प्लीज इस पिस्तौल को और और मेरे सबसे प्यारे तोहफे को किसी नदी में बहा देना। एक तुम्हारा ही दिया तोहफा था, जिसमें से मुझे कभी किसी स्वार्थ की बू नहीं आई। सच कहूं, तो मां के पास बिलकुल ऐसी सिल्क की साड़ी थी, जो मुझे बहुत पसंद थी। इसमें मुझे मां की खुशबू आती थी।

पता नहीं तुम मेरी क्या हो? मुझे समझने की कोशिश मत करना। पर इस समय मैं और किसी से यह नहीं कह सकती थी--- मैं मुक्त हुई!

मेरे हाथ से पन्ने फडफ़ड़ा कर उड़ने लगे। मैंने पकडऩे की कोशिश नहीं की। सौम्या को मुक्ति चाहिए थी... उसे मुक्त होना ही था!

***