कहानी - साँझ का साथी
-पापा, यह क्या किया आपने ? इतना बड़ा धोखा, वह भी अपने बच्चों के साथ क्यों किया आपने ऐसा? आख़िर क्या कमी थी हमारे प्यार में, हमारी देखभाल में, जो आपने ऐसा कदम उठा लिया ? एक ही पल में सारे रिश्तो को भुला दिया ? चकनाचूर कर दिया उन सारी यादों को, उन सारी बातों को, जिन्हें याद करके हम खुशी से पागल हुआ करते थे। गर्व किया करते थे अपने पापा पर, कि हमारे पापा दुनिया के बेस्ट पापा हैं जिन्होंने कभी भी हमारी किसी भी बात को नहीं टाला जो मुंह से निकला फौरन लाकर दिया।
मुझे याद है, आज भी बचपन के वो दिन, जब हम स्कूल जाया करते थे और अक्सर ही हम लेट ना हो जाएं हो, आप अपने हाथों से एक-एक निवाला खिलाया करते थे। कभी कहानी सुना -सुना कर, कभी बहला-फुसलाकर कर, और हम बहकावे में आकर खा लिया करते थे। पता तब चलता था जब सारा खाना खत्म हो जाता था और आप जीत की खुशी से मुस्कुराते थे। कितना प्यार लुटाते थे हम भाई बहनों पर आप ?
आपका सारा प्यार हमारा था पापा। मां भी कितना खुश होती थी हमें खुश देखकर। याद है आपको, जब एक बार मुझे तेज बुखार आया था तो आपने ही मेरे माथे पर पट्टियां रखी थी और मैंने आपका हाथ सारी रात नहीं छोड़ा था।
लेकिन आपने एक ही पल में सब कुछ खत्म कर दिया। मां के साथ भी विश्वासघात किया है आपने। धोखा किया है। एक बार भी नहीं सोचा कि मां को गुजरे हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ। जब -तब उसकी यादें आंखों के सामने उभरती रहती हैं। उसकी खुशबू, उसकी चूड़ी की खनक, आज भी कमरे से आती होगी। उसके हाथों का स्पर्श आज भी आपके कपड़ों में होगा। घर के हर सामान में होगा। कितना प्यार करती थी वह हम सब को ।
उस की अलमारी को खोल कर तो देखिए। उसकी साड़ियों के बीच में कुछ रुपए छुपे हुए जरूर मिलेंगे। जिनको उसने संभाल कर रखा था। उस समय के लिए जब आपका जन्मदिन हो या कोई जरूरत पड़े तो वह चुपके से, आपकी जरूरत का सामान ला सके और उपहार पाने के बाद आपके चेहरे की खुशी को महसूस कर सके। वह हमेशा आपके साथ खड़ी रही हर सुख दुख में।
याद कीजिए, उस भयानक हादसे को जब आप कार एक्सीडेंट में बुरी तरह जख्मी हो गए थे और डॉक्टर ने भी हाथ पैर डाल दिए थे, तब मां का अटूट विश्वास था, कि वह आपको बचा लेगी और उसकी प्रार्थना और सेवा ने आपको बचा भी लिया। एक बोतल खून मामा जी ने और एक माँ ने दिया था इसके बावजूद भी वह दिन रात लगी रही, बिना थके, बिना किसी शिकायत के।
देखा जाए, तो दूसरा जीवन आपको मां ने ही दिया है। आप उसके ऋणि हैं पापा। फिर आप उसको धोखा कैसे कर सकते हैं? उसके प्यार को कैसे भुला सकते हैं?
जब वो दुनिया से विदा ले रही थी तो भी उसकी आँखें आप ही को तलाश रही थी और उसकी आखिरी शब्द आज भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं। उसने टूटी -फूटी आवाज में कहा था- 'दीप्ति अपने पापा का ख्याल रखना, वह मेरे बगैर नहीं रह पाएंगे।' यह कहते हुए उसने आखरी सांस भरी थी, और हम सब को रोता बिलखता छोड़ गई थी।
आप भी तो कठोर होने का बस नाटक ही तो कर रहे थे। कैसे बच्चों की तरह, मुझसे भी ज्यादा, फूट-फूट कर रोए थे। अब क्या हो गया पापा ? क्या वह रोना महज एक दिखावा भर था । मां के साथ बिताए हुए छब्बीस साल एक धोखा थे। जो आप मां को देते आ रहे थे। आप इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं? मां की यादों की यादों को कैसे भुला सकते हैं?
अब मेरी मां की साड़ियां को वो पहनती होगी। जिनसे मेरी मां की खुशबू अभी तक नहीं गई होगी। मां के करीने से सजाए किचन में वह चाय बनाती होगी और चाय के पतीले को यूंही छोड़ देती होगी। मां को कितनी चिढ़ थी, कि चाय का पतीला हाथ के हाथ साफ होना चाहिए। पूरा का पूरा घर मां की यादों से भरा है। कहां वह अपना घर बसायेगी। कैसे वह किसी और के पति और पिता को अपना कह सकेगी ?
पापा, रात को आसमान में देखना एक छोटा सा टिमटिमाता हुआ तारा नजर आएगा। तो ठीक अपनी छत के ऊपर ही होगा और हमेशा छत के ऊपर ही रहेगा। वो तारा नहीं है पापा, वह हमारी मां है, जो वहां से आपको देख रही है।
आंगन में रखे हुई तुलसी के पौधे पर कुछ ओस की बूंदें दिखाई देंगी वह सिर्फ बूंदे नहीं है। शायद मां के आंसू हैं। वो जरूर रोती होगी। क्योंकि रिश्तो के विश्वास की नींव अब दरक चुकी है।
पापा अब आप हमारे पापा नहीं हो, मेरे मां के पति भी नहीं, अब आप बस, उस औरत के पति हो सिर्फ उस औरत के पति।
अपनी माँ की बेटी
दीप्ती
अपने पापा को ई मेल कर दीप्ती फफक कर रो पड़ी।आज उसे अपनी माँ की बहुत याद आ रही थी। अपना ही घर पराया सा लगने लगा था। कैसे पैर रख पाऊँगी उस घर में मैं..? क्या बताऊँगी अपने दोस्तों को..? कैसे सामना करूँगी आपका ..?
उसे लग रहा था जैसे उसके पापा ने नही उसने ही कोई गुनाह किया हो..? तमाम सवालों में उलझी वो अन्दर ही अन्दर टूट रही थी।
शाम को कालेज से लौटते ही उसने लैपटाप खोला। पापा का जवाबी मेल आ चुका था, जिसे वो एक साँस में पढ़ती चली गयी।
मेरी बच्ची -
जैसा तू सोच रही है। ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं तेरा स्वार्थी पापा नहीं हूं, मैं आज भी तुम लोगों को बहुत प्यार करता हूं। बल्कि पहले से भी कहीं ज्यादा और हमेशा ही करता रहूंगा। तेरी मां यह जिम्मेदारी मुझे सौंप कर गई है, कि मैं उसके हिस्से का प्यार भी तुम दोनों को करूं ।
तेरी मां की कमी को कभी भी कोई भी पूरा नहीं कर सकता। उसकी प्रति जो प्रेम था मेरा, वह आज भी वैसा ही है, बस दिल के किसी कोने में कैद हो गया है ।मैं उसे बाहर ला भी नहीं सकता और ना ही दिखा सकता हूं। मैं पुराने और जर्जर वृक्ष की तरह अकेला खड़ा हूं, एक ऐसा वृक्ष जो फल तो देता है मगर उसके आसपास कोई भी पौधा नहीं पनपता।
तुझे याद है छ: महीने पहले जब मुझे हार्ट अटैक आया था। तो तूने ही यहां आकर कितनी सेवा की थी और आनन-फानन में संजू की शादी भी करवा दी थी। यही सोचकर कि, घर फिर से बस जाएगा। घर में बहू आएगी। बच्चे होंगे तो मेरा भी मन लगा रहेगा। पर तुझे याद है। मैंने कितना मना किया था कि संजू की शादी मत करवा अभी संजू बिगड़ गया है। बुरी आदतों का शिकार हो गया है। रोज शराब पीकर घर आता है और अब तो जुआ भी खेलने लगा है। पर तू नहीं मानी। तूने सोचा परिवार की जिम्मेदारी पड़ेगी। पत्नी आएगी। तो वह सुधर जाएगा पर यह तेरी भूल थी बेटा बहुत बड़ी भूल। वह पत्नी के आते ही सवा सेर हो गया यह तो तू जानती ही है कि शादी के एक महीने बाद ही वह अलग हो गया था। घर का सारा कीमती सामान लेकर वह दरियागंज वाले मकान में शिफ्ट हो गया ।अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों में इतना व्यस्त हो गया कि उसके बाद उसने कभी आकर भी नहीं झाँका कि- मैं मरा हूं या जिंदा हूं।
बस एक बार आया था कार की चाबी और कुछ जरूरी पेपर लेकर चला गया। जाते-जाते यह कह कर गया था- कि उसके हिस्से का पैसा मैं जल्दी ही दे दूं जिसकी उसको बहुत जरूरत है।
बड़े ही रूखे और सपाट स्वर में उसने कहा था कि- 'आप को बुढापे में दो रोटी ही तो चाहिए मिल जाएंगी।'
मैं उसके पीछे -पीछे दौड़ा था गाड़ी के पीछे भी, पर वह नहीं रुका चला गया। मुझे कुछ कपड़े, बर्तन और पुराने फर्नीचर के साथ छोड़कर।
जिंदा रहने के लिए दो रोटी ही काफी नहीं होती बेटा। मुझे खाने और पैसे की कोई कमी नहीं थी। पर कोई अपना नहीं था। कोई पास नहीं था। कोई बोलने वाला नहीं था।
यहां तक कि कमलाबाई जो बरसों से खाना बना रही है आज भी बनाती है। पर अब मैं उससे बात करते हुए डरता हूं। ना जाने कब वह मुझे गलत समझ बैठे। वैसे भी कई बार कह चुकी है- बाबूजी कोई दूसरी काम वाली देख लो अब मुझे आना अच्छा नहीं लगता मेरा मरद कहता है कि -'जहां औरत नहीं वहां तू काम नहीं करेगी।'
पूरी दुनिया ही जैसे बदल गई थी। घर की दीवारें भी मुंह चिढ़ाने लगी थी। खाली समय काटे नहीं कटता था। चौबे जी के साथ पार्क में घंटे दो घंटे कट जाते थे। पर एक दिन वह भी कहने लगे- "पत्नी नाराज होती है। पोते को होमवर्क कराना होता है।" मैं ही भूल गया था कि खाली तो बस मैं ही हूं बाकी सब तो परिवार वाले हैं।
पर मैं क्या करूं? कहां जाऊं? और कितनी देर ?चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नजर आने लगा था।
उस रात जब मैं जब मैं टिमटिमाते तारे में पुष्पा को देख रहा था। तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। कुछ उसने अपनी कही, कुछ मेरी सुनी। इस कहासुनी में आधी रात कब निकल गई पता ही नहीं लगा।
बूढ़ी हड्डियां और जाड़ो की ओस, बुखार ने तेजी पकड़ ली। मैं पूरी रात लान में झूले पर पड़ा रहा। सुबह जब घनश्याम सफाई करने आया तो देखकर घबरा गया। उसने मुझे अंदर लिटाया। और तुझे और संजू को फोन किया था। संजू आया उसने मुझे डॉक्टर को दिखाया और कुछ फल, दवाऐं रख कर चला गया। जिसे मैं छू भी ना सका। छूता भी कैसे? मुझे उसकी जरूरत थी ही नहीं।
तू फोन पर परेशान हो गई थी और तूने कहा था-" पापा आप अपना ख्याल रखना। दवाई लेते रहना। कमलाबाई से दलिया बनवा लेना। मैं पुणे से कैसे आ पाऊंगी ?फाइनल इग्साम में एक महीना ही बचा है। आप हिम्मत से काम लो मैं आपको फोन करती रहूंगी।
पर अब हिम्मत मुझ में नहीं बची थी। कहां से लाता हिम्मत? एक तो बीमारी और दूसरा अकेलापन जो हरदम मुझे काटता रहता था। हार्ट अटैक के बाद से दिल बहुत घबराता था।
घर की हर चीज में पुष्पा की यादें बसी थी। मैंने उससे बातें करने को जी करता था। मैं उसे ढूंढता तो झट से सामने आकर खड़ी हो जाती, और समझाती थी कि- "तुम अपना ख्याल रखो तुम्हें मेरी कसम तुम्हें अभी जीना है अपने बच्चों के लिए।"
और फिर, मैं मरता भी कैसे? यह इतना आसान नहीं था। तभी मेरी मुलाकात सुमित्रा से हुई। उसे भी एक साथी की जरूरत थी और मुझे भी। वह भी बरसों से अकेली रह रही थी और मैं भी अकेलेपन से घुटने लगा था। इसलिए हमने साथ रहने का फैसला किया। एक दूसरे के सुख -दुख बांटने का फैसला किया। सात फेरे समाज के लिए जरूरी थे, वह भी हमने ले लिए।
पर वह तेरी मां की जगह कभी नहीं ले सकती और ना ही मेरी पत्नी बन सकती है। बस अब मैं खाली दीवारों से बातें नहीं करता। अब घर में एक और इंसान है, जो सांस लेता है। जिसके चलने की आवाज सन्नाटे के एहसास को खत्म करती है। दोपहर को हम दोनों लूडो खेलते हैं और शाम को काफी देर पार्क में बैठते हैं। जब चौबे जी चले जाते हैं उसके बाद भी। वह मेरा ख्याल रखती है। दोनो टाइम दवा अपने हाथ से देती है। मैं रात में गुनगुने पानी में नमक डालकर देता हूं, ताकि वह पैरों की सिकाई कर सके। काफी समय से उसके पैरों में सूजन है जो जाती ही नहीं। जब मैं पुष्पा को याद करके रोता हूं, तो वह आंसू पोछ
कर चुपाती है। अब उसे भी अकेलेपन से डर नहीं लगता। मेरी तरह वह भी खुद को सुरक्षित महसूस करती है। कहती है- "जब मरूंगी तो लावारिस की तरह नहीं मारूंगी।"
वह चाय का पतीला धोकर ही रखती है ।कमलाबाई भी अब काम छोड़ने को नहीं कहती। वो खाली समय में एक स्वेटर बनाती है, जब मैंने पूछा-" यह किसका स्वेटर है?" तो हंस कर कहने लगी -"दीप्ति के लिये पौंचू बना रही हूँ।"
उसके इस जवाब से मुझे आत्म संतुष्टि सी मिली है। फिर भी वह तेरी मां नहीं है। मेरी पत्नी भी नहीं है। उसके साथ मेरा अलग सा रिश्ता बन चुका है। वह है बस, मेरी साँझ का साथी और मैं उसका।
तेरा पापा
पापा मुझे माफ कर दीजिए। मैं आपकी अच्छी बेटी नहीं बन पाई जब से आपका मेल मिला है। मैं बहुत शर्मिंदा हूं। रात भर सो नहीं पाई हूं। मैंने कभी अपनी खुशहाल जिंदगी में रहते हुए कल्पना भी नहीं की, कि आप उस अकेलेपन में कैसे जीते होंगे? पहाड़ सा दिन और सुनसान घर की रातें कैसे काटते होंगे? हमने चिंता की तो बस आपके खाने की और आपकी बीमारी की। इससे ऊपर हमारी सोच कभी गई ही नहीं थी। धिक्कार है मुझे अपने आप पर, पर अब मैंने कुछ सोचा है। कल मैं पहली फ्लाइट से दिल्ली आ रही हूं। अपनी मां से मिलने और आपकी रजिस्टर्ड मैरिज करवाने, आपको आपकी पत्नी और खुद को अपनी माँ देने।
आपकी बेटी दीप्ती..................
छाया अग्रवाल
बरेली