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कुबेर - 19

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

19

भाईजी के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलते उसे लगा कि किसी काल्पनिक जगह में आ गया हो। ऐसे शानदार ऑफिस की कोई छवि उसके दिमाग़ में बिल्कुल नहीं थी। इमारत की भव्यता काम और कारोबार की भव्यता के बारे में ख़ुद-ब-ख़ुद बोल रही थी। लिफ़्ट की अपनी एक आकर्षक शैली थी जिसमें शीशों की चमक के साथ सवार होने वालों के चेहरे, जूते और कपड़े भी दमक रहे थे।

सत्रहवीं मंज़िल पर जिस ऑफिस में वे घुसे थे वहाँ एक नंबर प्लेट लगी थी कंपनी के नाम के साथ - “77 होम रियलिटी इंक” नाम तो ठीक था लेकिन 77 क्या था।

“भाईजी 77 में कोई ख़ास बात है क्या?”

“हाँ डीपी, बहुत ख़ास बात है।” जॉन के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी।

“अच्छा!”

जॉन ने बताया – “जब मैं यहाँ पहली बार आया था तो मेरी जेब में सिर्फ़ 77 डॉलर थे, तब से मुझे यह नंबर बहुत प्रिय है जो अब बिज़नेस में मल्टीप्लाय करने का प्रतीक हो गया है।”

भाईजी के इस अंकों के गणित ने बहुत कुछ कह दिया डीपी को।

इस नए दफ़्तर में डीपी का यह पहला दिन था। कोई औपचारिक काम नहीं था उसके ज़िम्मे। फिलहाल तो – “काम देखो, समझो और सीखो” यही गुरूमंत्र था जॉन का। हाँ, यहाँ जॉन को सभी कर्मचारी जॉन ही कहते थे, कोई किसी को “सर” नहीं कह रहा था। उसके लिए यह समझ पाना मुश्किल था कि कौन अधिकारी है और कौन बाबू। उसे कोई चपरासी किस्म का कर्मचारी भी नहीं दिखा। - “यहाँ कोई चपरासी नहीं होता, सब अपना-अपना काम खुद करते हैं। एक दूसरे को नाम से ही बुलाते हैं।”

“मैं आपको नाम से नहीं बुला पाऊँगा, भाईजी ही कहूँ तो?” उसके लिए जॉन को जॉन कहना मुश्किल था, भाईजी के नाम से तो पहले ही पुकारने लगा था।

“तुम जो भी कहना चाहो, कह सकते हो।”

बरसों से चल रहे जॉन के ऑफिस में डीपी के लिए सब कुछ नया था। रियल इस्टेट के इस ऑफिस में कई अलग-अलग देशों के लोग थे काम करने के लिए। मुख्यत: मैक्सिको, स्पेन, भारत, ईरान, चीन, हांगकांग, कोरिया, कैनेडा, रशिया, आदि कई देशों के लोग थे। उससे व्यापार में ग्राहकों की कमी नहीं होती, भाषा की भी समस्याएँ नहीं होतीं। हर देश की भाषा, संस्कृति और सोच को समझने वाले लोगों के काम करने से वातावरण हल्का-फुल्का रहता।

लंच तक के समय में डीपी स्टाफ के कई लोगों से मिल चुका था। हर कोई अपने काम में इस तरह व्यस्त था कि औपचारिक ‘हाय-हलो’ के बाद फिर से अपने काम में लग जाता। कुछ लोग अपने काम से विराम लेकर उसका हालचाल पूछते तो कुछ उसके साथ थोड़ा समय बिताते, कुछ ज़रूरी बातों का जिक्र करके चले जाते। आज प्रशिक्षण के तौर पर डीपी ने सिर्फ़ फ़ोन कॉल ही रिसीव किए, संदेश देना और संदेश लेना। धीरे-धीरे यहाँ की औपचारिक बातचीत की तकनीक और तहज़ीब सीखने लगा था वह।

आसपास बने केबिनों में एजेंट और ग्राहक की मीटिंग होती थी। दोनों पक्ष अपने-अपने एजेंट के साथ होते और सौदे पर चर्चा होती, समझौते होते। भाव कम-ज़्यादा करने का दबाव बना रहता। बेचने वाला अपनी प्रॉपर्टी की खासियत बताता तो वहीं ख़रीदने वाला इसकी कमियों को गिनाकर क़ीमत कम करने पर ज़ोर डालता। केबिन से बाहर आकर एक दूसरे को संदेश देते एजेंट, कानाफूसी करते। ग्राहक का नज़रिया पहचानने की कोशिश करते, तेल देखते और तेल की धार देखते। जब लगता कि सौदा हाथ से जा रहा है, उनका कमीशन खिसक रहा है तो अपनी फीस कम करके सौदा करने का दबाव डालते। कई बार इस चतुराई से सौदा हो भी जाता। इस तरह लेने वाले और बेचने वाले ग्राहक के पास भी अपना समय होता सुनिश्चित करने के लिए कि सौदा उनके पक्ष में हो रहा है या नहीं।

सारी तिकड़मबाजी जो अलग-अलग बने केबिनों में होती थी वह डीपी को समझ में आ रही थी। कभी-कभी वह उतावला हो कर अपनी सलाह देने को उत्सुक हो जाता तो उसे जॉन की समझाइश याद आ जाती – “तुम्हें सिर्फ़ देखना है, कोई प्रश्न हो तो प्रश्न नोट कर लेना है। किसी के काम में दखल देने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ कोई किसी को सलाह नहीं देता। सब अपने काम से काम रखते हैं।”

एक एजेंट से दूसरे एजेंट की बातें, अपने-अपने ग्राहक को समझाने की ख़ास शैली जो हर स्थिति में ग्राहक का फ़ायदा बताती थी। हर बात, हर प्रस्तुति, सब कुछ उसके दिमाग़ में बैठ रही थी। कई कलाओं के बारे में तो पढ़ा था उसने, लेखन कला, शिल्प कला, चित्र कला, पाक कला। न्यूयॉर्क शहर के इस ऑफिस में बैठकर इन सब कलाओं से ऊपर सौदाई कला अपनी जगह बना रही थी। अपने उत्पाद को बेचने की ऐसी कला जो हर शख़्स में नहीं हो सकती। अमीरी को क़रीब लाने की या यों कहें कि अधिक से अधिक सौदे पूर्ण करने में बातचीत की कला थी जो बाकी सब कलाओं से ऊपर अपना स्थान बनाती अपने व्यवसाय की कला को आगे होने देती थी।

यह सौदाई कला धीरे-धीरे नंबर बढ़ाती गयी। जिस तरह से एजेंट की बातें होती थीं उसके अपने क्लाइंट से तो उसे लगता था कि क्लाइंट संतुष्ट नहीं है। चेहरे के भाव जताते थे कि कुछ समझना-समझाना मुश्किल हो रहा है। उसे लगता था कि यह काम तो वह आसानी से कर सकता है। किसी भी सैद्धांतिक समीकरण को सरल बनाकर उसे अपने शब्दों में समझाने के हुनर में वह माहिर था। जीवन-ज्योत के रविवार इस बात के साक्षी थे कि उसने कितनी जल्दी अपनी सरल बातों से श्रोताओं के दिल में जगह बना ली थी।

रिसेप्शनिस्ट की मेज़ पर बैठे-बैठे, सीधा-सरल काम करते-करते वह बेचैन हो रहा था कुछ ऐसा करने के लिए जो इन एजेंटों के बस का नहीं दिख रहा था। भाईजी जॉन उससे कम से कम पंद्रह साल बड़े तो होंगे ही, वह अपनी अनुमानित उम्र के अनुसार सत्ताईस-अट्ठाईस का होगा। इस समय उम्र के गणित में न पड़कर, उसे भाईजी जॉन को बताना ही होगा कि इन एजेंटों की भाषा में सुधार की काफी गुंजाइश है। ये अपने काम को बस कर रहे हैं इनके काम की कला को तराशना ज़रूरी है। उसने देखा है सौदों की कमान को हाथों से फिसलते हुए, असंतुष्ट ग्राहकों को ऑफिस से निकलते हुए।

रहा नहीं गया डीपी से, इस बात का जिक्र जब उसने भाईजी जॉन से किया तो जॉन ने कहा – “सब धीरे-धीरे सीख जाते हैं। एक दो असफल सौदों के बाद उन्हें फिर से प्रशिक्षित किया जाता है कि कहाँ ग़लती हुई है। कोई भी निष्कर्ष इतनी जल्दी निकालना ठीक नहीं। इन लोगों ने यहाँ के रियल इस्टेट के संबंध में विशिष्ट पढ़ाई की है। पेशेवर एजेंट होने का लायसेंस प्राप्त किया है। बातचीत करना और मीठी-मीठी जानकारी देना अलग बात है और क़ानून के दायरे में रह कर सही-सही जानकारी देना अलग बात है।”

“फिर भी भाईजी, मुझे लगता है कि मैं इस काम को ज़्यादा अच्छी तरह कर सकता हूँ, उन्हें समझाने का बेहतर तरीका हो सकता है।” जॉन को अच्छा लगा डीपी का यह जुड़ाव, यह सुझाव, यह विश्वास और यह तुलनात्मक दृष्टिकोण।

“उन्हें समझाने का काम करने के बजाय तुम एजेंट ही क्यों न बन जाओ।” वैसे भी ऑफिस के कुछ ज़रूरी कामों के लिए आज हम इमीग्रेशन अटॉर्नी के दफ़्तर जा रहे हैं। ये सुप्रसिद्ध वकीलों की टीम है। हमारे विभाग प्रमुख भी साथ रहेंगे। तुम्हारे विज़िटर वीज़ा को यहाँ पर काम करने के वीज़ा में बदलवा लेंगे।”

वह अपलक देखता रहा भाईजी को जो एक देवदूत की तरह हर बार उसे रास्ता दिखा रहे थे। दीपक तले अंधेरा होता है। ख़ुद कभी अपनी ताक़त को पहचान नहीं पाता इंसान जब तक कोई मसीहा आकर रास्ता न दिखा दे। सही रास्ता दिखाने वाला पथ प्रदर्शक ही नहीं होता, दिशा को बदलने का संकेत देता है जो एक मोड़ पर आकर जीवन दिशा को बदलने की ताक़त रखता है। ‘हाँ’ भी नहीं कह पाया डीपी और ‘ना’ भी नहीं कह पाया। जो देखा था, सुना था व समझा था तो लगा था कि वह कहीं बेहतर है उनसे। आत्मविश्वास था शायद इसीलिए मौन स्वीकार्य था।

“मुझे क्या करना होगा भाईजी”

“तुम्हें कुछ नहीं करना है। कागज़ात बनवाने की नयी प्रक्रिया शुरू करने के लिए जो कुछ करना है वकील साहब को करना है। तुम्हें तो सिर्फ इंटरव्यू देना है।”

“इंटरव्यू?”

“कुछ सवाल होंगे उनके, कठोर भी हो सकते है। जो तुम्हें अच्छा लगे वही जवाब देना, डरने की ज़रूरत नहीं है।”

किसी तरह का डर था भी नहीं उसे। जो है वह खुली किताब है। यहाँ रुकने के जो कारण हैं किसी से छुपाने की आवश्यकता भी नहीं है। सच कहने के लिए किसी तैयारी की कोई ज़रूरत भी नहीं होती। सारे कागज़ात लेकर वकील के ऑफिस पहुँचे। डीपी को लग रहा था कि यह औपचारिकता होगी लेकिन ऐसा नहीं था। वकील ने कई कठिन प्रश्न किए। ऐसा इंटरव्यू उसने कभी नहीं दिया था। उसके बुनियादी स्कूल की टीचर भी इतनी सख़्त नहीं थी जितना सख़्त यह वकील था। उसका दफ़्तर कहने को तो वातानुकूलित था पर डीपी को पसीना आ रहा था। यदि जॉन और उसके ऑफिस के एचआर के अधिकारी उसके साथ नहीं होते तो वह निश्चित ही लौट जाता। एक से एक कठोर, खंगालने वाले और अमेरिका छोड़ कर जाने की चाह जगाने वाले सवाल थे वे।

जॉन ने बताया था कि प्रारंभिक बातचीत के लिए आधे घंटे का समय दिया है वकील ने। जिस तरह से विस्तृत सवाल पूछे जा रहे थे, उसे नहीं लगा कि वकील मिस्टर स्मिथ आधे घंटे में अपना काम समेट पाएँगे। एचआर के अधिकारी नोट्स ले रहे थे और कहीं-कहीं स्पष्टीकरण भी। सब कुछ इस तरह हो रहा था कि देखना भी एक अलग ही अनुभूति थी। उसके आश्चर्य को कम करते हुए भाईजी ने उसके कान में कहा – “कागज़ बनने की यह प्रक्रिया इतनी पेचीदा है कि विशषज्ञों की यह टीम अगर काम नहीं करे तो शायद उसे अंजाम देना ही मुश्किल हो जाए।”

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