बेचारी ईडियट... !
ज़किया ज़ुबैरी
(1)
लाल पीली और नीली रौशनियाँ... गोल गोल छोटे बड़े रंगीन शीशे के चहुं ओर लटकते हुए कुमकुमे... कमरे में बैठे सभी पुरुषों एवं महिलाओं के जीवट ठहाके... और उनके कपड़ों में बस दो ही रंग मुख्य रूप से उभरते दिखाई दे रहे थे... लाल और काला !
औरतों के लाल ब्लाउज़, तिकोने नीचे कट वाले गले जो औरतों के औरत होने की भरपूर गवाही दे रहे थे। कूल्हों पर फंसी हुई स्कर्ट... बस लाल और काले ड्रेस। पुरुषों के काले सूट जो कि ख़ुशी और ग़म दोनों अवसरों पर पहन लिये जाते हैं। गले से लटकी लाल धारीदार या सादी लाल सपाट टाइयाँ बिलकुल रेणुका के जीवन की भाँति सपाट।
जिम मार्शल अपने चहेते ग्रुप के साथ घिरा बैठा था। रेड वाइन, व्हाइट वाइन और उकड़ूं बैठा छोटा, मोटा सा व्हस्की ऑन-दि-रॉक्स का आधा ख़ाली गिलास, जिम के सामने पड़ा हुआ था। उसके चेहरे का सफ़ैद रंग लाल हो गया था और सर्दियों में पसीने के कतरे मुंह पर उभर रहे थे। अर्थशास्त्र और राजनीति के दाँव-पेच, इलेक्शन जीतने के उपाय के घोर विवाद चल रहे थे। जिम की आवाज़ से आत्मविश्वास झलक रहा था क्योंकि सांसद का चुनाव हारने के बाद वह अभी अभी लंदन असेंबली का इलेक्शन जीत कर आया था। विरोधी पार्टी के बड़े नामी काउंसलर को हराया था और अब फिर से एम. पी. का इलेक्शन लड़ने का प्लान बना रहा था। संगीत की आवाज़ मंद पड़ गयी थी जिम की आवाज़ के सामने। जिम आकाश का पंछी बना ऊंचे आसमानों में तैरता हुआ सबको ऊपर से नीचे देख रहा था पर उसकी दृष्टि के दायरे में रेणुका कहीं नहीं फ़िट हो पा रही थी।
रेणुका अपनी ओर से सज-धज कर बिजली गिराने को तैयार हो कर आई थी – मखमल का लाल कोट पहने, बालों को ऊंचा करके बांधे और एक लाल गुलाब बालों में सजा कर जिसका लाल रंग उसकी लाल लिप्सटिक से मैच कर रहा था। वह कमरे में आते ही ठिठक गयी। होटल का यह कमरा इतना सजा सजाया, कार्यकर्ताओं, काउंसलरों एवं मेम्बर्स से खचाखच भरा हुआ था। कमरा भरा हुआ था पर रेणुका अपने को ख़ाली सा महसूस करने लगी। ये सारी सजावट ये तमाम जगमगाहट उसकी साहयता के बग़ैर हो कैसे गई.... उसको भनक भी नहीं पड़ी और ये सब हो गया? पहले तो जिम उसकी सलाह के बिना कुछ भी नहीं करता था। दरअसल जिम के सभी कामों को केवल रेणुका ही अंजाम देती थी।
इतना बडा काम – ना तो उसकी कोई सहायता मांगी और ना ही कोई बात की... ! वह तो जिम की रग रेशे से वाक़िफ़ थी। जिम की भलाई का ध्यान रखते हुए कैम्पेनिंग की तैयारी करना और सबको आदेश देना की कौन किस टीम में होगा और किस सड़क पर जाना है... क्रिसमिस की पार्टी में कितने लोग आएंगे... कौन विशेष अथिति बनेगा... ये सब निर्णय ते वह ही लिया करती थी। जिम की चुनाव में हुई हार के बाद जैसे वह जिम को भी हार चुकी थी... वह दबाव सा महसूस करने लगी। आज वह सब कुछ हो गया जिसके बारे में वह सोच भी नहीं सकती थी। फिर भी उसने अपने आपको संभालते हुए, गर्दन ऊंची की और जिम के निकट पहुंच गई। जिम की एक तरफ़ उसकी पार्टनर बैठी थी तो दूसरी तरफ़ पार्टी की राष्ट्रीय सचिव। वह पार्टी सचिव के साथ बातचीत में मशग़ूल था। हारी हुई रेणुका ने कहा, “हैलो जिम।... कैसे हो?” जिम ने केवल शिष्टाचार निभाते हुए कहा, “हैलो रेणुका, बहुत दिनों बाद दिखाई दी हो। सब ठीक है।” और वह वापिस पार्टी सचिव की ओर मुड़ गया।
गीली आंखें लिये रेणुका वहां से वापिस मुड़ चली...। एक वो भी ज़माना था जब सबके बैठने का क्रम रेणुका तय किया करती थी। आज उसे स्वयं नहीं पता था कि उसे बैठना कहां है। वक़्त कितनी तेज़ी से बदल जाता है।
तेज़ी जिम के व्यक्तित्व का एक अटूट हिस्सा है। रेणुका को याद है कि जिम कैम्पेनिंग के दौरान बहुत तेज़ चलता था... लगभग दौड़ने लगता था...
उस दिन भी वह इतना ही तेज़ चल रहा था। रेणुका लगभग दौड़ ही रही थी उसको पकड़ने के लिए।
पर उस तक पहुचना असंभव लग रहा था। दौड़ते दौड़ते चिल्ला चिल्लाकर सवाल करती जाती थी कि अब किस सड़क पर कैम्पैनिंग करने जाना है। यही प्रश्न पीटर उसे बार बार बग़ैर दौड़े पूछ रहा था की अब किस सड़क पर कैम्पैनिंग के लिए पूरी टीम को ले चलूं ...?
जिम मारशल हर शनिवार और रविवार को कैम्पैनिंग रख लेता। बाल बच्चे तो थे नहीं जिनकी कोई ज़िम्मेदारी होती। पत्नी अपने कामों में व्यस्त होती, होम्योपैथी कॉलेज से होम्योपैथी की डिग्री ली हुई थी। जो कलाएँ हमारे यहाँ से दम तोड़ चुकी हैं वो अभी ब्रिटेन में जीवित हैं। होम्योपैथी से अच्छी ख़ासी आमदनी हो जाती है। पर इसके बावजूद भी उसकी पत्नी समय निकालकर कभी कभी कैम्पेनिंग कर लिया करती। किन्तु दूसरे एक्टिविस्ट आनाकानी करते छुट्टी के दिन घर घर दरवाज़ा खटखटाने से। जिम मार्शल बिगड़ जाता कि रेणुका उसके लिए दूसरों को क्यों नहीं मना लेती... !
हर राजनीतिक पार्टी का दारोमदार बहुत कुछ उसके कार्यकर्ताओं पर ही निर्भर होता है। जितने सक्रिय मेहनती और पार्टी से अकीदत रखने वाले कार्यकर्ता होते हैं उतनी ही पार्टी लोकप्रिय बनती है।
रेणुका ने आते ही सारे कार्यकर्ताओं की एक सूचि बनाकर फ़ौज में भरती करने जैसी पल्टन तैयार कर ली थी। शीमा वगैरह देखती रह गईं कि रेणुका कैसे काम करती है....कितनी लगन से.....काम के बीच कैसे मस्त होती है। नाक को सुकेड़ कर उसके ऊपरी हिस्से पर बड़ी बड़ी चुनन और उसी से लगी माथे पर खड़ी खड़ी मोटी मोटी लाइनें, कभी नाक को फुला लेती तो कभी पिचका देती पर साफ पता लगता कि भीतर कोई योजना बन रही है जो कि फ़ौरन काग़ज़ पर उतर आएगी और उसके अनुसार सबको सक्रिय सड़क पर घर घर भागना पड़ेगा। एक धुन रहती रेणुका को कि जैसे भी हो जिम का काम पूरा हो जाए। अधिक से अधिक वोटर्स की शनाख़्त हो जाए और चार वर्षों के बाद फिर से जिम मार्शल ही एम. पी. बने। चाहते तो सभी यही थे पर रेणुका की तरह किसी ने जान की बाज़ी नहीं लगाई हुई थी।
जब तक रेणुका ऑफ़िस नहीं आती तो सबकी बातों का विशय वही होती। कोई तो आँख मारकर उसकी बातें करता तो कोई होठों पर हलकी सी मुस्कराहट जमाकर और तो कोई भोंडे अंदाज़ में आवाज़ कसकर । जैसे ही वो आ जाती तो सब उसी से बातें करने लगते ऐसे जैसे की इतनी देर से ख़ामोश बैठे हों उसकी प्रतीक्षा में और उससे बातें करने को बेचैन ..... या राजनीतिक चर्चा में व्यस्त होंI
पाखण्ड का भी एक अद्भुत स्थान होता है राजनीति में जो की उसका अटूट अंग समझा जाता है----झूठ बोलना भी बुरा नहीं समझा जाता। झूठ बोलकर कोई काम कर जाना राजनीति की दुनियां में स्पिन कहलाता है। कार्यकर्ताओं में से शायद ही उसे कोई पसंद करता हो पर उसे क्या फ़िक्र वो तो जिम की ही पसंद बनकर रहना चाहती थी। सब से पंगा लेने को तैयार। जिम को यह सब अपनी सुविधा के अनुसार लगता था। वह भी उसे अपनी ढाल बनाए हुए था।
ढाल तो वह थी.... वार भी करती थी पर डांट भी जी भरकर खाती थी। ऐसा लगता जैसे जिम ने उसे ग़लती करने का हक़ नहीं दिया है। एक बार तो जिम गुस्से से पागल हुआ जा रहा था .....वह कुछ कैनवस शीट्स लाना भूल गयी थी। आदत तो उसने स्वयं ही ख़राब की थी। हमेशा फ़ालतू शीट्स रख लाती थी। उस दिन बिलकुल सही हिसाब से लाई थी पर जिम को अपनी मर्जी से काम करने देना बिलकुल पसंद नहीं था। निर्णय वह स्वयं ही लेता। ग़ुस्से में उसको ‘यू ईडियट’ तक कह दिया।
मगर रेणुका ना जाने किस मिट्टी की बनी है। उसे जिम की कोई बात बुरी ही नहीं लगती – फिर चाहे वह प्यार से कहे या डांट से। वह बस ढिठाई से हंसती रही। कुछ लोगों को बुरा भी लगा। उन्हें महसूस हुआ कि इतनी बेइज्ज़ती के बाद वह पार्टी छोड़ जाएगी। मगर दूसरे ही दिन वह फिर से मौजूद थी। कुछ लोगों ने टोह लेने की कोशिश की तो वो भूल चुकी थी कि जिम ने उसकी बेइज़्ज़ती की भी थी। पुजारन के शब्दकोष में बेइज़्ज़ती जैसा शब्द होता ही नहीं। जब किसी को देवता मान ही लिया तो फिर बुरा क्या मनाना... यही उसकी सोच थी।
अगस्त की छुट्टियों के बाद की पहली कैम्पेनिंग थी। वह हमेशा की तरह जिम जिम करती उसके आगे पीछे भाग रही थी। मगर आज वह पीछे मुड़ कर देखे बगैर ही ‘यस रेणुका... यस रेणुका’ कहता जाता और भागता जाता। जब उसने तीसरी बार आवाज़ दी तो जोर से 'शट-अप' की गूंज चारों ओर फैल गई और सड़क बदलने का समय आ गया। सब चुप थे। कोई भी तैयार नहीं था 'शट-अप' सुनने को। सभी बहुत सतर्क चल रहे थे जैसे बस भागने वाले हों।
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