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भदूकड़ा - 33

“देखो बैन, हमाय पास कौन किशोर के बाबूजी बैठे हैं जौन हम निश्चिंत रहें. इतै तौ एक एक दिन मुश्किल में कट रओ. इन बच्चन की ज़िम्मेदारी सें फ़ारिग होंय तौ गंगा नहायें. अब तुम हो गयीं शहर वालीं, सो तुमै तौ ओई हिसाब सें चलनै. बिठाय रओ मौड़ी खों. हमें तौ गांव में रनैं, सो इतईं कौ कायदौ भी देखनै.”

सुमित्रा जी कट के रह गयीं. “शहर वाली” तो जैसे अब उनके लिये गाली हो गयी थी. बात-बात में शहर वाली कह के ताना देना कुन्ती कभी न भूलती.

किशोर की शादी गर्मियों में ही थी, तो सुमित्रा जी के लिये आसानी हो गयी. दो महीने की छुट्टियां होतीं थीं न स्कूल में, तो देर से जाने और जल्दी लौटने के लांछन से भी बच गयीं. हांलांकि कुन्ती ने गरमियां अपनी सुविधा के हिसाब से चुनी थीं. आखिर उसकी भी तो छुट्टियां होती थीं, गरमी में ही. गांव के घर में एक बार फिर चहल-पहल हो गयी. अपना-अपना विरोध भूल के सब खुशी-खुशी शादी के काम-धाम में लगे थे. घर बहुत दिनों के बाद खुशियों से भरपूर था. सुमित्रा जी मना रही थीं, कि फिलहाल ऐसा कुछ न हो जिससे तनाव पैदा हो. खटका कुन्ती की ओर से ही लगा रहता था, जिसे माहौल बिगाड़ने के लिये किसी कारण की ज़रूरत नहीं होती थी.

राम-राम करते शादी हो गयी. दुल्हन को ले के बारात जब लौटी, दूल्हा-दुल्हन परछन के लिये दरवाज़े पर खड़े हुए, कुन्ती आरती का थाल लिये जैसे ही दरवाज़े पर आई तो पछाड़ खा के गिर पड़ी! थाल एक तरफ़ गिरा, आरती औंधे मुंह गिर के बिसूरने लगी.
“अरे मोरे बेटा....... जे का हो गया..... धोका करा हमाय साथ.... ओ मोरे राम.... अब कां जांय... कितै मर जांय..... हमें दूसरी मौड़ी दिखा कें जा धमधूसड़ी भैंसिया पठा दई........ कितै है बौ मिसरा मराज.... खून पी जैं हम ऊ कौ......... सात पुश्तें तार दैहें हम....... नरक में जगा नईं मिलनै ईये..... धोखेबाज कहूं कौ..... हमई मिले ते मूंड़बे...... बिना बाप कौ लड़का जान कें बदमासी कर दई....... ओ मोरे बेटा....माफ़ कर दियो अपनी मताई खों..... जौ का हो गओ रे......!”

ज़मीन पर लोटती कुन्ती सारे सम्वाद बोलते हुए ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी. पूरा परिवार हक्का-बक्का. दरवाज़े पर खड़ी दुल्हन के मन पर क्या बीती होगी, कौन जाने..... किसे खयाल था इस बात का? किशोर सकुचाया सा खड़ा मां को लोटते-पीटते, प्रलाप करते देख रहा था. उसने बगल में खड़ी सद्यब्याहता को देखा, मां के प्रलाप की नज़र से देखने की कोशिश की, लेकिन उसे तो ऐसा कुछ समझ न आया, जैसा मां कह रही थीं! वैसे अभी उसने जानकी को देखा ही कहां था? इतने सारे घर के बड़े-बूढ़े जहां सामने हों, वहां कोई सत्रह साल का बच्चा देखने की हिम्मत भी कैसे करेगा?
कुन्ती के थाली फेंकते ही रमा ने लपक के थाली उठाई, आरती को फिर से संजोया और हाथ में ले एक ओर खड़ी हो गयी. कुन्ती के वाक्य सुमित्रा जी के दिल पर हथौड़े से पड़ रहे थे. जब वे ब्याह के आईं थीं, तब उनकी लम्बाई-चौड़ाई पर भी कई दबी ज़ुबानों से उन्होंने भी ’पहलवान’ जैसा कुछ सुना था. उन्हें कैसा लगा था, ठीक वैसा ही वे अब जानकी के लिये महसूस कर रही थीं.
(क्रमशः)