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कहानी किससे ये कहें! - 1

कहानी किससे ये कहें!

  • नीला प्रसाद
  • (1)
  • 31 अगस्त 1991. सुबह-सुबह आसमान में छाए घने काले बादल इंगित कर रहे हैं कि किसी भी क्षण वर्षा शुरू हो जा सकती है। लगभग साढ़े तीन दशक लंबी नौकरी के बाद आज मिसेज़ उमा चन्द्र रिटायर हो रही हैं। सुबह की चाय पीती हुई सोच रही हैं वे कि बाहर भले बरसात हो जाए, उनके अंदर सालों से उमड़-घुमड़ रहा बहुत कुछ तो शायद आज भी बिन बरसे ही रह जाएगा! ऑफिस के अपने आखिरी भाषण में वे कुछ कहने को दद्यत होंगी कि उनके अंदर का महाप्रबंधक उन्हें रोक देगा हमेशा की तरह - कि जो दबा रहा इतने सालों से अंदर, उसे दबा हुआ ही छोड़ दो। मत बताओ सच; किसी गलतफहमी, किसी इलज़ाम का जवाब मत दो...और वैसे भी इन गलतफहमियों, इलज़ामों से अलग, अनसुलझा-सा कुछ जो अपने अंदर तक अविश्लेषित रह गया; उसे छूने- समझने, दूसरों को समझाने की ख्वाहिश तो निरर्थक ही ठहरी! जिंदगी जैसी भी गुजरी, अब तो लगभग गुज़र चुकी। अतीत को बदला थोड़े जा सकता है! उन्होंने अपने अंदर के आसमान में स्मृतियों के तमाम काले-चमकीले उमड़ते बादलों को अनदेखा करते फटाफट तैयार हो जाने का मन बनाया।

    क्या हमारा अतीत हमें परिभाषित कर सकता है? क्या परिवेश और जिंदगी में शामिल लोगों का चरित्र हमें रचता, बदल देता है? मन में सवाल उगते हैं पर सवालों में उलझने का समय नहीं है उनके पास! एक पूरा जमाना जी चुकी, अंदर-बाहर पक चुकी मिसेज़ चन्द्र को अपने ऑफिस के माहौल और लोगों की मानसिकता का राई-रत्ती पता है। अब उन्हें क्या कहना, क्या समझाना!! किसी तिक्तता में डूब जाने से तो मीठी बातें सोचना भला! उनका रिटायरमेंट वैसे भी सिर्फ उनके ही नहीं, कंपनी के लिए भी खास है– कंपनी की पहली लेडी ऑफिसर और पहली लेडी जेनरल मैनेजर का रिटायरमेंट डे! शुरुआत से ही चर्चाओं-अफवाहों के केन्द्र में रहती करियर की तमाम सीढ़ियाँ चढ़ती चली गई एक बहुत ताकतवर लेडी ऑफिसर का रिटायरमेंट डे– जिसकी गाथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाएँगी। करियर के मामले में भाग्यवान रही हैं वे! आज ऑफिस में आखिरी बार अपनी कुर्सी पर बैठेंगी, फिर दोपहर बाद रिटायरमेंट समारोह के साथ उनके करियर की यह शानदार पारी समाप्त हो जाएगी। पारी– जो सिर्फ शानदार नहीं, विवादास्पद भी रही।

    नहाते समय आदतन बाथरूम में लगी घड़ी पर नज़र चली गई। इस अहसास से आश्वस्ति मिली कि अब कल से घड़ी के काँटों पर नजर रखते नहाना नहीं पड़ेगा। फिर नाश्ता करते समय भी लगा कि यह जो दशकों से सुबह हड़बड़ी में घड़ी देखते कौर निगलने की आदत हो गई है, इसे बदलना पड़ेगा। पति द्वारा परित्यक्त देह को अपनी या दूसरों की खुशी के लिए सजाने की जरूरत भी कल से खत्म हो जाएगी। अब तो खुद को स्वस्थ-ऊर्जावान बनाए रखने को ही प्राथमिकता देनी होगी। तय किया उन्होंने कि कल से रोज वॉक पर जाएँगी, एक्सरसाइज करेंगी। ये जो पैंतीस सालों से निभाई जा रही कुर्सी पर बैठे रहने की नौकरी के पुरस्कार स्वरूप कमर के गिर्द चर्बी के घेरे आ गए हैं, इन्हें गलाना होगा...तभी हँसी आ गई खुद पर! कौन देखेगा अब यह सब! बिना किसी की सेवा लिए दुनिया से चली जाऊँ, इतना ही काफी नहीं होगा क्या! आज उन्हें निरंजन की बेतरह याद आ रही है। वे साथ होते तो कितना अच्छा लगता! शादी के चार दशक पार हो चुके। काश कि आज रिटायरमेंट डे पर वे ऑफिस से घर लाने को कार लेकर जाते। कह देते नज़रों से कि आज से ऑफिस खत्म- अब तुम मेरी हुई, सिर्फ मेरी!! फिर शाम को घर आकर चाय की चुस्कियों के साथ दोनों अतीत खँगालते। शादी के बाद मैट्रिक पास करने से लेकर जेनरल मैनेजर बनने तक के सफर की याद किसी मिठास से भर देती!!

    पिघलते दिल को ठोस बनाने की कोशिश करते, ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर उन्होंने जल्दी से चेहरे पर क्रीम मली और सिंदूर लगाकर ललाट पर बड़ी-सी लाल बिंदी चिपका ली – जैसा दशकों से करती आ रही हैं। तभी चुपके से उनके पीछे वह युवा लड़की आ खड़ी हुई जो पहले दिन ऑफिस जाने को तैयार हो रही थी। उस युवा लड़की का पतला साँवला चेहरा अब फैल चुका। छरहरी काया बेडौल-सी होने को आई और आँखों की चमक बुझती-बुझती-सी। जब ऑफिस में होली के अवसर पर सबों से छेड़छाड़ होती, सबों को उपाधि दी जाती या नाम से कविताएँ रची जातीं, तब मिसेज़ चन्द्र को इसी बहाने अहसास करा दिया जाता कि वे वर्ण और नाक-नक्श में अपने नाम के दूसरे शब्द से कतई मेल नहीं खातीं... और नाम का पहला शब्द तो उनपर हमेशा कलंक रहा। शिव की उमा-सी बनने की बजाय उनकी तो पति निरंजन से हमेशा अनबन ही रही– शुरुआती सालों में अप्रत्यक्ष, बाद में प्रत्यक्ष! बस सास की लाडली रहीं। सास हमेशा कहती रहीं कि रंग जैसा भी हो, बहू का शरीर बहुत सधा हुआ है, उसके चेहरे पर नमक है, वह भली और अच्छी है।

    ‘दद्दी, जल्दी कीजिए’– आवाज़ आई। यह उनकी पोती संभावना थी जो उन्हें प्यार से दादी नहीं, दद्दी कहती थी। ‘जल्दी कीजिए’ उन्हें अपने अंदर पति निरंजन की आवाज सुनाई दी जो उन्होंने पहले दिन रिसेप्शनिस्ट की नौकरी पर जाते समय कही थी। वे आईने के सामने बैठी नख से शिख तक सँवर रही थीं– पद की माँग थी न! पर निरंजन घर के बाहर कार खड़ी किए जल्दी मचा रहे थे। तब तक निरंजन और उनमें तनावों के दौर अंदर-अंदर शुरू हो चुके थे, इसीलिए रिसेप्शनिस्ट की नौकरी को, अपनी और अपने खानदान की प्रतिष्ठा पर आँच मानते हुए भी उन्होंने उमा को यह नौकरी कर लेने दी। बहसें करने, खुद को ही सही ठहराने या दूसरे को तनावग्रस्त कर देने पर भी असंलग्न महसूसने के दौर कब के मर चुके थे। उस अल्पायु दौर के बाद वे ऐसी खुली जगह आ पहुँचे थे, जहाँ जीवन-साथी की परवाह किए बिना स्वच्छंदता से साँसें लेते, अपनी राहें सोच-समझकर तय की जा सकती थीं; पर माँ-सास, परिवार और समाज का खयाल रखते हुए रिश्ता निबाहने की इच्छा मरी नहीं थी। तब से अब तक एक लंबा अरसा गुजर गया– उमा ने उसाँसें भरते सोचा और नाश्ता निगल कर उठ खड़ी हुईं।

    कार में बैठते अकेलेपन की अनुभूति ने इस कदर लीला कि वे फिर सोचने लगीं कि कल से समय कैसे कटेगा? काश निरंजन साथ होते! पर अभी तो ऑफिस जाना है- उन्होंने खुद को घुड़का। नौकरी का आखिरी दिन– उत्तेजनाओं भरा, खुशी-पश्चाताप-कसक भरा दिन!! उन कामों को याद करने का दिन जो किए गए, तो उन्हें भी जो किए नहीं जा सके...वे बातें, वे सच जो बताए जा सकते थे, ताकि उनके बारे में इतनी गलतफहमियाँ न रहें... और दशकों से उन्हें घेरे लोगों का ये हुजूम!! लोग - जिन्होंने दफ्तर की उनकी जिंदगी में हर वक्त जहर घोले रखा.. लोग- जो जलते रहे कि वे रिसेप्शनिस्ट के पद से महाप्रबंधक के पद तक पहुँच गईं। वे सब- जो उनकी हर सफलता को उनके महिला होने और अय्यर साहब की कृपा से जोड़कर लगातार उन्हें नीचा दिखाते रहे और वे सब भी - जिन्हें किसी महिला अधिकारी के मातहत काम करना तौहीन लगती रही.. वे - जिन्होंने अफवाहें फैलाईं, हर कदम पर रोड़े अटकाए.. वे भी- जिन्होंने आसमान में उड़ा दिया.. ऑफिस में जिनकी दीदी बनी जीती रहीं वे प्यारे लोग और वे भी- जिन्होंने उनके सामने कभी नजरें नहीं उठाईं.. वे लोग.. वे तमाम लोग.. सर के ऊपर तितलियों की तरह उड़ती हैं उनकी यादें!!

    *

    उन्होंने खुद को फिर से याद दिलाया- यह बुरी बात है कि नौकरी के आखिरी दिन कोई कटुता से भर जाए और सिर्फ उन्हें याद करे जिनकी भूमिका उनकी ऑफिस की जिंदगी में नकारात्मक रही। याद किया जाए तो उन्हें क्यों नहीं जिनके सहयोग, जिनकी प्रशंसा और कभी-कभार के फेवरिटिज़्म ने संकट की घ़ड़ियों में बार-बार उन्हें उबारकर, अपने कुलीग्स से आगे निकलने, निरंतर आगे बढ़ने, डिपार्टमेंटल परीक्षाएँ पास करने को प्रोत्साहित किया!! वे सब न होते तो मिसेज चन्द्र भी आज मिसेज चन्द्र न होतीं...और यह भी सच है कि रोड़े अटकाने, उन्हें हतोत्साहित करने, नीचा दिखाने की कोशिश करने वाले लोग नहीं होते तो उनके अंदर भी विद्रोह कर-करके आगे बढ़ने, परीक्षा में पास और प्रमोट होकर नीचा दिखाने वालों को मुँह तोड़ जवाब दे देने की ललक इतनी तीव्र न होती। तब उमा चन्द्र महाप्रबंधक नहीं बनी पाई होतीं। हाँ, सबों ने मिलकर रचा उन्हें- सहयोगियों और विरोधियों ने। शादी के ठीक बाद पत्नी के विकास के विरोधी पति और लड़कियों के सर्वांगीण विकास के समर्थक पिता और सास-ससुर ने। पति की घोर उपेक्षा, फिर पत्नी की इच्छा के आगे समर्पण, फिर विकास की उसकी जरूरतों के प्रति उदासीनता, फिर अनिच्छा से दिए गए परोक्ष सहयोग ने। साथ ही सास-ससुर के अप्रतिबन्धित प्यार ने। कुछ तो था ऑफिस की हवा में जिसने मिठबोली उमा को जहर बुझे तीर से शब्द बोलना सिखा दिया। वे गाहे-बगाहे ऐसे शब्द उगलती रहीं, पर खास उनके सामने फिर भी नहीं बोल पाईं कुछ, जिनके सामने ऐसे बोल बोले जाने नितांत जरूरी थे। आखिर उनके और अय्यर साहब के सम्बन्धों पर जो कीचड़ उछाले गए, वे क्या सच थे? पर झूठ थे क्या पूरे के पूरे? उनके अंदर का न्यायाधीश तनकर खड़ा हो गया और उनसे सवाल- दर- सवाल करने लगा। ऐब्सॉल्यूट ट्रुथ जैसा अगर इस दुनिया में कुछ होता नहीं, सच अगर सापेक्ष होता, परिस्थितियों के अनुसार परिभाषाएँ बदल लेता है, तो सही-गलत के व्यूह में फँसना ही क्यों! अय्यर साहब और उनके सम्बन्ध भावनात्मक भर थे पर ऑफिस में उछाले गए दैहिक बनाकर; तो इस कारण सम्बन्ध ही झूठे थोड़े हो गए पूरे के पूरे? लगाव तो था न, जो दिनों-दिन ऑफिस की गर्म अफवाहों से सिंकता, कमतर होने की बजाय तीव्रतर होता गया.. और ऐसे रिश्ते क्या शक्लें अख्तियार कर सके हैं कभी जो उमा चन्द्र के मामले में करते? निरंजन भी ठहरे आम पुरुष– सुनी भी तो ऑफिस के लोगों की, चौकीदारी की तो पत्नी की देह की; उनके वजूद या दिल की आवाज़ कब सुन पाए?!

    अय्यर साहब से उनकी मुलाकात एक अलग ही अंदाज में हुई थी। पहले-पहल जब ऑफिसर बनकर वे फील्ड में पोस्ट कर दी गईं तो उनके कंट्रोलिंग ऑफिसर अय्यर उनसे छह रैंक ऊपर थे। उन्हें काम करते चार-पाँच दिन ही बीते थे कि उनके पास किसी कर्मचारी के प्रमोशन अनुरोध से सम्बन्धित फाइल आई। उन्होंने नियम-कानूनों का हवाला देते हुए अपना मंतव्य प्रकट करके कि यह प्रमोशन फिलहाल नहीं किया जा सकता, फाइल सूचनार्थ अय्यर साहब को भेज दी। अगले ही दिन उनकी पेशी अय्यर साहब के कमरे में हो गई। वे यूनियन लीडर को वचन दे चुके थे और यहाँ फाइल की नोटिंग में उनकी जूनियरमोस्ट ऑफिसर ने प्रपोजल रिजेक्ट कर दिया था। उनका पारा चढ़ा हुआ था। चिड़चिड़े ऑफिसर के रूप में कुख्यात अय्यर सर के कमरे में उमा घुसीं और नमस्कार करके, आदेश पाए बिना ही कुर्सी पर बैठ गईं।

    “हू आर यू?” अय्यर गुर्राए।

    ‘उमा चन्द्र। आपने दस मिनट पहले अपने पीए की मार्फत बुलवा भेजा था।’ उन्होंने जवाब दिया।

    ‘आपको ऑफिसर किसने बना दिया? किसने?? हू हैज कमिटेड दिस क्राइम? आप तो सीनियर रिसेप्शनिस्ट की उस कुर्सी पर सजी ही ठीक थीं जो शहर के डी.एस.पी. को मुलाकातियों की कतार में बिठाकर छोड़ दिया करती थीं।’ अय्यर ने व्यंग्य किया।

    ‘दुर्भाग्य से नए आए डी.एस.पी. को सिविल ड्रेस में मैंने पहचाना नहीं था और ऐसी गलती मुझसे सिर्फ एक बार हुई। पाँच मिनट के अंदर ही मैंने उन्हें अंदर..’

    ‘मैं एक्सप्लानेशन सुनना नहीं चाहता। मैं पूछ रहा हूँ कि आप ऑफिसर बन कैसे गईं?’

    ‘मैंने एग्ज़ाम दिया और पास हो गई।’

    ‘सो तो किसी तरह हो गई होंगी, पर बाद में किस बेवकूफ ने आपको इंटरव्यू में सेलेक्ट कर लिया? कौन लोग थे आपके इंटरव्यू बोर्ड में?’

    ‘ जी, पी.एस. रामानुजन थे और...’

    ‘बस चुप हो जाइये आप! आपको तो बोलने की तमीज़ तक नहीं है। रामानुजन साहब का नाम सम्मान से लिया कीजिए.. आपको पता नहीं कि वे कौन और कितने आदरणीय हैं?’

    क्रमश..

    *****