Aadhi duniya ka pura sach - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

आधी दुनिया का पूरा सच - 6

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

6.

रानी अपनी भूख से व्याकुल होने पर भी मौन बैठी थी । अपने साथी बच्चों की पीड़ा को समझते हुए उसने सुझाव दिया -

"चलो, रसोई में चल कर देखते हैं ! वहाँ कुछ-ना-कुछ तो खाने को मिल ही जाएगा !" प्रतिक्रियास्वरूप सभी बच्चों ने एक साथ फुसफुसाते होते हुए स्वर में कहा -

"नहीं ! वहाँ खाने को कुछ मिलेगा या नहीं, पता नहीं ! ... पर पकड़े गए, तो बहुत मार पड़ेगी !"

"कल हम पुलिस अंकल को बताएँगे कि ये सब बच्चों को पीटते हैं और भूखा भी रखते हैं !" रानी ने बच्चों से कहा ।

"पुलिस अंकल को सब कुछ पता है ! ये लोग पुलिस अंकल को पैसे देते हैं, इसलिए वे इन्हें कुछ नहीं कहते ! अब सब चुप होकर सो जाओ ! यदि किसी को पता चला कि हम अभी तक जाग रहे हैं, तो बैठे-बिठाए नई मुसीबत आ जाएगी।" टप्पू ने कहा ।

रानी के साथ-साथ अन्य चारों बच्चे टप्पू का आदेश मानकर नींद न आते हुए भी बिस्तर पर लेटकर आँखें बंद करके सोने का प्रयास करने लगे, लेकिन देर रात तक भूख के मारे उनमें से किसी को भी नींद नहीं आयी। फिर भी, किसी ने मुँह से कोई आवाज नहीं निकाली सभी चुपचाप करवट बदलते रहे।

अगले दिन लगभग ग्यारह बजे मिन्टो के कमरे के एक साथी ने रानी के कमरे में आकर बताया -

"मिंटो आज चली जाएगी ! उसको लेकर जाने वाले अभी कुछ देर में आ जाएँगे !" सूचना की सामान्य प्रतिक्रिया की भाँति सभी बच्चों ने समवेत स्वर में मिंटो के साथी से पूछा -

"कहाँ जाएगी ?"

"पता नहीं ! आंटी ने अभी-अभी उसको नए कपड़े देकर बोला है कि जल्दी नहा-धोकर तैयार हो जाए और उन लोगों के सामने अपना मुँह बंद रखें, जो उसको लेने के लिए आ रहे हैं !" मिंटौ के साथी ने बताया ।

बारह-बजते मिंटो की विदाई की तैयारी पूरी हो चुकी थी । मिंटो को गोद लेने वाला जोड़ा देखने में सभ्य-संपन्न लगता था, इसलिए आश्रम के उसके सभी साथियों की आँखों में प्रसन्नता की चमक थी कि उस आश्रम में मिलने वाली यातनाओं से मुक्त होकर घर जा रहा है, जहाँ पर उसको स्नेह भी मिलेगा और जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ भी । परंतु, मिंटू को लेकर जाने वाले लोग उसको माता-पिता का स्नेह दे पाएँगे या नहीं, यह भविष्य के अंधकार में था । यह सोचकर सभी की आँखों में आँसू थे । यही कारण था कि जब मिंटो को उन लोगों के हाथों में सौंपते हुए आश्रम के अधिकारी ने मिन्टो से कहा कि "आज से ये तुम्हारे मम्मी पापा हैं ! इनकी सभी बातों को मानना ! यह तुम्हें प्यार भी करेंगे और तुम्हारा पूरा ध्यान रखेंगे !" तब मिन्टों की आँखों से भी आँसू बह रहे थे। आए दिन मार खाने और भूखे सोने के बावजूद उसकी भाव-भंगिमा और आँखें मौन भाषा में कह रही थी -

"यहाँ जो कष्ट हैं, हम सब जानते हैं ! परंतु, जहाँ हमें भेजा जा रहा है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते ! कौन जाने वहाँ इससे भी अधिक अत्याचार सहन करने पड़ें ! क्या पता वहाँ हमारा जीवन यहाँ से भी अधिक बोझ बन जाए !"

आश्रम छोड़ते समय जितने आँसू मिन्टो की आँखों से बह रहे थे, उतने ही आँसू हर उस बच्चे की आँखों से बह रहे थे, जो उस समय आश्रम में उपस्थित था।

लेकिन रानी की आँखों में जो आँसू थे, वे पिछली शाम को मिन्टो पर पड़ी मार और उसके रुदन के आर्द्र स्वर को याद करके बह रहे थे। उन क्षणों को स्मरण करके रानी का रोम-रोम काँप रहा था और उसके अंतःकरण से बार-बार एक ही स्वर उभर रहा था -

"अरे, यह मिंटो आज भी रो रही है ! आज तो मिंटो को खुश होना चाहिए ! मिन्टो के लिए यह कितना अच्छा है कि इन लोगों के साथ जा रही है ! यह लोग चाहे कितने भी बुरे होंगे, पर इन राक्षसों से तो अच्छे ही होंगे, जो भूखा भी रखते हैं और भोले-भाले बेचारे अनाथ बच्चों को निर्मलता से मारते भी हैं !"

दोपहर के लगभग बारह बजे रानी को उसके कमरे के एक साथी बच्चे ने सूचना दी कि जो महिला पिछले दिन उसको अपनी बेटी कहकर ले जाने के लिए आयी थी, आज आयी है। इस समाचार को सुनकर एक ओर रानी अपने माता-पिता के पास पहुँच पाने की अनिश्चितता को लेकर सोच में डूब गयी, तो दूसरी ओर, उसके साथी बच्चे उसके वियोग की आशंका से मायूस हो रहे थे ।

पिछले दिन रानी ने अधिकारी के समक्ष चिल्ला-चिल्ला कर कहा था कि यह महिला उसकी माँ नहीं है, लेकिन महिला के जाने के बाद उसी रात आश्रम में मिन्टो की क्रूरतापूर्वक पिटाई होना, रानी का अपने साथी बच्चों के साथ भूखा सोना और न चाहते हुए भी आश्रम में रहने की बाध्यता रानी को वहाँ से निकलने के लिए प्रेरित कर रहे थे। वह जानती थी कि आश्रम के पहरे को तोड़कर जाना कठिन है। अतः उसने उसी क्षण निश्चय किया कि आश्रम से निकलने के लिए वह अधिकारी के समक्ष उस महिला को अपनी माँ मानने से इन्कार नहीं करेगी। लेकिन, हृदय को यह स्वीकार्य नहीं हुआ और उसके मनःमस्तिष्क मे अन्तर्द्वन्द्व आरंभ हो गया-

"नहीं, रानी ! तू किसी अपरिचित महिला को अपनी माँ का स्थान कैसे दे सकती है ?" हृदय से स्वर उभरा ।

"लेकिन यहाँ से आज इस महिला के साथ नहीं निकली, तो न जाने कब तक इन लोगों की कैद में रहना पड़े ? कौन जाने मिन्टो की तरह मुझे भी किसी को ... !" बुद्धि ने तर्क प्रस्तुत किया ।

"लेकिन रानी, यह भी तो हो सकता है, महिला उन्हीं पड़ोसी अंकल की साथी हो, जो झूठ बोलकर मुझे अपनी गाड़ी में बिठा कर ले आए और कई दिन तक मुझे अंधेरी कोठरी में बंद करके रखा था । उन्हीं के कारण तो आज मैं यहाँ फँसी हुई हूँ और मेरे पापा मुझे ढूंढ-ढूंढकर परेशान हो रहे होंगे ! मम्मी का तो रो-रो कर बुरा हाल हो रहा होगा !" रानी की बुद्धि ने सावधान किया।

अपने अंतर्द्वन्द्व से मुक्त होकर रानी अभी किसी निश्चय पर पहुँची भी नहीं थी, तभी उसके साथी एक बच्चे धानू ने आकर बताया -

"रानी ! मैं अभी देखकर आया हूँ, उस औरत ने बड़े साहब को बहुत-सारे बड़े-बड़े नोट दिए हैं ! बड़े साहब के कहने से वह औरत तुझे ले जाएगी ! अब तेरा जाना तय है, रानी !"

रानी अभी तक उस स्त्री के साथ जाने या न जाने के निर्णय को लेकर अंतर्द्वन्द्व में फँसी थी, लेकिन धानू से महिला के आने का समाचार सुनकर - वह सिर पकड़ कर बैठ गयी । उसको समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करें ? रानी निर्णय नहीं कर पा रही थी कि आश्रम से निकलने के लिए उस स्त्री को अपनी माँ स्वीकार कर ले ? जिसको वह न जानती है, न पहचानती है, या अपना विरोध दर्ज करा दे कि वह उसकी माँ नहीं है !

वह अभी सोच ही रही थी, कोई निश्चय नहीं कर पाई थी कि तभी परिचारिका की कर्कश कठोर वाणी उसके कानों में पड़ी - "अरी, चल बड़े साहब ने बुलाया है ! तेरी माँ तुझे लेने आयी है !"

"मेरी माँ नहीं है, वह औरत ! मेरी माँ बहुत अच्छी है ! सारी दुनिया से अच्छी ! आपसे भी अच्छी और उस औरत से भी अच्छी ! और वह यहाँ दिल्ली में नहीं है, यहाँ से बहुत दूर रहती है ! समझी आप !" रानी ने बिना कुछ भी सोचे-समझे चीखते हुए कहा।

लेकिन परिचारिका ने उसकी एक नहीं सुनी और बलपूर्वक उसको कमरे से बाहर की ओर धक्का देने लगी । कमरे में उपस्थित धानू और अन्य कई बच्चों ने उनके बीच आकर कहा -

"आंटी रानी सच बोल रही है ! यह औरत इसकी मम्मी नहीं है !"

परिचारिका को उन बच्चों का बीच में आना नागवार गुजरा । आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि कोई बच्चा उसका विरोध करे । अतः वह रानी को छोड़कर धानू पर बरस पड़ी । धानु को पिटते हुए देखकर रानी आगे बढ़ी और परिचारिका को धकियाते बोली -

"इसको छोड़ो ! चलो, मैं चल रही हूँ !" कहते हुए वह परिचारिका के साथ उस दिशा में चल दी, जहाँ अधिकारी का कार्यालय था ।

जब रानी अधिकारी के समक्ष पहुँची, वह स्त्री वहाँ निकट ही पड़ी एक कुर्सी पर बैठी थी । आज उसने पिछले दिन की भाँति रानी के ऊपर अपना वात्सल्य लुटाने का नाटक नहीं किया था, बल्कि आज उसके चेहरे पर अपनी विजय का दर्प झलक रहा था। उसकी भाव-भंगिमा देखकर रानी के मनःमस्तिष्क में अनेक आशंकाएँ सिर उठाने लगी और उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगा। उस महिला की कठोरता देखकर रानी को अपनी आशा के फलीभूत होने में भी संदेह होने लगा कि वहाँ से बाहर निकलकर वह स्वयं को इस स्त्री से मुक्त करके अपने घर सकुशल पहुँचने में सफल हो जाएगी ! रानी के चेहरे पर निराशा और मायूसी देखकर अधिकारी ने स्नेहपूर्वक कहा-

"बेटी, माँ से कभी नाराज नहीं होते ! अपनी माँ के साथ घर जाओ और प्यार से रहना !"

"सर जी ! मैंने आपसे कल भी बताया था, यह मेरी माँ नहीं है ! मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती है !" रानी ने रोते हुए कहा।

"हम जानते हैं, तुम अभी अपनी माँ से बहुत नाराज हो ! तुम घर चली जाओगी, तो धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो जाएगा !"

"मैं नाराज नहीं हूँ, न ही मैं मेरी माँ से कभी नाराज नहीं हो सकती हूँ ! पर यह मेरी माँ नहीं है ! मैंने आपसे कहा है न ?" रानी ने रोते हुए क्रोध में चिल्लाकर कहा । लेकिन अधिकारी ने रानी की बात पर कोई ध्यान न देकर महिला से कहा -

"अब आप अपनी बेटी को लेकर जा सकती हैं !"

अधिकारी की अनुमति पाते ही स्त्री कुर्सी से उठी और रानी को पकड़कर लगभग धक्का देते हुए आश्रम से बाहर ले आयी । बाहर आकर महिला ने एक बार उपेक्षा और क्रोधयुक्त कठोर दृष्टि से रानी को देखा, तत्पश्चात् दृढ़ता से रानी का हाथ पकड़कर उसको धकियाते हुए वहाँ पर पहले से ही खड़ी एक गाड़ी में बैठ गयी । उनके बैठते ही ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी । अभी तक महिला रानी को कसकर पकड़े हुए थी और रानी अपनी पूरी शक्ति से उसकी पकड़ को ढीली करने का प्रयास कर रही थी । किंतु अपने प्रयास में उसको थोड़ी-सी भी सफलता नहीं मिली ।

क्रमश..