Gomti ek nadi ka naam hai books and stories free download online pdf in Hindi

गोमती एक नदी का नाम है

गोमती एक नदी का नाम है

कैलाश बनवासी

मौका पाते ही मैंने बिसाहिन बाई से पूछ लिया, “ कइसे, ये गोमती चलही नहीं?”

बिसाहिन बाई खोली में पानी पी रही थी, गिलास के ऊपर दीखती उसकी आँखें मुझे गहरी नज़रों से घोर रही थीं—मेरे हरामीपन को तौलती हुई. गिलास मटके पर गुस्से से पटकती हुई एकदम फैसलाकुन अंदाज में बोली, “नहीं, ये नहीं चलेगी. ये वैसी नहीं है !”

“फिर कैसी है?” मैंने बेशर्मी से हँसकर पूछा.

बिसाहिन बाई तुनक गयी, “हम का जानेंगे बाबू वो कैसी है. फिर भी हम इतना बता देते हैं ये ऐसी-वैसी नहीं है. घर-गिरस्थी वाली है !”

“अरे, घर-गिरस्थी वाली तो तुम भी हो! अगर वैसी नही है तो तुम वैसी बना दो. भला तुम्हारे रहते क्या मुश्किल है...?”

“देखो बाबू!”, वह सख्त नाराज़ हो गयी, उसकी आँखों से धुंआ-सा उठता देख रहा था मैं. “हम अपना ये जौन करते-धरते हैं—अपनी मर्जी से ! समझे !हम किसी को बनाने या बिगाड़ने वालों में से नहीं हैं ! जो करता होगा होगा उससे जाकर बोलो. बिसाहिन बाई ये धंधा नहीं करती ! हाँ !”

मैं ऊपरी हँसी हँसा, “अरे, तुम तो एकदम बिगड़ गयी ! एकदम भाषण झाड़ने लगी परधान मंत्री जैसा! ठीक है, ए बखत के पंचायती चुनाव में तुमको गाँव से खड़ा कर देंगे.” फिर जरा धीमे स्वर में मनाने के अंदाज में कहा, “अरे, मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया था तुमसे. अच्छा, जा अपना काम देख.”

बिसाहिन बाई खोली से निकलकर बाड़ी की ओर चल दी जहां दर्जन भर लेबर काम कर रहे थे—सभी औरतें !

मैंने उसके जाते ही एक भद्दी गाली दी.स्साली !चाहती है मैं हमेशा इसी बुढ़िया से चिपका रहूँ.किसी दूसरी पर नजर तक न डालूँ !

मेरी नजर घूमती-फिरती फिर गोमती पर ठहर गयी. वह मुझसे बेखबर दूसरों की तरह टमाटर तोड़ने में लगी थी. जनवरी की दोपहरी की धूप में मुझे वह खुद टमाटर की तरह लहकती हुई लगी- भक्क लाल!

वह मेरी बाड़ी में नयी लेबर है, मुश्किल से चार-पाँच रोज हुए हैं उसे आते. लेकिन जबसे आई है, साली ने पागल कर रखा है.ध्यान उधर ही खिंचा रहता है और मैं खुद को उस ‘भूख’ से उफनता हुआ पाता हूँ. हालांकि वह यहाँ काम कर रही लड़कियों से कुछ बड़ी है, लेकिन सबसे आकर्षक है. उसकी नाक के बाँयें नथुने पर गोदना के तीन फूल हैं नन्हे-नन्हे. मेरी इच्छा उन्हें चूमने की होती है बरबस. ये तीन फूल उसकी खूबसूरती में और इजाफा करते हैं...उसमें एक ऐसा देहातीपन भरते हैं जो कुंआरा है, अनछुआ है.एक सादा किन्तु गहरा आकर्षक चेहरा.

वह किसी मजबूरी में मेरी बाड़ी में काम करने आयी है, यह बात मैं उसकी किंचित सहमी-सहमी आँखों को देखकर जान गया था.उन आँखों में कुछ ऐसे भाव होते जैसे दुनिया को पहली-पहली बार देख रही हो. उसे देखकर यकीन कर पाना मुश्किल था कि वह तीन बच्चों की माँ है, जिसका सबसे छोटा बच्चा सिर्फ आठ महीने का है, जिसे दूध पिलाने के लिए काम के दौरान बीच में ही उसे घर जाना पड़ता है.

काम के दौरान अक्सर मैं लेबरों से हंसी-मजाक किया करता हूँ., उन्हें छेड़ता हूँ, श्लील-अश्लील का दायरा लांघकर. जहां दूसरे लग खिलखिला पड़ते हैं वहीं गोमती लजाकर सर झुका लेती है.उसकी सुन्दरता और बढ़ जाती है. उसे पा लेने की मेरी इच्छा और बढ़ जाती है.अगर कोई मेरी कल्पना में झांककर देख सकता तो पता मैं उसे प्यार कर रहा हूँ, अपनी इच्छा और आवेग क्रम से...और वह चुप है, समर्पित है, और बहुत सुकून है उसके चेहरे पर.

मैं सोचता हूँ, हकीकत में एक दिन यह होना चाहिए. पर कब? अब लगता है, मुझे ही कोई रास्ता निकालना होगा. शिकार करके खाने में जो मजा है वह सीधे-सीधे परोस दिए गए खाने में कहाँ? तभी इस बिसाहिन बाई का अध्याय समाप्त होगा—अधेड़ होने को छूती हुई काली-कलूटी बिसाहिन बाई ! यह कड़वा सच है कि इस ‘लेन-देन’ में उसकी उमर और सूरत काफी अड़चन पैदा करती है, लेकिन जरूरत हर कमी क भुला देने को कहती है. और सच्चाई ये भी है कि उसका साथ कभी बुरा नहीं रहा. बल्कि एक औरत के रूप में तो वह गजब का साथ देती है. इस बात को तो मेरे बगल की बाड़ी वाला नरेश भी मानता है.वह उसे मोंगरी मछली कहता है जो एकदम बिछलती है हाथ से.वह तो यहाँ तक कहता है, मुझे तो नयी से नयी लड़की के साथ वो मजा नहीं आता जो उसके साथ आता है. उसकी तो बात ही कुछ और है...

मुझे नरेश की बात पर हँसी आ जाती है , गोया बिसाहिन बाई का विज्ञापन टी.वी.पर किया जा रहा हो, अजी, इसकी तो बात ही कुछ और है.एक बार आजमा के तो देखिए !

है. बात तो है ! यह तो मुझे भी दिल से स्वीकार करनी चाहिए.बल्कि आगे बढ़कर बिसाहिन बाई का आभार मानना चाहिए. और आभार व्यक्त करने के लिए उसके घर जाना चाहिए.

मैं अपने इस आभार वाले विचार पर मुस्कुरा उठता हूँ. क्योंकि उसके घर जाने का मतलब है—फिर एक बार वही खेल...

मुझे अब याद नहीं , कितनी बार मैं उसके घर गया हों.कई बार, जब मैं सचमुच अपने किसी काम से गया हूँ, तब भी उसने मेरा हाथ पकड़कर खींच लिया है.एक जबरदस्त आग है उसके भीतर ! फिर घर जैसी सुरक्षित जगह आपको मिलेगी कहाँ ! पति तो सुबह आठ बजे से किसी प्राइवेट इंडस्ट्री में जो घुसता है तो शाम के छह बजे ही छोट पता है. एक बेटी थी जो शादी के बाद अपने ससुराल में है. उस खासे बड़े-से घर में सिर्फ उसकी बूढ़ी सास है जिसे बहुत कम दिखाई देता है.एक बात यह भी है कि बिसाहिन बाई की छवि गाँव में बदनाम औरत के रूप में बिलकुल नहीं है.वहां जाने पर कोई इस किस्म का शक नहीं करता. यहाँ तक कि खुद बिसाहिन बाई कमरे का दरवाजा बंद नहीं करती, खुला रखती है जरा-सा , शक की किसी भी आशंका से बचने के लिए.

बिसाहिन बाई इस मामले में बहुत गर्म औरत है.जब कभी अपनी पत्नी कि तुलना उससे करता हूँ तो बहुत कोफ़्त हती है. लगता है वह हद दर्जे कि ठंडी औरत है, निपट गृहस्थिन, अपनी देह की भाषा को धूमिल रखने वाली, जिसे चमकाने के लिए मुझे हर बार म्हणत और धीरज कि जरूरत होती है.और अक्सर इससे उकताहट होती है.इसलिए इस अनपढ़, गंवार और अधेड़ बिसाहिन बाई का साथ अच्छा लगता है.घर से अलग एक बदला हुआ जायका तो खैर है ही.

लेकिन बाद में सोचने पर अक्सर बुरा लगता है.कल जिसके साथ मैं उत्सव मना रहा था, क्या यही अधेड़ काली औरत थी? मुँह बिचक जाता है मेरा.

इस अफ़सोस से बच सकूं, गोमती को पाना इसलिए भी मुझे जरूरी लग रहा था.

मैं उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगा.इन दिनों मुझे लगता था जैसे मैं एक शिकारी हूँ, अपने मचान पर चढ़ा हुआ, निशाना साधे हुए शिकार के आने की ताक में हूँ. और इस प्रतीक्षा में जो रोमांच है, वह इतनी शिद्दत के साथ पहली बार महसूस कर रहा था.

जब गोमती के पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में मुझे पता चला, लगा, मामला खुद-ब-खुद मेरी झोली में आ गिरा है. मेरी सफलता निश्चित है ! मैं सुखद आश्चर्य से भर उठा था. पता चला कि उसका पति आजकल जेल में है. उस पर चोरी का इलजाम है. घर का खर्च उसी की कमाई से चलता था. परिवार में उसके पति की बूढ़ी होती माँ है, दस-बारह साल का देवर है और उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं.

पति की अनुपस्थिति में घर संभालने कि जिम्मेदारी उसी पर आ गयी है.

एक दिन उसे मैंने यों ही छेड़ा, “क्यों गोमती, तेरे घरवाले को जेल क्यों हो गयी भला? कोई ‘दूसरी’ बनाकर ले आया था क्या ? लगता है तूने ही कोर्ट में नालिश कर दिया होगा...!”

मुझे उम्मीद थी कि वह इस बात पर खुश होगी, हँसेगी. बाड़ी में काम के दौरान इस किस्म के हँसी-मजाक आम है. इसमें यहाँ काम करती मजदूरिनें बड़ा रस लेती हैं, और काम की थकान हल्की हो जाती है.

लेकिन गोमती को देखने से लगा, बेचारी थोड़ी असहज हो गयी है.

मैंने बात का सिरा फिर से पकड़ा, “अरे, मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था. तू बुरा मत मानना. तूने बताया नहीं कभी कि उसको जेल क्यों हुई?”

जवाब देना उसकी विवशता थी. मैं उसका मालिक जो ठहरा.गोमती ने जो टुकड़ों- टुकड़ों में बताया, मुख़्तसर यूं है. उसका पति इसी गाँव के एक धान कोचिया (धान की खरीदी-बिक्री करने वाला दलाल )के यहाँ काम करता था. यों यह बात यहाँ रहते-रहते बहुत अच्छी तरह जान गया हूँ कि धान की दलाली करने वाला कोई सीधा-सरल व्यक्ति नहीं होता. वह वैसा ही चालाक और घाघ होता है जैसे कि वकील, पुलिस या ऑफिस के क्लर्क— झूठ, छल या बेईमानी जिनके रोज का काम है. और वह धान कोचिया भी इससे अलग नहीं था. उसने पिछले दो महीने से उसे उसका वेतन नहीं दिया था.कहने-बोलने पर घुमाता जा रहा था.आज-कल आज-कल में. कहता था रुपया नहीं है, तंगी चल रही है. जबकि रुपया उसके पास था. वह रोज धान खरीद-बेच रहा था.एक दिन गुस्से में आकर उसके पति ने कोचिया का पाँच बोरा धान मंडी में बेच डाला. कोचिया ने पता चलते ही उसके खिलाफ चोरी की रिपोर्ट लिखा दी. पुलिस उसी दिन उसे पकड़कर ले गयी. पहले थाना, फिर जेल. अभी उसकी जमानत नहीं हो सकी है.

“यह तो बहुत बुरा हुआ.”

मैंने बहुत गंभीरता से इस मौके पर दुखी होने का अभिनय करते हुए कहा.यह कुछ-कुछ वैसा ही अभिनय था जैसे दर्जनों फिल्मों में आपने विलेन को करते देखा होगा, जब वह किसी बेबस, दुखियारी किन्तु जवान स्त्री से सबसे पहले अपनी हमदर्दी जताता है, लेकिन भीतर ही भीतर पुलकित रहता है. यह जानकर मुझे ख़ुशी हो रही थी कि राह का सबसे बड़ा काँटा फ़िलहाल साफ है.

“तू उससे मिलने जाती है?” मैंने पूछा.

“हाँ.हफ्ता नहीं तो पन्दरा दिन में एक बार...”

“अच्छा! तो क्या बोलता है?”

“का बोलेगा बाबू. अपनी तरफ से बोलता है जल्दी बाहर आ जाऊँगा...चिंता फिकर करने की कोई बात नहीं करके...”

लेकिन मुझे गोमती की चिंता करना जरूरी था. इससे पहले कि उसका पति जेल से बाहर आए, मुझे सफल हो जाना चाहिए.

मैं चिड़िया को फांसने चुग्गा डालने लगा.

मैं जिस तरह से उसे देखा करता था—मानो अपनी आँखों से उसे पी जाऊँगा—वह मेरी लालसाओं को भांप गयी थी. और उसका जवाब मुझे मिलने लगा, थोड़े शर्म और ना-नुकूर के बाद. उसकी मुस्कान का बल पा के मैं अक्सर उसे लेबरों के बीच छेड़ने लगा.

“कैसे गोमती, का साग लायी है? अकेले-अकेले खा रही है !”

“क्या ? सब खा गयी? बहुत लालची है तू. देख, सबको बाँट-बांटकर खिलाती है, बस मेरे को नइ देती ! और देख, शहर से रोज भूखा-प्यासा आता हों, तुम लोगों को दया नहीं आती? ये तो बहुत गलत बात है !”

“तू तो रोज मेरी बाड़ी में कमाने आती है, अरे, कभी हमको भी कमाने के लिए अपने घर बुला ना...” मैं बेशरम होने लगा.

“देख, तू जो कहेगी मैं वही करूँगा. हाँ, फिर रोजी भी लूँगा.

गमती हंस पड़ी, ”वाह ! हम गरीब आदमी बाबू ! हमारे पास क्या है जो तुमको रोजी देंगे?”

“देख-देख रमशीला !” एक रेजा को जबरदस्ती अपनी बातचीत में घसीटता बोला, “ये गरीब आदमी है? अरे काहे का गरीब आदमी ! बढ़िया माल है तुम लोगों के पास.मगर सब छुपा के रखती हो !”

काम करती रेजाएं खिलखिला पड़ती हैं.गोमती भी. धीरे-धीरे उसका संकोच यहाँ के वातावरण में घुलने लगा है. और मैं यही चाहता हूँ.

इस काम में सबसे अचूक हथियार है पैसा.अपने अनुभवों से जानता हूँ. मैं अब इसके उपयोग की तरफ बढ़ने लगा.

सभी लेबर –मर्द-औरत- का हफ्तावार पेमेंट शनिवार को होता है.उनके काम के दिन का रिकॉर्ड मैं पॉकेट नोट-बुक में रोज नोट कर लेता हूँ.

उस शनिवार का मैंने सबका पेमेंट कर दिया, अकेले गोमती को छोड़कर.यह कहकर कि आज रुपया नहीं है, कल इतवार को आ जाना.

यह मेरी चालाकी थी उसे अकेले बुलाने की.ताकि बात की जा सके और अपनी मनमानी भी.यहाँ बाड़ी के मालिक के रूप में मेरी छवि ऐसी खराब नहीं है कि कोई इस पर शक करे.और बदनाम होकर गाँव में धंधा करना मुश्किल है.इसलिए बिसाहिन बाई को छोड़कर किसी को भी मेरी नीयत पर शक नहीं हुआ होगा. क्योंकि पिछले चार साल से ऐसा कई बार होता आया है.

दूसरे दिन जब लेबर काम में लगे थे, मैंने गोमती को खोली में बुलवाया.

“क्यों? कितने दिन की रोजी है ?” मैंने पूछा, यद्यपि मुझे मालूम था.

“पाँच दिन का तू है, बाबू.”

“पाँच दिन ? पाँच दिन का कैसे हुआ?”

“पाँच दिन काम करने आयी हूँ तो पाँच दिन का रोजी नई होगा?”

“नहीं!” मैं जरा सख्त हो गया, जानबूझकर, “चार दिन का होगा.रोज का एक घंटा तुम अपने बच्चे क दूध पिलाने जाती हो.रोज के एक घंटे के हिसाब से पाँच दिन का पाँच घंटा.माने एक दिन की रजी. तुम्हारी एक दिन की रोजी कटेगी.”

मेरे इस रवैये से वह एकदम घबरा उठी, नई बाबू...नई...बाबू...वह गिड़गिड़ाने लगी, इस बार पाँच दिन का दे दो.कल से जल्दी आ जाऊंगी...

मैं जानता था, यह गोमती की बहुत कमजोर नस है, जिस पर ऊँगली रखना जरूरी है.न सिर्फ ऊँगली रखना, बल्कि अपना अहसान को जताना भी. मैंने कहा, “ तेरे कारण मेरे को कितना नुकसान उठाना पड़ता है.इसके बारे में तुम कभी नहीं सोचती होगी.दूसरा मालिक हटा तो कब का निकाल दिया होता तुम्हें काम से....”

मेरे इस अहसान ने उसे जरा झुका दिया. वह नीची नजरों से कमरे में इधर-उधर देखने लगी—उस अस्त-व्यस्त खली में जहां एक कोने में रापा, कुदाल.खुरपी और बड़े-बड़े टोकने थे, तो दूसरे कोने में उर्वरक और दवाइयों के डब्बे...इनके बीच में अस्त-व्यस्त एक पलंग, जिस पर मैं बैठा था.

“अच्छा ठीक है. मैं तो ऐसे ही कह रहा था गोमती. ये लो तुम्हारे पाँच दिन की रोजी.” कहते हुए मैंने सौ रूपए का एक नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया.

“बाबू, मेरे पास चिल्हर नई है...”

“तो तुमसे चिल्हर मांग कौन रहा है. सब रख लो.”

गोमती संशय और हैरानी से मुझे देखने लगी.उसे अपना हिसाब मालूम था, अच्छी तरह. तेरह रूपए के हिसाब से पाँच दिन का पैंसठ रुपया होता है.यह उससे पैंतीस रुपये ज्यादा थे.

उसे समझ नही आ रहा था, क्या बले, क्या करे.

मैंने कहा, ”अरे रख लो. अभी तुमको रुपयों की बहुत जरूरत है. हिसाब-किताब बाद में होता रहेगा.”

जब वह जाने लगी तो मैंने उसका हाथ पकड़ लिया. उसने छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की.

“देखो, अगर जब भी पैसे-वैसे कि जरूरत पड़े तो मांग लेना. मेरे से संकोच करने की जरूरत नहीं...”

वह चली गयी. मेरे हाथ पकड़ने का मतलब समझने की कोशिश करती हुई.

बाद के सप्ताह में मैंने ऐसा ही कुछ दुहराया. फर्क इतना था कि मैंने रुपये बढ़ा दिए थे. इसके साथ-साथ मेरे हाथ उसके अंगो से खेलने की छूट पाने लगे, जिन्हें वह हलके ना-नुकूर के बाद स्वीकार करने लगी.

ऐसे क्षणों में अक्सर वह शरमाई और घबराई-सी कड़ी रहती. गोमती खुद क बचने का सिर्फ इतना प्रयास करती, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ देती.और मुझे यही चाहिए था....जहां उसकी देह किसी शानदार मखमली मैदान में बदल जाए और मैं उसमें खेल साकं, बेख़ौफ़, मनचाहा. कि उसकी देह किसी विशाल झील में बदल जाए और और मैं उसमें डूबता-उतराता रहूं. और यह बात मुझे उन चालू लड़कियों में नहीं मिल पाती. उन्हें जैसे बेसब्री से पुरुषों के रीत जाने का एक ऊब भरा इन्तजार होता है. उनके लिए पुरुष महज ग्राहक होते हैं.सिर्फ ग्राहक. और मुझे सिर्फ ग्राहक होना पसंद नहीं. मैंने पाया है कि या तो वे बहुत चालाक होते हैं या हम.अधिकाँश स्त्रियों के लिए यह अपराधबोध ज्यादा होता है और आनंद मनाने का अवसर कम. इसलिए गोमती को पटा रहा था. और मैं गोमती के साथ उसी इच्छित आनंद-लोक में विहार करना चाहता था.निर्विध्न. जहां कोई डर, हिचक या दासीनुमा समर्पण नहीं वरन एक स्वतंत्र चुनाव हो. मैं गोमती को उसकी दुनिया से खींचकर अपनी दुनिया में लाना चाहता था.जाहिर है, यह काम हड़बड़ी का नहीं है.और मुझको इस मामले में किसी किस्म कि जल्दबाजी नहीं थी. क्योंकि मुझे आभास हो रहा था कि मैं उसे अपनी इच्छानुसार पा सकता हूँ.

उस रोज, जब मैंने उसे फिर कुछ रुपये ज्यादा दिए थे तो मनो वह भीतर से बेकरार होकर मन्त्र-विद्ध –सी मेरी ओर बढ़ी थी और मुझसे सत्कार बोली थी, “इस समय तो बहुत से लोग रहते हैं, बाबू...कि न कोई देख लेगा...फिर कभी अकेल्ला में बुलवाना...”

सुनकर तो मैं जैसे पागल हो गया था. मैं अपनी सफलता की ओर बहुत तेजी से बढ़ रहा हूँ, इसका मुझे विश्वास हो गया. कमाल है, यह खुद बिछने को तैयार है! तब मैंने बहुत अश्लीलता से उसकी इस इच्छा को अपने लिए गहरी चाहना से नहीं, मर्द की जरूरत से जोड़ा था. और यह भी सोचा था कि कि औरत कब तक यों ही खाली रह सकती है, बगैर मर्द के...?

क्या मर्द खाली रह सकता है? और अपने इस ख्याल पर हंस पड़ा था. क्यूंकि पत्नी और बच्चे को पूना गए हुए दो महीने हो रहे थे और मेरे दिमाग में उनका ख़याल तक न था. मेरे दिमाग में औरत थी, घर-बार और बच्चे संभालने वाली पत्नी नहीं. कभी-कभी सिर्फ बच्चे की याद बिजली की तरह कौंध जाती है अचानक, फिर वैसे ही बुझ जाती है. रोशनी का एक कतरा फेंके हुए बगैर. कभी-कभी लगता है, वे मेरे पत्नी और बच्चे नहीं, किसी और के हैं, और उन्हें वापस लाने का ख़याल टालते जाता हं. जबकि यह जानता हं कि वह मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी बेसब्री से.

हाँ, इस ख़याल से जरूर थोड़ा डर जाता हं कि वह भी वहां जाकर मुझे बिलकुल भूल गयी होगी. ठीक मेरी तरह. लेकिन यह जाने कैसा विश्वास था—बिलकुल बर्फ की तरह जमा हुआ—कि मन कभी इस बात को नहीं मानता. मुझे हमेशा लगता है कि मैं उससे दूर रहते हुए भी उसके मन से दूर नहीं होऊंगा. उसका पति जो ठहरा!और यह ख़याल हमेशा एक राहत-सी देता है. मुझे सहना उसका धर्म है और मुझ पर निर्भर रहना या मेरे बच्चों की माँ कहलाना उसकी सामाजिक जरूरत. इससे बच के भला कोई औरत कहाँ भाग सकती है! जहां जाएगी, उसके पति का नाम उसके साथ हमेशा किसी जोंक-सा चिपटा होगा, जिसे वह किसी सूरत में हटा नहीं पाती.

इन सब खयालं से अपने देश की रीति -रिवाजों और परम्पराओं के लिए मेरे मन में प्यार का सागर उमड़ आता है. और इस प्यार के क्षणों में मैं ऐसी सारी स्त्रियों से एक साथ प्यार करने लगता हूँ—उस लीलाधर कृष्ण के समान, जिनके बारे में कहा जाता है, जो एक ही समय में ढेर सारी गोपियों अथवा सोलह हजार एक सौ आठ पटरानियों से प्यार कर सकते थे! इन देवताओं के भी यार खूब ऐश थे !

एक महीने के भीतर मैं गोमती को पटा लेने में सफल हो गया. यं देहात की किसी लड़की को पटाना किसी शहरी बाबू के लिए कोई ख़ास मुश्किल काम नहीं है. फिर भी कुछ समय तो लगता ही है. मुझे लगने लगा, गोमती मेरे लिए समर्पित हो चली है. बाड़ी के काम-काज के बीच जैसे ही मुझे मौका मिलता, मैं बाज की तरह झपट पड़ता. उसके गालों, होठों और उरोजों को अपने होठों से तर कर देता. वह निश्चेष्ट पड़ी रहती थी, चुपचाप.कुछ-कुछ मुस्कुराती हुई.

उस दोपहर तो मैंने हद कर दी.

जैसे ही कमरे में वह कुदाल लेने पहुंची, मैंने उसे बिस्तर में खींच लिया. बेतहाशा चूमने लगा.

और मैंने बिलकुल अनायास उससे कह दिया था—बिना श्लील-अश्लील की सोचे, या बगैर यह सोचे कि वह मेरे बारे में क्या सोचेगी.

छि ! कैसी गन्दी बात करते हो बाबो ! शर्म से उसने अपना मुँह छिपा लिया. इस शर्म में मुझे लगा, कुछ उसकी हँसी भी शामिल है.

किन्तु मैं किसी गहरे नशीले आवेग और अजीब जिद में अड़ा रहा—बचपने की हद तक.

“नहीं-नहीं, तुमको करना होगा मेरी खातिर....”

वह ना-ना करती रही लेकिन मैं अपनी जिद पर कायम था.

“छि बाबू ! तुम बहुत गंदे आदमी हो !” वह अजीब खिसियानी-सी हँसी हँस रही थी जिसमें मुझे लगा, मेरी इस जिद के लिए सिर्फ गुस्सा ही नहीं, थोड़ा-सा प्यार भी है, जैसे उसको यह खेल कुछ-कुछ भा रहा हो...

फिर तुरंत, एकदम भाग गयी हिरनी होकर. हंसती हुई और खुद पर लजाती हुई.

मुझे यों उसका हँसते हुए भाग जाना अच्छा लगा था. भागते हुए जैसे वह अपनी उम्र से आधी रह गयी थी—बारह-तेरह बरस की कोई अल्हड़ लड़की, जो अपने दैहिक रहस्यों से पहली बार परिचित हो रही हो, जिसमें शर्म है, घबराहट है और एक वयस्क ख़ुशी है.

मैं उसे क्यारियों के बीच भागते देखता रह गया.

हालांकि यह कोई खेल नहीं था, लेकिन मुझे लगता था मैं खेल रहा हूँ और लगातार जीत रहा हूँ...और आगे बढ़ रहा हं—अपनी मुकम्मल जीत की तरफ.अब मुझे अपनी उस आखिरी जीत का इन्तजार था. कहीं न कहीं मुझे इस बात का भी विशवास कि गोमती भी इस क्षण की बात जोह रही है...

लेकिन मुझे कोई जल्दी नहीं थी. मैं अपनी जीत बिलकुल मनमाफिक तरीके से चाहता था, जिसमें उसका ऐसा इन्तजार करना शामिल था. मैं दरअसल चाहता था, वह इस इन्तजार में माँ बनकर एकदम पिघल-पिघल जाए...

और वह दिन भी जल्दी ही आ गया.

आज गाँव में कोई त्यौहार था. इन सेल देहातियों के त्योहारों और उत्सवों का कोई अंत नहीं.इनका बस चले तो रोज तिहार मनाएं. इन्हें काम से छुट्टी का बहाना चाहिए.कभी ये पानी गिराने के लिए मेंढक-मेंढकी की शादी का उत्सव रचाएंगे, कभी फसलों को फांफा (टिड्डी) के हमले से बचाने के लिए फांफा त्यौहार मनाएंगे, तो कभी सारे गाँव को टोनही की बुरी नजर से बचाने के लिए सामूहिक पूजा-पाठ करेंगे! समझ नहीं आता ये सेल कब सुधरेंगे ! मैं उनके आये दिन होने वाले त्योहारों और छुट्टियों के मारे परेशान हूँ. सालों के घर में कुछ है नहीं, मगर त्यौहार मनाना जरूरी है !

मैं बाड़ी में निपट अकेला सिगरेट पीते हुए यही सब सोच रहा था. अभी थोड़ी देर पहले ही मं घर से आया था. शहर सर. हीरो-होन्डा से.

आज बाड़ी में एक भी लेबर नहीं है.उनके बगैर बाड़ी इतनी हरी-भरी और फली-फूली होने के बावजूद मुझे बेहद उजाड़ और उदास लग रही थी.जैसे इन्हें भी हरदम जीते-जागते मनुष्य का साथ चाहिए, और उनके बिना ये इतनी फीकी और बेरौनक हो चली है. आसमान में दोपहर की सफेदी थी जो इसे और वीरान बना रही थी.

मैंने घड़ी देखी—ढाई बज रहे थे. मुझे एक बार शंका हुई कि गोमती आएगी या नहीं. कहीं साली धोखा तो नहीं दे देगी ? शायद नहीं.

यह मेरी तीसरी सिगरेट थी. मैं पीता जा रहा था और सोचता जा रहा था. अब मैं गोमती के बारे में ही सोचने लगा. कि वह सब कैसे होगा.

मेरी आँखें अब गोमती को देख रही थीं...बिलकुल निर्वस्त्र...

मेरी इच्छाएँ आकर लेने लगीं....इनका रंग गहरा गुलाबी था...

सहसा वह मुझे आती हुई दिखी...बबूल के पेड़ों के बीच की पगडंडी पर....हरी साड़ी में लिपटी हुई...

पता नहीं क्यों, मैं जल्दी-जल्दी कश लेने लगा...कुछ घबराहट-सी महसूस कर रहा था, गोया यह सब पहली बार करने जा रहा हों. लेकिन जल्द ही इससे उबार गया.

मुझे देखकर वह मुस्कुराई. मुझे अच्छा लगा. एक शुभ संकेत.

“देरी होगे का...?” उसने सिर्फ पूछने के लिए मुझसे पूछा.

“नहीं.” मैंने कहा.

वह खोली के भीतर आ गयी. मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

अब हम बंद कमरे के हलके उजाले और हलके अँधेरे में थे. खोली के फर्श पर छानी से कहीं-कहीं रोशनी के उजले गोले गिर रहे थे—यथाशक्ति अँधेरा दूर करते हुए...

बंद कमरे के अँधेरे-उजाले में उसकी देह मुझ पर जादू करने लगी, एक नशा...एक आवेग...मेरे आगे अब गोमती नहीं, सिर्फ उसकी देह थी.

मुझ पर कोई अँधा जूनून तरी हो गया.मैंने उसे बिस्तर पर खींच लिया. अंधाधुन्ध उसके ब्लाउज के बटन खोलने लग लगा...मैं अपनी ली पाने की कोशिश मेंलग गया.

“बाबू...” वह मेरे बोझ के नीचे जैसे कसमसाकर अपनी गर्दन निकालती हुई बोली.

मैंने उसी आवेश में उसकी छाती से मुँह सताते हुए कहा, ”क्या...?”

“बाबू... थोड़ा जल्दी छोड़ देना...” स्वर में प्रार्थना थी.

“क्यों?”

“वो क्या है न बाबू... घर में पहुना आ गए थे. उनके रांधने-पकाने के मरे नानकुन को दूध नहीं पिला पायी...अभी उठ के रोता होगा...”

मुझे यह सुनना बिलकुल अजीब लगा. यह सुनना इतना अचानक था कि मैं ऐसे समय में इस बात कि कल्पना भी नहीं कर सकता था. इसकी आँखों में सिर्फ अपना बच्चा है...और यहाँ रहते तक वही रहेगा...उसके बच्चे से सहसा मुझे अपने बच्चे की याद आ गयी. उसका चेहरा अब मेरी आँखों में था. मैं अजीब हाल में पहुँच गया. सुनकर जैसे मैं पत्थर हो गया. लगा, किसी बोझ की तरह इस पर लदा हूँ मैं...बहुत भारी बोझ की तरह. कि मैं कोई जीता-जागता शरीर नहीं, एक मुर्दा लोथ हूँ...ठंडा...बिलकुल बर्फ के समान...

मुझे चक्कर-सा आने लगा. मैं उससे अलग हो गया. लगा, कमरे का तापमान कई डिग्री नीचे खिसक आया है. मैं ठण्डा हो गया हूँ...बेजान औए निर्वीर्य...बिलकुल लुंज-पुंज, शक्तिहीन...जैसे भीतर का समूचा पौरुष स्खलित हो गया हो...

मैंने अपना माथा छुआ तो हथेली पसीने से भीग गयी.मैं मानो किसी बुखार में काँप रहा था.मैं बेहद हैरान था. आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ...

मैं कुछ राहत पाने उठकर सिगरेट के लिए अपने शर्ट की जेब टटोलने लगा. हाथ सहसा बटुए पर चला गया. जाने क्या सोचकर मैंने बटुआ खींच निकाला. और बिना सोचे-समझे, किसी अजीब झक में रुपयों को गिनने लगा...अचानक मैंने गिनना बंद कर जितना था बाहर निकाल लिया.

मैंने रुपये वाला हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया—ये लो. उसे देखकर मैंने अपनी आँखें झुका लीं, “अपने कपड़े पहन लो...”

वह एकदम हड़बड़ा गयी, “ बाबू...का होगे... बाबू...” वह परेशान होकर बार-बार मुझसे पूछ रही थी., “तबीयत खराब होगे का...?”

मैंने कहा, “नहीं. ये रखो....और तुम जाओ...”

मैंने आगे बढ़कर कमरे का दरवाजा खल दिया.

दोपहर का तेज उजाला कमरे में भर गया.और अलसायी हुई हवा का भीतर आना भला लगा.मुझे जैसे इसकी इस समय सबसे ज्यादा जरूरत थी. खोली की तीखी रासायनिक बू की घुटन हवा में घुलकर बहने लगी.

अपने कपड़े ठीक करने के बाद गोमती ने एक बार फिर मेरी तरफ देखा, मानो उसे यकीन न हो रहा हो. वहां किसी ऐसे अपराधबोध की छाया थी जिसे वह समझ नही पा रही है.

“जाऊँ?”

“हाँ, जाओ.”

“बाबू, ...इतना पैसा काहे के लिए...?”

“बस रख लो.” फिर एक पागल उत्तेजना में चीखा, “ और कल से काम पर मत आना !”

गुस्से में मैंने एक गन्दी गाली दी.

सहसा मुझे सिगरेट की डिब्बी मिल गयी.

पर मैं बुरी तरह छटपटा गया, जल से बाहर मछली के समान. डिब्बी में एक भी सिगरेट नहीं थी.

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कैलाश बनवासी

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