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भगवान के मनके

भगवान के मनके

एक बार भगवान श्री कृष्ण एकांत में बैठे थे। उनके हाथ में एक माला थी जिसके एक-एक मनके को वे अपनी आँखें मूंदकर घुमा रहे थे।
इतने में वहाँ पर कहीं से कुंती पुत्र 'अर्जुन' आ जाते हैं।
अर्जुन ने जब स्वयं श्री कृष्ण को इस तरह का उपक्रम करते हुए देखा तो उनसे रहा न गया और अर्जुन बोले-"हे केशव आप किसके नाम की माला का जाप कर रहे हैं।"
अर्जुन के इस तरह से प्रश्न करने के पीछे यह कारण भी है कि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि श्री कृष्ण कोई साधारण पुरुष नहीं हैं जिसे इस तरह से माला फेरने की आवश्यकता हो...।
श्री कृष्ण तो स्वयं नारायण भगवान विष्णु के अवतार हैं ।
जिन्होंने इस धरती से पापियों का संहार करने के लिए माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया है।
श्री कृष्ण तो अंतर्यामी ठहरे, उन्होंने अर्जुन के मन की शंका को जान लिया...
अर्जुन के प्रश्न को सुनकर श्री कृष्ण अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ बोले - "पार्थ मैं अपने भक्तों के नाम की माला फेरता हूँ।"
अर्जुन को इस बात से आश्चर्य हुआ...
और कहा "यदि ऐसा है तो हे केशव इसमें मेरे नाम का मनका कौनसा है अथवा हो न हो अवश्य ही ये माला मेरे नाम की है।"
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा " नहीं पार्थ ना तो ये माला तुम्हारे नाम की है और ना ही इसमें जड़ित कोई भी मनका तुम्हारे नाम का है। ये तो मेरे अन्य भक्तों के नाम की माला है।"
इतना सुनकर अर्जुन को थोड़ा बुरा लगा और वहाँ से चले गए..।

अब इस प्रसंग को एक बार यहीं विराम देते हैं...
इधर दो मित्र थे लेकिन उनके गाँव अलग-अलग थे। समय आने पर दोनों मित्रों को एक-एक संतान की प्राप्ति हुई। एक मित्र को बेटा हुआ था तो दूसरे को बेटी हुई थी।
जनश्रुति के अनुसार सुनने में आता है कि पहले बहुत कम उम्र में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी। यहाँ तक कि अबोध बालक-बालिकाओं की शादी भी करवा दी जाती थी।
अब दोनों मित्रों ने भी मित्रता को रिश्तेदारी में बदलने की सोची...
1 वर्ष पश्चात दोनों अबोध बालक-बालिका की शादी कर दी गयी...।
लड़के का नाम 'सत्य' तथा लड़की का नाम 'जीत' था।

तय किया गया कि जब लड़का 20-22 साल का हो जाएगा तब अपनी ब्याहता को अपने घर ले आएगा।
दोनों परिवार धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस कारण दोनों परिवारों ने अपने-अपने बच्चों को उच्च गुण युक्त बहुत अच्छे संस्कार दिए थे।
समय गुजरता गया और लड़का-लड़की लगभग 20-20 वर्ष के हो गए...।
एक दिन 'सत्य' को उसके पिता ने कहा कि अमुक गाँव में अमुक व्यक्ति की लड़की से तुम्हारी शादी बचपन में ही करवा दी थी।
अब चूंकि तुम्हारी माँ की भी उम्र ज्यादा हो गयी है इसलिए तुम मेरे बताए पते पर जाओ और अपनी पत्नी को ले आओ।
बहु के आ जाने से तुम्हारी माँ को भी थोड़ा आराम मिलेगा।
लड़का आज्ञाकारी और संस्कारी था सो पिता की आज्ञा से अपनी पत्नी को लाने आवश्यक समान के साथ ऊँट पर सवार होकर चल पड़ा।
क्योंकि उस समय यात्रा करने के लिए यातायात के साधन जैसे ट्रैन, बस इत्यादि नहीं होते थे। उस समय यात्रा ऊँटों, घोड़ों, हाथियों से अथवा पैदल ही यात्रा की जाती थी।

चलते-चलते सत्य अपने ससुराल पहुँच गया, लेकिन उसे अपने ससुर के घर का रास्ता मालूम नहीं था।
गाँव में प्रवेश करने से पूर्व एक कुआँ था। उसी कुएँ पर जल भरने के लिए एक अत्यंत ही रूपवती कन्या आयी हुई थी। युवती जल से भरा घड़ा उठवाने के लिए किसी की प्रतीक्षा कर रही थी।
इतने में वहाँ सत्य पहुँच जाता है। युवती ने सत्य से कहा कि भैया आप मुझे जल से भरा घड़ा उठवा दें तो बड़ी कृपा होगी। इतना सुनकर सत्य बोला बहन मैं आपको घड़ा तो उठवा दूँगा लेकिन आप मुझे एक घर का पता बता दें तो मुझे भी गंतव्य तक पहुंचने में आसानी होगी।
युवती ने कहा हाँ भैया मैं अवश्य ही आपकी सहायता करूँगी...।
इतना कहकर सत्य ने एक हाथ से जल से भरा घड़ा उठाया और युवती के सिर पर रख दिया... ।
तब सत्य ने युवती को नाम पता बताया, जहाँ उसे जाना था।
तब युवती ने कहा कि आप मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।
लेकिन अब युवती के मन में कुछ विचार आने लगे; जैसे उसने घर में चर्चा सुन रखी थी कि एक दो दिन में उसके पति उसे लेने आने वाले हैं। किसी अनजान आशंका के कारण उसे थोड़ा डर भी लगने लगा था कि कहीं ये उसके पति तो नहीं।
क्योंकि ये युवती कोई और नहीं 'जीत' ही थी जिसकी शादी बचपन में ही 'सत्य' से हुई थी...।
'जीत' आगे-आगे चलती रही और 'सत्य' पीछे-पीछे...।

थोड़ी देर पश्चात जीत ने बिना किसी सम्बोधन के इशारे से बताया कि यही घर है, जहाँ आप जाना चाहते थे और स्वयं भी उसी घर में प्रविष्ट हो गयी...

ईधर जब सत्य भी जब घर में पहुंचा तो घरवालों ने अपने दामाद की बड़ी आवभगत भी...

नाना प्रकार के व्यंजन बनाए गए... पूरा परिवार बहुत खुश था... इधर जब 'सत्य' को ये एहसास हुआ कि जिस लड़की को तुमने बहन स्वीकार कर लिया है, उसी के साथ बचपन में तुम्हारी शादी हो चुकी है।

इधर 'जीत' भी इस बात से बहुत परेशान थी क्योंकि वो भी अपने आपको दोहरे रिश्ते में उलझा हुआ महसूस कर रही थी... ।

दोनों समझदार थे इसलिए किसी ने भी कुछ नहीं कहा और जो हो रहा था जैसा हो रहा था उसे विधि का विधान और प्रारब्ध मानकर स्वीकार कर लिया।

अब 'जीत' की विदाई का समय भी आ गया...। 'सत्य' और 'जीत' ने बड़ों से आशीर्वाद लिया और वहाँ से विदा हुए।

अब दोनों सत्य के घर पहुंच चुके थे... वहाँ पर भी नववधू का दिल खोलकर स्वागत किया गया...

दिनभर घर में मेहमानों के आने से घर के सभी सदस्य बहुत व्यस्त थे...।

जब शाम को भोजन के बाद सारे मेहमान चले गए तो सत्य ने जीत से कहा कि "तुम जानती हो हमारी शादी बचपन में ही हो गयी थी इस कारण से हम पति पत्नी हैं दुनियां की दृष्टि में भी और देखा जाए तो ये वास्तविकता भी है लेकिन जब हम युवावस्था में पहली बार मिले तो तुमने मुझे भाई कहा और मैंने भी मन ही मन तुम्हें अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। शादी के समय हम अबोध थे और हमें कोई ज्ञान नहीं था तो वह बात मेरे लिए उतना मायने नहीं रखती। इसलिए अब भी मैं तुम्हें अपनी बहन मानता हूँ और हमेशां भाई-बहन के रिश्ते को ही निभाउंगा। इस रिश्ते को निभाने में मुझे तुम्हारा साथ चाहिए...।"

सत्य से ऐसा सुनकर 'जीत' की आँखें अश्रुपूरित हो उठी और जीत ने कहा; "मैं स्वयं भी यही चाहती हूँ आपने मेरे हृदय से जैसे बहुत बड़े बोझ को हटा दिया है। अगर आप ऐसा नहीं करते तो कदाचित् मैं आत्महत्या कर लेती।"

नहीं-नहीं तुम्हें ऐसा पाप करने की कोई आवश्यकता नहीं है दुनियां की दृष्टि में हम पति-पत्नी ही रहेंगे लेकिन मैं कभी भी गृहस्थ भावना के अधीन होकर तुम्हें स्पर्श भी नहीं करूंगा, अन्तिम शब्द कहते हुए सत्य की आँखें भी सजल हो गयी।

किसी तरह दोनों ने एक दूसरे को आश्वस्त किया और अलग-अलग सो गए...

इसी तरह 7-8 वर्ष निकल गए और उनको कोई सन्तान प्राप्ति नहीं हुई वास्तविकता सत्य और जीत के अलावा और कोई नहीं जानता था।

एक दिन जब जीत अपने मायके गयी हुई थी तब उसकी माँ ने उसके सामने अपने मन की बात रखी।

जीत की माँ ने कहा कि पुत्री तुम्हारी शादी को 7-8 वर्ष हो गए लेकिन अभी तक तुम्हें सन्तान सुख प्राप्त नहीं हो सका... जीत भला अपनी माँ को कैसे बताती की कारण क्या है?

इसी सम्बन्ध में जीत की माँ ने जीत से आग्रह किया कि हम तुम्हारी बहन जो कि तुमसे 3 साल छोटी है का विवाह सत्य से करना चाहते हैं जिससे तुम्हारे घर में भी खुशियां आ सके...।

जीत ने माँ से कहा कि मुझे तो स्वीकार है लेकिन उनसे बात करनी पड़ेगी।

सब कुछ ठीक हुआ और सत्य ने भी दूसरी शादी के लिए हाँ कर दी क्योंकि जीत ने स्वयं 'सत्य' से आग्रह किया था।

नियत समय पर सत्य की शादी 'श्रद्धा' से हो गयी..।

दूसरे दिन जब विदाई का वक़्त आया तब सत्य को आशीर्वाद देते हुए उसकी सास ने कहा कि "आप मेरे पुत्र समान हैं।

जिस तरह से आपने जीत को रखा ठीक उसी तरह से आप श्रद्धा को भी रखना।"

अब सत्य एक बार फिर धर्म-संकट में पड़ गए... किसी तरह सत्य, जीत और श्रद्धा घर पहुँचे...

अवसर देखकर सत्य और जीत ने श्रद्धा को पीछली सारी बातें बता दी और साथ ही आज विदाई के समय आशीर्वाद देते हए जो बात श्रद्धा और जीत की माँ ने सत्य से कही वो भी...

और सत्य ने ये भी कहा कि पहले हम दो ही भाई बहन थे अब हम तीनों को इस रिश्ते को भगवान का नाम लेकर और उन्हीं परमेश्वर की इच्छा समझकर निभाना है।

आज से तुम दोनों बहनें आपस में प्रेम से रहना और अब तुम दोनों का समय भी अच्छे से बीत जाएगा इसलिए आज के बाद मैं घर के बाहर के हिस्से में रहूँगा और आप दोनों से कभी कोई बात नहीं करूँगा।

श्रद्धा और जीत क्या करती उन्होंने भी इस बात को स्वीकार कर लिया... और इसी तरह समय निकलता रहा...


अब वापस चलते हैं श्रीकृष्ण और अर्जुन के प्रसंग के ओर...

इधर एक दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि पार्थ! आओ कहीं भ्रमण करने चलते हैं...।

चल पड़े दोनों एक साथ...

चलते-चलते दोनों किसी गाँव में पहुँचे... इधर भगवान श्री कृष्ण ने योगमाया के प्रभाव से अर्जुन की जठराग्नि को अधिक तीव्र कर दिया जिससे अर्जुन क्षुधा से व्याकुल हो उठे...

और कहा "केशव बड़ी जोर से भूख लगी है, प्यास से गला भी सूख रहा है, अब आप ही कोई उपाय करें...।

तब श्रीकृष्ण ने कहा कि हम अपना भेष बदलकर महात्मा बन जाते हैं और किसी गृहस्थ के घर जाकर याचना करते हैं, कोई न कोई तो हमारी सहायता करेगा ही...।

जो आज्ञा प्रभु! कहकर अर्जुन ने कुछ मन्त्र पढ़कर अपने को महात्मा के रूप में परिवर्तित कर लिया और श्री कृष्ण ने भी ऐसा ही किया...।

दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए...

और गाँव में प्रवेश किया...

एक दरवाजे पर जाकर कृष्ण ने आवाज दी तो एक युवक बाहर आया जो कि 'सत्य' था।

सत्य ने दोनों महात्माओं को प्रणाम किया... और ने हाथ जोड़कर कहा महात्मन् मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ...।

"...हमें प्यास लगी है।" - श्री कृष्ण ने कहा।

जी मैं अभी जल लेकर आता हूँ कहकर सत्य ने

जल का लौटा लाकर महात्माओं को दिया...।

महात्मा बने अर्जुन के चेहरे से प्रतीत हो रहा था जैसे जल पीने से कुछ राहत मिली हो...।

तभी श्रीकृष्ण ने कहा कि हमें बहुत भूख लगी है हम भोजन करना चाहते हैं... तनिक् हमारे लिए भोजन की व्यवस्था भी करवा दो... घर में कोई तो होगी बहु-बेटी उनसे कह दो की हमारे लिए रसोई तैयार करें।

जी मैं अभी बोलता हूँ, कहकर सत्य आँगन की ओर चला तो गया लेकिन दुविधा में था क्योंकि 'सत्य' वचन में बंधा हुआ था...।

अगर 'सत्य' 'जीत' या 'श्रद्धा' दोनों में से किसी को भी भोजन बनाने के लिए कहता तो 'सत्य' का उनसे न बोलने का वचन टूट जाता।

इसी धर्मसंकट में विचार करते-करते सत्य ने छत पर बने मकान में अपने आप को फाँसी लगा ली।

उधर जब बहुत समय तक ना तो भोजन आया और ना ही सत्य आया तो भूख से व्याकुल अर्जुन का धैर्य घुटने टेकने लगा।

अर्जुन ने भगवान से एक बार फिर प्रार्थना की...

तो भगवान ने अर्जुन से कहा कि आँगन में चलकर देखते हैं भोजन बनने में अभी और कितना समय लगेगा...

जब कृष्णार्जुन ने आँगन में जाकर आवाज लगाई तब जीत और श्रद्धा बाहर निकलकर आयीं।

प्रणाम महात्मन!

"सदा सुखी भवः" का आशीर्वाद साधु रूप कृष्ण ने दिया...

आशीर्वाद सुनकर दोनों बहनों को प्रसन्नता हुई लेकिन तुरंत उन्हें अपनी स्थिति का ध्यान भी हो आया।

श्री कृष्ण ने पूछा पुत्री भोजन बन गया ?

तब दोनों आश्चर्य में पड़ गयी और सोचने लगी कैसा भोजन ?

जीत ने कहा क्षमा करें महात्मन हमें तो किसी ने भी भोजन बनाने के लिए नहीं कहा ...।

तब कृष्ण ने कहा कि बाहर जो युवक बैठा था उसे हमने भोजन का प्रबंध करने के लिए कहा था... और वो अंदर भी आया था।

अब कहाँ है?

तभी जीत ने कहा थोड़े समय पहले मैंने उन्हें ऊपर जाते हुए देखा था।

वास्तविक स्थिति जानने के लिए साधुवेशधारी श्रीकृष्ण और अर्जुन छत पर बने कमरे में गए...

और वहाँ जाकर अर्जुन के तो जैसे होश ही उड़ गए...

जब सत्य को रस्सी के सहारे झूलते हुए पाया...

तब अर्जुन घुटनों के बल श्री कृष्ण के चरणों में गिर पड़े और कहने लगे हे केशव! ये सब क्या हो गया?

तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को सारी बात विस्तार से बताई...।

और कहा ऐसे भक्त भी होते हैं इस संसार में...

हे पार्थ! उस दिन तुमने पूछा था कि वो माला कौनसे भक्तों की थी तो सुनो... उस माला में एक मनका इस भक्त का भी था।

कहकर भगवान ने स्वयं सत्य के शव को नीचे उतारा और उसे संजीवनी मंत्र से पुनः जीवित कर दिया...

भगवान जो उस समय अपने वास्तविक रूप में थे को अपने सम्मुख देखकर 'सत्य' श्री कृष्ण के चरणों में लोटने लगे...

तब भगवान श्रीकृष्ण ने सत्य से कहा कि अब तुम पिछले जन्म के सारे वचनों से मुक्त हो चुके हो क्योंकि मैंने तुम्हें नया जीवन प्रदान किया है, इसलिए अब तुम अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रहो...

इतने में जीत और श्रद्धा भी वहाँ आ गयी और एकदम से साक्षात श्रीकृष्ण के दर्शन पाकर धन्य हो गयी...

तब दोनों को सारी बात समझ भी आ गयी और महात्मा रूप में श्रीकृष्ण द्वारा दिये आशीर्वाद का रहस्य भी दोनों बहनों को समझ आ गया...

इधर अर्जुन भी भगवान से क्षमा याचना करने लगते हैं और कहते हैं "हे प्रभु आपकी माया के सामने भला कौन जीत सकता है, हे प्रभु! 'कर्त्ता' भी आप, 'कारण' भी आप और 'साधन' भी आप हैं तो 'साध्य' भी आप ही हैं ...।"

'जय श्री कृष्ण' 🌹🌹🙏🙏


___'समाप्त'

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✍️ परमानन्द 'प्रेम'