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महाकवि भवभूति - 16 - अंतिम भाग

महाकवि भवभूति 16

वानप्रस्थ आश्रम का पड़ाव कश्मीर

कश्मीर का प्रश्न आते ही पद्मावती के लोग कश्मीर के बारे में सोचने लगे - आश्चर्य की बात यह है कि किस तरह लोग वहाँ बर्फ से ढके घरों मंे रहते होंगे। जब बर्फ जम जाती होगी तो लोग किस तरह उस पर चलतें-फिरते होेंगे। सुना है वहाँ बहुत ही अधिक सर्दी पड़ती है। इतनी विकराल सर्दी में क्या जीवन अस्त-व्यस्त नहीं हो जाता होगा? ऐसे मौसम में हमारे महाकवि वहाँ कैसे रह पायेंगे? वहाँ के लोग तो रहने के अभ्यस्त हैं। इन्हें तो वहाँ का नया-नया अनुभव होगा। दिनभर लोगों को अलाव लगाकर तापते रहना पड़ता होगा। वहाँ इतनी सर्दी में लोग काम कैसे करते होंगे? यों अनन्त प्रश्न लोगों के मन में उठ रहे थे।

उधर कश्मीर पहंँचते ही भवभूति अपने कश्यप ऋषि की तपोभूमि देखने के लिये व्यग्र हो उठे। जिससे उनकी तरह उन्हें भी आत्मबोध का सुख अनुभव हो सके। पत्नी दुर्गा ने कश्यप ऋषि की तपोभूमि के बारे में वहाँ पहुँचकर सारी जानकारी प्राप्त कर ली थीं। वे भी अपने ऋषि की तपोभूमि देखने के लिये व्यग्र थीं। एक दिन पति को सोचते हुये देखकर पूछ बैठी- ‘क्या सोच रहे है ?’

उत्तर मिला- ‘आत्मबोध के संबंध में।’

यह सुनकर वे बोलीं- ‘अब हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य आत्मबोध ही शेष रह गया है। आप आत्मबोध के संबंध में किस तरह सोचते हैं?’

प्रश्न सुनकर वे भावुकों की तरह बोले- ‘आत्मबोध का अनुभव कर पाते हैं योगी, भक्त एवं ज्ञानी। आत्मबोध पाने के लिये जब-जब हम व्याकुल हो , ध्यानस्थ हो जावें। अनुभव होगा- इन भौतिक चक्षुओं से पृथक भी कोई देखने वाला है- जो रात के गहरे अंधेरे में भी आसानी से देख सकता है। अपने आप को परख सकता है। बिना त्वचा के स्पर्श अनुभव करता है। बिना कानों के सुनता है। बिना पैरों के चलता है। संकेत की इस भाषा से उसे पहचाना जा सकता है। इसे स्पष्ट जानने के लिये हमें दिव्य नेत्रों, कानों, जिव्हा और दिव्य त्वचा की आवश्यकता होगी। इन सबमें दिव्यता आ सकती है, साधना से, आराधना से अथवा संतो की कृपा से, तभी होगा हमें आत्मबोध।

यह सुनकर दुर्गा बोली- ‘साधना, आराधना अथवा संतकृपा।’

भवभूति ने उत्तर दिया- ‘इस तपोभूमि पर हमारे आदिसंत कश्यप ऋषि की हम पर कृपा हो जाये। इसीलिये हम यहाँ आये हैं।’

अब प्रश्न दुर्गा ने उठाया-‘कब चल रहें हैं उस पहाड़ी पर?’

उत्तर दिया-‘चलिये आज, इसी समय ही चलते हैं। जिससे शाम तक लौट आयेंगे।’ वे पहाड़ी के नीचे-नीचे चलकर ऊपर जाने का रास्ता खोजने लगे। पहाड़ी के नीचे दिख रही थी एक विशाल झील। उसमें सुन्दर-सुन्दर नावें चलती हुई दिखायी दे रही थीं। अब ऊपर जाने के लिये पगडण्ड़ी वाला रास्ता आ गया। धीरे-धीरे दोनों ही ऊपर पहुँचने के लिये चलने लगे। घनघोर जंगल के बीच से बनी पगडंडी के सहारे ऊपर जा पहँुचे। वहाँ एक स्थान पर शिवलिंग के दर्शन किये। अपने-अपने इष्ट मंत्र का जाप करने लगे।

कश्यप ऋषि की तपोभूमि से नीचे आते समय वे सोचते रहे, उस दिन की बात जब चितऔली कस्वे में परमहंस बाबा ने कहा था- ‘ज्योति से ज्योति मिलन के लिये जब व्याकुल होगी तभी मिलन होगा।’ उनकी तो प्रत्येक बात बहुत गहरी होती है। ’

दुर्गा समझा रही थी महाकवि किसी गहरे सागर के मोती की खोज में हैं। ऊपर से नीचे आते समय दुर्गम रास्ते के कारण दोनों मौन ही रहे।

कश्मीर नरेश राजाधिराज ललितादित्य काव्य एवं कला के पारखी हैं। उनके दरबार में विद्वानों एवं कवियों का सम्मान किया जाता है। महाकवि भवभूति के नाट्य काव्यों का उन्हांेने अध्ययन किया है।

कश्मीर नरेश की राजसभा के कुछ विद्वानों ने ईर्ष्या वश निश्चय किया कि भवभूति से उनकी नाट्य कृतियों से पृथक काव्य रचनाएँ सुनी जावें। योजना बनाकर उन्होंने महाराज ललितादित्य से निवेदन किया कि महाकवि भवभूति से उनकी नवीन काव्य रचनायें सुनवाने का कष्ट करें। इस हेतु महाकवि भवभूति को ससम्मान दरबार में आमंत्रित किया गया।

राजाधिराज महाराज ललितादित्य के सलाहकार मित्रशर्मा ने महाकवि भवभूति के आसन ग्रहण करते ही अपनी नवीन पद्य रचनाएँ प्रस्तुत करने का आग्रह किया। भवभूति उनकी आत्मीय भावना का सम्मान कर पद्यों का सस्वर पाठ करने लगे।

किं चन्द्रमाः .............(.परिशिष्ट श्लोक-9)

राजाधिराज ललितादित्य इस पद्य के भावार्थ में खो गये- जैसे चन्द्रमा रात्रि में कुमुदिनी को अपनी किरणों की शीतलता के प्रभाव से प्रफुल्लित करता है और जब तक रात्रि में चन्द्रमा की किरणे प्रसरित होती रहती हैं तब तक कुमुदिनी भी प्रफुल्लित सी लगती है। इस प्रकार चन्द्रमा समिष्ट एवं व्यष्टि रूप में मन का नियंत्रणकर्ता, शुद्धभाव को प्रकाशित करने वाला, प्रत्युपकार न चाहते हुये सारी सृष्टि को अपनी परोपकार की भावना से सबका कल्याण करता है। उसका यह परोपकारी जीवन सहज सरल एवं स्वभावतः ही है। इसी प्रकार महापुरुषों का जीवन परोपकार के लिये ही होता है।

भवभूति का स्वर पुनः मुखरित हो उठा-

दैवाद्यदि .............(.परिशिष्ट श्लोक-10)

मित्र शर्मा इस पद्य का भावार्थ अपने अन्तर्मन में विचारने लगे- शंकर जी के मस्तक पर चन्द्रमा, उनकी आभा को प्रकट करता है। इससे प्राणियों में अतिसुन्दर महादेव के समान कोई वस्तु ग्रहण करने के योग्य नहीं है। चन्द्रमा की कलाओं से शंकर जी के मस्तक की शोभा हैं, उसी प्रकार शंकर जी से देवताओं की शोभा है। यहाँ के विद्वान समझ रहे होंगे कि महाकवि वृद्ध हो गये हैं अब उनसे क्या लिखा जाता होगा!

महाकवि समझ रहे हैं थे, सुधीजन उनके इन रचनाओं के भावों का उचित मूल्याँकन कर रहे हैं। अतः कुछ विराम के बार पुनः स्वर गुंजित हो उठा -

अलि पटलैनुयातां .............(.परिशिष्ट श्लोक-11)

सभी दरबारियों का चित्त भावार्थ खोजने लगा था- हिरण की नाभि से निस्सृत गंध से, हवा के झोंकों में झूमती हुई भौरों की पंक्ति सुवह की इच्छा रखने वालोें के हृदय की पीड़ा को शान्त करती है। यह तो महाकवि की कोई नवीन रचना का अंश अनुभव में आ रहा है।

निस्सार............(.परिशिष्ट श्लोक-12)

जिस प्रकार मुख के अन्दर तीव्र धार वाले प्रहारक दातों के मध्य में सब तरह के रसों से परिपूर्ण जिह्वा सुरक्षित रहती है उसी प्रकार भगवान की गोद में अपने को लीन करने वाले विघ्नों से सुरक्षित रहते हैं।

अरे! हम महाकवि से व्यर्थ ही द्वेष रखते रहे। यह सोचकर उनके मुख से निकल पड़ा- वाह! महाकवि वहा! आप तो इस उम्र में भी आश्चर्यजनक लेखन कर रहे हैं।

भवभूति रुके नहीं अब वे एक और नये पद्य का सस्वर वाचन करने लगे -

भुवां धर्मरम्भे ............(.परिशिष्ट श्लोक-13)

यह पद्य सुनकर राजाधिराज इसके भाव को ग्रहण करने का प्रयत्न करने लगे-

पृथ्वी गंध गुण वाली है और वायु उसकी गन्ध को प्रसारित करने वाली है। वही वायु सुगन्धित शीतल होने पर अपने गुण से पृथ्वी के ताप के दोषों को नष्ट करती है। वही वायु रजकणों को आकाश में ले जाकर आच्छादित कर देती है। भ्रमरों को प्रिय लगने वाले पराग से परिपूर्ण वायु को आकाश में आच्छादित कर सारे वायुमण्डल को सुखप्रद बना देती है। ताप से दग्ध जीवों को अमृत कल्पवृक्ष के समान इच्छा पूर्ण कर देती है।

इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले सुगन्धित पुष्पों की गन्ध को वायु अपने गुण से सुगन्धित कर देती है। उसी प्रकार महापुरूषों के चरित्र, आदर्श एवं जीवन वायु की तरह संसार में प्रसारित होकर सबको सुख प्रदान करते हैं।

निश्चय ही महाकवि भवभूति की इन तीन कृतियों के अतिरिक्त चौथी कृति होनी ही चाहिये। महाकवि भवभूति कितनी गहरी भावनुभूतियों वाले शब्द शिल्पी हैं। आज इस धरती पर उनसा कोई दूसरा नहीं है।

इसी समय उनके कानों में भवभूति का मधुर स्वर सुनाई पड़ा -

लघुनि .............(.परिशिष्ट श्लोक-14)

राजाधिराज महाराज ललितादित्य को अनुभव हो गया कि महाकवि ने सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति का उपाय प्रतीकों के माध्यम से कितनी सहजता से प्रस्तुत किया है।

महापुरूष स्त्री के सौन्दर्य आदि गुण-दोषों एवं सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से परे होकर छोटी कुटीर में केवल जौं आदि धान्य पदार्थों का सेवन करके सुखी रहते हैं। जिस तरह कमल जल के मध्य में हमेशा रहते हुये स्निग्धता के कारण जल के गीलेपन से मुक्त रहता है, वैसे ही महापुरूष सांसारिक प्रपंचों से मुक्त रहते हैं।

महाराज यशोवर्मा ने अपने ‘रामाभ्योदयम्’ नामक नाट्य काव्य में शब्दों के माध्यम से गहरे भाव व्यक्त करने का प्रयास किया है। लेकिन महाकवि तो सरल शब्दों के माध्यम से गहरी बातें कहते हैं -

का तपस्वी .............(.परिशिष्ट श्लोक-15)

महाराज ललितादित्य को यह पद्य सुनकर याद हो आया- सुना है महाकवि भवभूति के इसी भावार्थ का कुछ पाठान्तर के साथ कोई अन्य पद्य प्रस्तुत किया था जिसकी चर्चा हम सुन चुके हैं। पद्मावती के राजा वसुभूति के पिताश्री ने यही पद्य सुनकर उन्हें भवभूति की उपाधि से सम्मानित किया था। उसका यही भावार्थ तो था- गिरिजाशंकर का आश्रय लेने वाले भक्तों का तपोमय जीवन विश्व की विभूति बनकर रहता है। इसलिये गिरिजा माँ के दूध की वन्दन करता हँू। जिस प्रकार माँ के स्तनों से निकला हुआ दूध बालक का पोषण करता है उसी प्रकार माँ गिरिजा मेरा पालन करती हैं।

पद्मावती नरेश काव्य के कितने गहरे पारखी रहे होंगे। यही सोचकर मुझे आश्चर्य होता है।

इसी समय महाकवि भवभूति कह रहे थे- ‘अब मैं यह अंतिम पद्य प्रस्तुत कह रहा हँू ’यह कहकर उनकी मधुर स्वर लहरी सभा को आल्हादित करने लगी -

वैकुण्ठस्य .............(.परिशिष्ट श्लोक-16)

यह सुनकर सारी सभा भावार्थ में खो गई- सृष्टि प्रलयकाल के समय शंकर जी के तामसी गुण से जड़ चेतन अर्थात् सारी सृष्टि नष्ट होकर महामाया के रूप में बदल जाती है। किन्तु जो बैकुण्ठनाथ भगवान के चरणकमलों का कागभुशुण्डि की तरह आश्रय लेकर रहते हैं वे उससे मुक्त रहते हैं।

राजाधिराज महाराज ललितादित्य के सलाहकार मित्रशर्मा कहने लगे- वाह! महाकवि वाह! आपने इन पद्यों के माध्यम से प्राणियों को भक्ति का सुन्दर संदेश प्रसारित कर दिया है। भवभूति भी स्वयं सोच के सागर में गोते लगा रहे थे। सभा के विसर्जन का आदेश होने पर वे यह सोचते हुये घर चल दिये-

मेरे द्वारा प्रतीकों के माध्यम से कितनी गहरी बात मुखरित हो गयी कि सारी सभा विचार तन्द्रा में डूब गयी। निश्चय ही मेरी कल्पना यथार्थ रूप धारण कर साकार हो उठी है। यह सब भगवान कालप्रियनाथ की ही कृपा है कि आज मनीषियों की सभा में अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा हँू।

राजाधिराज ललितादित्य राजकाज में व्यस्त हो गये। इन दिनों उन्हें कश्मीर से बाहर जाना पड़ा। प्रवास से लौटने के बाद महाकवि को दरबार में पुनः याद किया गया। जैसे ही महाकवि दरबार में उपस्थित हुये सभी ने उन्हें यथायोग्य सम्मान दिया।

अब महाराज ने लम्बे समय से अपने मन में पनप रही भावना को व्यक्त किया, बोले- ‘महाकवि आपकी सबसे उत्कृष्ट रचना कौन सी है?

यह सुनकर भवभूति सोचने लगे- कोई कृतिकार अपनी रचनाओं में किसे उत्कृष्ट मानें किसे नहीं, ऐसा सोचता हँू एक और उत्कृष्ट नाटक के सृजन का सार्थक प्रयास करूँ। लेकिन मैनंे तो सोचा था- उत्तररामचरितम् मेरी अंतिम कृति होगी। मेरी हर रचना के साथ यही संकल्प जुड़ा हुआ है। तभी उसका लेखन सार्थक हुआ है। अब एक और रचना का सृजन वांछित सा लग रहा है।

महाकवि को सोचता हुआ देखकर मित्रशर्मा ने कहा- ‘महाकवि ने राजाधिराज के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।’

यह सुनकर महाकवि भवभूति ने कहा- ‘एक नये नाटक की कल्पना आ रही है। ’

राजाधिराज ललितादित्य बोले- ‘अरे वाह! यह तो हमारे लिये गौरव की बात होगी। महाकवि हम आज उस रचना के बारे में जानने को व्यग्र हो उठे हैं।’

भवभूति समझ गये राजाधिराज के समक्ष कुछ नया प्रस्तुत करना ही पड़ेगा। यही सोचकर उन्होंने लम्बे समय से उफन रहे इस पद्य का सस्वर वाचन किया -

गाढग्रन्थिप्रुफुल्लद .............(.परिशिष्ट श्लोक-17)

राजाधिराज ललितादित्य इसके भावों में डूबकियाँ लगाने लगे- नाग के फन के पृष्ठ पर बसे अग्नि की पूर्ण ज्वाला के निकलने पर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से जिस प्रकार शान्ति मिलती है। सर्प की केंचुली सर्प आकार की नाल की तरह भय दिखाने वाली होती है। उसी तरह स्त्री के जम्हाई लेने पर आँख की भौहें स्वभावतः चढ़ जाने पर, नई आभा पैदा करती है। अर्थात् जिस तरह स्त्री भृकुटि चढ़ जाने पर क्रोध या भय की आशंका उत्पन्न करती है, उसी प्रकार सर्प के शरीर पर प्राप्त केंचुली सर्प के समान भय को प्रकट करती है।

इससे हमारे सामने क्रोधित नारी का वास्तविक चित्र उभर कर सामने आ जाता है। क्रोधित नारी की तुलना में कितना सटीक पर्याय प्रस्तुत किया है। इसमें जो कथ्य प्रस्तुत किया गया है, उससे लगता हैं महाकवि इससे किसी नये नाटक का प्रारम्भ कर रहे हैं। मालतीमाधवम् के समान ही संभवतः इस नये नाटक में इस पद्य का प्रयोग उनके द्वारा कथ्य की तरह किया जायेगा।

अब भवभूति कह रहे थे समस्त महानुभाव इस पद्य पर और ध्यान दें। यह कहकर भवभूति ने इस पद्य का सस्वर वाचन किया -

निरवद्यानि .............(.परिशिष्ट श्लोक-18)

राजाधिराज ललितादित्य के सलाहकार मित्रशर्मा इसके भाव को आत्मसात् कर सोचने लगे- काव्य के पाद आदि दोषों से नाटक को कोई क्षति नहीं होती, जैसे भिखरी के नेत्रहीन होने पर क्या गन्ना स्वाद विहीन हो सकता है। अर्थात् काव्य विहीन नाटक को कोई क्षति नहीं होती है, क्योंकि नाटक में महत्वपूर्ण होता है कथ्य। यदि कहीं कथ्य में व्यावधान आ गया तो नाटक को हानि हो सकती है।

भवभूति ऐसे कैसे नाटक की रचना कर रहे हैं? जिसमें काव्य विहीन कथ्य की कल्पना सजों रहे हैं। कैसा होगा वह काव्य एवं नाटक ? सारी राजसभा ने एक स्वर में भवभूति के इस पद्य का स्वागत किया-‘ वाह!वाह! आपने तो आश्चर्य ही कर दिखाया है।’

यह सुनकर महाकवि भवभूति ,महाराज को सम्बोधित कर कहने लगे। इस समय एक नया पद्य जन्म ले रहा है, सभी उसका आनन्द लें -

उषसि गुरूसमीपं .............(.परिशिष्ट श्लोक-19)

सारी राजसभा भावार्थ लगाने लगी- ‘हिरण के नेत्रों के समान नेत्र वाली स्त्री अपने गुरू से नाट्य नर्तन कला को सीखकर अपनी कला को प्रदर्शित करती हुई लज्जावान होकर अपनी कला की सौन्दर्यता को बढ़ाती है और अनेक प्रकार की लीलाओं का प्रदर्शन करती हुई तालगति में मग्न रहकर दर्शकों की भावना की गूँज में (कोलाहल में) बाल-लीला की तरह आमोद-प्रमोद प्रदान करती है।

राजसभा में से किसी की आवाज सुन पड़ी- ‘महाकवि ये सरस रचना कब तक पूर्ण हो रही है।’

उत्तर में भवभूति को जोरदार खाँसी ने आ घेर। जब खँासी थमीं तो सहज होते हुये बोले- ‘आज से ही इस नई रचना का लेखन शुरू कर रहा हूँ । आप लोग मेरी स्थिति देख ही रहे हैं। राजवैद्य सेवा में लगे हैं। लेकिन वृद्धावस्था में दवाओं का असर कम होने लगता है फिर भी मैं हार मानने वाला नहीं हूँ।’

राजाधिराज महाराज ललितादित्य को लगा- ‘महाकवि का स्वास्थ्य गिरता जा रहा है, सम्भव है वे इसे वृद्धावस्था के कारण पूर्ण ही न कर पायें। यही सोचकर बोले- ‘आप शीघ्रता न करें, जितना सहज हो उतना ही कार्य करें।’

इसके बाद सभा विसर्जित कर दी गई। सभी सभासद अपने-अपने स्थानों को चले गये। भवभूति उठे, धीरे-धीरे दरबार से बाहर आये ।

घर में पत्नी दुर्गा उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्हें देखते ही बोली- ‘आज दरबार में लम्बे समय के बाद याद किया गया।’

भवभूति ने सहजभाव में उत्तर दिया- ‘कश्मीर नरेश आज ही लम्बे प्रवास से लौटेे हैं। आज वे मुझ से मेरी उत्कृष्ट रचना के बारे पूछ रहे थे जिससे कश्मीर की जनता लाभान्वित हो सके।’

मैंने तो कह दिया- ‘उत्कृष्ट रचना तो लिखनी पड़ेगी। अरे! जब कोई रचना लिखी जाती है, उस समय वह उत्कृष्ट ही होती है। बाद में हर नयी रचना को लेखक उत्कृष्ट मानने लगता है। मैं अपनी किस रचना को श्रेष्ठ घोषित कर दूँ किसे नेष्ट।

कलाकार को अपनी प्रत्येक कृति उत्तम ही लगती है। यह बात राजाधिराज महाराज ललितादित्य को क्या समझ में नहीं आ रही है? वे भी क्या करें। युद्ध-युद्ध-युद्ध। यही तो युद्ध और शान्ति में अन्तर है। कला की परख के लिये हमारा चित्त शान्त हो तभी उसकी उत्कृष्टता की परख की जा सकती है।

मैं तो सोचता हँू इस बहाने एक और नई रचना लिखूँ जिसमें कन्या कुमारी से कश्मीर तक की मेरी यात्रा का वृतांत हो जो अनेकता मेें एकता के रंग विखेर कर राष्ट्र को एक सूत्र में बाँध सके, शायद यह दृष्टकोण उनके मानदण्डों पर रुचिकर लगे’

यह सुनकर दुर्गा बोली-‘ आपने तो नई रचना न लिखने की बात सोची है।’

भवभूति उत्तर में बोले-‘ अरे! किसी कलाकार अथवा कवि को अपनी कला से पृथक रखा जाना कभी संभव भी हो सका है? कला से पृथकता मृत्यु का पर्याय है। पुनः एक काव्य नाटक लिखा जावे, वह शायद जीवन की सार्थकता का नवीन आयाम बन सके।’

दुर्गा समझ गई- नई रचना के सृजन का यह संकेत है। यही सोचकर बोली- ‘कब से शुरू कर रहे हैं लिखना?’

भवभूति को यह सुनकर तीव्र उत्कष्ठा जागृत हो उठी, बोले- आज से ही, नहीं अभी से ही। यह कहते हुये वे अपने लेखन कक्ष में, अपने कृतित्व की अनन्त संभावनाओं के साथ, सुधीजनांे को अपने रचना-धर्म से आप्लावित करने का पावन विचार हृदय में रख प्रविष्ट हो गये।

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महाकवि भवभूति 17

परिशिष्ट

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।1।।

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदऋणं कृत्वा घृतं पिवेत

मस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।2।।

ददौ रसात्पंकजरेणुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः।

अर्धोपभुक्तेन विसेन जायां सम्भावयाभास रथांगनामा।।3।।

जग्धार्धैर्नवसल्लकीकिसलयैस्तस्थाः स्थिति कल्पय-

न्नन्यो वन्यमतड़् गजः परिचयप्रागल्भ्यमभ्यस्यति।।4।।

दिग्धोैमृतेन च विषेण न पक्ष्मलक्ष्या

गाढं निखात इव में हृदये कटाक्षः।।5।।

अपरिष्वज्य भरतं नास्ति में गच्छतो धृतिः।

अस्मत्प्रवासदुःखार्त न त्वेनं द्रष्टमुत्सहे।।6।।

भवभूतिजलधिनिर्गतकाव्यामृतरसकणा इव जयन्ति।

यस्य विशेषा अद्यापि विकटेषु काव्यप्रबन्धेषु।।7।।

तपस्वी कां गतौऽवस्थमिति स्मेराननाविव।

गिरिजायाः स्तनौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।8।।

किं चन्द्रमाः प्रत्युपकार लिप्सया करोति गोत्रिः कुमुदावबोधनम्।

स्वभाव एवोन्नतचेतसां सतां परोपकारव्यसनं हि जीवितम्।।9।।

दैवाद्यदि तुल्योऽभूद् भूतेशस्य परिग्रहः।

तथापि किं कपालानि तुलां यान्ति कलानिधेः।। 10।।

अलिपटलैरनुयातां सहृदयहृदयज्वरं विलुम्पन्तीम्।

मृगमदपरिमललहरीं समीर पामरपुरे किरसि।।11।।

निस्सार करघातविदीर्णध्वान्तदन्तरुधिरारुणमूर्तिः।

केसरीव कटकादुदयाट्रेरड़़़््कलीनहरिणो हरिणाङ्कः।।12।।

भुवां धर्मरम्भे पवनचलितं तापहतये

पटच्छात्राकारं वहति गगनं धूलिपटलम्।

अमी मन्दाराणां दवदहनसन्देहितधियो

न ढौकन्ते पातुं झटिति मकरन्दं मधुलिहः।13।।

लघुनि तृणकुटीरे क्षेत्रेकोणे यवानां

नवकमलपलास्त्रस्तरे सोपधाने।

परिहरति सुषुप्तं हालिकद्वन्द्वमारात्

स्तनकलशमहाष्ेमाबद्धरेखस्तुषारः।।14।।

का तपस्वी गतोैवस्थामिति स्मेराविव स्तनौ।

वन्दे गौरीधनाश्लेषभवभूतिसिताननौ।।15।।

वैकुण्ठस्य करड्.कनिहितं स्रष्टुः कपालं करे

प्रत्यड्.गं च विभूषणं विरचितं नाकौकसां कीकसैः।

यस्य स्थावरजड्.गमस्य जगतः शुभ्रं तनौ विभ्रतः

कल्पान्तेषु कपालिनो विजयते रौद्रं कपालव्रतम्।।16।।

गाढग्रन्थिप्रफुल्लद्गलविफलफणापीठनिर्यद्विषाग्नि-

ज्वालानिष्ठप्तचन्द्रद्रवदमृतरसप्रेषित प्रेतभावाः।

उज्जृम्भा वभ्रुनेत्रद्युतिमसकृदसृक्तष्णयालोकयन्त्यः

पान्तु त्वां नागनालग्रंथितशवशिरः श्रेणयो भैरवस्य।।17।।

निरवद्यानि पद्यानि यदि नाट्यस्य का क्षतिः।

भिक्षुकक्षाविनिक्षिप्तः किर्मिक्षुर्नीरसो भवेत्।।18।।

उषसि गुरूसमीपं लज्जमाना मृगाक्षी

रतिरुतमनुकर्तु राजकीरे प्रवृत्ते।

तिरयति शिशुलीलानर्तनच्छद्मताल-

प्रबलवयलयमालास्फालकोलाहलेन।।19।।

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इस उपन्यास में कुल शब्द-47644

रामगोपाल तिवारी ‘भावुक’

जन्म-महाकवि भवभूति की कर्मस्थली के निकट ग्राम सालवई

जिला-ग्वालियर म0प्र0 में 2जून 1946 ई0

शिक्षा-एम0ए0 हिन्दी साहित्य

प्रकाशित कृतियाँ-उपन्यास-साम्राज्यवाद का बिद्रोही, मंथन, बागीआत्मा, भवभूति, रत्नावली, गूँगागाँव ,दमयन्ती,एकलव्य, आस्था के चरण,मूर्ति का रहस्य(बाल उपन्यास) कथा-संग्रह-दुलदुल घोड़ी काव्य-संग्रह-व्यंग्य गणिका सम्पादन-परम्परा परिवेश, आभा, विजयस्मृति अंक,आस्था के चरण,कन्हर पदमाल,उत्सुक काव्य कुन्ज आदि

प्रमुख उपलब्धियाँ-मानस सम्मान1998म0प्र0 तुलसी अकादमी भोपाल,

शान्ति साधना सम्मान2000गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद,

‘गूँगा-गाँव’ उपन्यास पर अखिल भारतीय समर स्मृति साहित्य अलंकरण-2005

रत्नावली उपन्यास का पं0 गुलाम दस्तगीर मुम्बई द्वारा संस्कृत में अनुवाद विश्वभाषा पत्रिका में प्रकाशित

बालवाटिका पुरस्कार 2012 भीलवाड़ा राजस्थान

विशेष-जीवाजी-विश्व विद्यालय से राम गोपाल तिवारी ‘भावुक’ के कृतित्व एवं व्यक्त्वि पर डॉ डोली ठाकुर वर्ष 2012 में पी. एच. डी. कर चुकी हैं।

सम्प्रति-स्वतंत्र लेखन

000 संपर्क

000 संपर्कः कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा)

भवभूति नगर, जिला गवालियर (म0प्र0)

पिन- 475110

मोबा- 09425715707

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