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परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 5

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 5

दिनांक 03-02-09 को महाराज जी ने यह प्रसंग सुनाया। अहमदाबाद में मेरे बड़े भ्राता जनार्दन स्वामी जी कपड़े की मिल में सबसे बड़े इन्जीनियर थे। वहीं एक वंशीवाले संत रहते थे। स्वामीजी अक्सर उनके यहाँ जाया करते थे। यह बात मील के मालिक को पता चल गई । स्वामी जी से निवेदन किया-‘‘ आप कैसे भी वंशीवाले संत जी को घर ले आओ।’

जनार्दन स्वामी बोले-‘‘ सेठजी ,आप घर में रामायण का कार्यक्रम रखें मैं उन्हें लाने का प्रयास करुंगा। ’’

सेठजी ने रामायण का कार्यक्रम रखा। जनार्दन स्वामी ने वंशीवाले संत जी से सेठजी के घर चलने का निवेदन किया। इनके निवेदन से वंशीवाले संत जी सेठजी के घर पधारे।

जिस समय रामायण का समापन हुआ सेठजी का लड़का दुर्घटना ग्रस्त होगया। उसकी स्थिति बहुत खराब हो गई।

ठीक उसी समय एक व्यक्ति शराब के नशे में उनके घर आया। वह पान खाये हुये था। पान की पीक उसके मुँह से बह रही थी।

सेठजी ने लड़के के स्वस्थ रहने के लिये वंशीवाले संत जी से प्रार्थना की। वंशीवाले संत जी ने पास खड़े उस व्यक्ति की ओर इशारा किया जो शराब पिये था बोले-‘‘ इनके चरण पकड़ लो ,ये बहुत बड़े संत हैं।’’

सेठजी ने उन संत के चरण पकड़ लिये। वे अटपटी भाष में बोले-‘‘ जा ठीक है।’’

कुछ ही देर में खबर मिली, सेठजी का लड़का खतरे से बाहर है। यह कथा जनार्दन स्वामी ने मुझे अनेक बार सुनाई है।

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कुछ देर मौन रहने के बाद महाराज जी बोले-‘‘ऐसे ही संत महापुरुष रामेश्वर बाबाजी थे। नाले में फसे ट्रक को इन्हीं बाबा जी ने निकाला था। आज तक यह चर्चा जन-जन के मुँह से सुनी जा सकती है।

एकबार मैं उनके यहाँ जा पहुँचा। वे मुझे देखते ही बोले-‘‘तुम डबरा चले जाओ।’

मैंने उनसे निवेदन किया-‘‘वह अच्छी जगह नहीं है।’’

वे बोले-‘‘लंका में विभीषण भी तो एकला रहता था, जा चला जा। मैं उन्हीं महापुरुष की आज्ञा से यहाँ आया हूँ। प0पू0विष्णू तीर्थजी महाराज के कहने पर ही मेरे पिताजी ने यहाँ जमीन क्रय की थी। मेरे पिताजी की यहाँ आश्रम बनाने की इच्छा थी। आज उन्हीं के आशीर्वाद से यह आश्रम बना है।

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उस दिन मैं महाराज जी के पास बैठा था। एक पिंकी नामकी लड़की का महाराज जी को फोन आया-‘‘गुरुदेव नारायण’’

महाराज जी ने उत्तर दिया-‘‘ नारायण’’।

वह बोली-‘‘पापा बिस्तर पर हैं। उनके बेडसोर हो गये हैं। शौचा आदि भी पलंग पर ही करना पड़ता है।’’

महाराज जी ने यह सुनकर उसे समझाया-‘‘उनके नीचे मोम जामा विछा दे। उनसे बिस्तर पर पड़े-पड़े साधना करने को कहें।’’

महाराज जी की आज्ञा से उन्होंने बिस्तर पर पड़े-पड़े साधना शुरु करदी। कुछ ही दिनों बाद महाराज जी उन्हें देखने ग्वालियर गये। उस दिन उन्होंने बिस्तर से पहली बार उठकर महाराज जी का पूजन किया था और इसके कुछ दिनों बाद ही वे महाराज जी के दर्शन करने गुरुनिकेतन डबरा आये।

उस दिन उन्होंने कहा था कि मैं गुरुकृपा से ही ठीक होसका हूँ। उसी दिन उनकी पुत्री पिंकी कह रही थी-‘‘ एक बार मैं बहुत मोटी होगई। जिसके कारण मैं दिल्ली के अस्पताल में भर्ती रही। जब गुरु महाराज के दर्शन करने आई तो सीढ़ियाँ ही मुश्किल से चढ़ पाई थी किन्तु गुरुकृपा से मैं कुछ ही दिनों में पूरी तरह ठीक होगई हूँ।

‘‘गुरुदेव की कृपा धन्य है।’’

दि0 5ः2ः10को जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी बोले-‘मुझे प्रतीकों से लगाव नहीं रहा। यह बात नहीं है कि मैं उनमें विश्वास नहीं करता। वे भी प्रत्यक्ष हैं फिर भी मैंने यह बात किसी से नहीं कही है तुम्हारे सामने व्यक्ति करता हूँ। जाने क्यों मुझे पूजा पाठ , उन्हें नहलाना -धुलाना सब आडम्वर सा लगता है या यूँ कहूँ यह मेरा प्रमाद है। जो भी सही, जब कभी माथा टेकता हूँ तो उन्हें प्रत्यक्ष मानकर, फिर मुझे आभास भी होता है कि वह मेरी बात सुन भी रहे है। उस समय वह मुझे प्रतीक नहीं लगते।

मैंने प्रश्न किया-‘‘घूनी वाले दादाजी तो आपके जीवन में आज भी साकार हैं।’’

महाराज जी बोले-‘‘साकार तो विष्णू तीर्थ महाराज जी, गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज जी भी हैं। गुरुदेव को गंगाजी में प्रवाहित कर आया फिर भी यह नहीं लगता है कि वे चले गये। वे अभी भी साकार हैं। मेरे आसपास मौजूद रहते हैं।

कुछ क्षण रुककर महाराज जी पुनः बोले-‘‘आपकी माताजी ने मेरी तथा माँ की बहुत सेवा की है। मैं तो क्रोधी हूँ , उनकी सहन शक्ति वन्दनीय है। मैंने महसूस किया है वे किसी महान संत से कम नहीं हैं। इस उम्र मैं भी सोमबार और एकादशी के वृत नियमित चलते हैं। शनिबार को सुन्दर काण्ड का पाठ भी नियम से चल रहा है।’’

मैंने कहा-‘‘माँजी के चहरे पर मैंने कभी क्रोध नहीं देखा।’’

महाराज जी बोले-‘‘मैं मन ही मन अपने क्रोध के लिये उनसे क्षमा मांगता रहता हूँ। वे सेवा करने में कभी आलस्य नहीं करतीं। मुझे रात भर नींद नहीं आती तो वे भी मेरे साथ जागरण करती रहती हैं। उनका आभार मानने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं।’’ यह कह कर महाराज जी गम्भीर होगये ।

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बात दिनांक 06-02-09 की है । आज भी महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। वे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही यह वृतांत सुनाने लगे-‘‘मैं कलकत्ता के लिये ट्रेन में बैठ गया। शुरु-शुरु में सीट के लिये थोड़ी सी चिकचिक-पिकपिक हुई किन्तु फिर सीट मिल गई। जिससे झड़प हुई उसी के साथ बातें करते हुये कलकत्ता पहुँच गये। वहाँ पहुँच कर सारीे ट्रेन खाली होगई। जो मेरे साथ सीट पर बैठा था उसका नाम राम जुड़ावन था। वह बोला-‘ उतरना नहीं है क्या?’’

मैंने कहा-‘‘ यह कलकत्ता स्टेशन नहीं है।’’

राम जुड़ावन बोला-‘‘ कलकत्ता स्टेशन का यही हावड़ा स्टेशन नाम है। यहाँ आप कहाँ जायेंगे?’’

मैंने कहा-‘‘कहीं धर्मशाला वगैराह में।’’

राम जुड़ावन बोला-‘‘मैं टेलीफोन विभाग में लाइनमैंन की नौकरी करता हूँ। आप साथ चल सकते हैं।’’ यह सुनकर मैंने प्रभू को मन ही मन घन्यवाद दिया-तू मेरी हरबार पहुँचने से पहले ही व्यव्स्था कर देता है। मैं उसके साथ चला गया। घुमावदार जीना चढ़कर हम ऊपर पहुँच गये।वहाँ छोटे-छोटे टीन सेड बने थे। एक खटिया बिछाने के बाद थो़ड़ीसी जगह बची रहती थी। उतने में ही उसके साथ रहना-खाना शुरु कर दिया। दो दिन बाद ही उसका ट्रान्सफर होगया। अब तक वहीं के दूसरे लोग परिचित होगये थे। वहीं एक ठाकुर का परिबार भी रहता था। उन्हें इनके ट्रान्सफर की बात पता चली तो उस घर का मालिक स्वयम् बोला-‘‘ पण्डित जी तुम चाहो तो हमारे साथ रह सकते हो।’’

वहीं एक नाई का परिबार भी रहता था। वे तीन लोग थे। पति पत्नी और पत्नी का भार्इ्र। उसकी पत्नी बोली-‘‘मेरा भाई साथ रहता ही है, आप भी साथ रहे मेरे दो भाई होजायेंगे। उसकी बात मुझे अच्छी लगी। मैंने उनके साथ खाना शुरु कर दिया।

मेरे पास दस रुपये थे । वे खर्च होगये। समस्या खर्चे की आई। मेरे पास एक पेटी में कुछ नल की टोंटी का सामान पड़ा था। उसे बेचकर दस रुपये ले आया। उनसे नेल पालिस का सामान ले आया। थोड़े से प्रयास से नेल पालिस बन गई। उसे बाजार में बेच आया। कुछ दिन उनसे गुजर हुई। एक दिन नेल पालिस बेचते समय एक आदमी टकरा गया। उसका नाम था जे0एन0चक्रवर्र्ती। वह बोला -‘‘आप चाहें तो मेरे साथ चलें। ’’वह स्याही की टिक्की बनाने की फेक्ट्री डाले था। मैं उसके साथ काम करने लगा। मैं दूसरे दिन ही बहुत सारा आर्डर ले आया। मेरा काम करना उसके साले को अखरने लगा। वह खुद भी उसी फैक्ट्री में काम करता था। वह सोचने लगा था, कही उसका पत्ता साफ न हो जाये। उसने मेरे विरुद्ध अपनी बहन के कान भर दिये। अतः मैंने वह नौकरी छोड़ दी।

उन्हीं दिनों एक कपड़े की दुकान वाले से मुलाकात होगई। उसने मुझे कपड़े बेचने का काम दे दिया। मैं कपड़े बेचने जाने लगा। जिस समय मैं कपड़े नाप रहा होता उस समय लोग मेरी पोटली से चुपचाप धोतियाँ चुरा ले जाते। जब मैंने अपना पूरा कपड़ा सम्हाला तो धोतियाँ कम पड़ी। सेठजी से कैसे कहूँ। एक नया संकट खड़ा होगया।

उन्हीं दिनों माँ की बीमारी की चिट्ठी मिली। उस सेठ के चार सौ रुपये उधार होगये थे। मैंने उस सेठ से सारी बात कह सुनाई। उसे मेरी बात से विश्वास होगया और उसने घर जाने के लिये किराया भी दे दिया।

मुझे आज तक पश्चाताप है कि उस सेठ के चार सौ रुपये मैं आज तक भी नहीं दे पाया। उसका पता भी नहीं हैं कि वह कहाँ है! अब तो उस लेन देन को प्रारब्ध के हाथों सोंप दिया है। इस लेन देन को प्रभू के हाथों सोप कर निश्चिन्त होगया हूँ।

मैं भावुक यह सोचते हुये घर लौट आया-‘‘जीवन में कई ऐसे प्रकरण आजाते हैं जिन पर आदमी का बस नहीं चलता। जिन्हें प्रभू को ही अर्पण करने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहता।

हम ईश्वर को याद रखते हैं तो वह भी हर पल हमारे साथ रहता है। हम उसे देखते हैं तो वह भी हमें देखता है। महापुरुष सदैव वर्तमान में रहते हैं।

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हरियाणा प्रान्त में एक स्थान पर पहाड़ी पर एक मन्दिर है। उस पहाड़ी का नाम च्यवन ऋषि के नाम पर है। निश्चिय ही उस पहाड़ी से च्यवन ऋषि का सम्बन्ध रहा होगा। एक आदमी बचपन से ही उस पहाड़ी के ऊपर जाता रहता था। एक दिन महाराज जी ने उनसे पूछा-‘‘ आप तो यहाँ अक्सर आते रहते हैं।’’

वे बोले-‘‘ मैं युवा अवस्था से ही यहाँ आता रहा हूँ। आप इस पहाड़ी से नीचे सामने बगीचा देख रहे हैं।’’

मैंने कहा-‘‘ हाँ, देख रहा हूँ।’’

वे बोले-‘‘ ष्यहाँ हम अक्सर युवावस्था से ही पिकनिक मनाने के लिये आया करते थे।ष्यहीं एक रामदास नामका आदमी हमारी सेवा किया करता था। पानी भरता, बरतन मांजता और झाडू लगाता तथा चिलम भरने का काम किया करता था।

एक दिन पिकनिक के बाद सभी ने तय किया कि ऋषिकेश चला जाये। जब ये चलने लगे तो रामदास से भी पूछा गया कि तुम भी हमारे साथ चलो।

रामदास बोला-‘‘ मैं तो न जापाऊँगा। हाँ,ऋषिकेश से थोड़ा आगे चलने पर एक मन्दिर के पास झाड़ी है। वहाँ मेरे गुरु भाई रहते हैं। उनसे मेरी राम-राम कह देना।’’

सभी लोग ऋषिकेश पहुँच गये।वहाँ एक स्थान पर जाकर ठहर गये। कुछ साथी भोजन प्रसादी बनाने लगे। यह कह कर वह थेाड़ी देर तक बात कहने से रुका । फिर महाराज जी से बोला-‘‘स्वामी जी, उस समय मैंने सोचा कि ये लोग खाना बना रहे हैं तब तक मैं जाकर रामदास के गुरुभाई के पास जाकर उसकी राम-राम कह आता हूँ। यह सोचकर मैं वहाँ अपने साथियों को कह कर निकल पड़ा-‘‘ तुम लोग खाना बनाते हो तब तक मैं रामदास के गुरुभाई से मिलकर उसकी राम-राम कह आता हूँ।’’

ऋषिकेश से निकलकर थोड़ा आगे बढ़ने पर ढूढ़ने पर एक झाड़ी के पास एक गुफा मिली। मैं उस गुफा में चला गया। उस गुफा में कई संत धूनी रमाये, चीमटा गाड़े, ध्यान में मग्न बैठे थे। मैंने सोचा यहाँ किससे कहे? यह सोच कर मैं जोर से बोला-‘‘रामदास ने राम -राम भेजा है।’’ यह सुनकर एक संत की आँखें खुलीं, बोले-‘‘दुबारा कहना क्या कहा?’’

मैंने कहा-‘‘रामदास ने राम -राम कहा है।’’

उन संत ने कहा-‘‘आश्चर्य, उसकी तीन सौ साल में राम-राम आई है। कैसा है वह?’’

मेरे मुह से शब्द निकले-‘‘ आनन्द में है।’’

वे संत बोले-‘‘ जाकर, हमारी भी उससे राम-राम कहना। कहना ,तुम्हारे गुरुभाई ने राम-राम भेजी है और यह भी कहना कि हम सब यहाँ आनन्द में हैं। तुम इतनी लम्बी यात्रा करके आये हो भूखे होगे?’’ यह कह कर उन्होंने धूनी में से एक कन्द निकालकर मुझे दिया। मैंने उसे खया तो मैं तृप्त होगया।

उसके बाद उन संत से बिदा लेकर मैं वहाँ आया जहाँ मेरे दूसरे साथी दाल- बाटी बना रहे थे। मुझे उन संतों के पास से लौट कर लगने लगा- घर कब पहुँच पाऊँ? यह सोच कर मैंने अपने साथियों से कहा-‘‘ मुझे जरूरी काम याद आ गया है। बताने वाली बात नहीं है। मैं जारहा हूँ।’’

वे बोले-‘‘ दाल- बाटी तो खाते जाओ’’

मैंने उनसे कहा-‘‘तुम्ही खालो , मैं तो चलता हूँ।’’ यह कह कर मैं वहाँ से चला आया। स्टेशन पर आकर टिकिट लिया और लौट आया। गाँव में आकर सबसे पहले उसी आश्रम में रामदास बाबा के पास पहुँचा। किन्तु वहाँ रामदास बाबा नहीं था। इधर-उधर ढूढ़ा किन्तु वह कहीं नहीं मिला।

मैं पुनः ऋषिकेश के लिये लौट पड़ा कि चलकर उन महात्मा से मिलूं। उस स्थान पर पहुँचा जहाँ वह झाड़ी थी। किन्तू न वहाँ वह झाड़ी थी न गुफा। मैं पश्चाताप करता हुआ घर लौट आया। उसी दिन से आज तक मैं इस पहाड़ी पर नियमित आता रहता हूँ। यह कह कर वह व्यक्ति अनन्त आकाश की ओर ताकने लगा था।

यह कथा कहते हुये महाराज जी भी अनन्त आकाश की ओर ताकने लगे थे।

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महाराज जी का स्वभाव है कि उनके सभी शिष्यों का कल्याण कैसे हो? वे हमेशा इसी बात को लेकर चिन्तित रहते हैं। जब में गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज अपने परम प्रिय शिष्य अखलेश जी के बारे में कह रहे थे- अखलेश जी का वहुत अच्छा परिबार है। इन दिनों उनकी माँ बहुत बीमार हैं।सभी बहुयें बेटे उनकी सेवा में लगे हैं। यह कह कर महाराज जी ने अखलेश जी को फोन किया-‘‘ माँ कैसी हैं?’’

वे बोले -‘‘ दर्द से कराह रही हैं। वेचैन हैं।’’

महाराज जी ने कहा-‘‘ मेरा मोवाइल उनके कान से लगा दो।’’ उन्होंने वैसा ही किया।

महाराज जी बोले -‘‘ माँ जी नारायण कहें। नारायण ।’’ यों महाराज जी उनसे बारम्बार नाराणय कहलाते रहे। उसके बाद अखलेश जी ने मोवाइल अपने कान से लगा लिया और महाराज जी से बोले-‘‘ डॅाक्टर ने कहा है अब ये अन्तिम पड़ाव पर हैं। इन्हें घर ले जाकर सेवा करें।’

थोड़ी देर वाद फिर महाराज जी के मोवाइल की घन्टी बजी। अखलेश जी कह रहे थे-

‘‘ अब माँजी पूर्ण शान्त मुद्रा में आराम से हैं। अब कराह नहीं रही है। गुरुदेव, यह आपके मोवाइल आने के बाद हुआ है।

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दिनांक 03-03-09 की बात है। जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा गुरुदेव अपने बगीचे में पानी दे रहे थे। बगिया में फूल खिले थे। मैं जाकर उन फूलों को निहारने लगा। महाराज जी अपने पौधों को बच्चों जैसा प्यार करते हैं। पानी देते समय ध्यान रखते हैं ,कहीं पानी की धार पौधों की जड़ों पर न पड़ जाये। यों चौकस रह कर पानी देते हैं।

जब उनका यह काम निपट गया तो वे बगीचे में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुये बोले-‘‘ मेरी उम्र बारह -तेरह बर्ष की रही होगी। पिताजी कहीं यात्रा पर गये थे। माँ को छुट्टे पैसों की जरुरत थी। माँ मुझ से बोली-‘‘ तूं रुपये तुड़ा लायेगा।’’

मैंने माँ से कहा-‘‘ हाँ , तुड़ा लाऊँगा।’’ माँ ने हजार रुपये का बड़ा नोट मेरे पेट से बाँध दिया। ऊपर से स्वेटर पहना दिया। उसके ऊपर कोट भी पहना दिया। मैं बाड़े पर पहुँच गया।

ट्रेफिक पुलिस के जमादार से जाकर बोला-‘‘ माँ ने कहा है कि आप हमारा नोट तुड़वा दें।’’ वह मेरे साथ होगया। हम बैंक पहुँच गये। उन्होंने कैसियर से नोट तोड़ने के लिये कहा।

कैसियर बोला-‘‘ नोट लाओ।’’ मैंने कोट उतारा, स्वेटर उतारा। और पेट पर बँधे उस नोट को खोल कर दे दिया। वे इतने बडे एक हजार के नोट को देखते रह गये। उसने उस नोट के खुले रुपये उसी तरह मेरे पेट से बाँध दिये। वही जमादार मुझे घर तक छोड़ने आये। अपने जीवन की यह घटना आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

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बात याद आती है उस समय की जब मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह वर्ष की रही होगी। मैंने रुई के खिलौने ,क्रीम-पाउडर,, पोलिस,और हेयर आयल, बूट पालिस, नहाने तथा कपड़े धोने का साबुन जैसी चीजें बनालीं थीं।

डबरा में हमारी जमीन थी। दो बैलों की जोड़ी भी थी। एक बार हमने वे बैल बैचना चाहे। बैल यह बात समझ गये। जब खरीदार आया तो उनमें से एक बैल बैठकर रह गया था। हमारे वहुत प्रयास करने पर भी नहीं उठा। उसकी आँखें लाल होगई थी।ऐसा लग रहा था यह किसी को मार ही डालेगा। किन्तु जैसे ही ग्राहक गया वह बैल उठकर खड़ा हो गया था। पूरी तरह सामान्य होगया था। पिताजी सोचते -किसी जमाने में इसका उधार लेकर आये होगे। उसे बेचने मेले में लेगये तो उस बैल की वहाँ भी वही हालत रही। वह बैलों की जोड़ी उस समय में मुश्किल से साठ रुपयों में बेचना पड़ी थी। वह प्रारब्ध तो भोगकर ही छूटा।

हम पर कोई संकट आता उस समय हम घूनी वाले दादाजी की याद करने लगते इससे उस संकट का निवारण हो जाता।

महाराज जी यह कथा कह रहे थे, उधर फोन की घन्टी बजे जा रही थी, किन्तु महाराज जी फोन उठा ही नहीं रहे थे। मेरे से रहा नहीं गया । मैंने पूछ ही लिया-‘‘ गुरुदेव, बड़ी देर से फोन की घन्टी बज रही है आज आप उसे उठा ही नहीं रहे हैं।’’

महाराज जी बोले -‘‘ यह खुशबू के फोन की घन्टी है। मुझे आज उससे बात नहीं करना है।’’ मैं सोच में पड़ गया, गुरुदेव की परम् प्रिय शिष्या , ऐसा मैंने कभी नहीं देखा। आज महाराज जी ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या पता उसके मन की व्याकुलता को और अधिक बढ़ा रहे हों! कहाँ उससे इतना दुलार और कहाँ बात भी नहीं कर रहे हैं! गुरुदेव की यह माया मेरे समझ से बाहर की बात थी। यही सोचते हुये मैं उस दिन घर चला आया था।

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अगले दिन महाराज जी ने यह कथा सुनाई थी-यह बत सन् 1948 ई0 की रही होगी।उस समय मैं युवा था। अपना भला-बुरा समझने लगा था। किसी बात को लेकर एक लड़के से विवाद हो गया । उस लड़के का नाम सानू था। उसने मौहल्ले के एक दादा को पटा लिया। उसे लेकर वह मुझे मारने आगया। वह दादा मुझे देखकर अपने साथी सानू से बोला-‘‘ यह तो सीधा-साधा दिखता है। चल रहने दे , इसे मारना-पीटना उचित नहीं लगता। यह कह कर वे मेरे पास से चले गये।

तीन-चार दिन बाद मुझे पता चला कि दोनों ऊपर छत पर बैठे बातें कर रहे थे। उस दादा ने सानू से कहा-‘‘ तू यदि ऊपर छत से कूद जाये तो मैं तुझे सौ का नोट इनाम में दूंगा।’’ वह पटठा मुर्ख तो था ही, उसकी बात को सच मान गया और वहीं से नीचे कूद पड़ा। इससे उसका दोनों पैरों की एडियाँ बैठ गई। वह बिस्तर पर पड़ गया। मुझे जब यह बात पता चली तो मैं उसे उसके घर देखने पहुँच गया। मैंने उससे कहा-‘‘ भैया, सोच -समझकर निर्णय लेना चाहिये। आगे जीवन में विवके से काम लेना।’’ मेरी यह बात उसके समझ में आगई होगी इसीलिये वह मेरा मित्र बन गया था।

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दिनांक 14-4-09 को महाराज जी आरावली की पद यात्रा का वृतांत सुनाने लगे-‘‘ मेरे साथ एक नागा बाबा भी था। जब हम पहाड़ी के नीचे गाँव में पहुँचे ,एक बच्चा हमारे पास आकर बोला-‘‘ बाबा जी आप मेरे शर का खाना खायेंगे?’’

मैंने उत्तर दिया-‘‘हाँ, खायेंगे, क्यों?’’

वह बोला-‘‘ मैं तो मीना हूँ।’’

मैंने उसे फिर उत्तर दिया-‘‘तो क्या हुआ! मैं तुम्हारे घर का खाना खाऊँगा।’’

यह सुनकर वह लड़का दौड़ते हुये वहाँ से चला गया और जौ की दो रोटी लेकर आगया। मैंने उससे आधी रोटी लेकर खाली। उसी समय एक गुसाईं भी खाना लेकर आगया। साथी बाबा ने उसका खाना खाया। जो खाना बच गया उसने उसे अपने कम्डल में डाल लिया। कोई छाछ भी ले आया , उसे भी उस बाबा ने अपने कम्डल में डाल ली। यह देखकर वह बालक बोला-‘‘ यहाँ , इन पहाड़ों में से शंकर बाबा आते रहते हैं। वे पीते भी हैं और बड़े-बड़े माल बनवाकर खाते हैं।’’

मैंने उस बालक से कहा-‘‘ हम मिलना चाहेंगे उनसे।’’

वह बोला-‘‘ आप उनके चक्कर में मत पड़ो, वह उस पहाड़ के पीछे रहते हैं।’’ उस लड़के की बात सुनकर हम दोनों शंकर बाबा जी से मिलने उस पहाड़ी की तरफ चल दिये। साथी बाबा कुनमुनाते मन से साथ चल पडे।

यह घटना सन् 1965 की है। उस समय मैं बत्तीस-तेतीस वर्ष का था। मुझे घूमने फिरने का शौक था। वहाँ का रास्ता कठिन था। बड़ी -बड़ी घास, रास्तें में सेही के कांटे बिखरे हुये थे। उस बाबा को जोर की प्यास लगने लगी। हम दोनों ने जम्प लगाकर खाई पार की। दूसरी पहाड़ी की तरफ पहुँच गये। वहाँ एक वावड़ी थी। उस नागा बाबा के फेंटा को रस्सी बनाकर उसमें कम्डल बाँधकर पानी निकाला तब कहीं हमारी प्यास बुझी।

वहाँ से चलकर हम दूसरी पहाड़ी पर पहुँच गये। उस पहाड़ी के दूसरी तरफ मैदान था। सीधा खड़ा पहाड था। नीचे आना कठिन था। कूद-फाँद कर कैसे भी नीचे आगये। पास में ही शंकर जी का एक मन्दिर था। पशु चराने वालों ने उसका रास्ता बतला दिया। हम दोनों वहाँ पहुँच गये। उस मन्दिर से गाँव दूर था। मन्दिर का पुजारी गाँव में रहता था, पता लगने पर मक्का की महेरी लेकर आ गया।

यह कथा कहते-कहते महाराज जी ने ‘अपना-अपना सोच’ पुस्तक उठाली। उसके पृष्ठ क्रमांक 53 से प्रथम पेरा पढ़ने लगे और पृष्ठ क्रमांक 55 तक पढ़ते रहे।

उसके बाद बोले-‘‘मेरा सारा ही जीवन एक घुम्कड़ की तरह व्यतीत हुआ है। ’’ उसके बाद महाराज जी गुनगुनाने लगे-‘जब बाँध लिये पग में घुंघरु।’ मन ही मन बड़ी देर तक गुनगुनाते रहे। उसके बाद बोले-‘‘ अपना-अपना सोच’ अनुभवों की कहानी है।

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