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गरीबी और गरीब ( व्यंग्य )


गरीबी और गरीब ( व्यंग्य )
गरीबी और मंहगाई दो बहनें आजादी के मेले में एक दूसरे का हाथ पकड़े भारत के पीछे-पीछे लग गई । तब से लेकर आज तक इन दोनों ने ही देश की राजनीति और चुनावों को प्रभावित किया है । गरीबी की जब बात की जाती है तो मंहगाई पीछे छूट जाती है । मंहगाई को मध्यम और अमीरों की समस्या के रुप में देखा जाता है । आजादी के बाद से कोई भी चुनाव ऐसा नहीं हुआ जिसमे गरीबी और मंहगाई हटाने के नारे न लगे हो । हमारे चुनाव गरीबी और मंहगाई समाप्त करने के वादों के साथ ही समाप्त होते रहे है । इनमें भी गरीबी ही प्रमुख रही है । ऐसा भी नहीं की सरकारों ने गरीबी कम करने के लिए प्रयास नहीं किए है । देश से गरीबी कम हुई भी है नेताओं और मंत्रियों की ,घूसखोर अफसरों और कर्मचारियों की और जमाखोर व्यापारियों की । कुछ गरीब बाबा लोग जिन्होंने पहले पहल गलती से सन्यास को मोक्ष का मार्ग समझ लिया था अब वे गरीब नहीं रहे । इन सब के गरीब न रहने और अनावश्यक रुप से अमीर हो जाने के कारण ही देश की जनता का बड़ा हिस्सा गरीब से और गरीब हो गया है । ऐसे ही अमीर लोग अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार ही मंहगाई को बढाते और घटाते रहते है ।

सालों से जनता घोषणा-पत्र को पूरे न किए जाने वाले वादों की किताब ही मानती रही है । अचानक ही राजनीति के सरोकार बदलने लगे और अब जनता घोषणा पत्रों को पढ़ कर सरकारों को बताने लगी कि आपने क्या किया और क्या नहीं ? अब आम जनता नेताओं से आंख मे आंख ड़ाल कर प्रश्न पूछने लगी । अब खास लोग सोचने लगे कि देश में अनपढ़ लोग ही होते तो ठीक होता। कुछ का मानना है कि देश को मीड़िया बरगला रहा है । हम इन कारणों हो छोड़ कर अपना ध्यान गरीबी पर ही बनाए रखते है । इन परिस्थितियों में कर्णधारों को लगने लगा कि अब गरीबी को समाप्त करना बहुत ही जरुरी हो गया है क्योकि अब जनता को वादों से बहलाया नहीं जा सकता । इस मुद्दे पर जो भी कोई ठोस कदम उठाएगा वही सरकार बनाएगा । बस फिर क्या था अलग-अलग तरह से विचार-विमर्शों का लम्बा दौर प्रारम्भ हो गया । पांच सितारा होटलों में देश के उद्योगपतियों, अफसरशाहों और नेताओं के अलावा विदेशों से बड़े-बड़े अर्थ और अनर्थशास्त्रियों को भी बुलाया गया ।

इन सबके सामने पहला और अहम प्रश्न था कि गरीबी समाप्त करने से लाभ है या हानि ? विचारों के अदान-प्रदान के बाद लाभ और हानि सब को बराबर ही दिख रहे थे । किसी ने भी जनता के हित की बात नहीं की हां वोटों के लाभ की बात जरुर ही निकल कर आई और नेताओं को यही बात बहुत ही भायी । गरीबों के नाम पर देश को प्राप्त होने वाली अरबों रुपयों की हानि बड़ा मुद्दा था इसीलिए कुछ विद्वान तो गरीबी समाप्त करने के विचार के ही विरोध में थे । अब यह प्रश्न भी था कि क्या इस बार सच में ही गरीबी समाप्त करनी है ? नेता जी झपकी के बीच उठ कर बोले ‘‘ हाॅ......... और हो सके तो चुनाव के पहले ही ।’’ अनेंक विद्वान हंस दिए कोई बोला ‘‘ चुनाव के पहले ........... क्या अब आपके जीतने का कोई और रास्ता नहीं बचा है ?’’ हा....हा.... हा..... ठहाकों से हाल गूंज गया । आखिर गरीबी हटाने पर विचार विमर्श प्रारम्भ हो गया । कुछ अपनी दाढी पर हाथ फेर कर, कुछ अपने बाल नोच-नोच कर और कुछ तो बाजू वाले की डायरी में झांक-झांक कर समस्या का हल निकालने का प्रयास करने लगे । बहुत ही सोच-समझ कर उपायों की सूची तैयार की गई । उपायों में सबसे ऊपर और तत्काल प्रभाव देने वाला था देश से गरीब शब्द ही समाप्त कर दिया जाए । बस न रहेगा गरीब और न रहेगी गरीबी । इसी में गरीबों को अमीर कहने का सुझाव भी आया पर इसे स्वीकार करने में नवअमीरों को आपत्ति थी । एक उपाय यह भी था कि गरीबी रेखा को ही जमीन पर रख दिया जाए याने ................याने कि जो कुछ भी न कमाता हो उसे भी गरीब मानने से इंकार कर दिया जाए। इससे मजबूरन...........जोर दे कर ......... मजबूरन .......... पूरा देश ही अमीर हो जाएगा । एक विद्वान ने तो कहा कि ‘‘ देश में जो भी सांस ले उसे ही अमीर घोषित कर दिया जाए । इससे देश में गरीबों का उत्पादन ही बंद हो जाएगा । लोग अमीर ही पैदा होने लगेंगे बस .......... गरीबी भी खत्म । गरीबी समाप्त .......... नहीं नहीं ...... गरीबी के नाम पर गरीबों को समाप्त करने की योजनाऐं तैयार होने लगी । क्या...........? आप को हंसी आ रही है । अरे ..........भाई साहब ए.सी. कमरों में योजनाए ऐसे ही तो बनती है ।

अभी भी बहुत से विद्वान गरीबी हट जाने के विचार से चिंतित थे । वे ‘‘हंगरी और पुअर पीपल ’’ के लिए परेशान नहीं थे । वे परेशान थे देश में चलने वाली अरबों-खरबों की गरीब हितग्राही योजनाओं और विदेशी फंड़ों के लिए । उन्हें चिन्ता थी कि गरीब के न होने से विदेशी फंड़ भी न होगा ,समाज सेवा और दरिद्र सेवा जैसी योजनाऐं भी न होंगी और उन जैसे लोगों को मोटा लाभ भी न होगा । वे चाहते थे देश में गरीबी का होना जरुरी है । गरीबों के होने से ही तो अमीरों को अपनी कारों में बैठने का आनन्द प्राप्त होता है । गरीबों के होने से ही सुख- सुविधाऐं प्राप्त होती है और उनके होने का मजा भी । सब ही अब इस बकवास से ऊब चुके थे नेता को चार जगह रिबन काटने जाना था इन्हीं रिबनों के बहाने तो वोटों की फसल भी कटती है । अफसरशाहों को उन ठेकेदारों से मिलना था जो रिबन कटने के पहले अंतिम किस्त का भुगतान करने वाले थे । उद्योगपतियों को भीड़ जुटाने से लेकर भुगतान तक सब कुछ ही तो देखना था । उपायो का पुलिंदा बांधा गया । मनपसंद पेय पदार्थों के साथ सब तरोताजा हो कर अपनी-अपनी कारों में निकलने लगे । चैराहे पर खड़ा आधी धोती वाला उन जाती हुई गाड़ियों को आशा भरी निगाहों से देख रहा था ।

आलोक मिश्रा "मनमौजी"