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अमेय कान्त - समुद्र से लौटेंगे रेत के घर

अमेय कान्त का कविता संग्रह

अमेय कान्त उस पीढ़ी के कवि हैं जो पूरे आत्मविश्वास, शिल्प की साधना और सुदीर्घ अध्ययन के बाद कविता संसार में दाखिल हो रहे हैं। विभिन्न पत्रिकाओं में अपनी कविताओं के लिए चर्चित रहे अमेय कान्त का कविता संग्रह "समुद्र से लौटेंगे रेत के घर" अन्तिका प्रकाश ने प्रकाशित किया है ।जिसमें उनकी कुल 57 कविताएं शामिल हैं ।
अमेय कान्त की रचना संसार में मां आती है तो मानो एक साकार प्रतिमा बन जाती है, जब बेटी या बच्ची आती है तो आसपास किलकारी गूंजती महसूस होती है ।जब वव कुदरत पर कविता लिखते हैं तो हवा का झोंका हरियाली की गंध महसूस होती है ।वह कविता नहीं लिखते हमारे आसपास एक संसार ही रच देते हैं और यह एक कवि की बड़ी साधना है ,बड़ी सफलता भी है। उनकी प्रेम कविताओं की तो बात ही निराली है।

इस संग्रह की पहली कविता बेटी पर है जहां नींद में मुस्काती बेटी को देख कवि कल्पना में भी अस्वस्थ होता है (प्रश्ठ 9)
ये जो नींद में
मीठा-सा मुस्कुराती है तू
तो शायद तू नहीं जानती
लेकिन दुनिया के
रहने लायक बने रहने की गुंजाइश
थोड़ी और बढ़ जाती है उस वक्त

संग्रह में एक अन्य कविता "नन्ही बेटी के लिए"( पृष्ठ 62 से 64 तक) है उसमें भी बेटी की खुशी उसकी चिंता और उसके इर्द-गिर्द अच्छे भविष्य को लेकर कल्पनाएं की गई हैं । कविता "उदास मछली"(40) में कवि अपनी बेटी द्वारा बनाए गए उदास मछली के एक चित्र की उदासी दूर करने का यतन करता है यह कविता देखिए
बच्ची ने कागज पर एक मछली बनाई और कहा
यह एक उदास मछली है
बच्ची बनाना नहीं चाहती थी उदास मछली
उसकी बिना इस मछली के अलावा कागज की सीमाओं से बाहर संभवतः और पानी हो
इसमें और मछलियां हो
और शायद ना भी हो उदास
बहरहाल में देता हूं उस बच्ची को कुछ और रंग
कुछ और कागज
जो वह जोड़ सके इस कागज के चारों ओर जो शायद दूर कर दे
इस एक मछली की उदासी को

बचपन से जुड़ी एक अन्य कविता खिलौना(31) खिलौने से जुड़ी बचपन की स्मृतियों से पाठक को पुलकित करती है
पिता जब छोटे थे
उनके पास एक खिलौना था
छोटा-सा , चीनी मिट्टी का

पिता में संभाल कर रखा उसे
और उसने संभाल कर रखा
अपने भीतर
पिता का बचपन

मां से जुड़ी एक कविता में कवि मां द्वारा गाए गए उस गीत को याद करता है इसके स्वर पूरे जहान में फैल गए (पृष्ठ 13)
मां ने एक गीत गाया
और फैल गए उसके स्वर
चारों दिशाओं में
कुछ कोमल स्वर बिखर गए बीच में
और उग आए एक दिन पेड़ पर
पलाश के फूल बनकर
कुछ स्वर जो तीव्र थे
चट्टानों से टकराते हुए गिरे
और वह गए झरने के साथ
तेज गति से
बचे-खुचे कुछ स्वर
जो फैल गए थे छत पर ही
चिड़िया ने ले गई उन्हें चोंच में भरकर ज्वार के दानों की तरह
मां ने एक गीत गाया
जिसके पंख
बिल्कुल तितली की तरह थे
मां से जुड़ी एक अन्य कविता छूटी हुई दुनिया में मां के भीतर बसे घर को कवि चिन्हित करता है (95) मां पर ही लिखी एक अन्य कविता अनुपस्थिति (72 )में मां की घर से अनुपस्थिति में सोता हुआ निस्पंद घर और उसकी चीजें आती हैं। कवि कहता है कि जब मां सक्रिय होती है तो घर की हर चीज और पूरा घर सक्रिय रहता है -
मां का घर पर ना होना
घर को
एक चुपचाप अनुपस्थिति से भर देता है
*
घर की तमाम चीजें
जो मां के मौजूद रहने पर
खुद भी काम में जुटी दिखाई देती थीं लगने लगती हैं चुप
कुछ अनमनी-सी
*
मां का घर पर ना होना
खुद घर का घर पर ना होना है

कुदरत की कविता के क्रम में "नदी *पर उनकी कविता "बदल रही है नदी" देखिए (73) भगोरिया पर भी उनकी कविता चित्रात्मक दृश्य और उसकी मान्यताओं को बताती हुई दृष्टि है ; भगोरिया (87) मुस्कुराहट(74) भी दुष्टव्य है, देखिए

धूप ने आकर नन्हीं बच्ची के गालों पर अपने हाथ पोंछ दिए
और बच्ची धीरे-धीरे फूल में बदलने लगी उसकी मुस्कुराहट अब
फूल की मुस्कुराहट थी
जो खुशबू बनकर
उड़ रही थी चारों ओर
*
चिड़िया बनकर मुस्कुराहट
उड़ने लगी खुले आकाश में
और बदलने लगी हवा में
*
बच्ची की मुस्कुराहट
अब पृथ्वी की मुस्कुराहट थी

समाज और कुदरत की विभिन्न प्रवृत्तियों पर भी अमेय कान्त की बड़ी सावधान कविताएं हैं । समाज में भेदभाव फैलाते उगाते लोगों की विडंबना प्रदर्शित करती कविता सिर्फ कविता नहीं है । वह हर कवि के भीतर बैठे उस विचारवान व्यक्ति को चित्रित कराती है जो हर एक नागरिक के भीतर बैठा होना चाहिए( 91 )
बमों की तरह दिखते चेहरे
हाथों में तलवारें ,फंरसे,लाठियां
और बंदूकें उठाए
खड़े हैं मुस्तैद
अपने अहं के परकोटों पर
फुफकारते हैं इतिहास के साँप
और सांस दर सांस
कसती जाती है
गर्दन पर उनकी पकड़
अमेय कान्त के पास कविता कहने का अपना महावरा विकसित हो गया है । वे किसी भी अप्रचलित और औचक विषय पर कविता लिख लेते हैं । किसी को भी उदास कर देने वाली या किसी का ध्यान अपनी ओर खींच न पाने वाली खाली बस पर बस जैसे सामान्य विषय पर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इस तरह कविता लिखी जा सकती है उनकी कविता देखिए ( 54)
भूल भुलैया के बीच से निकलता हुआ पूछता हूं बस स्टैंड पर
जहां खड़ी रात की आखिरी बस
निकलती है अपने समय से
आधा घंटा और देरी से
**
आधी सीटें खाली पड़ी हुई
और आधी भरी सीटों पर बैठे हैं
कुछ आधे खाली लोग
टूटे शीशों से अंदर खुश रही है
चुभती हुई ठंड की तेज सुइयाँ
*
चले जा रही है
अपने तयशुदा रास्ते पर
एक थकी हुई सड़क के साथ-साथ
पीछे छूटते उस शहर से
मेरे शहर की तरफ
बस भी बहुत खाली है भीतर से
चौराहों पर यहां-वहां घूमते ,लेटते कुत्तों पर भी अमेय ने एक कविता लिखी है, चौराहों पर कुत्ते (83 )कविता पढ़ते-पढ़ते हम एक नई संवेदना से भीग जाते हैं। बाम की पुरानी डिबिया हर घर में रहती है लेकिन कवि अमेय की नजर इस पर भी जाती है तो वे इसे काव्य का सर्वथा नया उपादान बना देते है (74 )
गांव के स्कूलों में पहले अक्षरों की बनावट के लिए खपरा (कवेलू )के टूटे हुए बारीक चूर्ण की थैलियों में रहती थी, इस चूर्ण से अक्षरों के आकार बनाए जाते थे फिर लकड़ी के टुकड़े फिर चौक बोर्ड और अब कंप्यूटर तक आते-आते शिक्षा की इस प्रणाली पर भी हमें एक सशक्त कविता लिखते हैं-" खापरे की खोर!" अमेय की लिखी प्रेम कविताओं में एक दिन लौटते हुए (41 )है जो है तो बहुत छोटी , लेकिन बड़ी गहरी और मुकम्मल कविता है
तुम्हारे शहर से लौटकर
एक खुशबू ले आया हूं अपने साथ
ये देखो
जहां अपना सिर रखा था तुमने
मेरे सीने पर
कुछ तार
अभी झनझना रहे हैं वहां

श्रम ही समृद्धि और चहल-पहल लाता है इस तथ्य को अनेक कविताओं में कहते अब एक ही कविता "गाडोलिये" (51) अद्भुत कविता है !
काव्य कर्म को अनूठे विम्बो में ढालकर हमें लिखते हैं (प्रश्ठ 81)
शब्दों को रखता हूं
कागज पर
जैसे मल्लाह उतारता है
नदी में अपनी नाव
शब्दों में बैठकर
चप्पू चलाता
और धीरे-धीरे बहता हूं
कविता की नदी में
अमेय इन दिनों खूब उत्साह और लगन के साथ कविता लिख रहे हैं । उनसे आगे भी बहुत अच्छी और रसात्मक कविताओं की आशा है ,जिसमें वे उनकी हासिल की गई काव्य भाषा ही नही बल्कि अपनी ही जमीन तोड़कर नए भाषा संसार से हमारे सामने आएँगे, ऐसा उनकी कलम विश्वास दिलाती है।