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मैं ईश्वर हूँ - 5

बिम्ब ईश्वर के साथ अपने अधूरे वार्तालाप को याद कर के सोचता है..........

प्रश्न: आप ईश्वर के अस्तित्व को कैसे सिद्ध करते हैं ?

उत्तर: प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा ।

प्रश्न: लेकिन ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं घट सकता, तब फिर आप उसके अस्तित्व को कैसे सिद्ध करेंगे ?

उत्तर: 1. प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना गया निर्भ्रांत ज्ञान । परन्तु यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि ज्ञानेन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं ।

उदाहरण के लिए जब आप इस लेख को पढ़ते हैं तो आपको लिखने वाला के होने का ज्ञान नहीं होता बल्कि पर्दे (कंप्यूटर की स्क्रीन ) पर कुछ आकृतियाँ दिखाई देती हैं जिन्हें आप स्वयं समझकर कुछ अर्थ निकालते हैं । और फिर आप इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस लेख को लिखने वाला कोई न कोई तो जरूर होगा और फिर आप दावा करते हैं कि आपके पास उसके होने का प्रमाण है । यह “अप्रत्यक्ष” प्रमाण है हालाँकि यह “प्रत्यक्ष” प्रतीत होता है ।

ठीक इसी तरह पूरी सृष्टि, जिसे कि हम, उसके गुणों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करके, अनुभव करते हैं, ईश्वर के अस्तित्व की ओर संकेत करती है ।

2. जब किसी इन्द्रिय गृहीत विषय से हम किसी पदार्थ का सीधा सम्बन्ध जोड़ पाते हैं, तो हम उसके “प्रत्यक्ष प्रमाणित” के होने का दावा करते हैं । उदहारण के लिए जब आप आम खाते हैं तो मिठास का अनुभव करते हैं और उस मिठास को अपने खाए हुए आम से जोड़ देते हैं । यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि आप ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण केवल उस इन्द्रिय से जोड़ सकते हैं जिसे कि आपने उस विषय का अनुभव करने के लिए प्रयोग किया है ।

इस प्रकार पूर्वोक्त उदहारण में आम का ‘प्रत्यक्ष’ ‘कान’ से नहीं कर सकते, बल्कि ‘जीभ’, ‘नाक’ या ‘आँखों’ से ही कर सकते हैं ।

हालाँकि समझने में सरलता हो इसलिए हम इसे ‘प्रत्यक्ष प्रमाण’ कह रहे हैं लेकिन वास्तव में यह भी ‘अप्रत्यक्ष प्रमाण’ ही है।

अब क्यूंकि ईश्वर सबसे सूक्ष्म पदार्थ है इसलिए स्थूल इन्द्रियों ‘आँख’, ‘नाक’, ‘कान’, ‘जीभ’ और ‘त्वचा’ से उसका प्रत्यक्ष असंभव है । जैसे की हम सर्वोच्च क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी के होते हुए भी अत्यंत सूक्ष्म कणों को नहीं देख सकते, अत्यंत लघु तथा अत्यंत उच्च आवृत्ति की तरंगों को नहीं सुन सकते, प्रत्येक अणु के स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते ।

दुसरे शब्दों में कहें तो जैसे हम कानों से आम का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते और यहाँ तक की किसी भी इन्द्रिय से अत्यंत सूक्ष्म कणों को नहीं अनुभव कर सकते, ठीक ऐसे ही ईश्वर को भी क्सिसिं स्थूल और क्षुद्र इन्द्रियों से प्रत्यक्ष करना असंभव है ।

3. एक मात्र इन्द्रिय जिससे ईश्वर का अनुभव होता है वह है मन । जब मन पूर्णतः नियंत्रण में होता है और किसी भी प्रकार के अनैच्छिक विघ्नों (जैसे कि हर समय मन में आने वाले विभिन्न प्रकार के विचार ) से दूर होता है और जब अध्ययन और अभ्यास के द्वारा ईश्वर के गुणों का सम्यक ज्ञान हो जाता है तब बुद्धि से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान ठीक उसी प्रकार होता है जैसे कि आम का अनुभव उसके स्वाद से ।

यही जीवन का लक्ष्य है और इसी के लिए योगी विभिन्न प्रकार के उपायों से मन को नियंत्रण में करने का प्रयास करता है । इन उपायों में से कुछ इस प्रकार हैं: अहिंसा, सत्य की खोज, सद्भाव, सबके सुख के लिए प्रयास, उच्च चरित्र, अन्याय के विरुद्ध लड़ना, एकता के लिए प्रयास इत्यादि ।

4. एक प्रकार से देखा जाये तो अपने दैनिक जीवन में भी हमे इश्वर के होने के प्रत्यक्ष संकेत मिलते हैं । जब भी कभी हम चोरी, क्रूरता धोखा आदि किसी बुरे काम को करने की शुरुआत करते हैं तभी हमे अपने अन्दर से एक भय, लज्जा या शंका के रूप में एक अनुभूति होती है । और जब हम दूसरों की सहायता करना आदि शुभ कर्म करते हैं तब निर्भयता, आनंद , संतोष, और उत्साह का अनुभव, ये सब ईश्वर के होने का प्रत्यक्ष संकेत है ।
यह ‘अंतरात्मा की आवाज़’ ईश्वर की ओर से है । अधिकतर हम अपनी मूर्खतापूर्ण प्रवृत्तियों के छद्म आनंददायी गीतों के शोर से दबाकर इस आवाज़ को सुनने की क्षमता को कम कर देते हैं । लेकिन जब कभी हम अपेक्षाकृत शांत होते हैं तब हम सभी इस ‘अंतरात्मा की आवाज़’ की तीव्रता को बढ़ा हुआ अनुभव करते हैं ।

5. और जब आत्मा अपने आप को इन मानसिक विक्षोभों/हलचलों/तरंगों से छुड़ाकर इन छाद्मआनंददायी गीतों की दुनिया से दूर कर लेता है तब वह स्वयं तथा ईश्वर दोनों का प्रत्यक्ष अनुभव कर पाता है।

इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के प्रमाणों से ईश्वर के होने का उतना ही स्पष्ट अनुभव होता है जितना कि उन सब पदार्थों के होने का जिन्हें की हम स्थूल इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं ।

प्रश्न- ईश्वर कहाँ रहता है ?

उत्तर- (1) ईश्वर सर्वव्यापक है अर्थात सब जगह रहता है । यदि वह किसी विशेष स्थान जैसे किसी आसमान या किसी विशेष सिंहासन पर रहता तो फिर वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सबका उत्पादक, नियंत्रक और विनाश करने वाला नहीं हो सकता । आप जिस स्थान पर नहीं हैं उस स्थान पर आप कोई भी क्रिया कैसे कर सकते हैं ?

(2) यदि आप यह कहते हैं कि ईश्वर एक ही स्थान पर रहकर सारे संसार को इसी प्रकार नियंत्रण में रखता है जैसे कि सूर्य आकाश में एक ही स्थान पर रहकर सारे संसार को प्रकाशित करता है या जैसे हम रिमोट कण्ट्रोल का प्रयोग टी वी देखने के लिए करते हैं, तो आपका यह तर्क अनुपयुक्त है । क्यूंकि सूर्य का पृथ्वी को प्रकाशित करना और रिमोट कण्ट्रोल से टी वी चलना ये दोनों ही तरंगो के आकाश में संचरण के द्वारा होते हैं । हम उसे रिमोट कण्ट्रोल सिर्फ इसलिए कहते हैं क्यूंकि हम उन तरंगों को देख नहीं सकते। इसलिए ईश्वर का किसी भी चीज को नियंत्रित करना खुद ये सिद्ध करता है कि ईश्वर उस चीज में है ।

(3) यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो वह स्वयं को छोटी सी जगह में करके क्यूँ रखेगा ? तो ईश्वर जायेगा । ईसाई कहते हैं कि गॉड चौथे आसमान है और कहते हैं कि अल्लाह पर है । और उनके अनुयायी अपने आपको सही करने के लिए आपस में लड़ते रहते हैं । क्या इसका मतलब ये न समझा जाये कि अल्लाह और गॉड अलग अलग आसमानों में इसलिए रहते हैं कि कहीं वो भी अपने क्रोधी अनुयायियों की न लग जाएँ ?

वास्तव में ये एकदम बच्चों जैसी बातें हैं । जब ईश्वर सर्वशक्तिमान और सरे संसार को नियंत्रण में रखता है तो फिर कोई कारण नहीं है कि वह खुद को किसी छोटी सी जगह में सीमित कर के रखे । और अगर ऐसा है तो फिर उसे सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता।

क्रमशः अगला भाग - मैं ईश्वर हूँ 06

सतीश ठाकुर