Education and Philosophy of Maharishi Valmiki books and stories free download online pdf in Hindi

महर्षि वाल्मीकि का शिक्षिकत्वएवं दार्शनिकता

संस्कृत वांग्मय विश्व के उपलब्ध समस्त वांग्मय में प्राचीनतम है संस्कृत भाषा और उसके साहित्य की उत्कृष्टता प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान मुक्त कंठ से स्वीकार करते रहे हैं। विश्व की महान एवं प्राचीनतम कृति ऋग्वेद से लेकर संस्कृत भाषा में आध्यावधि अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन होता रहा है। रामायण उस परंपरा की बहूमूल्य कृति है इसे तत्कालीन प्रचलित शिक्षा की सबसे बड़ी उपलब्धि या देन कहां जा सकता है जिसने महर्षि वाल्मीकि जैसा महनीय व्यक्तित्व गढ कर तैयार किया। महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में विरचित रामायण वस्तुतः एक कालजयी रचना है। महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रचना द्वारा परोक्ष रूप से नहीं अपितु अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष सानिध्य से भी प्रेरणा प्रदान कर केवल तत्कालीन समाज को ही नहीं अपितु आगे आने वाली अनेक पीढ़ियों को भी सुशिक्षित किया है

महर्षि बाल्मीकि रामायण का अनुसरण करते समय हम उनके व्यक्तित्व को कवि, शिक्षक एवं दार्शनिक के महनीय गुणों से समन्वित पाते हैं। समाज का साहित्यकार पर एवं साहित्यकार का समाज पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक होता है। वस्तुतः संस्कृत में--- "कवित्वं दुर्लभं लोके"-- की उक्ति के अनुसार कवि कर्म कठिन कार्य माना गया है तब शिक्षक और दार्शनिक के रूप में कर्तव्य का निर्वाह करना और भी अति विशिष्ट हो जाता है। महर्षि वाल्मीकि को केवल कवि माने तब भी कवि की दृष्टि में दार्शनिकता एवं शिक्षा का भाव स्वत ही समाहित रहता है समाज को जहां वह शिक्षित करना चाहता है वहां वह चिंतन के लिए दर्शन का आश्रय लेता है। शिक्षा और दर्शन दोनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है एक दूसरे के बिना दोनों ही पंगु हैं

जहां तक शिक्षक का प्रश्न है उसे हम एक दीपशिखा का रूप दे सकते हैं जिस प्रकार एक दीपशिखा अपने स्पर्श से अनेक दीपो को प्रज्वलित कर देती है उसी प्रकार एक आदर्श शिक्षक की प्रज्ञा अपने शिष्यों की अंतर चेतना का संस्पर्श करके उसे जागृत कर देती है महर्षि बाल्मीकि ने भी आदर्श शिक्षक के रूप में अपने धर्म और कर्म का निर्वाह उचित ढंग से किया है इसीलिए उनकी कृति कालजयी बन सकी है उनकी रचना से प्रेरणा पाकर एवं भाव भमि ग्रहण कर अनेक कवि, महाकवि,नाटककार, गद्य कार,एवं चंपू कार बन सके हैं रामायण काल से लेकर आधुनिक काल तक अधिकांश रचनाकारों के लिए महर्षि बाल्मीकि की रामायण प्रेरणा स्रोत रही है

शिक्षक और कवि को बहुश्रुत, बहुज्ञ एवं विद्वान होना चाहिए रामायण का गहन मंथन करने पर महर्षि बाल्मीकि की बहुज्ञता की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। वे इतिहास, व पुराणों के ज्ञाता, वेद वेदांगओं में पारंगत, धर्म नीति धुरंधर, लौकिक रीति प्रथा तथा मानव मनोविज्ञान के पारखी, तत्वदर्शी, दार्शनिक एवं संवेदनशी ल कवि के साथ-साथ सर्वविद ऋषि भी हैं जिन्हें तत्कालीन शिक्षक कह सकते हैं। महर्षि के आश्रम में अनेकों शिष्य गौतमी आत्रेयी आदि शिष्यओ एवं साध्वी स्त्रियों की उपस्थिति का वर्णन है। बाल्मीकि जी सदा सत्य व्रत के पालन कर्ता- थे इस बात को रामचंद्र जी स्वयं बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते हैं

प्रचेतशोऽहं दशमः,पुत्रो राघव नन्दनः
न स्स्मरामि अनृतं वाक्यम, इमोतु तव पुत्रको । बां रा उ सर्ग 97/19

रामायण में अनेक स्थानों पर महर्षि को जितेंद्रिय ,धर्मात्मा ,महा प्राज्ञ ,मतिमान, मुनि पुंगव ,वाणी विशारद, आदि विशेषण से संबोधित किया गया है । रामायण में महर्षि बाल्मीकि एक आश्रम वासी ऋषि के रूप में हमारे सामने आते हैं ऋषि आचार्य आदि शब्द उस समय शिक्षक शब्द के ही पर्याय माने जाते थे और ऋषि आश्रम ही पाठशालाऐ थी । ऋषि वाल्मीकि का आश्रम तमसा नदी के किनारे होने का उल्लेख है जहां वे अपने भारद्वाज आदि शिष्य के साथ रहते थे क्रौंच पक्षी के वधके समय ऋषि ने जिस नवीन अनुष्टुप छंद का आविष्कार किया, शिष्य भारद्वाज द्वारा उसकी पुष्टि किए जाने पर ही ऋषि को संतुष्टि होती है

विचारणीय विषय यह है वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में जिन शब्दों में रचनाओं का सृजन हुआ वाल्मीकि ने उन छंदों को अपनी रचनाओं के लिए उपयुक्त क्यों नहीं माना? बाल्मीकि जो ऋषि के रूप में प्रख्यात हैं वह भी अन्य ऋषियों की तरह मंत्रों के दृष्टा हो सकते थे किंतु महर्षि को लव कुश सदृश अपने शिष्यों के लालन पालन तथा शिक्षण का भी महनीय उत्तरदायित्व वहन करना था अतः उन्होंने सरल अनुष्टुप छंद की रचना कर लौकिक जीवन की उपयोगी सामग्री समाविष्ट करने का विचार कर लौकिक साहित्य के सर्जन की नींव डाली इस प्रकार महर्षि ने शिष्यों के लिए समकालीन युगानुकूल शिक्षा सामग्री को ग्राहय बनाने के गुरुतर दायित्व का निर्वाह किया है


उत्तर वैदिक काल के पश्चात रामायण काल तक आते-आते देश काल की परिस्थितियों के अनुरूप जन आवश्यकताओं और आकांक्षाओं में परिवर्तन अपेक्षित था उसकी ओर बाल्मिक का ध्यान जाना उनकी सजगता एवं परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता का परिचायक है। उन्होंने स्तुति परक वेद मंत्रों की अपेक्षा आदर्श गुणों से समन्वित तथा मर्यादित उत्तम चरित्र वाले मानव को अपने काव्य का विषय बनाना अधिक श्रेयस्कर समझा। वेद वेदांग ओ की क्लिष्ट व गहन संपदा को लव कुश सदृश कोमल ह्रदय बालकों के लिए ह्रदयगम कराने हेतु सुबोध बनाना तथा दार्शनिकता की दुरुहता से बचाना, एवं कांता सम्मत उपदेश शैली मैं प्रस्तुत करना, समाज उपयोगी लौकिक ज्ञान से समन्वित कर सर्वग्राहय बनाना बाल्मीकि की अपनी महनीय विशेषता थी भाषा की दृष्टि से भी सरल प्रचलित व गेयात्मक भाषा का आश्रय लेकर काव्य को प्रशंसनीय बना दिया है

वृत्तम रामश्य बाल्मीकेः शतिस्तो किन्नरस्वनो
क्म तदयेन मनोहर,तुम अक्षम, स्यातां न श्रण्वताम, रघुवंश 15/64


दार्शनिकता

महर्षि वाल्मीकि स्वयं श्रेष्ठ तपस्वी है उनका व्यक्तित्व सत्य, सदाचार ,विद्वता ,जितेंद्रियत्व ,धैर्य ,सज्जनता, दान शीलता, सेवा परोपकार, त्याग, क्षमा ,सहिष्णुता ,करुणा ,दया, उदारता प्रेम अहिंसा ,सहृदयता ,आदि अनेक गुणों से समन्वित दृष्टिगोचर होता है उन्होंने अपने ग्रंथ रामायण में भी इन्हीं गुणों की प्रतिष्ठा पर अधिक बल दिया है कोई भी काव्य कार अपनी कृति में मनोभावों ,विचारों ,मान्यताओं ,चिंतन ,मनन तथा अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ही रचना करता है रामायण की रचना का प्रक्रम ही तप शब्द से प्रारंभ होता है

तपः स्वाध्याय निरतं तपस्वी बागविदाम वरम,

रामायण में विभिन्न ऋषि-मुनियों को तपस्या में लीन बताया है तथा राज्य सुख, समृद्धि, आयु आदि का हेतु अभी तप को ही बताया गया है ऋषि मुनि अपने कठोर साधना द्वारा आध्यात्मिक खोज मे संलग्न रहते थे राजा और महर्षि यज्ञ यज्ञ आदि क्रियाओं मैं रुचि पूर्वक भाग लेते थे तपस्या की भांति यज्ञ भी ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कल्याण के साधन माने जाते थे राजा दशरथ द्वारा पुत्र प्राप्ति हेतु भी पुत्र एसटी यज्ञ संपन्न किया गया था मानव जीवन हेतु उत्कृष्ट माननीय गुणों की जो प्रतिष्ठा वाल्मीकि द्वारा प्रतिपादित की गई वह शिक्षा की दृष्टि से पूर्ण तर्कसंगत एवं उपयोगी सिद्ध होती है जिन आदर्शों एवं मर्यादा की संकल्पना महर्षि ने की है वह शिक्षा के लिए आवश्यक ही नहीं अपितु प्राण भूत है

वास्तव में आदर्श गुणों से समन्वित व्यक्ति ही आदर्श परिवार, आदर्श समाज तथा आदर्श राष्ट्र के लिए सुदृढ नीव हो सकता है धर्म अर्थ काम मोक्ष के चतुष्टय से समन्वित जीवन में महर्षि वाल्मीकि ने धर्म सम्मत अर्थ एवं काम को ही ग्राहय माना है तभी मोक्ष की प्राप्ति संभव है

इस प्रकार बाल्मीकि ने परलोक को सुंदर बनाने के साथ ही इस लोक को भी अधिक सुंदर बनाने की आवश्यकता पर बल दिया और यह कार्य केवल जंगल में रहने से ही नहीं हो सकता था इसके लिए समाज में आकर मानवीय गुणों को शिक्षा में समाहित करना भी अपेक्षित समझा महर्षि बाल्मीकि ने शिक्षक और दार्शनिक के महान कर्तव्य को अपने कृतित्व एवं व्यक्तित्व के सानिध्य से बड़ी कुशलता के साथ पूर्ण किया है ऐसे व्यक्ति जगत में विरले ही अवतरित होते हैं जो कालजयी बनकर सब के दिलों पर साम्राज्य करते हैं

इति