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घातिनी

’कौन हो तुम?’’ कस्बापुर की मेरी जीजी के घर का दरवाजा खोलने वाली की बेबात मुस्कराहट मुझे खल गयी। उसके दिखाव-बनाव की तड़क-भड़क भी उस समय पर मुझे असंगत लगी। अभी पिछले ही दिन जीजी अपने पथरी के ऑपरेशन के बाद अस्पताल से इधर अपने घर लौटी थीं और मेरे कलकत्ता आवास पर फोन किया था, ’तुम मेरे पासी चली आओ।’ और मैं सीधी रात की गाड़ी रात की गाड़ी पकड़कर इधर सुबह साढ़े दस बजे पहुँच गयी थी।

’मैं सुमित्रा हूँ’, बदतमीज लड़की ने अपनी कांच की चूड़ियाँ बजाते हुए ठीं-ठीं छोड़ी, ’आप मेम सहाब की बहन हुईं?’

’जीजी’, मैंने दरवाजा लांघ लिया। पट्टियों वाले अपने सूटकेस को अपने साथ घसीटते हुई जीजी के कमरे के अन्दर पहुँच गयी। जीजी अपने बिस्तर पर लेटी थीं। मुझे देखकर तनिक न हिलीं, न बोलीं। निस्तेज और निरानंद चुपचाप पड़ी रहीं। ऐसा पहली बार हो रहा था। वरना मुझे देखते ही उनसे अपना आह्नाद छुपाए न बनता था।

’कैसी हैं, जीजी ?’ कुर्सी खिसकाकर मैं उनके बिस्तर के निकट जा बैठी, ’ठीक हैं? हलके से उन्होंने ने अपना सिर हिला दिया। न ’नहीं’ में, न ’हाँ’ में.....

’ टीपू और पीचू से बात हुई?’ मैंने पूछा।

अमरीका पहले उनका बड़ा बेटा टीपू गया था। चार वर्ष पहले। फिर अपनी सहकर्मिणी, प्रभा से अपनी शादी करवाने जो भारत आया तो चौथे महीने, छोटे भाई पीचू को वहाँ बुलवा भेजा। पिछले ही वर्ष।

’हाँ’, जीजी ने पहली बार जुबान खोली।

’कब हुई?’

’कल रात। दोनों भाई साथ थे।’

’और प्रभा? वह वहाँ न थी?’

’मालूम नहीं, जीजी का स्वर समतल बना रहा। प्रभा का नाम सुनकर पहले की तरह भड़कीं नहीं, ’मैंने नहीं पूछा।’

’अच्छा किया’, मैंने जीजी का हाथ सहलाया, ’लापरवाही दिखाने वालों की परवाह क्यों करनी?’

दार्शनिक भाव से जीजी ने सिर हिला दिया।

’जीजी जी से बच्चों की बात हुई?’ मैंने गहराई में जाना चाहा।

’हाँ। हो गयी।’

’आप परेशान हो जीजी?’

’नहीं’, वे दीवार की तरफ देखने लगीं।

’वह पेंटिंग कहाँ गयी?’

मैंने दीवार को खाली पाकर पूछा। जीजी और जीजाजी इस मकान में पिछले पाँच वर्ष से रह रहे थे। तभी से उस पेंटिंग को मैंने यहीं दीवार पर लगा पाया था। पेंटिंग एक भारतीय नर्तकी की थी जो अपने एक पैर के सहारे अपने दूसरे सुनम्य, लचीले पैर को अपने ललित, विभूषित हाथ की ओर बढ़ाती हुई खड़ी मुस्करा रही थी।

’वह ले गयी है’ जीजी की जड़ता तोप हो गयी। मानो किसी जीवन्तता ने उनके अंदर नए प्राण फूँक दिए हों। बिजली की मानिन्द।

’सुमित्रा?’ मैं उत्तेजित हुई।

’सब उलट रहा है’, जीजी काँपने लगीं, ’दुबड़ू-घुमड़ू जिस किसी को मुझसे दबकर चलना रहा, वही दम-ब-दम मेरे दबदबे को पलटा खिला रही है, फेर दिला रही है।’

’तुम परेशान न होओ, जीजी’, मैंने उनकी कलाई चूम ली, ’मैं सब सीधा कर लूँगी, एकदम पहले जैसा....।’

समस्याओं को अपने हाथ में लेने और उनसे निपटने का मुझे अच्छा अभ्यास और अनुभव रहा है। छह भाई-बहनों के पिता विहीन हमारे परिवार में ये जीजी बेशक दूसरे नम्बर पर रहीं और मैं तीसरे पर, किन्तु सत्ताइस वर्ष पूर्व हुए उनके विवाह के उपरांत परिवार का दायित्व उनके कंधों से मेरे कंधों पर ही लुढ़का था। कारण, हमारा एकल भाई मस्तिष्क संस्तंभ से आक्रांत रहा और हमारी अल्पशिक्षित माँ गठिया रोगिणी। मुझे छोड़कर अब सभी बहनें विवाहित हैं। सबसे बड़ी का विवाह तो इन्हीं जीजी ने अपने विवाह से भी पूर्व निपटा दिया रहा और बाकी बची दो बहनों का निपटा दिया रहा और बाकी बची दो बहनों को मैंने कर डाला। अच्छे, उदार दहेज के संग। शायद सबसे अधिक समस्याएँ भी इन्हीं के हिस्से आयीं। सभी विवाहित बहनों में सबसे अधिक शिक्षित एवं कमाऊ होने के बावजूद।

’हमारी छोटी साली साहिबा आयी हैं?’ दोपहर के खाने के लिए अपने दफ्तर से घर आए मनोहर जीजा का स्वागत जीजी के कमरे के दरवाजे से शुरू हो लिया। न ही उनका माथा सिकुड़ा रहा और न ही जबड़े भिंचे-भिंचे, मुझे गहरा अचंभा हुआ।

हमारे समूचे परिवार में स्वयं को सर्वोत्कृष्ट मानने वाले इन मनोहर जीजा का घमंड और रूखापन कहाँ लोप हो गया रहा? कहाँ तो हममें से जिस किसी को देखते ही उन्हें वे तमाम काम याद आ जाया करते थे जो उन्हें और जीजी को हमसे अलग करने से संबंध रखा करते थे और कहाँ ये सुखद बोल ?

’नमस्कार’, मैं अपनी कुर्सी से तत्काल उठ खड़ी हुई, ’आप कैसे हैं?’

अपने आचार-व्यवहार में शालीनता एवं मर्यादा बनाए रखना मुझे अनिवार्य लगता है।

’तुम्हारी प्रिय जीजी का ऑपरेशन तो सफल हो गया’, पहली बार मनोहर जीजा ने ’प्रिय’ के साथ ’सर्व’ नहीं जोड़ा, न ही सर्वेसर्वा। ’जीजी’ शब्द का उच्चारण भी ’जिज्जी’ में बदल नहीं डाला वरना हम बहनों से बात करते समय वे हर बार इन जीजी का उल्लेख बिगाड़ कर ही किया करते, ’तुम्हारी सर्वप्रिय और सर्वेसर्वा जिज्जी’ यह और तुम्हारी सर्वप्रिय जिज्जी’ वह.....

’जी’, मैंने कहा, ’जीजी संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं।’

’आप अनुमान लगा रही हैं केवल!’

मनोहर जीजा ने दिखावटी स्वांग के अंतर्गत अपने हाथ हवा में लहराए और ठठा कर हंस दिए, ’अपने को भ्रम में डाल रही हैं केवल। वरना यह स्त्री कभी संतुष्ट नहीं हो सकती, कभी प्रसन्न नहीं हो सकती।’

’नहीं जीजा जी’, मैंने कहा, ’आपने जीजी का ऑपरेशन बड़ा अच्छा करवा दिया। हम सभी कृता हैं, सभी संतुष्ट हैं, सभी प्रसन्न हैं।’

’सार्टिफिकेट मिल गया मुझे, सारा जहान मिल गया मुझे।’

मनोहर जीजा बदले कहाँ थे?

वह वही थे, हूबहू वही.....

’मेहमान का खाना मेज पर लगाना है या बहन के कमरे में खाएँगी?’’ तभी सुमित्रा हमारे दरवाजे पर चली आयी।

वह ताजी नहायी लग रही थी। उसके बाल तेल से चमक रहे थे और चेहरा ताजी क्रीम और लिपस्टिक से। सुबह वाली साड़ी भी उसने बदल डाली थी और एकदम ताजी-खुली साड़ी में असाधारण रूप से बनी-ठनी और बांकी-तिरछी दिखायी दे रही थी।

मनोहर जीजा आँखें फाड़ कर सुमित्रा को देखने लगे। टकटकी लगाकर। एकटक।

’मैं मेज पर खाऊँगी’, निर्णय मैंने ले लिया, ’मनोहर जीजा के साथ’।

’आइए’, मनोहर जीजा मेरे आगे हो लिए।

सुमित्रा के ऐन पीछे।

खाना उसने बहुत मेहनत और चाव से बनाया था। सब्जियों में आलू-मेथी की मेथी की पत्ती इतनी बारीकी से बीनी गयी थी कि उसकी डंडी ढूँढ़ने से न मिल पाती। बैगन का भर्ता इतना अच्छा बना था कि उसमें मिले प्याज, अदरक और टमाटर को अलग-अलग देख पाना कठिन था। मूंग की दाल को एक ओर जहाँ टमाटर और हरी मिर्च की उपस्थिति देखने में रंगीन बना रही थी, वहीं हींग और हरे प्याज से उसे दिया गया तड़का उसके स्वाद में कई गुणा वृद्धि किए रहा। सलाद की विविधता भी अनोखी थी। सलाद उसने चार जगह परोस रखा था। दो जगह बड़ी कटोरियों में से एक में नीबू वाली धनिए की चटनी में उबले आलू-अनारदाने के साथ उछाल दिए गए थे और दूसरी में गाजर और मूली को कद्दूकस करके धरा गया था। छोटी दो कटोरियों में से एक में लाल हो चुके अदरक के महीन कतरे नीबू के रस में डूबे थे और दूसरी में महीन कटी हरी मिर्च सफेद सिरके में। दही जरूर सादा था मगर बहुत बढ़िया जमा था। मीठा और घना।

रोटी सुमित्रा ने मनोहर जीजा और मेरे मेज पर स्थान ग्रहण करने पर ही सेंकनी शुरू की। दो-दो के एकत्रीकरण में सुमित्रा हमारे पास तीन बार रोटी लेकर आयी।

पहली बार उसने मनोहर जीजा से पूछा, ’चपाती कैसी है, साहब जी?’ और खाने से अपना हाथ रोककर मनोहर जीजा ने उसकी प्रशंसा में पाठ पढ़ा, ’सच कहूँ? इतनी मुलायम, इतनी अच्छी फूली हुई और ऐसी इकहरी बिली हुई रोटी कम-अज-कम मैंने तो तुम्हारे आने से पहले इस घर में कभी नहीं खाई।’ और मनोहर जीजा का ध्यान बँटाने के लिए मैं पूछ बैठी, ’इधर आपने कौन-सा नयी फिल्म देखी, जीजा जी? आप जानते हैं, जिस-जिस फिल्म को भी आपने से सराहा वही-वही फिल्म मैंने अव्वल दरजे की पायी।’

दूसरी बार उसने पूछा, ’दाल सही बन पायी, साहब जी?’ और मनोहर जीजा ने अपनी आँखें उसके चेहरे पर जा गड़ायीं, ’उम्दा है, बहुत उम्दा। एकदम ठीक गली है। न कम न ज्यादा तनिक भी लापरवाही या बेध्यानी नहीं बरती गयी।’ और मैंने रिक्ति भरी अपने इस प्रश्न से, ’उधर आयी नई किताबों में कौन-सी आपको ज्यादा पसंद आ रही हैं, जीजा जी? जाते समय मुझे उनकी सूची लेकर जानी है।’

जब वह तीसरी बार आयी तो मनोहर जीजा के साथ मैं भी अपने प्लेट खाली करने जा रही थी। ’सभी खाना ठीक रहा, साहब जी?’ उसने अबकी बार पूछा और उत्तर में मनोहर जीजा ने मेरी ओर देखकर जीजी की पाक-कला पर खुला व्यंग्य बाण छोड़ दिया, ’खाना जब भी प्रेम भाव से बनेगा, अच्छा ही बनेगा। प्रेम-भाव के बिना बनेगा तो जरूर बिगड़ेगा।’

मेरे कलेजे पर सांप लोट गया। मैं जानती थी गृह सज्जा और गृह-संचालन के मामले में जीजी जहाँ अव्वल थीं, वहीं पाक-कौशल में सबसे पीछे। वास्तव में जिस समय हमारे पिता का देहांत हुआ था, सबसे बड़ी हमारी जीजी उस समय अपने भावी विवाह के सपने संजो रही थीं और ये जीजी अपने डॉक्टर बनने के। सपने दोनों के पूरे हुए थे, किन्तु इन्हीं जीजी की बदौलत, इन्हीं की कड़ी मेहनत के बूते। उसी मेहनत के अंतर्गत दिन के अधिकतर घंटे ये जीजी घर से बाहर बिताने पर बाध्य रही थीं और चंद घंटे वह घर पर बितातीं भी तो हम बहनें उन्हें रसोई में कैसे घुस लेने देतीं? किन्तु जब भी जीजी की कैफियत में हम यह तर्क मनोहर जीजा को देते वह तत्काल बोल पड़ते, ’तुम्हारी यह सर्वप्रिय और सर्वेसर्वा जिज्जी जितनी रसोईदारी से घबराती है, उतनी यमराज से भी नहीं। खाना बनाने के नाम भर से इस पर मौत टूट पड़ती है।’

मेज से उठकर मनोहर जीजा अपनी स्टडी ही में गए अपने और जीजी के शयनकक्ष में नहीं। दोपहर के आराम तथा रात की नींद के लिए अब वे शयनकक्ष में न आया करते। आते भी तो वहाँ रखी अपनी अलमारी से ताजा-धुले कपड़े लेने या फिर वहाँ की ड्रेसिंग टेबल के अपने ऑफ्टर शेव लोशन या कंघा प्रयोग करने।

सुमित्रा रसोई में बरतन साफ कर रही थी जब इन जीजी के शयन-कक्ष के बाथरूम के पिछले दरवाजे से मैं बाहर निकल आयी।

चार कदम पर वे सीढ़ियाँ पड़ती थीं जिन्हें पार करने पर सर्वेंट क्वार्टर रहा। दबे पाँव मैं वे सीढ़ियाँ चढ़ ली।

क्वार्टर का दरवाजा खुला था, लेकिन उस पर पर्दा था।

पर्दा हटाकर मैंने क्वार्टर में प्रवेश किया।

पर्दा हटाकर मैंने क्वार्टर में प्रवेश किया।

सामने वाली दीवार पर वही पेंटिंग टंगी थी जिसका अभाव मैंने इस जीजी के शयनकक्ष में महसूस किया था। वही भारतीय नर्तकी वहाँ खड़ी मुस्करा रही थी एक पैर के सहारे अपने सुनम्य, लचीले दूसरे पैर को अपने ललित, विभूषित हाथ की आर बढ़ाती हुई।

कोने में रखी टीपू और पीचू की बचपन वाली स्टडी टेबल पर रखी थाली पर झुका हुआ एक लड़का खाना खा रहा था। उन्हीं की एक कुसी पर बैठकर।

लड़के की पीठ दरवाजे की तरफ रही।

’खाना खा रहे हो?’ मैं उसकी थाली के पास जा खड़ी हुई।

वह थाली उस सेट की रही जिसे इन जीजी ने मनोहर जीजा के गाँव से आने वाले संबंधियों के लिए रिजर्व में रख रखा था।

थाली में रखी कटोरियाँ मतैंने गिनीं।

वे पाँच थीं।

लबालब भरी हुईं। दाल से, सब्जी से, भर्ते से, दही से, सलाद से।

’हाँ’, लड़का घबा कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। उसकी उम्र दस और बारह साल के बीच की रही होगी और स्कूल की अपनी वर्दी उसने अभी उतारी न थी। शायद वह अभी-अभी वहाँ से लौटा था क्योंकि उसके कपड़े और माथा पसीने से पूरी तरह तर-ब-तर थे।

’आप कौन?’ नेकर से अपना रूमाल निकालकर वह अपना मुँह पोछने लगा।

’तुम्हारी मेम साहब मेरी बड़ी बहन हैं।’

’आप बैठेंगी?’’ क्वार्टर में रखी दूसरी कुर्सी उसने मेरे निकट लानी चाही।

’नहीं। तुम अपना खाना खाओ।’

वह अचानक रोने लगा।

’क्या बात है?’ मैं हैरान हुई, ’तुम रोने क्यों लगे?’

’हमारी मेम साहब को आप शिकायत करेंगी?’

’कैसी शिकायत?’ मैं अनजान बन गयी।

’हमारे खाने की शिकायत।’

’क्यों? क्या यह खाना तुम उन्हें बताए बिना खाते हो? उनसे पूछे बिना?’

’हाँ’, अपना रूमाल वह अब अपनी आँखों पर गया, ’हमारी मम्मी यह खाना नीचे से चुराती हैं।’

’और तुम्हारे पिता? वह कहाँ खाते हैं?’

’दस साल पहले वह दूर जहाज की नौकरी पर गए थे, वहाँ से आज तक नहीं लौटे।’

’तुम्हारे नाना-नानी? दादा-दादी?’

’वे सभी गाँव में रहते हैं। इधर शहर में एक हमारे मामा है, बस।’

’तुम उनके पास नहीं रहते?’

’नहीं। मामी हमारी अच्छी नहीं। हमें देखकर नाक-भौ चढ़ाने लगती हैं।’

’और तुम्हारी मम्मी? वह अच्छी है?’

’अच्छी हैं, जभी तो हमारे लिए इतनी मेहनत करती हैं, हमें ऊँचा पढ़ाना चाहती हैं। ऊँचा उठाना चाहती हैं।’

’कितना ऊँचा?’ मैं हँस पड़ी।

’नीचे वाले साहब जितना ऊँचा पढ-लिख हम भी भारतीय पुलिस सेवा में जाएँगे।’

’तुम आराम से खाना खाओ’, मैंने उसकी पीठ थपथपायी, ’मैं नीचे किसी को कुछ न बताऊँगी।’

न्ीचे उतरकर मैं आँगन के दरवाजे से रसोई की दिशा में बढ़ ली, इन जीजी के शयनकक्ष में न गयी।

रसोई में सुमित्रा झाड़न से अपने हाथ पोंछ रही थी।

’तुमने खाना नहीं खाया?’ मैंने अपना स्वर सहज बनाए रखा।

’नहीं, अभी नहीं’, गैस के चूल्हे के पास धरी एक प्लेट की ओर उसने अपने हाथ बढ़ाए, ’अब खाऊँगी।’

उस प्लेट में शायद तीन या चार चपाती थीं, एक साबुत उबला आलू और एक चुटकी नमक।

’तुमने सब्जी या दाल नहीं ली?’ मैंने पूछा।

’नहीं, अपना मुँह फेर क रवह रसोई के वॉसबेसिन की ओर मुड़ ली।

नल छोड़कर अपने हाथ वह दोबारा धोने लगी।

उसी शाम वह भारतीय नर्तकी इन जीजी की दीवार पर वापस आ लगी। अपनी विशिष्ट मुस्कान के साथ, विभूषित हाथ की ओर बढ़ाती हुई।

’तुमने सुमित्रा को धमकाया क्या?’

अधीर होकर जीजी ने मुझे घेरना चाहा।

’नहीं। जादू किया उस पर, मैं बच निकली।’

’कैसे?’

’जादू अपना उद्घाटित करूँगी तो विपर्यस्त हो जाएगा।’

कस्बापुर वाली चार दिन की अपनी वह पूरी टिकान मैंने फिर बड़े आराम से गुजारी।

मनोहर जीजा अवश्य अशांत एवं असंतुष्ट दिखाई देने लगे थे, मगर इन जीजी की अस्वाभाविक अधीरता लुप्त हो ली थी और उनका स्नेही स्वभाव लौट लिया था।

मेरे प्रति.....

इसके प्रति....

उसके प्रति....

सबके प्रति....

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