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मेदिनी - 1



मेदिनी

चूल्हे को फुँकनी से फूँक कर जलाती हुई सिया अपने पल्लू से बार - बार आँखों को पोंछती जाती थी , धुँए की जलन से उसकी आँखें बराबर बह रहीं थीं, शायद लकड़ी गीली थी। बार बार फूँकने से उसे खाँसी आ गयी लेकिन वह अनवरत अपने काम में लगी रही । काहे कि दस भूखे पेट उसका इंतजार कर रहे थे। सास, ससुर , उसका पति जगतराम , उसकी दादी सास, उसके तीन बच्चे , उसकी ननद और उनका बेटा।
अँधेरा भी गहरा आया था। यूँ तो गाँव मे बिजली थी पर उनके घर पर नहीं थी क्योंकि पैसा कौन दे ! कमाने वाला एक अकेला मरद जगत राम खाने वाले इतने सारे ।
एक बड़ी सी कुप्पी नुमा लालटेन जला कर बीच आँगन में रखी हुई थी अगल बगल उसके बच्चे पढ़ने के लिए बैठे थे। दो बेटे बड़े थे एक बिटिया सबसे छोटी थी। वह अभी चलना सीख रही थी।
जगत राम शहर चला गया था मजदूरी करने। शाम को जब वह घर आता तो सबके लिए कुछ न कुछ लाता अवश्य । सिया के लिए लाता तो छुपाकर देता । कहीं घर की दो बेढब महिलाएँ देख लें तो बाबा रे ! लंका दहन समझो !

सिया की ननद लाली महा कामचोर जिसकी वजह से वह अक्सर मैके भाग आती । कुछ दिन तो सब ठीक चलता रहा एक दिन उसके घर वालों ने उसे सच में निकाल दिया। जब तुझे मैके में ही रहना है तो जा वहीं रह ! यहाँ हमारे साथ गुजर बसर तो ना होने की। सो वो भी अपना सपूत लेकर आ धमकी मैके में ।
काम कहाँ करती , इसी कारण से तो निकाली गई थी सो अपने भाई भावज का घर भी तोड़ने पर लगी रहती। दिनभर कहीं दादी , कहीं अम्मा के कान भरती रहती । और उनके सपूत नाम था दरोगा ! साढ़े तीन फुट की हाइट उम्र कोई दस ग्यारह साल रही होगी। देखने से ही शैतान का चाचा लगता था। घर के बच्चों जैसा तो बिल्कुल नहीं था । अपनी माँ का बड़ा ही दुलारा और माँ जैसा ही ।
मोहन , गोविंद और गोली उसके बच्चे जिसमें मोहन सबसे बड़ा था तेरह साल का , दूसरा गोविंद ग्यारह साल का और छुटकी बिटिया गोली डेढ़ साल की थी। इतना सारा परिवार था सिया का ।

ओसारे में खटिया डाले बूढ़े ससुर घर्र- घर्र करते कभी -कभी खांस उठते, साथ में एक जुमला उछल आता , ' अरी ओ! जगत की अम्मा ! आज रोटी नही बन रही का ! साँस निकली जा रही भूखन के मारे !'
रसोई के पास ही बैठी दादी सासू मां जाने क्या बुदबुदा रही थी , जैसे ही बूढ़े की आवाज आती वह पलट कर बहुरिया को गरियाने लगती , 'अरी करमजली! तू ही लिखी रही हमार भाग में जो रोटी तक टैम पर नही बनाय पा रही। जब बुढ़वा मरि जाई तबही दिए का रोटी!'
वह सब अनसुना करके झटपट तवा चूल्हे पर रखकर हाथ से आटा मसलती हुए हाथ में पानी लगाया और रोटी को हाथ से बढ़ा कर तवे पर धप्प से डाल दी। रोटी तवे पर जाते ही सबकी भूख दोगुनी हो गयी सभी चूल्हे के नजदीक आकर बैठ गए। सिया के हाथ दनादन रोटियाँ पोने में लगे थे तवे की रोटी उतार चूल्हे में किनारा करके लगाती जाती और दूसरी डालती फटाफट आठ दस रोटियाँ सेंक कर उसने सबकी थालियाँ लगा दीं। सिया की सास ने उसकी मदद की, सबको थाली उठाकर दे आयीं ।
और बैठकर गोली को खिलाने लगीं। वह इकलौती गुड़िया थी घर में तो वह बड़ी दुलारी थी । यह सब देककर लाली जलभुन उठी,
'अम्मा दिनभर इसे ही टाँगे घूमती रहती हो कोई और बच्चा नहीं है का घर में?'
'काहे! तू काहे जली जा रही है तुझे भी हम ऐसे ही गोदी उठाये घूमते थे।' अम्मा ने कहा , ' और जब ई दरोगवा पैदा हुआ था तब इसको भी लटकाए घूमते थे।' उन्होंने आगे जोड़ा।
'पर अम्मा उ तो....' लाली कुढ़ते हुए अब बोल रही थी।
'चुप कर !' अम्मा ने डाँटा , 'जा आजी को और अपने बापू को रोटी देकर आ!'
लाली चुपचाप उठी और आँखे तरेरती हुई चली गयी। लौटकर खुद भी खाने के लिए बैठ गयी ताकि कोई अब उससे काम न कह दे।
सबको खाना खिलाते-खिलाते सिया को दो घण्टे लग गए। गाँव के लोग कोई एक दो रोटी तो खाते नहीं , खासकर लाली और उसका बेटा दस पंद्रह रोटी खा जाते । दिनभर मटर गश्ती करते , भगवान जाने खाना कहाँ चला जाता। हर दो घंटे पर भूखे बने रहते । दादी का भी हाजमा बड़ा तगड़ा था वो भी सात आठ रोटियाँ तो चिपका ही लेतीं।
अंत में वो ही खाने को बची तो बटलोई में सब्जी खत्म हो गयी थी । मन ही मन मुस्कुराई , 'चलो कोई बात नही सबने पेट भर खा तो लिया।' उसने हाथ धोया और रसोई से बाहर रखे अचार की हंडिया में से अचार का टुकड़ा निकाला और लोटा भर पानी ले आयी , उसे भला कौन देता वो तो बहू थी न । खाने बैठी जैसे तैसे पानी के सहारे रोटी हलक से उतारने लगी। अम्मा ने देखा तो गुड़ ले आयीं और एक कटोरे में थोड़ा सा दूध डाल कर उसको दिया , 'बहू तुम दिनभर खटती रहती हो खाओगी नहीं तो कैसे काम चलेगा?' बड़े अपने पन से कहा उन्होने तो वह मना नही कर पायी। और लेकर खाने लगी।
तब तक लाली आ धमकी, ' ई लो हम सबको तो मिर्चा भर के तरकारी खिला दी अपना दूध रोटी उड़ा रहीं हैं।'
अम्मा बोली , ' रे ललिया ! इतनी कस के काहे चिल्ला रही है बहू के लाने तरकारी नहीं बची थी तो उसको दूध हमने दियो है।'
अब बुढ़िया दादी चिचियाईं, ' बहु को दूध पिला रही है साँप पाल रही है साँप !' बहू को दूध रोटी कौन ख़िलावत है जरा बता तो मोए!'
अम्मा बोलीं , ' माई जरा सी बात का बतंगड़ न बनाओ। बहू है कोई गोरु नहीं ।'
सिया ने किसी तरह दो रोटी निगली मन तो कर रहा था दूध उठाकर ननद को दे आये , 'ई लो जीजी आप पी लो आपको जरूरत ज्यादा है। हमारा क्या है, हम तो मेहनत वाले लोग हैं पानी भी शरीर में लगता है।' पर प्रत्यक्ष में कर नहीं पाई ताकि घर की शान्ति बनी रहे। अम्मा भी तो यही करती आयी हैं। उनको देखकर उसको सम्बल मिलता।
चूल्हा चौका समेटते समेटते बहुत रात हो गयी करीब दस बजा होगा कि दरवाजे पर दस्तक हुई , अम्मा लपकीं 'लगता है जगत आ गया।' और सांकल खोल दी।
सामने का नजारा देखा तो चिल्ला पड़ीं , 'हाय दैया ! जगत को का हुआ ?' और उनके हाथ पैर काँपने लगे। सिया ने सुना तो दौड़ आयी , क्या हुआ ?
देखा तो दो लोग जगत को टाँग रखे थे और उसके सर से खून बह रहा था वह करीब बेहोशी की हालत में था।
घर के बाकी सब सो चुके थे। वो दोनों गाँव के ही लोग थे जो जगत को लेकर आये थे। जगत की तरह वह भी शहर से काम पर से आ रहे थे रास्ते में अंधेरा बहुत होने के कारण दोनों किसी चीज से टकराये और गिर पड़े हाथ में कुछ चिपचिपा सा लगा तो उन्होंने अपने मोबाइल की टॉर्च जलाई देखा तो खून !
'खून !!!' दोनों एक साथ चीखे। हलक सूखने लगा । यह कौन है देखने के लिए उसके मुँह पर लाइट मारी तो देखा , 'ये जगत है!' तो उसे उठा कर किसी तरह घर तक ले आये । इससे ज्यादा कुछ नहीं मालूम उन दोनों ने कहा। अम्मा और सिया दोनों ही उसको पकड़कर किसी तरह कोठरी नुमा कमरे तक लाई और खाट बिछाकर लिटा दिया । सिया दौड़कर साफ पानी और एक कटोरी में हल्दी घोल कर ले आयी । झटपट घाव साफ करके उसपर हल्दी का लेप लगा कर पट्टी बाँध दी।
दोनों उसके होश में आने की प्रतीक्षा करने लगीं। थोड़ी देर बाद जगत ने आँखे खोलीं। सिया और अम्मा को जान में जान आयी। दोनों लपक कर पूछने लगीं, ' क्या हुआ , ऐसी दशा कैसे हुई?'
उसने हाथ से इशारा किया , ' पानी '
सिया भागकर पानी ले आयी। थोड़ा थोड़ा कर उसको पिला कर पूछा , 'थोड़ा दूध ले आऊँ हल्दी डाल के वो सारी चोट खींच लेगा।'
जगत ने हाँ में इशारा किया । वो भागकर चूल्हा जलाई और दूध हल्दी डाल कर खौलाने लगी। दूध लोटे में डाल कर चली , पीछे से आजी जग उठी बोली, 'का हुआ री! काहे भागी जा रही !'
'कुछ नहीं आजी..' कहकर वह अपने कमरे में घुस गई गिलास में दूध डाल कर ठंडा करके जगत को दिया । उसने जब दूध पी लिया तब तनिक ताकत आयी शरीर में।
इधर आजी से रहा न गया वो अपनी लठिया उठायीं और टेकती हुई पहुँच गयी जगत के कमरे तक। जो दृश्य देखा तो कोहराम मचा लिया। कैसे भी समझती ही न थीं चिल्ला चिल्ला कर घर तो क्या पड़ोसियों को जगा लीं।
जगत से रहा न गया ,बोल पड़ा, 'का आजी घर सिर पर उठाए ले रही हो इतनी देर से हम घर में है इन दोनों ने देखभाल कर ली किसी को कछु न पता चला अब आप ने लंका लगा दयी।' घर के सब लोग जग उठे थे और कमरे में भीड़ लगा ली थी। किसी तरह से सबको समझा बुझा कर सोने भेजा जगत ने। पर आजी तो पौत्र मोह में बैठ गईं जम के !
'नही जानो है हमे सोवे के लाने , समझा! जा हमाये पोता को चोट लगी है और हमयी सोय जाएं , जा तो ना होवेगो।' आजी ने घोषणा कर दी।
फिर सिया की तरफ घूर के बोली, 'जा कलमुई जब ते हमाये घर आई है तबै ते घर में कछु ठीक नाही होय रहो!' अबकी बार पलटीं सिया की सास की ओर , ' तुम्हऊ तो कौनो कम नाही , तुमहाए चरन कौन बरक्कत लाये रहे!'
ऊपर से जा घर मा बहुअन को दूध पियावो जात है उहाँ कौन बरक्कत होइहे।' अभई हमने कही हती कि बहुरियन को दूध पिलाबो तो साँप को दूध पिलाबो।'
सिया और उसकी सास चुपचाप खड़ी थी उनको इस तरह की बातें सुनने की आदत हो गयी थी तो कोई खास हाव भाव चेहरे पर नहीं आये। लेकिन जगत बिलबिला उठा। उससे रहा न गया , ' आओ आजी तुम्हे तुम्हाई खटिया तक छोड़ि आएँ। '
हाथ झटक कर बोली ऐ बउआ! हम तो यहाँइ ही बैठिहें तुम हमाये पोता हो इन करमजलिन को का !'
अब जगत तिलमिला उठा और खुद ही बाहर जाकर जमीन पर चटाई बिछाकर लेट गया ।
आजी दोनों औरतों को घूरती हुई बाहर निकल आयीं और जगत के पास आती तब तक जगत फुर्ती से उठा और कमरे में जाकर किवाड़ बंद कर लिए।
बुढ़िया बहुत देर तक दोनों औरतों को कोसती रही । फिर थक कर सो गई ।
इधर जगत को जो आराम मिल रहा था वो आजी के आ जाने से दोहरे कष्ट में बदल गया।
अम्मा ने सिया से कहा , ' बहुरिया तुम जगत को देखो हम बच्चे देख लेंगी।' और वो चली गईं बच्चों के पास जाकर लेट गईं।
गुमसुम सी आसमान ताक रही थीं। पीछे अपनी याद करने लगीं जब वो बहू बनकर आयी थीं और ये आजी तब तो जवान थीं दौड़ कर आ जाती थी । तनिक देर हुई नहीं जो कुछ हाथ में पड़ जाता वही फेंककर मार देती । एक बार तो सिलबट्टे पर जब वह मसाला पीस रहीं थी , किसी बात से आजी खफा थीं दनदनाती हुई आयीं और लोढ़ा उठाकर उँगली पर दे मारा था। उंगली की हड्डी टूट गयी थी और फट भी गयी थी बड़ी मुश्किल से किसी तरह पट्टी बँधी थी । जगत के बाबू को बताया तो वो भी बिफर पड़े थे , ' देख अम्मा को कुछ कहा तो अच्छा नई होयगो। तूने ही कछु कहो होयगो तबही अम्मा ने डके मारा । काम धाम कछु आवत नाही चली शिकायत करने ।' उन्होंने अपना मुँह सी लिया था। कोल्हू के बैल की तरह दिनभर खटती तब जाकर रात को दो रोटी नसीब होती। उन्होंने मन ही मन ठान लिया था कि वो अपनी बहू के साथ ये अत्याचार तो न होने देंगी।
लेकिन क्या करें किस्मत जब खोटी होती है तब चारों तरफ से मुश्किलें पैदा करती है। बिटिया हुई तो सोचा चलो बिटिया मेरी पीड़ा समझेगी लेकिन वो भी सिक्का खोटा ही निकला। वो अपनी आजी जैसी थी इसीकारण अपने ससुराल में न बनी । वापस चली आयी।
बेटा था उसको अच्छा पढ़ाना चाहती थी लेकिन यहाँ भी किस्मत ने धोखा दिया आदमी दिनभर चरस पीता और जुआ खेलता । कुछ वैसे भी नही कमाता था जो कुछ घर में था वह भी उड़ा दिया। मजबूरन बेटे की पढ़ाई रोककर मजदूरी के काम पर लगाना पड़ा ताकि चार पैसे आएँ तो घर चले।
बेचारा मजदूरी करते करते बड़ा हो गया , ब्याह किया बहू को देख निहाल हो गईं । उसने सोचा बहू को बेटे के साथ शहर भेज दें । पर बहू नहीं मानी । बेटे ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया। अब बहू उनकी सहेली हो गयी थी। दोनों आपस में एक दूसरे के दुःख सुख समझती और बांट लेतीं।
आजी तो पूरी हिटलर थीं कभी दोनों को एक साथ बैठने भी न देतीं।

क्रमशः

अन्नपूर्णा बाजपेयी
कानपुर