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झूठी मज़ार के फूल

झूठी मज़ार के फूल
कहानी - शरोवन
***
हाथों में आई हुई अपने प्यार की जीती हुई बाज़ी इतनी चुपके से केवल आंख मार के सरक जायेगी, उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था। इस दुनियां का चलन उसके साथ चालबाज़ी करे, और अवसर हाथ आने पर अपने स्वार्थ के लिये कभी भी पीछे हटे; इस राजनीति को चाहे एक बार दोष ना भी दिया जाये पर खुद इस दुनियां का बनानेवाला उसके हाथ की लकीरों को बनाकर फिर से मिटा दे, इस कटु सत्य पर उसे विश्वास सहज ही नहीं हो पा रहा था। जितनी सहजता से सौन्दर्य की अनमोल मलिका रोमिका उसके जीवन में प्रविष्ट हुई थी, कौन जानता था कि उतनी ही आसानी से वह सदा के लिये उसकी जि़न्दगी से लुप्त भी हो जायेगी?’
* * *

‘दैनिक राष्ट्रीय पत्र।
दिनांक अक्टूबर 20, . . .।

'

खबर है कि मशहूर उपन्यासकार व कहानीकार लेखक ‘शान्तेन शैली’ सेरमपोर, कलकत्ता पुलिस की हिरासत में। उस पर आरोप है कि शान्तेन ने भरी सभ्य लोगों की एक पार्टी में किसी सुशील व सभ्य परिवार की एक महिला के गाल पर अकारण ही तमांचा मारकर उसकी सरेआम बेइज्ज़ती की है। शान्तेन के द्वारा इस प्रकार अप्रत्याशित रवैये व व्यवहार का क्या कारण है, यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका है। पुलिस अभी इसके बारे में खोजबीन कर रही है और शान्तेन के इस अप्रत्याशित व्यवहार के प्रति आश्चर्यचकित भी है।’


इस अनहोनी, अप्रत्याशित खबर को पढ़ते ही रिषीराज अचानक ही चौंक गया। उसका चौंकना बहुत स्वभाविक ही था । शान्तेन, जो एक साहित्यकार व सुप्रसिद्ध लेखक था, उसको चाहे सारा देश ही एक लेखक के बारे में क्यों न जानता हो, परन्तु रिषीराज तो शान्तेन को व्यक्तिगत रूप से जानता था। तब, जब रिषीराज से नहीं रहा गया तो उसने फौरन ही कलकत्ता जाने वाली फ्लाइट की बुकिंग कराई और दूसरे दिन की शाम तक वह कलकत्ता जा पहुंचा। फिर सुबह होते ही उसने टैक्सी की और सेरमपोर के थाने में जा पहुंचा। लेकिन जब वह थाने पहुंचा तो उसको यह जानकर हैरानी तो नहीं पर, उसका मन अवश्य ही एक बार कुंठित हो गया। साथ ही उसे प्रसन्नता भी हुई। शान्तेन की किसी ने जमानत कर दी थी और वह अब अपने घर पर ही था, लेकिन पुलिस की कार्यवाही अभी भी ज़ारी थी। शान्तेन के घर की घंटी बजाते ही जब उसने द्वार खोला तो वह अपने बचपन के मित्र और कॉलेज के साथी मित्र को अचानक ही अपने सामने देखकर चौंका तो पर, एक दम भरपूर खुशी के मारे उसने रिषीराज को अपने गले लगा लिया। एक प्रकार से वर्षों के बाद उसका लंगोटिया यार उसके घर पर आया था, शान्तेन का प्रसन्न होना बहुत ही स्वभाविक था। शान्तेन तुरन्त ही उसे अपने घर के अन्दर ले गया। शान्तेन का घर अच्छा-खासा फ्लैट था। आराम का हरेक साधन वहां पर उपलब्ध था। फिर शान्तेन एक मशहूर लेखक था, दौलत और शोहरत, दोनों ही उसके पास थीं; रिषीराज को यह सब देखकर कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। जिस वस्तु की कमी शान्तेन के घर में थी, वह थी: उसकी पत्नी। उसने अभी तक अपना विवाह नहीं किया था।

बैठक में आते ही शान्तेन ने घर के नौकर को आवाज़ दी तो एक अधेड़ उम्र का बूढ़ा सा मनुष्य बैठक में हाजि़र हो गया। उसे देखकर शान्तेन ने उससे कहा कि,

‘देखो गोपाल जी, यह हमारे बहुत पुराने मित्र हैं। यूं समझ लो कि मेरे भाई हैं। इनकी ख़ातिरदारी में कोई भी कमी नहीं रहनी चाहिये। इनके लिये मेरे पास का कमरा साफ कर देना। इनका सामान भी उठाकर वहीं ले जाओ और शीघ्र ही कुछ चाय नाश्ते और खाने पीने का प्रबंध कर लो। यह अभी कुछ दिनों तक मेरे पास ही रहेंगें। अपने मालिक का आदेश सुनकर गोपाल रिषीराज़ का सामान व असबाब उठाकर ले गया और फिर किचिन में जाकर नाश्ते आदि का प्रबन्ध करने लगा। गोपाल के जाने के पश्चात शान्तेन रिषीराज से मुखातिब हुआ। उसे देखते हुये, मुस्कराते हुये वह बोला,

‘तुम्हारे आने का क्या कारण है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हां, यह बताओ कि कैसी चल रही है भाभी और बच्चे, सब कुशल से तो हैं?’

‘?’ शान्तेन की बात को सुनकर रिषीराज़ हल्का सा मुस्कराया, फिर वह बोला,

‘वर्षों पहिले उत्तर-प्रदेश राज्य विद्युत परिषद में लिपिक की नौकरी करते समय हड़ताल के समय सारे विद्युत हड़तालियों के साथ तू भी जेल चला गया था, और एक रात वहां काटने के बाद दूसरी सुबह घर वापस आ गया था। लेकिन तब मुझे कोई भी आश्चर्य नहीं हुआ था। लेकिन अब यह दूसरी बार तूने जेल जाने का प्रबन्ध कर लिया, सुनकर विश्वास नहीं हुआ था, इसीलिये बगैर किसी भी बात की परवा किये तुझसे मिलने आया हूं। बता न क्या चक्कर बन गया था?’

‘अरे छोड़ इन बातों को, यह तो इंसानी जि़न्दगी के वे चक्कर हैं, जिनमें वह कभी भी न फंसे, ऐसा हो ही नहीं सकता है। कुछ और बातें करें तो ज्यादा बेहतर होगा।’

‘?’ शान्तेन की इस बात पर रिषीराज ने उसको दो पल के लिये आश्चर्य से घूरा तो शान्तेन ने स्वत: ही अपनी दृष्टि नीचे कर ली। कर ली तो रिषीराज उससे जैसे बड़े ही निराश स्वर में आगे बोला,

‘आखि़रकार, दोस्त हूं न तेरा। अगर रक्त का कोई रिश्ता तेरे और मेरे मध्य होता तो शायद तू मुझसे कभी भी कुछ नहीं छिपाता।’

‘नहीं दोस्त, ऐसा कुछ भी नहीं है। शायद तुझे न मालुम हो कि मनुष्य के जीवन के कुछेक हिस्से ऐसे भी होते हैं, जिनमें हिस्सा बंटाने में कभी-कभी बहुत समय लग जाता है। जब वक्त आयेगा तो तुझे खुद ही पता चल जायेगा। शान्तेन ने कहा तो रिषिराज तपाक से बोला,

‘मैं तो आया था, तेरी सहायता करने के लिये। अब जब तुझे ही कोई सहायता नहीं चाहिये तो मैं भी क्या कर सकता हूं। खैर, यह तो बता ही दे कि वह हसीन औरत कौन थी जिसे देख कर तू खुद पर भी नियंत्रण नहीं कर सका और भरी महफिल में तूने उसके एक ज़ोरदार झापड़ रसीद कर दिया था?’

‘सुन कर क्या करेगा तू?’ शान्तेन ने कहा।

‘शायद कुछ भी नहीं। पर हां, दिल को शायद एक सन्तोष तो मिल ही जाये।’

‘?’ शान्तेन फिर चुप हो गया तो रिषीराज ने उसे फिर से कुरेदा। बोला,

‘अब बता न, कौन थी वह?’

‘रोमिका।’

‘?’ सुनकर रिषीराज आंखें फाड़ता हुआ शान्तेन का चेहरा ही देखता रह गया। पल भर को वह यकीन भी नहीं कर सका। लेकिन शान्तेन के चेहरे पर गंभीरता के विषाद से भरे बादलों के साये देखकर वह फिर आगे कुछ भी नहीं कह सका। केवल सोचकर ही रह गया कि, मनुष्य के जीवन में होने वाले हादसे अचानक से किस प्रकार अपना रंग बदलते हैं, कोई सोच भी नहीं सकता है। तभी गोपाल चाय की ट्रे लेकर साथ में बेसन की पकोडि़यां और नमकीन लेकर प्रविष्ट हुआ तो कुछेक क्षणों को दोनों मित्रों का ध्यान उस ओर चला गया। साथ ही आपस के मध्य छाये हुये क्षोभ और विषाद के मैले बादल भी स्वत: ही धीरे-धीरे छंटने लगे। दोनों मित्र बेसन की पकोडि़यों के साथ चाय का आनन्द लेने लगे।

रिषीराज, शान्तेन के घर पर तीन दिनों तक ठहरा रहा। इन तीन दिनों में दोनों मित्र आपस में अपने अतीत की स्मृतियों के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य की बातें करते रहे। बाद में रिषीराज, शान्तेन को भविष्य में किसी भी आवश्यकता पड़ने का आश्वासन देकर वापस अपने घर आ गया। शान्तेन उसको रेलवे स्टेशन तक छोड़ने आया। फिर जब रिषीराज गाड़ी में बैठा हुआ वापस जा रहा था तो अपने आप ही उसके मस्तिष्क में वे सारी बातें, जो उसको पिछले तीन दिनों के मध्य शान्तेन ने बताईं थीं, फिर एक बार किसी चलचित्र के समान एक क्रम से रेंगने लगीं ....’

. . . बात उन दिनों से आरंभ होती है जब रिषीराज और शान्तेन, दोनों ही एक ही स्थान, एक ही कॉलेज में और एक ही कक्षा के सहपाठी थे। दोनों आरंभ में अच्छे सहपाठी थे। पढ़ने में होशियार और होनहार भी। कब दोनों की यह सहपाठिता मित्रता में बदल गई, पता ही नहीं चला। पता तब चला जब शान्तेन को कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात वापस अपने घर कलकत्ता जाना पड़ा। और जब रिषीराज उसको रेलवे स्टेशन छोड़ने आया था और तब शान्तेन उसकी आंखों में नमी देख कर समझ गया था कि पिछले चार सालों की कॉलेज की पढ़ाई के दौरान आपस की मित्रता और स्नेह के जो बीज बोये गये हैं, उनसे फलीभूत होने वाले प्यार के पौधों की जड़ें अब कभी भी समाप्त नहीं होने वाली हैं। लेकिन कितने आश्चर्य की बात थी कि, चार सालों की दोस्ती के मध्य रिषीराज कभी भी यह नहीं जान सका था कि उसका दोस्त चुपचाप किसी रोमिका नाम की पर्वती बाला के प्रेम की अग्नि में धीरे-धीरे सुलग भी रहा है। वह आरंभ के दिनों में इतना तो जान गया था कि शान्तेन किसी रोमिका नाम की लड़की से अपना विवाह करेगा। और कब करेगा, यह बात वह नहीं जान सका था। उसने एक दो बार शान्तेन से इस बारे में पूछा भी तो शान्तेन सदा टाल ही गया था। शान्तेन रोमिका के संपर्क में कैसे आया था, यह जानकर भी वह आश्चर्य किये बगैर नहीं रह सका था। जाना भी तब था जब कि इस बार की भेंट में उसके बार-बार आग्रह पर शान्तेन ने अपनी वर्षों की धुंआ देती कहानी को दोहराया था।

अपने मित्रों के बनाये हुये कार्यक्रम के अनुसार गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिये शान्तेन भी कुंमाऊं की ठंडी पहाडि़यों पर घूमने गया हुआ था। कुंमाऊं का पर्वती इलाका तो यूं भी अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिये मशहूर है। मैदानी क्षेत्रों के कितने ही सैलानी गर्मी का मौसम व्यतीत करने यहां पर हर वर्ष ही आया करते हैं। सो शान्तेन का मन भी वहां का ठंडा मौसम, प्रकृतिक छटा और पर्वतों पर लापरवा इठलाते, घूमते बादलों के काफिले देख कर रोमांचित हो चुका था। बादल जब देखो तो आंख-मिचौनी ही खेलते रहते। कभी भी अक्सर आकर वे बरस जाते और दूसरे ही क्षण फिर से धूप निकल आती थी। शाम होते ही घाटियों से कुदरत का धुंआ उठने लगता। रात होती तो पहाड़ों पर चन्द्रमा का झाग फैलने लग जाता। फिर सारी रात जैसे सिसकती हुई अपनी शबनम की बूंदों के सहारे धरती का मुंह धुलाती रहती। ऐसी कुदरत की सुन्दरता तो उसने अपने मैदानी क्षेत्र के इलाके में भी कभी नहीं देखी थी। शान्तेन तो बड़ी रात तक ओस में भीगता हुआ, चांदनी में डूबे पहाड़ों को ही निहारता रहता था। निहारता रहता, तब तक जब तक कि बैठे हुये उसे ठंड नहीं लगने लगती। चन्द्रमा भी रात भर का थकाहारा, टिमटिमाते हुये तारों के मध्य कहीं मुंह छिपा लेता। तब कहीं वह भीगती हुई ओस की बूंदों में सीला हुआ वापस अपने निवास पर लौटता।

पहाड़ी छटाओं की इन्हीं खुबसूरत वादियों को देखते हुये शाम के भरे बाजार से दूर एक अकेली पगडंडी के पथरीले रास्तों पर चलते हुये शान्तेन को जब ज़ोरदार ठोकर लगी तो वह बहुत संभलते हुये भी गिर पड़ा। इस प्रकार कि सहारा लेने की कोशिश में वह सड़क के किनारे रखे हुये पत्थर से जा टकराया। इतनी बुरी तरह से वह गिरा था कि पत्थर से टकराते ही उसके हाथ की कोहनी भी रगड़ गई, और वहां से रक्त भी रिसने लगा। शान्तेन गिरकर उठ ही रहा था कि तभी एक खिलखिलाती हुई हंसी की आवाज़ उसके कानों से जा टकराई। तब उसने आश्चर्य से हंसने वाले की तरफ निहारा तो देखकर चौंका तो पर, आश्चर्य नहीं कर सका। फिर वह आश्चर्य करता भी कैसे। उसने जो किया था, उस पर देखने वालों का प्रभाव भी कुछ ऐसा ही होना था। एक बड़ी खुबसूरत, प्यारी सी, नीली आंखों वाली पहाड़ी बाला उसकी हालत को देखते हुये, अपने मोती समान दांत दिखा रही थी। शान्तेन कुछ कहता, इससे पहिले ही वह पर्वती बाला तुरन्त ही उसके पास आ गई और अपनी मधुर आवाज़ में चुटकी लेते हुये उससे बोली कि,

‘ ऐ बाबू, आंख खुबसूरत लड़कियों पर लगाते हुये पहाड़ी रास्ता चलोगे तो ठोकर तो लगेगी ही।’

‘?’ शान्तेन अचानक ही उस लड़की की बात पर चौंक गया। वह चौंका ही नहीं बल्कि कहने वाली की इस बात पर वह जैसे खीझ़ कर बोला,

‘मैं किसी भी लड़की को नहीं देख रहा था।’

‘पर मैं तो देख रही थी आपको।’ उस लड़की ने तुरन्त ही उत्तर दिया तो शान्तेन पहिले से भी अधिक आश्चर्य से भर गया। तब वह हैरान सा उस लड़की का चेहरा देखने लगा। फिर कुछेक पल के बाद वह उससे प्रश्नसूचक दृष्टि से देखता हुआ बोला,

‘क्या मतलब?’

‘मुझे पहिले ही से मालुम था कि नीचे मैदानी क्षेत्रों से आने वाले लड़के यहां पहाड़ों पर इसी तरह से ठोकर खाकर गिरते हैं।’

‘आपको बहुत अच्छा अनुभव है।‘ शान्तेन ने अपनी कोहनी पर जहां पर उसके चोट लगने से रक्त से कमीज़ भी लाल होने लगी थी, को देखते हुये कहा।

‘पहाड़ी लड़की हूं न। इतना भी अनुभव नहीं होगा क्या ’

‘ठीक कहती हैं आप। मुझे तो रास्ता चलने का भी अनुभव नहीं है।’

‘किसी का हाथ पकड़कर चलोगे तो ना चोट लगेगी और ना ही ठोकर।’

‘किसका हाथ पकड़कर चलूं ?’

‘!!’ उस लड़की ने अचानक ही गंभीरता से शान्तेन का चेहरा देखा, फिर बात बदलते हुये बोली,

‘आपके चोट लगी है और खून भी बहने लगा है। मैं पट्टी कर देती हूं।’

‘पट्टी और यहां पर? यहां पर तो कोई दवा की दुकान और अस्पताल भी नहीं है।

‘हां, नहीं है। पर मैं पट्टी ऐसे कर देती हूं।’

‘कैसे?’

‘देखो तो।’ कहते हुये उस लड़की ने अपने सिर पर बंधा हुआ स्कार्फ उतारा और उसे फाड़ती हुई, उसके चोट के स्थान पर पट्टी की तरह लपेटते हुये बोली,

‘ऐसे।’

‘?’ शान्तेन देखकर दंग रह गया। इस प्रकार कि कभी वह उस लड़की के लंबे लहराते हुये बालों को देखता तो कभी उसकी नीली आंखों के साथ मुखड़े की बेहद सुन्दरता को। वह लड़की अभी भी उसके हाथ की कोहनी में स्कार्फ की बनाई हुई पट्टी को लपेट रही थी। फिर जब पट्टी छोटी पड़ने लगी तो उसने अपना संपूर्ण स्कार्फ ही उसके हाथ में लपेट दिया। इसी बीच उस लड़की ने शान्तेन को देखा तो वह अचानक ही झेंप गया। इस तरह कि जैसे कोई चोरी करते हुये रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो। तब उसका झेंपा हुआ मुख देखकर वह लड़की शान्तेन से तनिक गंभीर स्वर में बोली,

‘ऐ बाबू, लड़की को ऐसे नहीं देखा करते हैं।’

‘क्यों?’ शान्तेन ने पूछा तो वह लड़की उसकी आंखों में झांकती हुई बोली,

‘कहा न, नहीं देखा करते हैं’

‘चलो, नहीं देखूंगा। पर एक बात है।’

‘एक अनजान व्यक्ति की आपने सहायता की। मैं कुछ समझ नहीं सका?’

‘अनजान की नहीं, मैदानी क्षेत्र से पर्वतों पर आने वाले लोग, हम पहाडि़यों के लिये मेहमान के समान होते हैं। अपने मेहमानों का आदरमान करना यहां हरेक पहाड़ी का कर्तव्य होता है।’

‘ठीक है, पर आपकी इस सेवा के बदले मैं आपको क्या दूं?’

‘बार-बार यही सेवा का अवसर।’

‘इसका मतलब मैं रोज़ गिरूं और आपको सेवा का अवसर मिले।’ शान्तेन बोला तो वह लड़की फिर एक बार खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर अपनी हंसी रोकती हुई बोली,

‘नहीं यह बात नहीं है। आप कुशल से रहें।’

रास्ता चलते हुये तब शान्तेन उठकर खड़ा हुआ और चलने को हुआ तो उस लड़की ने पूछा,

‘कहां पर ठहरे हुये हैं आप? चलो मैं छोड़ देती हूं।’

‘यहीं पास ही में निगम लोज़ में। मैं खुद ही चला जाऊंगा।’

‘तब तो मैं भी साथ चलती हूं। मुझे भी उसी तरफ ही जाना है। वहीं पास में, कुलगुड़ी में ही मेरा छोटा सा घर है।’

चलते हुये शान्तेन ने उस लड़की से पूछा,

‘आपने मेरी इतनी सेवा की पर अपना नाम नहीं बताया?’

‘नाम तो आपने भी नहीं बताया?’

मुझे शान्तेन कहते हैं।

‘और मैं रोमिका गोरखा।’

‘आपके बाल बहुत लंबे हैं।’

‘हां, किसी को भी मेरी फांसी लगाने के लिये रस्सी की जरूरत नहीं पड़ेगी।’

‘ऐसा क्यों सोचती हैं? मूर्ख होगा वह जो इतनी सुन्दर युवती के लिये ऐसा सोचे।’

‘आप ठीक कहते हैं। लेकिन मनुष्य के दिमाग का क्या भरोसा? कभी भी फिर जाये।’

तभी शान्तेन ने विषय बदल दिया। वह रोमिका की नीली आंखों में देखता हुआ बोला,

‘आप क्या नीले रंग के लैंस लगाती हैं, जो आंखें इसकदर नीली हैं?’

‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। सब कुदरत की देन है। हो सकता है कि हर समय आसमान की तरफ देख कर दुनियां बनाने वाले से कुछ न कुछ मांगती रहती हूं।’

‘क्या मांगा करती हैं आप?’

‘यही कि, जीवन में कुछ न मिले पर अच्छा साथ जरूर मिले।’

‘आपको मिला?’

‘अभी तक तो नहीं, पर हां . . . ’

‘क्या?’

‘मिल जाने की कुछ उम्मीद अवश्य ही बढ़ गई है।’ कहते हुये रोमिका ने शान्तेन को एक संशय से निहारा तो वह सहसा ही झेंप सा गया। वह कुछ कहता, इससे पहिले ही रोमिका का मार्ग बदल जाने समय आ गया। वह अपने स्थान पर ठिठकते हुये बोली,

‘मेरा घर आ गया है। आपका लोज़ वह सामने ही दिखाई दे रहा है। मैं चलती हूं।’ कहते हुये वह जाने लगी। तभी वह सहसा ही फिर से एक पल के लिये रूकी और शान्तेन की तरफ देखते हुये बोली,

‘आप घर जाकर दवा जरूर लगा लेना। नहीं तो हो सकता है कि परेशानी बढ़ जाये।’

‘आप इसकी चिन्ता न करें।’ शान्तेन ने कहा तो रोमिका सड़क से उतर कर नीचे ढलान पर उतरने लगी। तभी शान्तेन उससे बोला,

‘सुनिये।’

‘!’ रोमिका के पैर अचानक ही अपने स्थान पर ठिठक गये। उसने शान्तेन की तरफ देखा तो वह बोला,

‘अब फिर कब मुलाकात हो सकेगी आपसे।’

‘बहुत ही आसान तरीका है। चोट खाकर सड़क पर फिर गिर जाइये। मैं आ जाऊंगी।’

‘इसका मतलब है कि बगैर हाथ-पैर तोड़े आप नहीं मिल सकेंगी।’

‘?’

रोमिका ने मुस्कराते हुये शान्तेन को देखा, फिर वह हंसती-खिलखिलाती हुई नीचे ढलान पर उतरती हुई शान्तेन की आंखों से ओझल हो गई। शान्तेन भी उसको बड़ी देर तक नीचे घाटी की तरफ जाते हुये देखता रहा।

दिन बीते। मौसम बदले। कुमांऊ की घाटियों से बादल उठने कम होने लगे। शान्तेन करीब एक माह तक पहाड़ी मौसम का प्यारा और सुखद अनुभव करता रहा। इतने दिनों में रोमिका से जाहिर ही था कि उसकी मुलाकातें भी बढ़ती। फिर हुआ भी ऐसा ही। उनकी मुलाकातें इसकदर बढ़ गई कि फिर उन्होंने कभी भी अलग होने का नाम नहीं लिया। दोनों के प्यार का अंजाम विवाह सूत्र में बंधने का सपना देखने लगा। जब तक शान्तेन रोमिका के शहर में रहा, वह उससे हर दिन ही मिलती थी। कभी-कभी तो सारा-सारा दिन ही वे एक ही स्थान पर ही बैठे रहते। वे दोनों अलग होने का नाम ही नहीं लेते। रोमिका शान्तेन से मैदानी देश के रहन-सहन के बारे में तमाम प्रश्न करती रहती। शान्तेन ने उससे कह दिया था कि वह शीघ्र ही घर जाकर अपने मां-बाप से विवाह के बारे में बात करेगा और अति शीघ्र ही वह उनके साथ बाकायदा उसका रिश्ता मांगने आयेगा। इस सिलसिले में उसने रोमिका की प्यारी-प्यारी तस्वीरों से अपना कैमरा भी भर लिया था। और रोमिका थी जो बस अपने भावी जीवन के सपनों को ही बुनने में लगी रहती। फिर एक दिन शान्तेन को रोमिका का शहर छोड़कर जाना पड़ा। जाने से पहिले वह रोमिका के माता-पिता और अन्य रिश्तदारों से भी मिला। फिर एक दिन वह भारी मन से कुंमाऊं की पहाडि़यों को विदा कहकर अपने घर आ गया। उसके जाने पर रोमिका ने अपनी भरी-भरी नीली झील सी आंखों से उसे विदा किया। वह उसके मार्ग के लिये भोजन भी बनाकर लाई थी। उसे देते हुये वह भरे गले से बोली थी कि,

‘मन तो नहीं कह रहा है कि तुम मुझे छोड़कर जाओ। पहुंचने पर अपनी कुशलता की सूचना अवश्य ही दे देना। मैं तुम्हारे बगैर इतने दिन कैसे व्यतीत करूंगी, यह तो मैं ही जानती हूं। मैंने रास्ते के लिये तुम्हारा खाना रख दिया है। भूख लगने पर जरूर खा लेना।’

रोमिका के अंतिम रूंआसे चेहरे और उसके भरे गले से निकले हुये बेदम से वियोग के अंतिम शब्दों का पहाड़ सा भार लेकर शान्तेन अपने घर सेरमपुर आ गया। आते ही उसने अपने सकुशल पहुंचने की सूचना सबसे पहिले रोमिका को दे दी। फिर उसके कुछेक दिन रोमिका के साथ गुज़ारे हुये दिनों की स्मृतियों में बीत गये। तब काफी दिनों के पश्चात उसने अपने मां-बाप से अपने विवाह की बात की और रोमिका के बारे में अवगत् भी कराया। जैसा कि आम होता है कि, मां-बाप तो कुछ और सपना अपनी सन्तानों के लिये देखा करते हैं। ठीक ऐसा ही शान्तेन के साथ भी हुआ। उसकी मां ने तो कुछ और ही सोच रखा था। अपने बेटे के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात सुनकर उन्होंने केवल इतना ही भर कहा,

‘पहाड़ पर गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिये गया था और रोग लगाकर वापस आया है। ठीक है, जब तूने खुद ही पसंद कर ली है तो मुझे क्या? हां, तेरी शादी होगी रीति और रिवाज़ के साथ ही। शादी होने से पहिले कोई भी तमाशा मत कर बैठना।’

उसके पश्चात शान्तेन के थोड़े से दिन और अपने विवाह के आने वाले दिनों के सपने देखने में गुज़र गये। इस मध्य उसकी रोमिका से बात फोन पर होती ही रही। अब तक सब ही कुछ ठीक चल रहा था। रोमिका भी अपने घर पर कुशल से थी और वह शान्तेन के आने की बाट बड़ी ही बेसब्री से देख रही थी। तब एक दिन शान्तेन ने अपने माता-पिता से बात करके रोमिका के घर जाने की तिथि पक्की कर ली और इसकी सूचना जब उसने रोमिका को फोन पर देनी चाही तो उसे कोई भी उत्तर नहीं मिला। शान्तेन ने उस दिन लगातार फोन किया। दूसरे दिन भी वह उसे थोड़ी-थोड़ी देर बाद फोन करता रहा, लेकिन रोमिका ने ना तो फोन ही उठाया और न ही बाद में भी कोई उत्तर दिया। शान्तेन को इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ। वह कुछ समझा और नहीं भी समझा। रोमिका की चुप्पी पर उसके मन और मस्तिष्क में तरह-तरह के भयानक विचार कौंधने लगे। फिर जब वह फोन की तरफ से निराश हो गया तो उसने पत्र का सहारा लिया और रोमिका को एक पत्र लिखकर अपने मां-बाप के साथ उसके घर आने की तिथि भी बता दी। इस बीच शान्तेन यही सोचता रहा कि रोमिका का कोई तो उत्तर उसके पास आयेगा। या तो वह फोन करेगी, और नहीं तो पत्र अवश्य ही लिखेगी। मगर जैसा शान्तेन ने सोच रखा था, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। रोमिका की तरफ से कोई भी सूचना उसे प्राप्त नहीं हुई। रोमिका के घर जाने की तिथि पास आती गई और उसकी कोई भी खबर न मिलने से से शान्तेन एक मंझधार में फंसा हुआ सा सशोपंज में ही डूबा रहा। हां, इतना अवश्य ही था, उसने अपनी इस परेशानी के बारे में कोई भी सूचना अपने मां-बाप को नहीं दी। न बताने का सबसे बड़ा कारण यही था कि उसे रोमिका के घर जाना तो था ही। भले ही अब सगाई का कारण ना भी होता, फिर भी उसकी खैर-खबर लेने को तो उसे जाना ही था।

फिर एक दिन वह समय और तिथि भी आ गई जब शान्तेन को निर्धारित तिथि पर रोमिका के घर के लिये रवाना होना था। शान्तेन की मां ने तो सगाई की रस्मों की सारी तैयारियां कर लीं थीं। यही सोच कर कि उनका एक ही तो पुत्र है, उसके विवाह में वे कोई कमी क्यों रहने दे। तब शान्तेन अपने मन में पहाड़ सा विभिन्न ख्यालों का भार लिये रोमिका के शहर जाने के लिये अपने मां-बाप के साथ रवाना हो गया। पूरे दो दिन की गाड़ी की यात्रा और एक दिन की पहाड़ी बस के रास्ते का सफर करके वे सब कुमांऊ की घाटियों और पर्वती इलाके में दाखिल हुये। रोमिका के घर पहुंचने पर जितनी शीघ्रता और जिज्ञासा शान्तेन को थी, शायद उतनी उसके मां-बाप को नहीं। बस के अड्डे पर जब रोमिका के घर से कोई भी उन सबको नहीं लेने आया तो रीति-रिवाज़ों की मालकिन शान्तेन की मां का माथा ठनका। वे छूटते ही शान्तेन से बोलीं,

‘कैसे लोग हैं? सगाई की रस्म होनी है और यहां बस के अड्डे पर लड़की के घर से सब ही नदारद हैं? तूने अपने पहुंचने की सूचना तो दे दी थी न?’

‘हां मां जी। सूचना तो बहुत पहिले ही दे दी थी। शायद कोई काम लग गया होगा।’ शान्तेन बोला तो उसकी मां ने तर्क किया,

‘क्या काम लगा होगा? लड़की की सगाई का दिन है, क्या आज भी कोई काम किया करता है?’

तब शान्तेन अपनी मां के इस प्रश्न पर कुछ भी नहीं बोला। अब तक कुलगुड़ी गांव आ चुका था और उन लोगों का सामान लादे हुये दोनों पहाड़ी छोकरे घर पूछ रहे थे कि उनका सामान कहां पर उतारना है। शान्तेन ने चुपचाप रोमिका के घर की तरफ इशारा कर दिया। दोनों पहाड़ी लड़के सामान उतारने के पश्चात पैसे लेकर जब चले गये तो फिर शान्तेन ने रोमिका के घर का दरवाज़ा खटखटाया। फिर थोड़ी देर के बाद रोमिका की मां ने दरवाज़ा खोला तो शान्तेन ने तुरन्त ही नमस्ते किया। रोमिका की मां बोली तो कुछ भी नहीं पर उन्होंने उसके मां-बाप को भी नमस्ते किया और घर में आने के लिये कहा। शान्तेन अपने माता-पिता के साथ अन्दर बैठक में पहुंचा तो वहां पर रोमिका के पिता के साथ अन्य लोगों को भी बैठे देख वह चौंका तो पर अधिक आश्चर्य नहीं कर सका। यही सोचा कि हो सकता है कि सगाई का समय है, रोमिका के दूसरे रिश्तेदार आदि भी आये हों। तौभी उसकी आंखें वहां पर सबसे पहिले रोमिका को ही तलाश कर लेना चाहती थीं। फिर बाद में आरंभिक चाय व नाश्ते और पानी के पश्चात रोमिका की सगाई की बात कुछ भी आरंभ होती, इससे पहिले ही वहां पर बैठे एक पहाड़ी बुज़ुर्ग ने अपनी बात कही। वे बोले,

‘आप लोगों का बिटिया के रिश्ते को लेकर यहां आने पर स्वागत है। मगर अफसोस है कि आप सब बड़ी देर के बाद आये हैं।’

‘देर से आये हैं? मैं कुछ समझा नहीं?’ शान्तेन अचानक ही उन बूढ़े-बुज़ुर्ग की बात पर चौंक गया।

‘अभी समझ जाओगे बेटा।’ उन्होंने कहा तो शान्तेन के साथ उसके माता-पिता भी आपस में एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। तभी उन बूढ़े-बुज़ुर्ग ने अपनी बात आगे बढ़ाई। वे बोले,

‘हम सबको बहुत प्रसन्नता होती, यदि बिटिया का रिश्ता आप जैसे सुलभ और बड़े परिवार में हो जाता। परन्तु होनी को कौन टाल सकता है। यह पवित्र बंधन होता इससे पूर्व ही बिटिया इस दुनियां से चल बसी है। अभी डेढ़ महिने पहिले ही अचानक उसे डेंगू बुखा़र आया और हम कुछ करते, इससे पहिले ही बिटिया ने सदा के लिये अपनी आंखें बंद कर लीं। वह अब इस संसार में नहीं है।’

‘इतना सब कुछ हो गया और आप में से किसी ने भी मुझे इसकी खबर तक नहीं की?’ शान्तेन आश्चर्य से बोला तो एक दूसरे महाशय ने उससे कहा कि,

‘अब क्या करें। हम सब इतने दुखी और हैरान थे कि यह सब सोचने का अवसर ही नहीं मिला।’

सुनकर शान्तेन अपना वहीं सिर पकड़कर बैठ गया। साथ में उसके माता-पिता भी हैरानी से कभी उसका चेहरा तो कभी वहां पर बैठे हुये लोगों का मुंह देखने लगे।

बाद में, शान्तेन के माता-पिता ने उन सबको औपचारिकता के साथ संतावना दी। रोमिका के लिये दुख प्रगट किया। उसकी आत्मा की शान्ति के लिये कुछेक शब्द कहे। और जहां पर उसका अंतिम क्रियाक्रम किया गया था, उस नदी के तीर की बालू पर श्रद्धा के फूल अर्पित करके तीनों कुमांऊ से अपना सा मुंह लेकर चले आये। शान्तेन जब घर आया तो उसे अपने जीवन की नैया के साथ-साथ सारा जहांन ही हवा में डोलते नज़र आने लगा। हाथों में आई हुई अपने प्यार की जीती हुई बाज़ी इतनी चुपके से केवल आंख मार के सरक जायेगी, उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था। इस दुनियां का चलन उसके साथ चालबाज़ी करे, और अवसर हाथ आने पर अपने स्वार्थ के लिये कभी भी पीछे न हटे; इस राजनीति को चाहे एक बार दोष ना भी दिया जाये पर खुद इस दुनियां का बनानेवाला उसके हाथ की लकीरों को बनाकर फिर से मिटा दे, इस कटु सत्य पर उसे विश्वास सहज ही नहीं हो पा रहा था। जितनी सहजता से सौन्दर्य की अनमोल मलिका रोमिका उसके जीवन में प्रविष्ट हुई थी, कौन जानता था कि उतनी ही आसानी से वह सदा के लिये उसकी जि़न्दगी से लुप्त भी हो जायेगी?

अपनी जि़न्दगी में पहिले-पहिले प्यार के ताबड़-तोड़ तमाचे खा़कर शान्तेन चुपचाप घर आ गया। घर आने के पश्चात उसे जीवन का सकून और चैन किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता था, यह तो स्वभाविक ही था। वह चुपचाप अपने कमरे के वीराने में पड़ा रहता। कहीं भी जाने का उसका मन ही नहीं होता। जीवन की हरेक गतिविधि से जैसे उसे अवरूचि हो गई थी। क्षोभ और विषाद के आंसू उसकी आंखों में आते तो वह किसी से शिकायत भी नहीं कर सका। अपना दुख अपने ही सीने में छिपाये हुये वह जैसे अपने जीवन के दिन पूरे करने लगा। लेकिन कहते हैं कि बढ़ता हुआ समय मनुष्य के हरेक दुख का सबसे बड़ा इलाज है। समय की हवाओं ने उसका दुख कम तो नहीं किया, पर रोज़ाना चलने वाली हवाओं ने उसके आंसू सुख़ा अवश्य ही दिये थे। उसने अपने मन की चोट के अक्श को कागज़ में बंद करना आरंभ कर दिया। वह दुख और दर्द से भरी हुई कहानियां और किताबों में अपना हाल परोक्ष रूप से लिखने लगा। प्यार-मुहब्बत के खेल में वह जीतकर भी हार गया था। एक पर्वती हसीन बाला रोमिका का प्यार उसकी झोली में डालकर फिर से छीन लिया गया था; अपने इस दुख और दर्द के अनुभव को जब उसने किताबों में लिखना आरंभ किया तो सीखे हुये अनुभव से असफल प्रेम की कहानियों के लेखक के रूप में वह सफल होने लगा। उसके द्वारा लिखी हुई कहानियों और किताबों को लोग पसंद करने लगे। और फिर इस प्रकार एक दिन शान्तेन का नाम सुप्रसिद्ध लेखकों की सूची में आये दिन छपने लगा। लोग उसे जान गये। वह अपने नाम से पहचाना जाने लगा।

सो, अपने प्यार के दुख के मारे शान्तेन के दिन इसी तरह से बीतने लगे। होते-होते जीवन के दस साल पलक झपकते ही गुज़र गये। शान्तेन अपने लेखन और किताबें लिखने में व्यस्त हो गया। इस प्रकार कि रोमिका की आकिस्मक ज़ुदाई के फलस्वरूप उसके प्यार के दर्द के रूप में मिले हुये विषाद के अफसाने उसकी जि़न्दगी की आय का साधन भी बन गये। उसने लेखन को ही अपना व्यवसाय बना लिया। धन और शोहरत उसको एक ही झोली में मिलने लगी। मगर इतना सब कुछ होने पर भी शान्तेन कभी भी रोमिका को एक पल के लिये भी नहीं भूल सका। वह हर साल रोमिका की बरसी पर कुमांऊ जाता और उसी नदी के तीर पर जहां पर रोमिका को जलाया गया था, ठीक उसी स्थान पर अपने असफल प्रेम की यादों में पहाड़ी फूल अर्पित करके भारी मन से वापस आ जाता। अपने निवास पर जब भी वह फुरसत में होता तो उसकी स्मृतियों का सहारा लेकर रोमिका का चित्र उसके मानसपटल के पर्दे पर स्वत: ही बन जाता। बन जाता तो स्वंय ही उसकी आंखों से आंसुओं की दो बूंदें किसी गलते हुये मोम के समान टूटकर नीचे फर्श़ में समा जातीं। वह रोमिका की स्मृतियों में अपनी मृत कामनाओं की अर्थी पर बुझी हुई प्रेम की राख़ के नाकाम दीप जलाने लगता। वे दीप जो उसके जीवन के चमकते हुये सितारे बनते-बनते आज सुलगती हुई आग का धुंआ बन कर रह गये थे।

लेकिन होनी को कौन जानता है? और कौन समझ सका है? मनुष्य जो सोचा करता है, वह कभी नहीं हुआ है। या जो होना चाहिये, वह कभी नहीं हुआ है। होता वही है, जिसकी मनुष्य कभी कल्पना भी नहीं कर पाता है। एक दिन प्रकाशन संस्थान के मालिक ने अपने व्यवसाय के बड़े लाभ पर बड़ी ज़ोरदार पार्टी का आयोजन किया और साथ ही जेवनार भी की। उसने इस खुशी के अवसर पर अपने प्रकाशन से संबन्धित समस्त लेखकों के साथ शहर के बड़े और जान-पहचान वाले मित्रों आदि को भी आंमत्रित किया। अन्य लेखकों के साथ शान्तेन को भी निमंत्रण भेजा गया था। यूं तो शान्तेन किसी भी पार्टी आदि में जाने का शौकीन नहीं था पर यह निमंत्रण उसके खुद के प्रकाशक की तरफ से था, सो उसे तो इसमें शामिल होना ही था। फिर जब वह पार्टी में पहुंचा तो अन्य मेहमानों के समान वह भी सभी से औपचारिकता के नाते मिल-जुल रहा था। तब इस तरह से मिलते हुये वह वहां पर एक जानी-पहचानी सूरत को देखकर अचानक ही चौंका नहीं, बल्कि हक्का-बक्का रह गया। वही सूरत, वही रूप, वैसे ही लंबे, कूल्हों तक झूलते हुये बाल . . . और तो और वही नीली, आसमानी रंग की आंखें? साथ में शायद उसका पति भी है? ‘उसे कहीं थोखा तो नहीं हो गया है? यह कैसे संभव है? रोमिका को तो यह दुनियां छोड़े हुये एक अरसा बीत गया है। नहीं यह वह नहीं हो सकती है। शान्तेन ने देखते हुये मन ही मन सोचा। फिर जब वह अपने को नहीं संभाल सका तो सीथा उसी स्त्री के सामने जाकर खड़ा हो गया। चुपचाप, बहुत गंभीर, एक तकाज़ा करने वाले व्यक्ति के समान, उसकी आंखें उस स्त्री को घूरने लगीं।

‘अगर याद होगा तो कम से कम पहचान तो लिया होगा मुझको?’ काफी देर की ख़ामोशी और नज़रों का वार करने के पश्चात शान्तेन ने उस स्त्री से कहा।

‘शान्तेन को अचानक ही सामने पाकर उस स्त्री का मुंह आश्चर्य और विस्मय से खुला का खुला रह गया। वह होठों में ही बुदबुदाई,

‘शान्तेन तुम?’ उस स्त्री के मुख से अपना नाम सुनकर शान्तेन का सन्देह सच में बदल गया। उसने बड़ी देर तक रोमिका को आंखों ही आंखों में घूरा, और फिर उससे संबोधित हुआ। वह बोला,

‘मेरी जि़न्दगी की सारी खुशियों और चैन पर डाका डालकर, इतनी सख्त सज़ा देने से पहिले मेरा कसूर तो बता दिया होता?’ अपना नियंत्रण खोते हुये शान्तेन ने रोमिका के गाल पर एक जोरदार झापड़ जड़ दिया,
‘तड़ाक!’

रोमिका लड़खड़ाती हुई किसी टूटी हुई टहनी के समान वहीं पड़ी हुई मेज और कुर्सियों से टकराती हुई नीचे गिर पड़ी। इतना होना भर था कि, सारी पार्टी में अचानक ही बबाल सा मच गया। सारे आये हुये मेहमान शान्तेन की इस हरकत पर आंखें फाड़कर ही रह गये। सदा से ही शान्त स्वभाव का बहुत कम बोलने वाला, भीड़-भाड़ से दूर रहने वाले इस व्यक्ति से किसी को उससे इस बेहूदगे स्वभाव की आशा कतई भी नहीं थी। रोमिका के पति ने यह सब देखा तो वह लड़ने-मारने पर उतारू हो गया। लेकिन कुछ और होता, इससे पूर्व ही अन्य मेहमानों ने उसको अलग कर दिया। मगर फिर भी उसने अपने मोबाइल फोन से पुलिस को सूचित कर दिया था। फिर थोड़ी ही देर में पुलिस आई और आरंभिक पूछताछ के पश्चात शान्तेन को पकड़कर ले गई....’


सोचते हुये रिषीराज को अचानक ही अपने आस-पास अन्य यात्रियों के वा​र्तालाप के स्वर सुनाई दिये तो उसके विचारों का क्रम अचानक ही टूट गया। उसने गाड़ी की खिड़की से बाहर झांका। गाड़ी रात्रि के भयावह अंधकार के किसी वीराने में खड़ी हुई थी और उसका इंजन जैसे किसी थके-थकाये हुये इंसान के समान सांस ले रहा था। कोई छोटा स्टेशन आने वाला था लेकिन शायद लाइन खाली नहीं थी। इसी लिये गाड़ी के चालक ने उसको बाहरी सिगनल के पहिले रोक रखा था। रिषीराज ने अपने चारों तरफ बैठे हुये अन्य यात्रियों को एक पल निहारा और फिर अपने हाथ की कलाई में बंधी हुई घड़ी में समय की सुइंयों को देखा। रात के दो बज रहे थे। जब वह शान्तेन के पास से गाड़ी में बैठा था। उस समय शाम के आठ बजे थे। तब से अब तक पूरे छ: घंटों का वह सफर कर चुका था। इन छ: घंटों में वह अपने अंतरंग मित्र के जीवन से सम्बधिंत कितनी ढेर सारी स्मृतियों को दोहरा गया था। उसके मित्र की वह स्मृतियां और वह यादें जिनमें उसके जीवन का दुख जैसे घोल-घोलकर भर दिया गया था। अब उसकी समझ में आया कि क्यों उसका मित्र अपना घर नहीं बसा सका था। क्यों वह हमेशा से ही तन्हाइंयों और वीरानों को अपना हमराज़ समझता रहा था। बाद में जब रिषीराज अपने घर पहुंचा तो काफी दिनों तक उसके दिल और दिमाग में शान्तेन ही छाया रहा। वह बराबर यही सोचता रहा कि, कितना बड़ा ज़ख्मी हमला शान्तेन की कोमल भावनाओं पर रोमिका ने किया था। यदि उसको उसके जीवन से किनारा ही करना था तो बहुत सहजता से वह मना भी कर सकती थी। क्यों उसने शान्तेन को एक आस का पंछी बना कर वायु में परवाज़ करने को मजबूर कर दिया था? रिषीराज इस भेद का हल बहुत चाहकर भी नहीं निकाल सका था। लेकिन फिर भी वह शान्तेन के ऊपर रोमिका के पति के द्वारा लगाये हुये मुकद्दमें के निर्णय के बारे में अखबार हर दिन ही ही देखता रहा।

दूसरी तरफ, शान्तेन के दिन इसी उहापोह में बीत रहे थे । कभी वह सोचता कि उसने रोमिका जो अब दूसरे की पत्नि है, पर अपना हाथ छोड़कर कर अच्छा नहीं किया है। भला होता कि वह इंसानियत के नाते रोमिका से पेश आया होता। उससे सहजता से पूछ लिया होता। और कभी वह सोचता कि उसने जो कुछ किया है, रोमिका इसी लायक थी। जो तकलीफ रोमिका ने उसे पिछले दस वर्षों तक दी है, उसका दर्द तो वही जानता है। कितनी आस और मुहब्बत से वह पिछले दस सालों से अपने प्यार की झूठी मज़ार पर किसी के ठुकराये हुये प्यार के फूल चुन-चुनकर चढ़ाता आ रहा था। वे फूल जो उसने सदा अपने प्रेम के दुख में तोड़े थे और जिनको वह सदा इसीलिये सम्मान देता आ रहा था कि, पहाड़ों की एक हसीन बाला, जिसने कभी उसके सूने जीवन में अपने प्यार की ज्योति जलाई थी, अब इस दुनियां से विदा हो चुकी है। वह तो अपना सारा जीवन रोमिका की यादों के सहारे व्यतीत कर देता। और वह यही कर भी रहा था। मगर कौन जानता था, जिन प्यार के फूलों को उसने रोमिका की झूठी मज़ार पर चढ़ाया था, वही एक दिन उसके जीवन के कभी भी ना समाप्त होने वाले कांटे बन जायेंगे।

फिर एक दिन, शान्तेन को कोर्ट का सरकारी पत्र प्राप्त हुआ। सन्देश था कि उसके मुकद्दमें की सब ही तारीखें खा़रिज कर दी गई हैं, क्योंकि वादी ने अपना मुकद्दमा वापस ले लिया है। पत्र पढ़कर शान्तेन आश्चर्य ही कर के रह गया। वह कुछ समझ नहीं सका। और ना ही मुकद्दमा वापस लेने का वह कोई कारण ही ढूंढ़ सका। उसने अपने वकील से पूछा तो वह भी कोई कारण नहीं बता सका। शान्तेन इस प्रकार फिर एक बार सशोपंज में पड़ गया। इसी उहापोह में उसके कुछेक दिन और व्यतीत हो गये। तब उसको फिर एक पत्र डाक में मिला। यह पत्र रोमिका की तरफ से आया था। उसने लिखा था,

‘अब तक मेरी तरफ से जो कुछ भी हुआ है, उसे तुम चाहो तो धोख़ा, फरेब, बेवफा, चाहे कितने भी नाम क्यों न दे दो। लेकिन मैं केवल इतना ही जानती हूं कि मैं निर्दोष हूं। जिस दिन तुम अपने मां-बाप के साथ रिश्ता लेकर मेरे घर पर आये थे, उससे पहिले ही मेरे मां-बाप और रिश्तेदारों ने मेरा जबरन विवाह कर दिया था। मेरे परिवार वाले तुम से मेरा विवाह किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहते थे, क्योंकि तुम मसीही थे और मैं एक हिन्दू लड़की। हमारे समाज में अपने जीवन साथी का चुनाव और निर्णय करने के लिये एक लड़की किसकदर मजबूर हो जाती है, शायद तुम इसका अंदाज़ा नहीं लगा सकोगे। तुमसे बिछड़ने के पश्चात मैंने बहुत चाहा, तुमको बहुत तलाश भी किया ताकि एक बार तुमको रो-रोकर सब कुछ बता दूं। मैं नहीं जानती थी कि तुम एक लेखक बन कर अपने नाम के आगे उपनाम ‘शैली‘ भी लगा लोगे। शायद इसीकारण तुम्हारा नाम किताबों में पढ़कर भी मैं समझ नहीं सकी थी। भला होता यदि तुम अपनी किताबों के़ साथ अपना छाया चित्र भी लगा देते तो शायद आज का यह दिन हम में से किसी को भी नहीं देखना पड़ता। मैं तुमको बहुत पहिले ही ढूंढ़ लेती। मैंने अपने पति को सब कुछ सच-सच बता दिया है। जब असलियत उनको पता चली तो वे भी अपने किये पर बहुत पछताये हैं। उनकी तरफ से किया गया मुकद्दमा, उन्हीं के द्वारा वापस ले लिया गया है। मैं अपनी और तुम्हारी मुहब्बत की दुश्मन तो नहीं हूं, बल्कि समाज की रीतियों में जकड़ी हुई एक मजबूर औरत हूं। मेरी मजबूरियों पर यदि तुम ज़रा भी सोचोगे तो हो सकता है कि तुम मुझे मॉफ कर दो।’ रोमिका।

शान्तेन ने पत्र पढ़ा तो वह कुछ सोच भी नहीं सका। कैसी विषम परिस्थिति उसके सामने आ चुकी थी। रोमिका को फिर से पाने के बाद भी वह ना तो हंस ही सका और ना ही रो सका। एक समय था जब कि वह उसकी मौत के दुख में आंसू बहा रहा था, और आज उसको फिर से जीवित पाकर भी वह हंस नहीं सका था। वह चुपचाप अपने सोने वाले कमरे में गया। चारपाई के पास मेज पर रखी हुई मुस्कराती हुई रोमिका की तस्वीर को उसने फ्रेम में से बाहर निकाला और माचिस लेकर उसको जलाने लगा। जलती हुई तस्वीर जैसे रोती हुई एक आग की लौ के साथ क्षण भर में ही धुंआ देती हुई ख़ाक हो गई। अपने प्यार की रश्मि, जीवन की सारी हसरतों की आस और उसके प्यार की वह मानवी जिसे दस साल पूर्व चाहकर भी वह कभी दफन नहीं कर सका था, आज सचमुच में उसने उसकी अर्थी उठाई थी। उसके असफल प्यार की वह लाश जो दफन तो हो चुकी थी, पर अब वह उसकी मज़ार पर कोई भी श्रद्धा के पुष्प अर्पित नहीं कर सकेगा।

समाप्त।