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दिकरो

"आपा देवात, ये आपके लिए ही हुक्के की बजरका पुलिंदा खिंचा हे । मीठी ये बजर (तम्बाकू) हाथ आई तो सोचा की इस बजर का धुआँ तो आप देवात की घूंट में ही सजेगा ।"

ये बोलते ही भरी दरबार में एक काठी आदमी आके बिच में बैठे एक पडछंद पुरुष को ये बजरका पुलिंदा धरता हे। उस आदमी की सोने की अंगूठी वाली उंगलिया उसकी दाढ़ी के बालो में खेल रही हे और होठ हलके से मुस्कुरा रहे हे। उतने में ही दूसरा काठी आदमी खड़ा होता हे,

"आपा देवात, ये नया नकोर हुक्का गंगा-जमुना तार से सजाके ख़ास में तेरे लिए ही लाया हु। सही राच (चीज) उसके सही ठिकाने पे ही सजती हे।" "और ये उन की काठी (गद्दी)…" 

ऐसे बोलते ही तीसरे भाई आगे आते हे

"आपा देवात, ये आपकी घोड़ी पे मशरू (कोमल कपडा) जैसी होके रहेगी।  घोड़ी का दिल (पीठ) नहीं छिलेगा।  ख़ास बनवाई के आणि हे, हाँ । "

चलाला गांव के चौराहे पे दरबार औगढ़ वाला के यहाँ काठी आदमीओ का डायरा लगा हुआ हे और तमाम काठीओ की नजर फ़क्त गुन्दालाके गॉढ़ेरा देवात वांक के चहरे पे ही रुकी हुई हे । 

देवात को ही खुश करने की हर कोई कोशिश कर रहा हे। देवात की आँख तिरछी हो उसी बात का डर सब में होता हे।  देवात वांक जिसका दुश्मन बनता हे उसका गांव ३ दिन में ही बैरन बन जाता हे।

आगे एक खम्भे पे टिका के एक अधेड़ उम्र का मर्द बैठा हुआ हे । पछेडी (शॉल) से पलांठ भिड़ी हुई हे और मुछे हवा में फरक रही हे। होंठ हल्के हल्के मुस्कुरा रहे हे।  बगल में बैठे काठी को हलके से पूछता हे

"काठीओ में ये कढ़ीचटापन कबसे आ गया, भाई ? जिसकी इतनी साड़ी खुशामत करनी पड़ रही हे ऐसा कोण हे ये देवात वांक?"

"चुप भाई चुप! आपा लाखा! तू अभी छोरु हे। तेरा लाखा पादर गांव अभी तक देवात के घोड़े के खुर की निचे नहीं आया लगता वरना तू भी आपा देवात को तेरे खेत के आम देने भागा जाता। "

"में? मेरे आम के पेड़ के फल देवात को डर से देने जाऊ? उससे तो बेहतर हे सूडा, पोपट और काग मेरे फलो को खाये। काठी के बच्चे तो सब एक हे। कौन राजा और कौन रंक?  ऐसी रजवाड़ी भटाई में नै सेह पाता। "

बोलने वाले की आवाज थोड़ी ऊँची होते ही डायरे के कानो तक पहोची और बिच में बैठे विकराल काठी देवात वांक की गर्दन उस बात करने वाले की और मुड़ी।  तपती हुई ताम्बे जैसी आँख वहा रोक के पूछा

" इ कोण मुच्छड़ चांदा कर रहा बैठा बैठा वहा? जरा ऊँचा (खुला) बोलना, बापा। "

"आपा देवात वांक !"

आदमी ने गभराये बिन जवाब दिया।

" इ तो में लाखा वाला हु और बोल रहा हु की काठी के बच्चे सब एक ही हे ; फिर बी अगर काठी के बेटे रजवाड़ी भटाई करने बैठ जाए वो तो आपा देवात को भी दुःख होना चाहिए, ख़ुशी नै, का बापू ? "

"आपा लाखा वाला अब तो लाखा पादर गांव के फरते गढ़ बंधवा लेना, बा। "

" कर लेना चढ़ाई, आपा देवात।  में छोटे गांवका धणी, गढ़ तो  क्या बनाऊंगा पर हाथ में पानी का कलश लेके खड़ा रहूँगा, आपा देवात को सजे वैसे खातिरदारी के लिए।"

"ले तो फिर, लाखा वाला!" 

 वैसे बोलके देवात ने हथेली में कसुम्बा (“अफीम का पानी) लिया और जमीं पर गिरा दिया और बोला,

"लाखा पादर गांव में नमक के हल जोतूँगा तो ही गुंडाला के देवात वांक को जानना वरना …"

"हाँ हाँ, गजब बापा,"

 ऐसे बोलके पूरा डायरा बिच में कूद पड़ा। बूढ़े काठीओने आपा देवात के पैर पकड़ के बोला

"आपा, लाखा वाला अभी बालक हे।  उसको बोलने का ख्याल नै हे। आप समंदर पेट रखिये। महेरबानी। "

"ना ना, आपा देवात तेरा वचन अफर रखना, हाँ ना !"

ऐसे बोलके भाला और तलवार लेके लाखा वाला खड़ा हो गया।  घोडा लेके निकल गया और बोलता गया,

" काठी तो सारे ही समान हे। काठी में ऊंच नीच नै होती ; पर यहाँ तुम सारोने डर डर कर देवात जैसे लुटेरे की खुशामत लगा के राखी हे। मुझे ऐसे देवात के दल्ली की खुशामत करने का कोई शोख नै हे। बांधे उसकी तलवार और वार करे वो अरजण; उसमे कोई भेदभाव नहीं होता "

उतना बोलके लाखा पादर का धणी रोजड़ी (घोड़ी) दौड़ा गया।

चलाला गांव के चार मिल ऊपर बराबर गिर की सतह पे शेल नाम की नदी जा रही हे।  काले पथ्थरो की बिच में से गरजते उसके जल बहे रहे हे।  जैसे की कोई राक्षशी के बच्चे उसकी माँ का दूध पीते पीते हुनक (हांफ) ले रहे हो। 

वो विकराल नदी की सतह पर पंछी के घोंसले जैसा/जितना लाखा पादर गांव बसा हुआ हे।  लाखा पादर की चारो और नदिया चलती हे।  बारिश में तो जैसे पाताल लोक की नाग कन्याए पृथ्वी पे नाच करने निकल पड़ी हो वैसे पानी के झरने निकल लेते हे।  सतजुग के ऋषि जैसे एक पुराने बरगद के पेड़ की छाँव के निचे पथ्थर पर से पानी का प्रपात हो रहा हे। प्रपात के आसपास गौमुखी गंगा स्थापित हे। बगल में शिवजी बैठे हे।  कुदरत ने एक साथ ही सारा कारनामा किया हे वहा। आम के पेड़ की घटा जमी हुई हे।  निचे जैसे गौमुखी को पकड़ने के लिए कुदरत माता ने जैसे नाप-तोल के कुंड बनाया हुआ हे। बरगद पे मोर टहक रहे हे।  गौमुखी का जल खल खल बहे रहा हे।  कुंड में छोटी छोटी मच्छलिया तैर रही हे और धुन में मगरमच्छ टहल रहे हे।  कुदरत के रूप में कोमल और विकराल दोनों रेखाएं कैसे जुक्ति से निर्मित हे। ऐसी जगह पे जन्मने वाले मानव भी कोमल और विकराल हे।  शूरवीर और प्रेमी हे।  ये गांव के तोरण बाँधने वाला यही लाखा वाला।  ढाणी नात का काठी था।

लाखापादर आके उसने भाईओ को खबर दिया की खुद वो देवात वांक का बैर लेके आया हे। सुनकर भाई भी थथर गए।

उस दिन के बाद लाखा वाला परगाव जाके कभी भी रात नहीं रुकता था। जहा भी जाता संध्या समय वापिस आ जाता था। 

उस बात को छे-आठ महीने बीत गए। लाखा वाला को लगा की देवात या तो भूल गया हे या डर गया हे।।। ऐसे मन का बोझ थोड़ा काम हुआ।

एक दिन लाखा वाला चलाला गांव गया हुआ हे। औघड़ वाला और उसके भतीजी के बिच हुई तकरार को ख़तम करनी थी। शाम होते ही उसने आज्ञा मांगी।  पर औघड़ वाला बोला,

 "आपा आज की रात तो नहीं जाने देंगे; और अब कहा वो देवात आपके पीछे घूमता फिरता हे " लाखा वाला आधे मन से रुक गया। 

यहाँ लाखापादर में क्या हुआ ! शाम होते ही खबर मिले की देवात कटक (फ़ौज) लेके आ रहा हे। गांव के चौराहे का दरवाजा बंद करके, बिच में बेल गाड़िया खड़ी करके, लोग हथियार लेके खड़े रहे। पर खुद के मालिक के बिना लोगो के दिल कमजोर पड़ गए। ऊपर से ऐसा बैर लेके आने की वजह से लोग लाखा वाला को कोसने लगे।

आपा देवात की फ़ौज टूट पड़ी। चौराहे पे कुछ जवान काम लगे। चौराहा टुटा। सैन्य गांव के लोगो का खात्मा करने लगा। तय किये हिसाब से गांव को लूट कर सारे लोगो को परबारा (सीधे) गांव के छोर पर एक पेड़ के निचे मिलना था। उस हिसाब से चलने लगे।

गांव में स्मशान जैसी शांति फेल गई। देवात सोच रहा था की लाखा अपने घर में छुप के बैठा हे। वो उसके घर के बहार जाके हाकल करने लगा। 

" काठी, बारो निकल, बारो निकल, उस दिन तू कोणसे मुँह बक गया था !"

घर में खड़ी लाखा की औरत थर थर कांप रही थी। उसने जवाब दिया "आपा देवात, काठी घर पे होता तो गांव के बहार नदी के किनारे तुझे सामने लेने आता, छुपता नै "

ऊँची ऊँची घर की सतह पर खम्भी को टिक के लाखा वाला की बेटी हिरबाई खड़ी थी। पंद्रह साल की ऊमर होगी।  देवात का गरजना, लहू से रंगा भाला और लालघुम आँखे जैसे उसके मन कुछ देखने की चिझे थी।  डरने जैसा कुछ नहीं था।  वो शांत खड़ी थी। अँधेरी रात में वो जोगमाया जैसी लग रही थी । मौत की लीला तो जैसे खूब देखि हो वैसे शांत उसकी मुखमुद्रा थी।  बरगदके पेड़ पे चढ़ के खेली हुई, नदी में तैर के वज्र जैसी काया बानी हुई हे। शेल नदी में से उसने मगरमच्छ के मुँह से बकरी का मेमना भी छुड़ाया हुआ था।  लाखा पादर के चौक में हिरबाई ने शेल नदी में गूंझ उठे वैसे तेजमल ठाकोर का रासड़ा (कविता) बी गाया हुआ हे।

देवात ने देखा जहा वो कन्या खड़ी थी वही खम्भी के पास में ही एक बछेड़ा (घोड़े का बच्चा) बाँधा हुआ हे। बाप अपने सगे बेटे को चढ़ने ना दे वैसा वो बछेड़ा था। लाखा वाला का आत्माराम (प्रिय) वो बछेड़ा। आपा देवात ने सोचा,

 "ये बछेड़ा ले जाके पुरे जगत को बताऊंगा, लाखा वाला जियेगा तब तक निचे देख के चलेगा "

खुदके हाथ में भाला था वो घर की आँगन की वो सतह पे टिका के बछेड़ेके पैर की रस्सी खोलने आपा देवात निचे बैठा।  सर निचे रख के रस्सी खोलने लगा।  पीठ एकदम हिरबाई के सामने रखी हुई थी। 

घर में से माँ बोलती हे "बेटा, हिरबाई, आईं आवति रेह (इधर आ जा।)"

लेकिन हिरबाई क्या देख रही हे ? तैयार भाला, तैयार पीठ और निर्जन महोल्ला ! सोचने का समय नहीं था। उसने भाला उठाया, वही खड़े खड़े दोनों हाथो से पकड़ के वो जोगमाया ने आपा देवात के बरडे (पीठ) में भाले का वार किया।  गच…. करता भाला शरीर के आरपार निकल गया।  देवात को धरती के साथ जड़ दिया।

निचे उतर के हिरबाई ने देवात की ही तलवार निकाल के उसको तीन-चार वार किये। शत्रु के शरीर के टुकड़े किये।  फिर माँ को बुलाया

"माड़ी, पछेड़ी (ओढ़ने की शॉल) ला, गांसडी (पोटली) बांधते हे।"

अनाजकी गांसडी बांधते हे वैसे ही गाँठ बांधके घर के भीतर रख दिया, किसीको पता भी नहीं चलने दिया। 

धीरे धीरे गाँव से पूरी फ़ौज निकल गई थी। सबको ये मन में था की देवात आगे निकल गया होगा।  दीकरी (बेटी) ने उसी पल गढ़वी को बुलाया और कहा,

"गढ़वा, चलाला (गांव जहा लाखा गया हुआ हे) जाओ और बापू को कहो की परबारा (सीधे) कही नै जाय, यहाँ आके मुँह होके जावे, बाद में भले ही देवात के सामने जावे, अगर परबारा (सीधा) जाय तो मेरा मरा मुँह देखेंगे"

गढ़वी चलाला पहोचा। दरबारने सुना की देवात ने गांव लुटा हे तो उसके सर सात आकाश टूट पड़े। 

"अभी में क्या मुँह लेके लाखा पादर आउ? परबारा शत्रु के हाथो ही मरूंगा।  लेकिन एक ही दीकरी के शम (कसम)। डाई (समझदार) दीकरी किस वजह से बुलाती होगी? मेरी संतान को मेरा मुंह काला करने की कुमति सूझे खरी ?? कुछ तो वजह होगी।  जाऊ तो।“

दरबार घर पहोचा वही दीकरी ने धीरे से बोला,

 "बापू, आपको जाना हे तो भले, पर कटक (सैन्य) सूखा नै गया हे, एक जन को मैंने यही पे रखा हे।"

 ऐसा बोलके घर के अंदर जाके गाँठ खोलके बताया। लाखा वाला ने मुंह पहचाना।  खुद देवात वांक। 

दरबार का दिल गर्व से और हर्ष से फटने लगा। उसने दीकरी ने सर पे हाथ रखा

"बेटा, दुनिया कहती हे लाखा वाला के बेटी हे, पर ना, ना, मेरे तो बेटा हे ! और मुर्खा देवात ! बछेड़े की डोरी खोलने तू क्यों निचे बैठा ! खड़े खड़े तलवार से काटना नै आया? लेकिन तेरे अभिमान कहा कम थे !"

 

From “Saurashtra ni Rasdhar- Jhaverchand Meghani”

Translated by Viral Chaudhary