Shivaji Maharaj the Greatest - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 24

[ शिवाजी महाराज का देहावसान ]

सन् 1680 के मार्च महीने में रायगढ़ के राजाराम का उपनयन संस्कार किया गया। इसके आठ ही दिनों बाद शिवाजी महाराज ने राजाराम का विवाह करवा दिया। प्रतापराव गूजर की कन्या को ध्रुव-वधू के रूप में स्वीकार करते हुए 4 अप्रैल, 1680 के फाल्गुन, वदि 10 के दिन यह विवाह संपन्न हुआ। महाराज के एक सभासद ने लिखा है कि छोटे पुत्र राजाराम के लिए प्रतापराव गूजर की कन्या वधू के रूप में पसंद करके विवाह संपन्न किया गया और वधू का नाम जानकीबाई रखा गया। भव्य उत्सव हुआ और दान-धर्म भी उसी भव्यता के साथ किया गया।
रायगढ़ के किले के साथ जुड़ी सर्वाधिक महत्त्व की घटना यदि कोई है, तो वह है शिवाजी महाराज का देहावसान। इस महाप्रस्थान का दिनांक था 24 मार्च, 1680 इस दिन सहसा उन्हें बुखार आ गया, जिसने उतरने का नाम ही नहीं लिया। मराठा स्वराज्य के स्वामी को घातक ज्वर ने ग्रसित किया। शके 1602, रुद्रनाथ संवत्सरे, चैत्र सुदि 15 के दूसरे पहर में महामहिम शिवाजी महाराज कैलाशवासी हुए। वे अंतिम साँस तक पूर्ण चेतना में थे। अंतिम समय में उन्होंने कई धार्मिक विधियाँ कीं। उन्हें सहस्र रुद्राक्ष का परिधान पहनाया गया और भागीरथी नदी का पवित्र जल पिलाया गया। सभी संस्कार सावधानी से करते हुए एवं हरि-कीर्तन करते हुए, उस महान् विभूति ने शरीर त्याग किया। अंत काल समीप देखकर वहाँ जो कारकून एवं अन्य कर्मचारी उपस्थित थे, उनमें से भले लोगों को निकट बुलाया गया। शिवाजी महाराज ओम् शिव! शिव! का उच्चार करते हुए महाकाल में विलीन हुए।
महाराज के महाप्रयाण के समय उनकी तीन पत्नियाँ जीवित थीं। वे रायगढ़ में ही थीं एवं महाप्रयाण के समय उपस्थित थीं। सोयराबाई और पूतलाबाई एवं सकवारबाई के साथ राजाराम एवं उनकी पत्नी भी वहीं थी।
शिवाजी महाराज ने उनके पश्चात् साम्राज्य कौन सँभालेगा, इस बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं दिया है।
‘शिव दिग्विजय’ ग्रंथ के पृष्ठ 363 से आधार लेकर सरदेसाई लिखते हैं कि अंत समय निकट देखकर शिवाजी ने पन्हालगढ़ में उपस्थित संभाजी को एक बार फिर संदेश भेजा था कि हम अपना साम्राज्य दोनों पुत्रों में बाँट देंगे, किंतु संभाजी ने अपने स्नेहभरे पिता का प्रस्ताव उस अंत समय में भी स्वीकार नहीं किया था। वे तो अपनी उसी पुरानी जिद पर अड़े थे कि साम्राज्य तो केवल मुझी को मिले और पूरा का पूरा मिले।
महाराज के महाप्रयाण के समय मोरोपंत पिंगले (प्रधान) व अन्नाजी दत्रे (सचिव) उपस्थित नहीं थे। महाराज का पार्थिव शरीर चंदन एवं बेल की लकड़ियों से बनी चिता पर रखा गया। राजाराम ने अग्नि दी। लपटें उठने लगीं.....।
'51 कलमी बखर' में लिखा है कि कांहोजी भांडवलकर (हवलदार एवं सर-कारकून) ने महादेव मंदिर के सामने महाराज के पार्थिव शरीर को अग्नि में समर्पित किया। परसोजी भोसले का नाम भी ‘51 कलमी बखर’ की एक प्रति में आता है।
श्रीमान गजानन मेहंदले ने अंग्रेजी में लिखे अपने ग्रंथ ‘शिवाजी : हिज लाइफ एंड टाइम्स’ में कहा है कि शिवाजी महाराज के देहावसान की खबर पाकर खाफी खान बेसाख्ता बोल उठा था, “काफिर जहन्नुम रक्त” (काफिर नरक में गयाा)।
फ्रेंच गवर्नर मार्टिन ने लिखा है— “भारत में प्रशंसा करने लायक जो महान् विभूतियाँ हैं, उनके बीच शिवाजी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस बात पर संदेह किया ही नहीं जा सकता।”
शिवाजी के देहावसान का समाचार पाकर औरंगजेब तो मारे खुशी के बेहोश ही हो गया था! होश में आने पर उसने कहा, “लेकिन शिवाजी था तो एक महान् सेनापति! अपने ही बलबूते पर नया साम्राज्य स्थापित करने का दम केवल उसी में था। मैंने रात-दिन भारत की पुरानी सत्ता को समाप्त करने की कोशिश की है। मेरी जबरदस्त फौज को भी शिवाजी ने उन्नीस बरस तक लगातार टक्कर दी। मैं उसे मिटाने की कोशिश करता रहा, लेकिन उसका राज्य बढ़ता ही गया।”
शिवाजी महाराज की पत्नी पूतथबाई सती हुई थी, किंतु उसके सती होने की तारीख 26 जून, 1680 (शके 1602 शुक्ल 11) है, जबकि महाराज का स्वर्गारोहण हुआ था 24 मार्च 1680 के दिन। पूतथबाई इतने दिनों बाद सती क्यों हुई, इसका कोई स्पष्टीकरण दस्तावेजों में नहीं है।
महाराज के अंतिम समय एवं अवसान का जो ब्योरा है, उसकी तुलना औरंगजेब के अंतिम समय एवं अवसान के ब्योरे से करें, तो फौरन उभरकर आएगा कि इन दोनों शासकों की शख्सियत में कितना फर्क था।

औरंगजेब का शहजादा मुअज्जम को आखिरी खत—
“अल्लाह तुम्हें महफूज रखे।
अब हमें बुढ़ापा आ गया है। हमारा शरीर दुर्बल होता जा रहा है। हमारा अंग-अंग ढीला पड़ गया है। हम इस दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जा रहे हैं। हम कौन हैं, हमने क्या किया, हमीं को पता नहीं चल रहा है। हमने अपनी जिंदगी तकलीफों में
गुजारी है। उन तकलीफों को याद करते हैं, तो दुःख ही दुःख होता है। अपनी समूची जिंदगी में हमने सच्चाई से राज नहीं किया। किसानों की फिक्र हमने नहीं की, उनसे मुहब्बत नहीं की।
इतनी अनमोल जिंदगी बेकार जा रही है। खुदा चारों तरफ है, हमारे महल में है, हमारे अपने अंदर भी है, लेकिन हमारी अभिमानी आँखें उसे अब तक नहीं देख सकीं। जिंदगी का भरोसा ही क्या है; आज है, कल नहीं। भूतकाल की निशानियाँ भी खत्म हो जाती हैं। देखने के लिए, बस, भविष्य ही रह जाता है, लेकिन वहाँ भी उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।
हमें अपना बदन ठंडा महसूस होने लगा है। हम चमड़ी और हड्डियों का ढाँचा भर होकर रह गए हैं। हमारा बेटा कामबक्ष, जो बीजापुर को सँभाल रहा था, इन दिनों वहाँ से यहाँ आया हुआ है और हमारे साथ है। खुदा भी तो हमारे साथ है! और तुम तो उससे भी ज्यादा मेरी नजदीक हो, लेकिन मेरा प्रिय शाह आलम बहुत दूर है। उस महान् विश्व-नियंता से संकेत पाकर हमारा पोता मुहम्मद अजीम बंगाल के नजदीक आ पहुँचा है।
हमने खुदा के साथ नाता तो क्या बनाया; फासला जरूर बनाया! यह फासला ज्यों-ज्यों बढ़ा, हमारे हालात बद से बदतर होते गए। अल्लाह सबके भीतर है, लेकिन क्या सबको ऐसा लगता है कि उसके भीतर अल्लाह है? कइयों को तो बिल्कुल नहीं
लगता होगा!
इस दुनिया में जब हम आए थे, अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आए थे। अब यहाँ से जाने की तैयारी कर रहे हैं, तो देख रहे हैं कि खाली हाथ तो हम नहीं जाएँगे। जो पाप हमने किए हैं, उनके फल हम साथ लेकर जाएँगे! खुदा हमें कौन सी सजा देगा, नहीं पता। हमें अल्लाह की दयालुता पर पूरा भरोसा है। वह हमें उतनी ही सजा देगा, जिसके लायक हम हैं, बल्कि कुछ घटाकर ही सजा देगा, क्योंकि अल्लाह तो दयालुता का दरिया है। अब हम खुद से ही दूर हो रहे हैं। अब भला कौन आएगा हमारे पास !
हवा चाहे किसी भी तरफ चल रही हो, अब तो हमें अपनी नाव पानी में उतारनी ही है।
हमें यकीन है कि जिस अल्लाह ने इस दुनिया को बनाया है और इस पर काबू भी रखा है, वही अल्लाह अपने सभी बच्चों की रक्षा करेगा। फिर भी हम ऊपरी तौर पर सोचे बिना नहीं रह पाते कि कहीं अल्लाह के बच्चों का, मुसलमानों का, नाइनसाफी से कत्ल न होने लगे। मुसलमानों को महफूज रखने की जिम्मेदारी हम अपने बेटे पर महसूस करते हैं। हमारे बेटे का फर्ज बनता है कि इस बात को हर पल याद रखे।
हम अपने पोते नातू बहादुर को आखिरी आशीर्वाद दे रहे हैं। इस संसार को छोड़कर चल देने का समय आ चुका है, फिर भी हम पोते को नहीं देख पा रहे, लेकिन उसे नहीं पता है। इसलिए मुझे अतृप्त लगता है। पोते से मिलने की बहुत इच्छा है, लेकिन
बेगम बहुत दुःखी हैं। यह बात मैं साफ तरह देख सकता हूँ। अल्लाह की सजा से कोई बच नहीं सकता। जो दूरंदेशी नहीं है, उसे सिवा निराशा के और कौन सा फल मिल सकता है।
अलविदा! अब हम जाते हैं। अलविदा! अब हम जाते हैं। अलविदा! अब हम जाते हैं.....।

औरंगजेब का कामबख्श को अंतिम पत्र—
“हमारे दिल में बसे हुए हमारे बेटे! जिस समय हमारे हाथ में सत्ता थी, हमने चाहा था कि अल्लाह की शरण में चले जाएँ। किसी इनसान में जितना बूता हो सकता है, उससे ज्यादा ही बूते के साथ हमने कोशिश की, लेकिन अल्लाह की मरजी कुछ और
थी। किसी ने हमारी नहीं सुनी और अब हम मौत के नजदीक पहुँच चुके हैं। अब कुछ अच्छा होना मुमकिन नहीं। अपनी जिंदगी में हमने जितने लोगों को कष्ट एवं जो पाप हमने किए, उन सबको हम अपने साथ ले जाना चाहते हैं। हम इस दुनिया में अकेले आए हैं, लेकिन यहाँ से जा रहे हैं, तो साथ में इतने सारे लोगों को ले जा रहे हैं! क्या यह कम हैरत की बात है?
जब भी हम अपने आसपास नजर दौड़ाते हैं, हमारे सामने केवल अल्लाह ही आते हैं। इससे हमें डर सा लगता है, क्योंकि हमने अल्लाह के दरबार में बहुत गुनाह कर रखे हैं। हम डर तो गए ही हैं, बुरी तरह निराश भी हो चुके हैं। डर और निराशा की एक और वजह है, हमारी फौज और छावनी के ऊँचे अधिकारी । लगता है, जैसे सब हमारे दुश्मन या तो हो चुके हैं या हो जाएँगे। वैसे तो अल्लाह सबको महफूज रखता है, लेकिन हमारे बेटों का फर्ज है कि वे प्रजा की रक्षा करें। मुसलमानों का भी यही फर्ज बनता है। हम जब समर्थ थे, तब हमने इनकी सुरक्षा की परवाह नहीं की थी और अब तो हम खुद अपनी देख-रेख नहीं कर सकते। हमारा जिस्म कमजोर हो चुका है। हमें अपनी साँस पर यकीन नहीं है कि वह अगले पल हम में होगी या नहीं। इन हालात में हम खुदा से केवल दुआ ही माँग सकते हैं। कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
तुम्हारी माँ ने बीमारी में हमारी दिन-रात सेवा की है। उदयपुरी बेगम हमारे साथ जन्नत जाना चाहती है। तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को हम अल्लाह के सुपुर्द करते हैं। हमें बहुत डर लग रहा है। अब हम तुमसे आखिरी विदा लेते हैं। इस नश्वर संसार में सब झूठे हैं। कोई ऐसा नहीं है, जो अपनी ईमानदारी के सहारे काम करे। अब तो सारा काम इशारों-इशारों में हो रहा है। गैर-ईमानदारी इशारों में छिप जाती है। दाराशिकोह ने जो खुद के तरीके आजमाए थे, उनमें कमजोरियाँ थीं। इसीलिए दारा अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका। उसने अपने सेवकों की तनख्वाहें बढ़ाई, लेकिन जब जरूरत पड़ी, तब उसे पर्याप्त सेवा न मिल सकी। इसीलिए दारा सुखी न हो पाया । हमारी सलाह है कि जितनी चादर हो, उतने ही पाँव पसारने चाहिए।
जो-कुछ हमें कहना था, हमने कह दिया है। अब हम तुमसे विदा लेते हैं। किसानों का या प्रजा का अकारण नाश न हो, मुसलमानों का वध न हो, इसका खयाल तुम रखो।
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो इस कुसूर की सजा हमें भुगतनी पड़ेगी।”
('इंडिया ऑफिस' की हस्तलिखित पांडुलिपि; अध्याय 26; पृष्ठ 1344 से)

औरंगजेब का मृत्यु-पत्र—
“यह हमारा मृत्यु - पत्र है। इसमें हमारे आखिरी संकल्प की बात है। इस आखिरी संकल्प के जरिए हम कुछ प्रेरणादायी सूचना देना चाहते हैं।
हम नाइनसाफी के गहरे गड्ढे में डूबे हुए हैं। हमारी कब्र को कपड़े से ढका जाए। पाप के गड्ढे में डूबे हुए शख्स को दया एवं क्षमा के समुद्र जैसे अल्लाह के सिवा और कौन पनाह देगा! हम जैसों को अगर महफूज रहना है, तो अल्लाह की शरण में जाने के
सिवा और कोई रास्ता नहीं है।
हमारे द्वारा तैयार की गई टोपियों की कीमत मेंं से चार रुपए दो आने आशिया बेग के पास हैं। उनसे यह रकम लेकर ऐसे गरीबों के कफन पर खर्च करें, जिन्हें कफन भी मयस्सर नहीं है। कुरान की नकल लिखने के लिए हमें जो 305 रुपए मिले हैं, वे हमारी थैली में हैं। उन्हें हमारे लिए खर्च किया जाए। जिस दिन हमारी मौत हो, उस दिन ये रुपए फकीरों में बाँट दिए जाएँ। कुरान की नकल करने पर जो रकम मिलती है, उसे शिया-पंथियों द्वारा आदरणीय माना जाता है, लिहाजा यह रकम मेरे कफन या दूसरी जरूरी बातों पर खर्च न की जाए। मेरा इंतकाल होने पर मुझे कफन इस तरह ओढ़ाएँ कि मस्तक खुला रहे। अपने ही पापों से नष्ट होनेवाले हर शख्स को मस्तक खुला रखकर ही अल्लाह के सामने पेश करना चाहिए, क्योंकि इससे उस शख्स को अल्लाह की दया आसानी से मिलती है।
हमारी शव-पेटी को गाजी के नाम से जाने जाने वाले कपड़े से ढक दिया जाए। शव-पेटी पर छत न बनाई जाए। शवयात्रा बिना बाजे-गाजे के निकाली जाए। पैगंबर मौलूद के जन्म को लेकर जो समारोह विधिपूर्वक किया जाता है, उसे न किया जाए।
जो प्रमुख अधिकारी शासन के आधार स्तंभ होते हैं, उन्हें राज्य के बारे में सूक्ष्म-से सूक्ष्म जानकारी होनी चाहिए। एक क्षण की लापरवाही से भी ऐसी हानि हो सकती है, जिसकी कभी भरपाई न की जा सके। वह दुष्ट शिवा हमारी छोटी सी लापरवाही की वजह से निकल भागा। नतीजा यह हुआ कि हमें अंत तक मराठों के खिलाफ कठोर लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं ”
औरंगाबाद (संभाजी नगर) के पास खुलदाबाद में औरंगजेब की कब्र के जो अवशेष हैं, वहाँ एक ठिगनी सादी कब्र है। उस पर संगमरमर का चबूतरा नहीं है। कब्र को ढकने वाली जो शिला है, उसमें मिट्टी का एक कुंड है, जहाँ हरियाली लगाई गई है। कब्र को देखने से लगता है, जैसे वह औरंगजेब की जहाँआरा बेगम की कब्र की नकल है, जो दिल्ली से बाहर बनी हुई है।


संदर्भ—
1. राजगडाची जीवन-गाथा
2. औरंगजेब का इतिहास / सर जदुनाथ सरकार / भाषांतर : डॉ. भगा. कुंटे
3. Shivaji : The Great Maratha