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भाग्यरेखा

भाग्यरेखा




अपने घर की बालकनी में बैठा मनोहर, बाहर आंगन में लगे नीम के पेड़ की डाल पर बने घोसले से बाहर , छोटी सी टहनी पर बैठे चिड़ा की ओर एकटक देखे जा रहा था । उस चिड़े को देखते हुए उसकी नजर ठहर सी गई थी, मानो उसके जीवन चरित्र को बहुत गहराई से विश्लेषण कर रहा था या उसके बहाने अपने जीवन सफर में मन की आंखों से बहुत पीछे चला गया था , पीछे छूट गई अपनी राहों में कहीं खो सा गया था ! उसकी स्मरण शक्ति पीछे के दृश्यों को मानस पटल पर किसी चलचित्र की भांति साकार करती चली जा रही थी, कभी वह उन दृश्यों को थाम कर बैठने की नाकाम कोशिश करता, कभी उन दृश्यों को मनमाफिक बदलने का असफल प्रयास करता, परंतु दिमाग की मेमोरी चिप थी कि न तो उन दृश्यों को रोकने देती, न ही बदलने देती, एक- एक बात, एक एक घटना, यहां तक कि सफर में साथ चलने वाले हम सफर मुसाफिरों के तो कथन भी सजीव से उठे थे, जैसे उसके कानों में अभी गूंज रहे हो। आज भाग्य रेखा को गुजरे चौदहवां दिन था, कल ही अंतिम संस्कार की रस्में पूर्ण हुई थी, सभी मेहमान जो उसके शोक में शामिल होने आए थे, लौट गए थे, और आज तो आखिर में बचे उसके बेटा - बेटी भी सुबह की फ्लाइट लेकर उड़ गए थे, कहीं दूर, दूसरे का गगन में, जहां उन्होंने अपना इच्छित बसेरा बना लिया था, रह गया था तो सिर्फ मनोहर और उस मकान की सुनी सी झांकती दीवारें, जिनमें से एक दीवार पर टंगी भाग्यरेखा की तस्वीर भी मानो उसको उलहाने से दे रही थी। कुछ दिनों पहले वह चिड़ा भी तो अपनी चिड़िया के साथ डाल पर पंख फैलाता दिखाई देता था, कभी उसके घोसले से धीमे-धीमे मधुर चहकने की सी आवाजें सुनाई देती, मानो कोई प्रेमी-युगल धीमे-धीमे फुसफुसाते हुए अंतरंगी बातें कर रहा हो, कभी तेज -तेज, ची- ची की सी आवाज आती थी, जिसको सुनकर पहले भी कभी-कभी मनोहर सोचता था, कि क्या पशु-पक्षी भी मानव की तरह लड़ते हैं, भाग्यरेखा से जब उसका झगड़ा हो जाता था तो वह अक्सर बालकनी में बैठा, कभी आसमान की तरफ निहारता, कभी बाहरी दुनिया की रंगीनियों को, जो बाहर से चमक-दमक पूर्ण दिखाई देती थी लेकिन उस समय उसे लगता था कि इन रंगीन रोशनियों के नीचे बहुत घना अंधेरा है, सब कुछ खोखला, खाली -खाली सा, उसे एक पल के लिए सारी दुनिया दिखावटी सी लगने लगती थी, कभी वह उन्हीं चिड़ा- चिड़ी की चहचाहट सुनने की कोशिश करता और उनकी तेज ची-ची की आवाज से खुद को सांत्वना देने की कोशिश करता, कि शायद ईश्वर ने प्राणी का स्वभाव ही ऐसा बनाया है, जब पक्षी ही लड़ सकते हैं, तो अति दिमाग- धारी असीमित तृष्णाओं का पुतला मानव क्यों नहीं। चिड़े का भरा पूरा परिवार भी उसने उसी डाल पर देखा था, जब उनके तीन छोटे-छोटे पंखहीन अण्डज इस दुनिया में आए थे, उनको अपनी चोंच से दाना खिलाते हुए भी देखा था, लेकिन वक्त गुजरा तो पखेरू युवा होने लगे थे और कभी-कभी तो दिखाई देता था कि उस डाल पर केवल तीन ही नहीं और भी कई नए-नए युवा पखेरू इठला रहें हैं, शायद उनके अन्य कोई दोस्त रहे होंगे। फिर एक ऐसा दौर आया धीरे-धीरे सारे युवा पखेरू एक-एक करके गायब हो गए, शायद उनके पंख कुछ ज्यादा ही सामर्थ्यवान हो गए होंगे, जो उन्हें कहीं लंबी महत्वाकांक्षी उड़ान पर ले गए होंगे, क्योंकि अब कभी उस डाल पर वे दिखाई नहीं देते थे और आखिर में वे ही निढाल से, थके - मांदे, चिड़ा -चिड़ी ही उस डाल पर उस पुराने घोंसले में रह गए थे, जब भी घोंसले में कोई छेद हो जाता था, कहीं से ढीला-ढाला होकर खिसकने लगता, दोनों इधर- उधर से कुछ तिनके लाकर उसकी मरम्मत करने की कोशिश करते, शायद नया बनाने की क्षमता नहीं बची थी उनमें, या जीवन के प्रति जोश खत्म हो गया था, दोनों कभी-कभी एक दूसरे की ओर शिकायत से लहजे में देखते तो सही, किंतु जोर-जोर से चीं-ची नहीं करते, शायद उनकी यह शक्ति भी चुक गयी थी या फिर उनको अब सफर काटने के लिए एक- दूसरे के सहारे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता था। मनोहर अपनी गुजरी किताब के पन्नों से गर्द हटाता हुआ सोच रहा था कि उसके जीवन का दौर भी तो कुछ इसी तरह शुरू हुआ था, लड़कपन में बाऊजी ( पिताजी) ने किसी ज्योतिषी से उसकी हस्त-रेखाएं दिखाई थी, जिसे देखकर ज्योतिषी ने कहा था,-- " गार्ड साहब, तुम्हारे बेटे के हाथों की भाग्यरेखा बहुत ही प्रबल है, तकदीर का धनी है, देखना बड़े होकर तुम्हारे परिवार की किस्मत बदल देगा, तुम्हारा नाम समाज में रोशन कर देगा।" मनोहर के कच्चे से दिमाग में पता नहीं उस ज्योतिषी की बात कही जमकर बैठ गई थी और उस दिन से ही वह मन में घर को रोशन करने वाला चिराग बन बैठा था, अब तक उसका परिवार अभाव की सी ही जिंदगी जीता आ रहा था, बाबूजी किसी फैक्ट्री में 'गार्ड' की नौकरी करते थे, मामूली सी तनख़ाह घर खर्च की पूर्ति नहीं हो पाती थी, तो मम्मी और उसकी बड़ी बहन पूजा पुश्तैनी दो कमरों के घर के बाहर मुख्य दरवाजे से सटे चबूतरे पर सब्जी की दुकान लगा लेती थी। मम्मी सुबह जाकर मंडी से कुछ ताजी सब्जियां लेकर आती, बाबूजी भी फैक्ट्री जाने से पहले अपनी साइकिल पर लादकर उनके साथ लाते और अक्सर मां की मदद करते। घर के कामकाज निपटाते बड़ी बहन पूजा सब्जी बेचने में भी, मां की मदद करती। गली के ही कुछ लोग वहां से सब्जी खरीद लेते थे, क्योंकि मां कभी भी ज्यादा मुनाफे की कामना नहीं करती थी, वह मानती थी कि नाजायज भाव से बरकत नहीं होती और समझती भी थी की वाजिब दर नहीं लगाएगी तो लोग उनसे क्यों खरीदेंगे। बाबूजी की भलमानसी और नेकनीयत से सभी वाकिफ थे, इसलिए गली में सब उनको "गार्ड साहब" कहते थे, जिसको सुनकर कभी-कभी सबसे छोटे शशिकांत व सूर्यकांत को बाबूजी पर गर्व होता था, लेकिन बाकी हम तीनो भाई -बहन समझने लगे थे कि 'गार्ड' के पीछे लगा 'साहब' कितना अर्थहीन और खोखला है। बाबू जी मां व पूजा तीनों की जद्दोजहद के बाद बमुश्किल से घर की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती थी और महीने के अंतिम सप्ताह में ही मां रोज दिन में दो बार तारीख पूछने लगती थी और बाबू जी की छोटी सी तनख्वाह के लिए एक तारीख का इंतजार करने लगती थी और वह तारीख थी कि पास ही नहीं आती थी । मनोहर के अधपके दिमाग की तुलना में मां-बाबूजी के परिपक्व दिल -दिमाग में भी ज्योतिषी की बातों ने कुछ ज्यादा गहरा ही प्रभाव छोड़ा था। वैसे भी उन दिनों में बहुत सारे पहुंचे हुए साधु- महात्माओं के किस्से कुछ ज्यादा ही विश्वास के साथ सुनने को मिलते थे, तो ज्योतिषी के द्वारा बताई गई उसकी प्रबल भाग्यरेखा को मां यदा-कदा पुनः पुनः देखती और कई बार तो रिश्तेदारों को से भी उसका जिक्र करना नहीं भूलती, इसका एक परिणाम और यह निकला कि मां- बाबूजी, यहां तक की पूजा भी उसकी पढ़ाई का विशेष ध्यान रखेती। पूजा से छोटी और मनोहर से बड़ी बहन रोशनी को, यह सब कुछ ज्यादा नहीं सुहाता था, वह अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती और सरकारी कॉलेज में बी.ए. की पढ़ाई करते हुए मौका लगता तो किसी ढोंगी बाबा के किस्से सुनाने में भी नहीं चूकती, जिस पर मां की डांट खाती और उस पर कुढती और सोचती कि हर कोई मनोहर का ही ख्याल रखता है, उसको तो ट्यूशन लेने के लिए दो रुपये तक मां- बाऊजी जी ने नहीं दिए, जो कुछ भी ठीक-ठाक अंक वह परीक्षा में लाती अपनी मेहनत के दम पर ही लाती और हमेशा यह सिद्ध करने की जुनून पर सवार रहती कि वह मनोहर से अच्छे अंक लाकर अपने को बेहतर प्रमाणित कर सके, लेकिन पास की नगरपालिका के सरकारी स्कूल, जिसमें मनोहर पढ़ता था, उसके मास्टर दीनदयाल जी वार्षिक परीक्षा परिणाम के बाद गली से निकलते हुए बाबूजी से कहते,- " 'गार्ड साहब' तुम्हारा बेटा कक्षा में सबसे अव्वल आया है, देखना एक दिन बड़ा अफसर बनेगा ।" तो मां-बाऊजी जी का सीना गर्व से फूला नहीं समाता और रोशनी की महत्वाकांक्षाओं पर तुसारापात हो जाता।
बड़ी बहन पूजा की बढ़ती उम्र मां- बाबूजी को किसी घुन की तरह अंदर ही अंदर खाए जा रही थी । मां को तो सपने में भी लोग ताने देते सुनाई देते थे कि, " बेटियों की बुढ़ापे में शादी करोगी क्या?"। उन दिनों कुंवारी लड़की की 21- 22 की उम्र भी, बहुत ज्यादा होती थी और ऐसी लड़की समाज के तथाकथित समझदार, संस्कारवान और रीति-रिवाजों का पालन करवाने वाले ठेकेदारों की नजर में चुभने लगती थी और पास -पड़ोस की महिलाओं के वार्तालाप का रोचक विषय बन जाती थी और ऐसी औरतें यदा-कदा सब्जी खरीदते समय मां को अनचाहा मशवरा देने से भी बाज नहीं आती थी। एक दिन पड़ोसी रामप्यारी ताई ने तो मां को कुछ ज्यादा ही कह दिया, " सुण री विमला, कांई छोरी सू सारी जिंदगी सब्जी ही बिकवाएगी कांई, छोरी की कमाई अगला जन्म तक चुकानी पड़े हैं, कहीं नीको हो छोरो देख और पीड़ा पांव करबा का बारा में सोच, दुनियादारी का बारा में भी सोचनो पड़े हैं, थाणे का है, लोग कांई-कांई कहवे हैं। " उस दिन के बाद मां ने पूजा को सब्जी की दुकान पर बैठाना बंद कर दिया था और मनोहर की पढ़ाई में बाधा नहीं पड़ने देना चाहती थी, तो जब भी इधर-उधर जाना पड़ता, दुकान बंद करके ही जाती और जब कभी बाऊजी से अकेले में बात करने का मौका लग जाता, पूजा की शादी ही दोनों के बीच बातचीत का मुद्दा होती,- " पूजा के पापा, कहीं भी कोई ठीक सा लड़का देखो, अब लड़की के ब्याह में देर ना झेली जावे ।" "तुम्हें क्या लगता है पूजा की मम्मी, मैं कोशिश नहीं कर रहा हूं, पर क्या करूं? ढंग का परिवार घणी अच्छी शादी चाहते हैं, स्कूटर, टीवी, फ्रीज, सारी चीजों का जैसे लड़की वालों का ही ठेका होता है, लाख रुपया चाहिए कम से कम ।" "तो कोई जरूरी है क्या ऐसा परिवार ? कोई गरीब समझदार परिवार देख लो ।" ‌‌ ‌‌"कैसी बात करती हो? पढ़ी-लिखी लड़की है, किसी गांव- गरीब या मजदूर के घर में बांध दूं, कोई गाय - बकरी है क्या मेरी लड़की ?" पूजा ने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी और इतनी पढ़ाई, मां- बाबूजी के लिए उसको पढ़ी-लिखी बताने के लिए काफी था।
उसी समय बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद रोशनी बी.एड. के प्री टेस्ट में उत्तीर्ण हो गई थी और उसका प्रवेश हेतु किसी दूसरे शहर के बी.एड. कॉलेज में नंबर आ गया था, जिसकी फीस ₹18000 और साल भर का खर्चा 12 -15 हजार तो होना ही था, तो बाबूजी ने उसको साफ मना कर दिया,- " देखो रोशनी, तुम घर की स्थिति जानती हो, फिर पूजा की और तुम्हारी शादी का इंतजाम भी नहीं करना है क्या ? जिंदगी मौका देगी तो बी.एड. फिर कर लेना।" रोशनी मन ही मन उबल पड़ी थी, बहुत इच्छा थी, अध्यापिका बनकर अपने पैरों पर खड़ा होने की, कुछ कर दिखाने की, अपना वजूद- अपना महत्व सिद्ध करने की, लेकिन क्या करती, बोली- " मम्मी मेरी पढ़ाई के लिए इस घर में कभी कुछ नहीं होता, मैं घर में बैठकर जिंदगी के उस मौके का इंतजार करती हूं ।" "नहीं बेटा, जब तक तुम एम.ए. प्राइवेट रहकर भी तो कर सकती हो, क्या पता भगवान सुन ले, फिर अवसर आएगा तो बी.एड. भी करा देंगे।" मां ने समझाने की कोशिश की। रोशनी पैर पटकती हुई कमरे में घुस गई और परिवार के बाकी सदस्य एक -दूसरे का मुंह ताकते हुए चुपचाप आंगन में बैठ कर रह गए । जिंदगी का दस्तूर भी कभी-कभी निराला लगता है, भगवान जिसको पढ़ने की इच्छा- शक्ति -जुनून देता है, उसे अवसर नहीं देता और जिसे अवसर देता है, वह पढ़ना नहीं चाहता। भूखा दो- दो निवालों के लिए दर-दर मांगता फिरता है, और जिसे स्वादिष्ट भोजन का अकूत भंडार देता है, उससे खाया नहीं जाता है। समय का पहिया रुक सा गया था, मां- बाबूजी के लिए दिन-रात कुछ ज्यादा ही बड़े होने लगे थे, कोई दिन पूजा के बारे में किसी से बिना कुछ सुने हुए निकल जाता तो उनको लगता कि वह दिन थोड़ा सुकून से गुजर गया है। लेकिन यह मानव का स्वभाव ही तो है, कठिन समय बड़ी मुश्किल से गुजरता है और सरल समय जल्दी से । वरना तो कालचक्र निर्बाध गति से आगे बढ़ता रहता है वह किसी अच्छे- बुरे का इंतजार कहां करता है। दो वर्ष और गुजर गए। मनोहर की बी.एस.सी. की डिग्री पूरी हो गई। रोशनी की भी एम.ए.पूरी हो गई। तभी वह जिद करके, किसी निजी विद्यालय में पढ़ाने लगी थी । पूजा ने घर से निकलना बिल्कुल बंद कर दिया था। शायद उसे भी लोगों की नजरें चुभने लगी थी। कोई उसकी ओर देखता तो उसे लगता कि 'नजरें मानो कपड़ों को चीर कर अंदर घुस गई है और रूह में कोई छिद्र सा कर दिया है।' तभी ईश्वर ने शायद उनकी सबकी फरियाद सुन ली । मनोहर ने बैंक पीओ की परीक्षा दी और उसको नजदीकी दूसरे शहर जयपुर में किसी बैंक शाखा में प्रोविजनल ऑफिसर के रूप में चयन होकर नियुक्ति मिल गई । मां- बाबूजी को सपने जैसे किसी चमत्कार की तरह पूरे होते लगे। बाबूजी ने मोहल्ले में मिठाइयां बांट दी और हर किसी को उसी ज्योतिषी का किस्सा सुनाया, जिसने उसकी भाग्यरेखा देखी थी। मां के तो पैर जमीन पर ही नहीं टिक रहे थे ।छोटे भाइयों की आशाएं हिलोरे लेने लगी थी, अचानक जैसे किसी अनजाने आत्मविश्वास से उनकी आंखें चमक उठी थी ।रोशनी भी उस दिन खुश थी, जैसे मनोहर के प्रति उसके सारे गिले-शिकवे पिघलकर बह गए थे और बड़ी बहन पूजा के जीवन में तो जैसे नहीं बहार आ गई थी, कोई ताजी हवा उसके मन को प्रफुल्लित किए जाती थी । मां- बाबूजी के मन का टनों बोझ मानो एकदम हल्का सा हो गया था । एक ही कल्पना में न जाने कितने खुशनुमा चित्र खींच लिए थे और उन्हें लग रहा था कि बस अब सभी चित्र कान्तिमय रंगों से अपनी आभा बिखेर देंगे । मनोहर सोच रहा था,- " हमारे जैसे लोग उम्मीदें है कितनी जल्दी पाल लेते हैं, उम्मीद का तो जीवन को बड़ा सहारा होता है, उसको दिल में रखे जीवन गुजारना कितना आसान हो जाता है। " मनोहर ने जयपुर शहर जाकर बैंक में कार्य ग्रहण कर लिया। एक किराए पर कमरा भी ले लिया और न्यूनतम खर्च कर बचा पूरा वेतन मां- बाऊजी को देने लगा। अपने काम-काज, बुद्धि- क्षमता और सौम्य व्यवहार से थोड़ी ही दिनों में बैंक के सभी साथी कार्मिकों के बीच महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। कई कार्मिक उसके बढ़ते कद को देखकर ईर्ष्या भी करने लगे थे, किंतु बैंक का मुख्य प्रबंधक समजातीय था और वह मनोहर के प्रति ज्यादा ही आकर्षित था, इसलिए उसके बढ़ते प्रभाव को कोई खरोंचने की कोशिश नहीं करता था। एक दिन वह सप्ताहान्त में बोला, -" मनोहर, कल घर आ जाओ, साथ डिनर करेंगे, गपशप भी हो जाएगी, मैंने तुम्हारे बारे में घर में चर्चा की थी, तो पत्नी और बच्चों ने भी इच्छा जताई कि तुम्हें घर लेकर आंऊ।"। " अरे नहीं सर, आप क्यों परेशान होते हो फिर कभी कोई अवसर आएगा तो चलूंगा।" "अरे अवसर क्या शादी- लगन का आएगा आएगा, आ जाना बस, सबकी इच्छा है , कभी फुर्सत के लम्हे भी जिंदगी में बिताया करो।" "नहीं सर, अभी फुर्सत कहां है? आगे पढ़ाई जा रही है।" " अरे भाई, सब चलता रहेगा, मैंने पत्नी को वादा किया है, आप आ जाना बस ।" और फिर मनोहर इतनी घनिष्ठ आग्रह को ठुकरा नहीं सका। दूसरे दिन जब वह प्रबंधक शर्मा जी के घर पहुंचा, तो उसकी बहुत खातिरदारी हुई, वह समझ नहीं पा रहा था कि उसको वे लोग इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं? उनके एक बेटा- एक बेटी के साथ सभी ने एक साथ भोजन किया । अन्त में श्रीमती शर्मा बेटी की ओर इशारा करते हुए बोली, - " देखो बेटा हमारी बेटी भाग्यरेखा ने इसी वर्ष बी.एस.सी. किया है, 70% अंक हैं, अभी सोच रही है कि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करें या एम.एस.सी. बहुत होशियार है और खाना तो इतना अच्छा बनाती है कि मुझे भी पीछे छोड़ देती है, कॉलेज के प्रोफेसर भी तारीफ करते हैं।" जैसे एक ही सांस में बेटी की खूबियों की सूची सुनाने को आतुर थी। तभी पहली बार मनोहर ने नजर भर कर भाग्यरेखा की ओर देखा। मन ही मन अपने हाथ की भाग्यरेखा के बारे में सोच कर हल्की सी मुस्कान होठों पर बिखर गई । तभी शर्मा जी ने कमान संभाली, शायद उनको उसकी मुस्कान असहज लगी थी,- " क्या हुआ? अरे यह पार्वती है कि बोलती है तो सांस ही नहीं लेती, वैसे भाग्यरेखा के बारे में यह सही कह रही है, तुम्हें ज्यादा लगा क्या?" ‌ ‌" अरे नहीं सर, मनोहर झेंपते हुए संभल कर बोला, मुझे 'भाग्यरेखा' नाम सुनकर बचपन का कोई किस्सा याद आ गया।" " क्यों? नाम पुराना सा लगता है, एक पहुंचे हुए शास्त्री जी ने निकाला है।" श्रीमती शर्मा ने सफाई दी। " अरे नहीं आंटी, नाम बहुत अच्छा है, यह बात नहीं है।" और फिर मनोहर ने अपने हाथ की भाग्यरेखा ज्योतिषी के द्वारा देखे जाने का किस्सा सुनाया जिस पर सभी खूब दिल खोल कर हंसे और भाग्य रेखा के होंठ खिले और मनोहर से निगाहें मिली तो जैसे सीधे दिल में उतर गई। अब तक मनोहर शर्मा परिवार की भावनाओं का हल्का-फुल्का आकलन कर चुका था। आखिर में श्रीमती शर्मा बोली,- " देखो बेटा, यदि तुम्हें स्वीकार हो तो हम बेटी का रिश्ता तुमसे करना चाहते हैं, मैंने भागू से सहमति ले ली है।" मनोहर एकदम चुप हो गया। फिर कुछ सोचकर, सदे हुए अंदाज में बोला,- " आंटी मुझे कोई एतराज नहीं है, किंतु मेरे घर परिवार की आर्थिक स्थिति अभी ज्यादा ठीक नहीं है, मेरे दो बड़ी बहने हैं, जिनकी शादी करनी है और दो छोटे भाई हैं, जिन की देखभाल, पढ़ाई -लिखाई में मां -बाबूजी की मदद करनी है। "अरे तो हम कहां आपको आज ही शादी करने की कह रहे हैं, आप बहनों की शादी ठीक करवा लो और हम कौन से तुमसे दूर हैं? हो सकेगा जितना शर्मा जी भी मदद करेंगे।" " जी ठीक है, मां -बाबूजी से बात करूंगा ।" "अरे बेटा, आज के जमाने में लड़का- लड़की की इच्छा ही निर्णय करती है।" शायद मनोहर का सुंदर कद- काठी और शर्मा जी द्वारा घर में बताया गया, उसका कार्य- व्यवहार से पहले से ही उनके परिवार ने मन बना लिया था। शर्मा जी परिपक्व अंदाज में बोले,- " देखो मनोहर, आराम से विचार कर लो, आपके परिवार में भी चर्चा कर लो, कोई जल्दी नहीं है और बहनों की शादी के लिए पैसों की चिंता मत करना। " "जी।" कहकर मनोहर लौट गया। लेकिन उस रात भाग्यरेखा का चेहरा उसके दिल- दिमाग से नहीं निकल रहा था, उसकी बड़ी काली आंखों की गहरी नजर मानो उसकी ओर देखे जा रही थी, उसके होठों की मुस्कुराहट में मानो मन को प्रफुल्लित करने वाला रस का सागर छुपा हुआ था, उसकी चाल- ढाल बरबस ही उसके मन को खींचे जा रही थी और दूर आगे तक पंखों पर बिठाए लिए जा रही थी, उसकी आंखों में रुपहले पर्दे पर नए-नए मनमोहक चित्र उकेरती चली जा रही थी। अगले सप्ताह मनोहर घर आया, तो सूझ नहीं रहा था, कैसे बात करें? मन ही मन किन्ही उलझे हुए धागों को सुलझाने की सोच रहा था, "भाग्यरेखा की बात कैसे शुरू करूं? कहां से शुरू करूं? करूं या नहीं करूं? मां बाबूजी बुरा मान गए तो? बहने उसके बारे में क्या सोचेंगी अभी से स्वार्थी हो गया है?" इसी उधेड़बुन में लगा रहा । आखिर शाम को खाने के समय उसने पूजा के बहाने बात छेड़ने का प्रयास किया, -"बाऊजी दीदी के रिश्ते के बारे में कुछ बात बनी है क्या?" "कहां बेटा, कई जगह बात करने की कोशिश की, एक-दो परिवार ठीक-ठाक मिले हैं देखते हैं।" "बाबूजी, मेरी बैंक के मुख्य प्रबंधक भी हमारे जात- समाज के हैं, कह रहे थे, "कोई अच्छा सा घर परिवार देखकर बहनों का रिश्ता ठीक करो, पैसे- वैसे की चिंता मत करना।" बैंक से ऋण बगैर रहने की सुविधा होती है। मां- बाबूजी की आंखों में अचानक एक चमक से कौंधती हुई दिखाई दी, पूजा- रोशनी जो रसोई में चपाती बनाकर परोस रही थी, उन्होंने एकदम नजर उठाकर मनोहर के चेहरे की ओर देखा। बाबूजी में जैसे कुछ और उत्साह का संचार हो गया था। बोले,- " बेटा घर परिवार तो एक अच्छा है, अपने पास ही कस्बे रामगढ़ में रहता है, घनश्याम तिवारी जी का परिवार। दो ही बेटे हैं, दोनों सरकारी नौकर है, बड़ा कोई तहसील में बाबू है और छोटा अभी एक सरकारी विद्यालय में अध्यापक बन गया है।" " फिर दिक्कत क्या है? अपनी रोशनी भी तो अध्यापिका बनना चाहती है।" "बेटा, लड़के सरकारी नौकर हैं तो दान- दहेज कुछ ज्यादा ही देना पड़ेगा।" बीच में मां बोली। "फिर पता नहीं तिवारी जी दोनों बेटों का ब्याह एक घर में हीकरेंगे भी या नहीं।" बाबूजी ने शंका थोड़ी और बढ़ाई । "बाऊजी पैसे की चिंता मत करो, सब इंतजाम हो जाएगा, बल्कि कुछ ज्यादा ही खर्च करने का तिवारी जी से जिक्र करो, क्या पता दोनों बेटों के रिश्तो के लिए मान जाए।" मनोहर काफी संभलकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था, किंतु पता नहीं दिल में कुछ उतावलापन सा हिलोरे ले रहा था और वह उसको छुपाने का भरपूर प्रयास कर रहा था। कहीं बहनों को कोई भी जल्दबाजी सी का एहसास नहीं हो जाए, इसलिए अबकी बार वह चाह कर भी भाग्यरेखा के बारे में एक भी शब्द नहीं बोल सका था। एक दिन रुक कर वापस अपने बैंक पहुंच गया। शर्मा जी से बातचीत हुई, उन्होंने घर का हाल-चाल पूछा तो यूं ही कह दिया कि" मां- बाबूजी ने कहा है, ठीक है, किंतु पहले बहनों का रिश्ता ठीक करते हैं। " इधर बाऊजी ने तिवारी जी के यहां पहुंच कर पता नहीं कैसे, शायद कुछ ज्यादा ही देन- दहेज की बात की होगी, तिवारी जी को राजी कर लिया। पूजा- रोशनी शक्ल सूरत से काफी अच्छी थी, तो लड़के भी राजी हो गए और मां- बाबूजी के लिए इतना काफी था कि उनके होने वाले दोनों दामाद सरकारी नौकर थे, तो पूजा- रोशनी से उनकी इच्छा पूछने की ज्यादा जरूरत क्या थी। जिसकी वे अपेक्षा भी नहीं करती थी। फिर लड़के भी मेल के थे, तो रिश्ता तय हो गया। मनोहर को तीन लाख रूपये ऋण के रूप में लेने पड़े, दो लाख बैंक से और एक लाख शर्मा जी ने दिए। पता नहीं शर्मा जी ने मदद की या अपनी दिशा तय कर मनोहर को पूरी तरह नियंत्रण में करने की कोशिश की, किंतु मनोहर को उस समय तीन लाख ज्यादा भारी बोझ नहीं लग रहे थे। धूमधाम से दोनों बहनों का विवाह संपन्न हुआ। शर्मा जी का परिवार भी आया और बातों ही बातों में मनोहर ने मां- बाबूजी से भाग्यरेखा के बारे में चर्चा कर दी, जिसे उन्होंने हंसी खुशी स्वीकार कर लिया। मनोहर की तो मानो मन की मुराद पूरी हो गई। वैसे भी उस उम्र में व्यक्ति विवाह से पहले सुनहरे स्वप्निल दृश्यों के अलावा और कुछ देखता भी कहां है? यथार्थ की सही जिंदगी से उसका परिचय शादी के बाद ही होता है। मनोहर भी सपनों में कहीं खोया हुआ उड़ता जा रहा था। बाद की जिंदगी किस करवट बदलेगी या उसकी हकीकत की जमीन कैसी होगी, इसका खयाल भर तक उसके दिमाग में नहीं आया। दोनों मिलने लगे थे, सिनेमा बगैरह भी यदा-कदा जाने लगे थे, मनोहर को जिंदगी बहुत हसीन- खुशनुमा लग रही थी। कुछ महीनों बाद शर्मा जी ने विवाह की तारीख पक्की करने की बात की, तो मनोहर सोच नहीं पा रहा था कि रुपयों का इंतजाम कैसे होगा? अभी तो दोनों बहनों की शादी में औकात से बहुत ज्यादा खर्च किया था। चुप हो गया, क्या कहें शर्मा जी को? आखिर शर्मा जी नहीं उसकी उलझन को समझते हुए चुप्पी तोड़ी,- " रुपयों की चिंता मत करो, मनोहर मैंने जो एक लाख तुम्हारी बहनों की शादी में दिए थे, उनको मेरी तरफ से उपहार समझ लेना और शादी का सारा खर्च मैं ही उठा लूंगा, आपकी तरफ से भी, आखिर तुम भी तो मेरे बेटे ही हो।" "पर........?" मनोहर सकपकाते हुए कुछ कहना चाह रहा था कि बीच में श्रीमती शर्मा ने रोक कर कहा,- " पर क्या बेटा? शर्मा जी सही तो कह रहे हैं, हमारी भाग्यरेखा का भी इस घर में बराबर का हक है, आखिर हमारी कमाई किस दिन काम आएगी।" मनोहर मन ही मन गदगद हो गया। एक पल में ही जैसे उसकी सारी उलझने समाप्त हो गयी। वह शर्मा जी का आभार किन शब्दों में बयां करें, वह मन ही मन भगवान को और उस ज्योतिषी को भी, जिसने उसकी भाग्यरेखा देखी थी, धन्यवाद दे रहा था। उसे जिंदगी बहुत ही सहज और शुकून भरी लग रही थी, मानो सारी कायनात पलक- पावडे बिछाकर उसके भावी सुनहरे सफर के लिए नतमस्तक हुए इंतजार कर रही थी। घर आकर मां- बाबूजी को सारी बात बताई, तो उन सरल प्रवृत्ति के लोगों को भी लगा, जैसे भगवान सचमुच ही उन पर अति मेहरबान हो गया है। तुरंत शादी की तारीख पक्की हो गई और आनंददाई बेला में सभी के आल्हादित मनों के साथ मनोहर व भाग्यरेखा एक- सूत्र के पवित्र बंधन में बंध गए। हसीन वादियों के कुछ दिनों के सफर के बाद, मनोहर की जिंदगी का दूसरा पड़ाव प्रारंभ हुआ। विवाह को दो माह भी नहीं हुए थे कि भाग्यरेखा ने मां बाबूजी के साथ, उनके कस्बे में रहने से मना कर दिया। बोली,- "देखो मनोहर मेरा तुम्हारे बिना यहां मन नहीं लगता, तुम सप्ताह में एक दिन के लिए यहां आते हो, मैं अपनी आगे की पढ़ाई भी यहां नहीं कर पाऊंगी, मैं तुम्हारे साथ वही जयपुर में ही रहूंगी।" "रेखा मां- बाबूजी क्या सोचेंगे? भला चार दिन में ही लड़का बदल गया। मनोहर के घर वालों ने उसका संक्षिप्त नाम 'रेखा' ही रख लिया था। " क्या सोचेंगे, हम भला उनको छोड़कर जा रहे हैं क्या? हफ्ता-दस दिन में आते रहेंगे। " अबकी बार मनोहर भाग्यरेखा के साथ ससुराल पहुंचा, तो सास- ससुर जी दोनों ने भाग्यरेखा की पुरजोर वकालत की, जिसको नकारने की हिम्मत मनोहर पहले ही एहसानों के कारण खो चुका था और न चाहते हुए भी मां-बाऊजी से पत्नी को साथ रखने की बात करनी पड़ी। जिसको सुनकर एकबारगी दोनों सन्न रह गए। वह छोटे कस्बे और गांव से परवेश में रहे थे, जिस माहौल में उनका अब तक का जीवन व्यतीत हुआ, जैसी उनकी सोच थी कि बहू का सास- ससुर की सेवा करना प्रमुख दायित्व है। उनके लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था। मन मसोसकर मां बोली,- " कोई बात नहीं, तुम खुश रहो, हम अपना कर लेंगे, जैसी बहू की मर्जी, ठीक से रहना।" बाबूजी बिना कुछ बोले कमरे के अंदर चले गए। मनोहर उनकी मनोदशा भली-भांति जानता था, किंतु रेखा के साथ अपने सास-ससुर को समझाने की क्षमता या यूं कहें अपनी इच्छा अनुसार निर्णय लेने की ताकत उसमें बची ना थी। थोड़ा विवशता महसूस कर रहा था, लेकिन रेखा को नाराज भी नहीं करना चाहता था। मनोहर को शर्मा जी ने हीं एक बड़ा फ्लैट किराए पर दिला दिया, जिसका किराया भी मनोहर की औकात से ज्यादा था। महीने के तीसरे हिस्से का वेतन तो पहले ही बैंक ऋण लिया था, उसकी मासिक कटौती में चला जाता था। लेकिन क्या करता? शर्मा जी को शायद अपनी बेटी के आराम और शान- शौकत का ज्यादा ही खयाल था। घर खर्च में भी मनोहर की मितव्यता रेखा को रास नहीं आती थी और वह बात- बात पर मायके का उदाहरण देने लगती, हमारे घर में यू खर्च होता था, हम ऐसे रहते थे, आदि आदि। कभी-कभी तो स्वयं की मम्मी से रुपया लाने की बात कहती और यदा-कदा फिजूलखर्ची के लिए मनोहर को बिना बताए, शायद कुछ ले भी आती थी। मनोहर को यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। आखिर एक दिन हारकर उसने रेखा से कहा,- " देखो रेखा तुम मेरी औकात के हिसाब से जीना सीखो, अब तुम्हारा मायका तुम्हारा घर नहीं है। यही अपना घर है और मेरी, अभी और भी जिम्मेदारियां हैं, मां- बाबूजी ने मुझसे बहुत सी उम्मीदें पाल रखी है। मैं उनको एकदम अकेला नहीं छोड़ सकता। अभी दो छोटे भाई हैं उनकी पढ़ाई-लिखाई, भविष्य के बारे में भी मुझे ही सोचना है।"। "मैं उन्हें अकेला छोड़ने की कह रही हूं क्या?" " जुबान से तो नहीं कहती, लेकिन व्यवहार भी तो वैसा नहीं करती हो, मैं उनकी कोई मदद नहीं कर पा रहा हूं।" " तो मेरी गलती क्या है? बैंक से ऋण मेरे लिए लिया था क्या? पहले ही दोनों बहनों की शादी तुमने अपने खर्चे के दम पर कर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा दी है क्या?" " वह सब ठीक है, यदि तुम्हारे पापा हमारी शादी की जल्दी नहीं करते, तो मैं कुछ रुपए इकट्ठे कर ही बहनों की शादी करता।" " यह भी मेरे पापा की ही गलती है, हम ही गलत है, तुम्हारा इतना सहयोग किया, वह सब हमारी ही तो गलती है, मैं कितनी तक तंगहालीली में जिऊं, तुम ही बता दो, तुमसे ज्यादा रुपए मांगती भी नहीं।" " तुम रोज जाकर अपनी मम्मी के सामने हाथ फैलाओ, मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।" " तो क्या करूं? तुम ही बता दो, पढ़ाई छोड़ कर कोई नौकरी कर लेती हूं?" " तुम बात से भटका रही हो रेखा, मेरे कहने का मतलब तुम जानती हो ।" इस तरह पलक झपकते ही उनकी गृहस्थी के हसीन लम्हे गायब हो गए और नोकझोंक शुरू हो गई, जो बढ़ती जाती थी। मनोहर लाचार सा पड़ रहा था। मां- बाबूजी की ज्यादा आर्थिक मदद भी नहीं कर पा रहा था। धीरे धीरे आना- जाना भी कम होने लगा। मां- बाबूजी को बेटे से निराशा होने लगी थी। शशिकांत- सूर्यकांत दोनों छोटे भाइयों की विद्यालय शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी। मनोहर का तबादला उसी शहर की दूसरी बैंक शाखा में हो गया था। इसमें भी शर्मा जी ने उसको बिना बताए अपनी पहुंच काम में ली थी, ताकि अपनी बेटी- दामाद को परेशानी ना हो और बेटी को कहीं बाहर दूसरे शहर ना जाना पड़े। जबकि मनोहर मन ही मन उस शहर को छोड़ना चाहता था। मनोहर ने बिना रेखा को बताएं, दोनों भाइयों का किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला करवाने के लिए बैंक से और ऋण ले लिया और चुपचाप जाकर उनका प्रवेश करा आया था। जिसका बाद में शर्मा जी को किसी बैंक कार्मिक से पता चला चला था और फिर भाग्यरेखा को, जिस पर दोनों में खूब झगड़ा हुआ वह उबलती हुई बोली,- "कब से कह रही हूं कि अपना एक फ्लैट खरीदो लो, किराए के रुपए तो बचेंगे, किंतु उसकी तो तुम्हारी औकात नहीं है, फिर भाइयों के लिए कर्जा क्यों लिया?" "उनके लिए इतना कर्ज नहीं लिया, जितना फ्लैट के लिए लेना पड़ता ।फिर उनके प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या?" ‌ "हां क्यों नहीं है? मेरे अलावा सभी तो तुम्हारी जिम्मेदारी है?" " ऐसा क्यों कहती हो? क्या मैं तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता हूं ?" "हां जिम्मेदारी की औपचारिकता ही पूरी करता करते हो, अपनापन तो है नहीं, अपने परिवार के बारे में भी कभी सोचा है, मैं मां बनने वाली हूं।" यह सुनते ही मनोहर मोम की तरह पिघल गया और क्षमा याचना करते हुए भाग्यरेखा को मनाने की कोशिश करने लगा। वक्त गुजरता गया और धीरे-धीरे मनोहर ने मां- बाबूजी को रुपए देना बिल्कुल बंद कर दिया। उसके पास बचते ही कहां थे? भाग्यरेखा ने एक बेटे को जन्म दिया। मनोहर ने मां को देखभाल के लिए बुलाना चाहा, किंतु रेखा ने साफ मना कर दिया,- " क्या जरूरत है? मैं अपनी मम्मी को बुला लूंगी, वहां बाबूजी अकेले रह जाएंगे, यहां तो मम्मी मेरी मदद कर अपना घर भी संभाल लेगी। वैसे भी हमारे घर काम के लिए नौकरानी आती है, वहां बाबूजी अकेले परेशान हो जाएंगे।" ‌‌ मनोहर मन ही मन समझता था कि भाग्यरेखा को मां- बाबूजी की कितनी चिंता है। वह उसके अंदर की भावनाएं समझता था, किंतु ऐसे वक्त पर विरोध कर अपनी उलझन और नहीं बढाना चाहता था । मां बाबूजी के दिल में बहुत गिले-शिकवे पैदा हो गए थे । किसी तरह गांव जाकर मनोहर ने सांत्वना देने की कोशिश की। मां शायद मनोहर की दशा बेहतर समझती थी। मां-बाप को ईश्वर ने पता नहीं किस ढंग की फितरत दी है । अपनी संतान चाहे लाख सितम करें, अनगिनत पीड़ाऐं पहुंचाएं, दो मीठे बोलों के प्रभाव से सारे गिले- शिकवे, सारे कष्ट, नदी के तेज बहाव में कचरे की तरह बह जाते हैं । पोते के जन्म की खुशी में मां- बाबूजी गदगद हो गए। मोहल्ले में मिठाई बटवा दी। एक बड़ा सा समारोह करना चाहते थे, जिसका मनोहर ने कई तर्क देकर, अपनी तंगहाली के बारे में खुलासा नहीं करते हुए टाल दिया। जिसका मां- बाबूजी के साथ रेखा को भी ता- जिंदगी मलाल रहा और उसके अनगिनत ताने मनोहर को झेलने पड़े। वक्त का पहिया निर्बाध गति से घूमता रहा। लेकिन मनोहर का समय कठिनाई भरा गुजर रहा था। भाग्यरेखा की इच्छाऐं घर को लेकर, बेटे को लेकर, बढ़ती जाती थी , जिनको मनोहर फिलहाल चाह कर भी पूरा नहीं कर पा रहा था । ऊपर से ईश्वर को मंजूर था कि दो वर्ष बाद ही रेखा ने बेटी किरण को जन्म दिया । ऊपर- नीचे के दो बच्चे हो गए । भाग्यरेखा दोनों बच्चों को संभालने में इतनी व्यस्त हो गई कि पढ़ाई - नौकरी का खयाल दिमाग में ही नहीं आता था। कई बार तो उनकी देखभाल को लेकर मनोहर से झगड़ पड़ती थी। दोनों बच्चों की आवश्यकताओं को लेकर बात-बात में मनोहर को उलहाने देती । उसके तरकस में इन तानों के पता नहीं कितने तीर थे कि खत्म होने को ही नहीं आते थे। मनोहर भी चिड़-चिड़ा सा हो गया था ।वह रूहानी प्यार , वह कशिश कहीं खो सी गई थी । एक दिन बेटे कुणाल के विद्यालय में प्रथम प्रवेश को लेकर दोनों में झगड़ा हो गया। रेखा किसी महंगे फीस वाले स्कूल में दाखिला करवाना चाहती थी। बोली,- " देखो मनोहर, मैंने जिंदगी से बहुत समझौते किए हैं, मेरे बच्चों के जीवन के बारे में कोई समझौता नहीं करूंगी।" "मेरे बेटा- बेटी नहीं है क्या ये? मुझे इनकी चिंता नहीं है क्या? मैं इनकी पढ़ाई खुद भी घर पर देखूंगा , तुम भी पढ़ी- लिखी हो, बड़े स्कूल में दाखिला करवाने से ही तो जिंदगी नहीं बनती।" "मैं जानती हूं, तुम कितना देखोगे? अब तक बहुत देखा है ना तुमने।" "तो तुम ही देख लेना, तुम तो खूब विद्वती शिक्षित नारी हो, तुम्हारी पढ़ाई किस काम आएगी, मैं सुबह 9:00 बजे घर से निकलता हूं और रात को 7-8 बजे तक घर में घुस जाऊं तो गनीमत है, आजकल बैंक की नौकरी तुम जानती हो ना ?" " हां खूब पता है, शायद तुम्हें याद नहीं होगा कि मेरे पापा बैंक के अधिकारी पद से ही सेवानिवृत्त हुए हैं ?" "जी हां, याद कहां रहता है मुझे ? वह जमाना और था, आज समय बदल गया है, और दो पैसे बचेंगे तो क्या वे इनके काम नहीं आएंगे, मैं मेरे लिए सोच रहा हूं क्या ?" " मैं जानती हूं तुम किसके लिए सोच रहे हो ?" भाग्यरेखा लड़ झगड़ कर रह गई। मनोहर ने अपने निर्णय अनुसार ठीक से एक निजी विद्यालय में दाखिला करवा दिया। वक्त सरपट गति से दौड़ने लगा। दोनों भाइयों ने पढ़ाई पूरी कर किसी कंपनी में नौकरी कर ली। अब मां- बाबूजी को उसकी आर्थिक मदद की दरकार नहीं थी। शायद उनका कंगाली भरा जीवन ढलने को था। मनोहर महीने- दो महीने में एक बार मिल जाता था, उनके लिए काफी था । कभी वर्ष में एक- आधा बार होली- दिवाली ना- नुकर करती, झुंझलाती भाग्यरेखा और बच्चों को भी मां- बाबूजी के पास ले जाता तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं होता था । वह बच्चों की, रेखा की खूब खातिरदारी करते, लेकिन उसमें भी रेखा को उनका प्यार कम, दिखावा ज्यादा नजर आता था । वापस अपने शहर पहुंचकर, जब कभी बच्चे दादी के खाने की तारीफ कर देते, तो वह तमतमा जाती थी । मनोहर सोचता था कि ' पता नहीं सास- बहू का रिश्ता ऐसा ही होता होगा । तभी तो खूब सारे टीवी सीरियल का भी यह रोचक विषय है । शायद रेखा यही समझती होगी कि उसके कष्टों की वजह मनोहर का परिवार है। शायद वह मां- बाबूजी के प्रति इतनी सद्भावना इसीलिए नहीं रखती होगी, शायद उसको लगता होगा कि मनोहर के भाई-बहन नहीं होते, तो उसका जीवन खुशहाल होता, पता नहीं। वह मनोहर के परिवार को दिल में नहीं बसा पाई और यह मनोहर को हमेशा खलता रहा । स्थितियां बदलती गई । मनोहर का पुराना ऋण चुकता हो गया। खुद का मकान बनाने की इच्छा थी । एकबारगी दिमाग में आया कि छोटे भाइयों से मदद ले लूं, किंतु विचार छोड़ दिया कि उनको ही कहना चाहिए था, जब मां- बाबूजी के सामने उसने मकान लेने के बारे में जिक्र किया था, वही क्यों हाथ फैलाए ? लेकिन आज जमाना ऐसा है कहां? उसने पुनः बैंक से ऋण लेकर एक बढ़िया कॉलोनी में फ्लैट ले लिया था । धीरे-धीरे सभी आवश्यक घरेलू सुविधाएं जुटा ली थी । गृहस्थी संभल रही थी । बच्चे दोनों होनहार थे। कॉलेजों में पढ़ने लगे थे, बेटी का एमबीबीएस हेतु अच्छे मेडिकल कॉलेज में दाखिला हो गया था। बेटा आईआईटी दिल्ली से बी.टेक. कर रहा था । भाग्यरेखा झगड़े कम करने लगी थी, लेकिन दोनों के बीच अपनापन खो सा गया था । कहते हैं विवाहबंधन से दो दिल एक हो जाते हैं , कोई रूहानी रिश्ता कायम हो जाता है , मनोहर को इसमें बहुत ज्यादा संदेह था, बल्कि वह यह सब किताबी बातें मानने लगा था । शायद दोनों के हृदय के विचारों के मतभेद और मुंह से निकले शब्दों ने बीच में खाई कुछ ज्यादा ही गहरी बना दी थी , जिसको पाटना दोनों के लिए मुश्किल था । शायद दोनों के मन में एक समझौता वाली जिंदगी जीने का मलाल था । भाग्यरेखा आज भी एक महंगी कार में घूमना चाहती थी । आज भी मनोहर को ताने देने से नहीं चूकती थी । आज भी वह अपने मायके के रहन-सहन का बखान करना नहीं भूलती थी, जो मनोहर के कानों में किसी गर्म तेल की तरह सरकते हुए दिल तक पहुंच जाते थे । जिनका वह कोई प्रत्युत्तर नहीं देता था, किंतु मन ही मन भाग्यरेखा से कुछ दूरी बढ़ती जाती थी । बच्चे पढ़- लिख कर विदेश में काम करने लगे और पीछे रह गए उन पर चिड़ा- चिड़ी की तरह मनोहर- भाग्यरेखा। आज चिड़ी ने भी साथ छोड़ दिया था , तभी तो चिड़ा मुंह लटकाए डाल पर अकेला बैठा था, क्या करता ? कहां जाए ? किसको अपनी व्यथा सुनाएं ? घोसले में घुसता और फिर बाहर निकल आता । शायद घोसला चिड़ी की याद दिलाता था । बालकनी में बैठा मनोहर खड़ा होकर अंदर गया । देर तक भाग्यरेखा की तस्वीर को देखता रहा, जिस पर सुबह ताजे पुष्पों की माला पहनाई थी । उसे लगा पुष्पों के साथ भाग्यरेखा भी कुछ मुरझा सी गई है । शायद उसको मनोहर से अभी भी कोई शिकायत रही होगी । मनोहर को घर की दीवारें सुनी- सुनी दिखाई दे रही थी , जैसे घर के अंदर की प्रत्येक वस्तु सचमुच ही निर्जीव होने का एहसास करा रही थी । शायद उनकी रोनक भी भाग्यरेखा अपने साथ ले गई थी । घर वास्तव में घर ना हो कर किसी अंधकारमय बीहड़ में खड़ा कोई सूना सा खंडहर लग रहा था । मन ही मन सोच रहा था, " रेखा हजार शिकायतें बेशक करती थी, किंतु उसका ख्याल भी तो रखती थी , समय पर खाना, कपड़े तैयार करना और सप्ताहांत में मनोहर की पसंद वाली उड़द की काली दाल और लहसुन की चटनी बनाना कभी नहीं भूलती थी। सुबह घूम कर आता तो आहट सुनते ही चाय छानकर अखबार के साथ टेबल पर रख देती थी । शायद चाय पहले से ही तैयार रहती थी, बस आहट सुनकर गर्म कर देती थी । " मनोहर का कुछ खाने का मन नहीं कर रहा था । थरमस में रखी चाय को कप में डालकर ले आया और पुनः बालकनी में आकर पड़ी बांस की कुर्सी पर बैठ गया , जिसको बड़ी जिद करके वह बाजार से खरीद लाई थी । गुजरे कल के चित्र एक-एक करके उसके दिमाग में आते ही जा रहे थे, सोच रहा था, " हम पति-पत्नी होकर भी एक दूसरे की भावनाओं को क्यों नहीं संभाल पाते ? क्या भाग रेखा का व्यवहार सचमुच ही गलत था ? आज हर व्यक्ति केवल अपने ही बारे में सोचता है तो वह क्यों नहीं सोच सकती ? आज सबके लिए परिवार का मतलब पति- पत्नी और बच्चे हो गया है, तो उसके लिए क्यों नहीं हो सकता ? वह भी तो यही चाहती थी कि मैं सिर्फ अपने परिवार के लिए जीऊं, उनके हितों का ध्यान रखूं, चाहे इसे स्वार्थीपन कहें, लेकिन इसमें उसकी गलती क्या थी ? मेरा तो उसने कभी बुरा नहीं चाहा । एक दिन बुखार चढ़ जाता था, तो रात भर पास बैठी जाग कर गुजार देती थी, उसके अपनेपन को शायद मैं ही नहीं समझ पाया । मेरे बाकी परिवार भाई- बहन, मां- बाऊजी को लेकर मुझे ताने उलहाने नहीं देती तो किसी देती ? इसमें भी उसकी यही सोच रही होगी कि किसी तरह बाकी परिवार मेरी जिम्मेदारी से हट जाए । मेरा बोझ तनिक हल्का हो जाए। मैं ही उसके दिल की बात समझ नहीं पाया ।" "तो क्या मैं ही गलत हूं ? क्या मां- बाबूजी, भाई- बहनों को यूंही मझधार में डूबते हुए छोड़ देता ? क्या मेरा उनके प्रति कोई दायित्व नहीं था, जिन्होंने सारे सपने मुझे आधार बना कर लिए थे । जिस मां- बाऊजी ने मेरे जन्म से लेकर ता- जिंदगी , मेरे हाथ की भाग्य- रेखा को देखा था और उसमें ही अपने हाथों की लकीरों का रास्ता भी बना लिया था। उनसे विमुख हो जाता ? ।" मनोहर अभी भी पूरी तरह से आंकलन नहीं कर पा रहा था कि वह कितना गलत था या भाग्यरेखा कितनी सही थी । वह कहां चूक गई और वह कहां ध्यान नहीं रख पाया ? अक्सर जिंदगी रहते हम इन चीजों का विचार ही नहीं कर पाते । नोक-झोंक, मेरा अभिमान- तुम्हारा स्वाभिमान, मेरी व्यस्तता- तुम्हारी बेरुखी, आदि आदि की उलझन से उबर ही नहीं पाते । खुशियां ढूंढते- ढूंढते खुशी के छोटे-छोटे पलों को महसूस ही नहीं करते । शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते । रिश्ता तो विवाह- बंधन से बन जाता है, विवाह पूर्व एक- दूसरे को पसंद भी कर लेते हैं, फिर क्यों यह दूरियां बन जाती है ? शायद हम सोचते हैं कि मेरा साथी मेरी इच्छाओं की कद्र नहीं करता, लेकिन कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं करते कि उसको क्या अच्छा लगता है और उसकी इच्छा के लिए अपनी इच्छा का दिल से परित्याग नहीं कर पाते। दोनों अपने निर्णय को न्याय संगत ठहराने के लिए तर्क ढूंढते रहते हैं । जब ज्ञान होता है तब तक जिंदगी का गाड़ी निकल चुकी होती है, रह जाते हैं सिर्फ उसके निशान , जिन्हें देखकर अफसोस, पश्चाताप के सिवा कुछ शेष नहीं रह जाता । चिड़ा आखिर घोंसले में घुसकर निढाल सा हो गया था । घोसले में कोई हरकत नहीं थी, सिर्फ हवा की सांय- सांय सुनाई दे रही थी ।