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तेरे बिना

तेरे बिना

दूसरी मंजिल पर रास्ते की ओर बने अपने कक्ष में बिस्तर पर पड़ी दिव्या, अपने आप को, पापा को, भैया को और सभी घर वालों को कोस रही थी। रात्रि के 12:00 बजने को आए थे । पापा के लाख समझाने और मम्मी के बार-बार मिन्नतें करने के बावजूद कुछ नहीं खाया था। अक्टूबर के महीने के उत्तरार्ध में हल्की गुनगुनी सर्दी प्रारंभ हो गई थी । पलंग के साथ लगे अपने कक्ष की शीशे वाली खिड़की से बाहर आकाश की ओर देखे जा रही थी । उसे यूं आकाश में मुस्कुराते हुए चांद को देखना, टिमटिमाते तारों से आकाश में कोई कल्पित चित्र बनाना, यदा-कदा सौभाग्य से टूटते हुए तारे को देखना और कभी- कभी आसमां के सीने पर उड़ते हुए हवाई जहाज को देखकर समुद्र में तैरते हुए किसी जहाज की कल्पना करना बहुत अच्छा लगता था । उसकी खिड़की से खुला आसमान दिखाई देता था क्योंकि सामने सड़क के उस पार कोई मकान बने हुए नहीं थे , कॉलोनी में बनाया गया सार्वजनिक खेल मैदान था, जिसमें कॉलोनी के सभी बच्चे खेल खेलते थे । इसलिए जिद करके बड़े भैया से लड़- झगड़ कर अपने लिए यह कमरा लिया था। चांद पूरी तरह से योवन पर था, शायद पूर्णमासी के आस-पास का कोई दिन था। वह अपनी आभा बिखेरते हुए आकाश को धवलित करने का प्रयास कर रहा था, मानो उसकी चांदनी तारों को अपने आगोश में समेटने का प्रयास कर रही थी । कितना सुंदर लगता था उसे यह दृश्य, किंतु आज उसे लग रहा था कि मानो चांद उसको चिढ़ा रहा था, उस पर अट्टहास कर रहा था, चांदनी जो खिड़की से उसके पलंग तक दस्तक दे रही थी, उसमें मानो आज शीतलता न होकर कोई अनजानी सी तपिश थी, जो उसे अंदर से जलाती सी प्रतीत हो रही थी । सामने खेल मैदान में फुटबॉल हॉकी आदि हेतु गोल -पोल अचानक जैसे विद्रूपित हो गए थे । मैदान बिल्कुल सूनेपन, नीरवता का एहसास करा रहा था। अचानक जैसे सब कुछ बदल गया था।

सोच रही थी, " उसका गुनाह क्या है ? क्या सचमुच उसने उदय से प्यार कर गलती की है? अपने परिवार के संस्कारों और मर्यादाओं को तोड़ा है ? अपने पापा की इज्जत से खिलवाड़ किया है? तो क्या मां-बाप की इच्छा के बगैर किसी से प्यार करना गुनाह है? तो क्या प्यार परिवार की इच्छा अनुसार किसी योजना के तहत करना चाहिए और क्या सच्चा प्यार किसी योजना के तहत सोच समझ की बैसाखियों पर चलकर हो सकता है ? प्यार की शुरुआत होने में सोच समझकर बनाई गई योजना की गुंजाइश कहां है? वह तो स्वाभाविक निश्छल प्रकृति के झरने की तरह है जो आत्माओं को तृप्त करता है, प्यार किया नहीं जाता, बस हो जाता है। कभी-कभी किसी को देखकर, किसी के साथ रहकर, किसी के स्वभाव, कार्य- व्यवहार से ऐसी अनुभूति होती है कि दिल अंदर ही अंदर गुदगुदाने लगता है । प्यार का झरना तो स्वत: प्रस्फुटित होता है । तो क्या यह सब किताबी बातें हैं, फिल्मों में ही ऐसा प्यार होता है वास्तविक जगत में ऐसे प्यार हेतु कोई स्थान नहीं है। "

उसे याद आ रहा था वह पल जब उदय से उसकी पहली मुलाकात हुई थी। 8-9 साल हो गए थे, तब वह दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। विद्यालय का नया सत्र शुरू हुए दो-चार दिन ही हुए थे कि उस दिन अग्रिम पंक्ति की बेंच पर कक्षा- कक्ष में उसने उदय को बैठा पाया था, जिस पर वह अक्सर रोज बैठती थी । अभी प्रार्थना की घंटी नहीं लगी थी। विद्यार्थी कक्षा में प्रवेश कर रहे थे और अपनी पुस्तकों के बैग अपनी सीटों पर रख रहे थे । उसने कक्ष में प्रवेश किया तो पहली बार उदय को देखा।

"हेलो मिस्टर..... यह सीट मेरी है, जिस पर तुम बैठे हो'

"जी.....? यहां कक्षा कक्ष में सभी सीटें पहले से तय कर दी जाती है क्या ?"

"जी हां ,तुम शायद स्कूल में नए-नए हो ?"

"जी, आज ही प्रवेश लिया है "

"तभी तो...."

"फिर मेरी सीट कौन सी होगी...?"

"सबसे पीछे की पंक्ति में उधर कोने वाली।"

और उदय चुपचाप अपना बैग उठाकर उस कोने वाली बेंच पर जाकर बैठ गया था। कितनी मासूमियत थी उसके चेहरे पर, जैसे आज की धूर्त दुनिया से बिल्कुल अनभिज्ञ, उसकी कल्पना के विपरीत उसने उसकी बात का कोई प्रतिरोध नहीं किया था, वरना तो आजकल के लड़कों का तो जैसे स्वाभिमान ही चूर-चूर हो जाता और वे किसी भी तरह लड़ने पर उतारू हो जाते। उसके इस भोलेपन को महसूस कर दिव्या को मन ही मन पश्चाताप हो रहा था कि क्यों उसने नाहक ही उसको मजाकिया बना दिया और सबसे पीछे की पंक्ति में भेज दिया। वह उसको देखे जा रही थी और इस बात से बिल्कुल अनजान उदय पीछे की सीट पर जाकर अपनी पुस्तकों को व्यवस्थित कर अपना बैग जमा रहा था।

कई दिनों बाद स्कूल से आते समय दिव्या को पता लगा कि उदय उसी की गली में तीन मकान छोड़कर एक मकान में रहता था। अब कई बार विद्यालय आते- जाते बातें होने लगी थी। पता लगा कि वह और उसकी मम्मी हाल ही इस कॉलोनी में किराए पर मकान लेकर रहने लगे थे। उसकी मम्मी किसी सरकारी अस्पताल में नर्स थी और अभी सेवानिवृत्त हुई थी। पहले किसी सरकारी क्वार्टर में रहते थे।

उदय का विनम्र व्यवहार और चेहरे की मासूमियत शायद कक्षा के सभी विद्यार्थियों को प्रभावित करती थी, ऊपर से गेहुंआ रंग, अच्छी सी कद काठी, तनिक आयताकार सा चेहरा, चेहरे के निचले हिस्से में डिंपल वाली ठुड्ढी और ऊपरी हिस्से में चौड़े ललाट के नीचे दो बड़ी- बड़ी झील सी आंखें, जिनमें शातिरपन बिल्कुल न था, कई लड़कियों को आकर्षित करती थी। चेहरा जितना मासूम था, दिमाग उतना ही एकाग्र दिखता था। वह अक्सर फालतू गपशप का हिस्सा नहीं बनता था, ना कोई तेरी- मेरी करता था, बस अपना ध्यान ज्यादातर अध्ययन में ही केंद्रित रखता था। यूं तो बच्चों के साथ कोई भी खेल खेलता था, लेकिन उसकी खेलों में विशेष रूचि नहीं थी।

कुछ ही दिनों में गली के वासिंदे उसके परिवार से परिचित से हो गए थे । कई बार मोहल्ले की औरतें इस बारे में चर्चा करती थी कि "नर्स बहन जी" के शायद बुढ़ापे में संतान हुई है, जी हां, उदय की मम्मी को लोग उनके नाम से कम ही जानते थे, उन्हें "नर्स बहनजी" ही कहते थे। फिर औरतें कई तरह के कयास लगाती और कही अनकही कहानियां बनाती थी। दिव्या को उनकी चर्चाएं यदा-कदा कानों में पड़ जाती थी, जब उनके घर के छोटे से लान में पड़ोसी गुप्ता आंटी आकर बैठ जाती थी और मम्मी के साथ गपशप करती थी। फिर बगल वाली चौधरन आंटी भी उनको देखकर आ जाती थी। फिर जब उदय का जिक्र आता तो दिव्या भी कभी किसी बहाने से या कभी छुपकर उनकी बातें सुनने को, पता नहीं क्यों लालायित सी रहती थी। कोई अंदरूनी सी इच्छा जागृत होती थी।

उनके घर से विद्यालय की दूरी अधिक नहीं थी, इसलिए कभी-कभी पैदल ही विद्यालय जाते थे । ऐसे में यदा-कदा दिव्या के साथ जब कोई लड़की नहीं होती थी, तो उदय का साथ ले लेती थी और बातें हो जाया करती थी। ऐसे ही एक दिन उससे रहा नहीं गया और उदय से पूछ ही लिया,- " उदय जानते हो मोहल्ले वाले तुम्हारे और तुम्हारी मम्मी के बारे में कई सारी बेबुनियाद सी बातें करते हैं?"।

" जी............?"

" हां कहते हैं तुम्हारी मम्मी की उम्र बहुत ज्यादा है, तुम्हारी उम्र बहुत कम है, बुढ़ापे में जन्म दिया है क्या और तुम्हारी मम्मी कभी औरतों वाला श्रंगार भी नहीं करती है, ऐसे ही तुम्हारे पापा जी के बारे में भी अनर्गल बातें करते हैं। "

उदय चुप हो गया था कोई उदासी की गहरी सी छाया उसके चेहरे पर आक्रांत हो गई थी। कुछ गंभीर सा, निशब्द सा हो गया था।

"उदय सॉरी, तुम्हें बुरा लगा, लेकिन मेरी भावना तुम्हारा दिल दुखाने की नहीं थी, यूं ही लोग बकवास करते हैं तो जिज्ञासावश तुमसे कह दिया।"

" कोई बात नहीं, लोगों का क्या है? कुछ भी कहेंगे ही, मुझे आदत है ।"

"आदत क्यों बनाते हो, मुंह तोड़ कर जवाब देना सीखो।"

"क्या जवाब दूं ? मैं मेरी मम्मी के पेट से पैदा नहीं हुआ हूं । मम्मी जिस अस्पताल में काम करती थी, वही मुझ नवजात को कोई बेहया या पता नहीं विवश औरत, शौचालय के पास कपड़ों में लिपटा छोड़ गई थी, तो मेरी इस मम्मी ने ही मुझे नया जीवन दिया। इस तरह मेरी मम्मी ही मेरी जीवन दात्री और पाल- पोष कर बड़ा करने वाली है ।उन से अच्छी कोई मां नहीं हो सकती।" उदय ने बिल्कुल शांत स्वर में बिना हिचकिचाए जैसे दिल खोल कर रख दिया था।

" और तुम्हारी मम्मी का पति........?"

" पता नहीं, मम्मी ने शादी तो की थी, लेकिन मैंने उनको कभी नहीं देखा । जब से होश संभाला है, मम्मी को ऐसे ही देखा है , कई बार मम्मी से कुछ जानने की कोशिश की, तो एक दिन उन्होंने साफ शब्दों में दो टूक समझा दिया,- " देखो बेटा, इस बारे में दोबारा फिर कभी मुझसे कोई बात मत करना, मैं कभी उन पलों, उस शख्स को याद नहीं करना चाहती । ना ही यह तुम्हारी किसी आवश्यकता का विषय है, तुम मेरे बेटे हो और मैं तुम्हारी मां, इस जीवन के लिए हमें इतना काफी है।" और वह पन्ना मैंने हमेशा के लिए जीवन से हटा दिया। मेरे नाम के साथ रिकॉर्ड में 'कन्हैया' लिखा तो है, लेकिन वह कौन है ?कौन था ?कैसा था ? यह मुझे आज तक पता नहीं है, ना ही अब मुझे उसकी आवश्यकता है ।" उदय ने जैसे सारी कहानी से पर्दा उठा दिया।

उस दिन के बाद पता नहीं दिव्या को उदय और अधिक अच्छा लगने लगा था । उसकी साफगोई, बेबाकी, निष्कपट हृदय ने उसके अंतः दिल को छू लिया था । उसका साथ मन को खुशी के पल देता था । चूंकि कि पढ़ने में उदय बहुत होनहार था, तो उससे अध्ययन में भी मदद लेने लगी थी। मम्मी को घर पर उसके व्यवहार , निश्छलता और अध्ययन में श्रेष्ठता के बारे में बताया था , तो कई बार नोट्स देने में घर पर भी आ जाता था, तो उसकी मम्मी को ऐतराज नहीं होता था। वार्षिक परीक्षा परिणाम आया तो उदय ने विद्यार्थियों के साथ सारे शैक्षिक स्टाफ को भी चौंका दिया। 92% अंकों के साथ पूरे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। जिसका जिक्र दिव्या ने अपने घर में किया तो सभी ने जैसे बिना शब्द बोले भी निगाहों से उदय की तारीफ की।

उस दिन शाम को जब वह भगवान के प्रसाद की मिठाई लेकर आया था, तो सभी उसकी तारीफ कर रहे थे । दिव्या के पापा ने भी कहा,- " शाबाश बेटा, तुमने वाकई अपनी मम्मी का नाम रोशन किया है, आगे भी इसी तरह मेहनत करते रहना।" ‌

भैया ने भी तारीफ करते हुए पूछा,- " अब आगे क्या करने का इरादा है, कौन से विषय लोगे? विज्ञान......?"

"जी भैया, मुझे साहित्य बहुत अच्छा लगता है, मैं अंग्रेजी और हिंदी साहित्य के साथ एक विषय और कोई कला संकाय का लूंगा।"

"अच्छा भाई, जैसी तुम्हारी मर्जी, जो लो उस में रूचि होना बहुत जरूरी है, तभी श्रेष्ठता प्राप्त की जा सकती है।"

" जी।"

दिव्या ने भी कला संकाय ही चुना। इस तरह दोनों की कक्षा भी एक ही रही । अब उदय का दिव्या के घर अक्सर आना-जाना शुरू हो गया था। कई बार घंटे -दो घंटे साथ बैठकर भी पढ़ते थे, जिसका उसके घर वालों को कोई एतराज नहीं होता था। किशोर उम्र का भी अपना एक आकर्षण होता है । दिव्या कब दिल ही दिल में उसे चाहने लगी , पता ही नहीं चला। दोनों के हृदयों ने जैसे कोई अदृश्य सा रिश्ता कायम कर लिया था। एक- दूसरे का साथ अच्छा लगता था और वक्त बिताना भी । उदय का स्वभाव और उसका व्यवहार इतना विनम्र था कि दिव्या के सभी घरवालों को अच्छा लगता था । दोनों ने स्नातक परीक्षा की डिग्री के लिए शहर के बड़े कॉलेज "बाबू शोभाराम कॉलेज" में दाखिला ले लिया था।

वक्त का भी ना अपना ही अंदाज है। जब खुशनुमा होता है, तो अपनी गति बढ़ा लेता है, उसका पहिया तीव्रगामी बन जाता है और जब कठिन समय आता है तो उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती है , पहियाया आगे ही नहीं सरकता है। दिव्या और उदय की जिंदगी भी ऐसे ही गुलजार हो रही थी । हर मौसम जैसे उत्तरोत्तर सुहाना होता जाता था। हर तान में मधुर संगीत सुनाई देता था। टी.वी. पर फिल्में भी जैसे अचानक कुछ ज्यादा ही रंगीन रोमांचित करने वाली हो गई थी । कोई भी फिल्म देखते तो नायक - नायिका में स्वत्व को आरोपित करते हुए कहीं खो जाते थे , सपनों की दुनिया में । सपनों की भी ना अपनी ही दुनिया है, यहां जीने की बंदी से नहीं है, मर्यादाओं के बंधन नहीं है, उड़ान की सीमाएं नहीं है, जहां तक मन करे, उड़ जाओ, जब तक लौटने का मन ना हो, सैर करते रहो, वहीं खुले असीम आसमां में। इसलिए अक्सर इंसान यथार्थ के जीवन में जो कुछ नहीं कर पाता , जैसा जी नहीं पाता, वह सब कुछ ख्वाबों में जी ही लेता है और चाहे कुछ पल के लिए ही सही, आत्मा तृप्त महसूस करता है। अक्सर गरीब महलों में जी लेता है , वियोगी सुयोग में और हारा हुआ जीत में जी लेता है।

गत 5-7 वर्ष कितनी जल्दी गुजर गए, कितनी सारी सपनों की दुनिया जी ली, कितने सारे चित्र खींच लिए, दोनों एम. ए. अंग्रेजी साहित्य के अंतिम वर्ष में आ गए थे। दोनों की दोस्ती कॉलेज के सभी साथी जानते थे, किंतु घरवालों को इसकी कोई संदेहात्मक भनक नहीं थी क्योंकि कॉलेज के जीवन से उनके परिवार के किसी सदस्य का कोई संपर्क नहीं था, जबकि कॉलेज के विद्यार्थी इसे केवल दोस्ती नहीं समझते थे। दोनों जैसे एक- दूसरे के जीवन का अंतरंग हिस्सा बन गए थे । किशोरावस्था लगभग पार कर चुके थे और उस तरंगित अवस्था में भी उदय ने कभी कुत्सित चेष्टा नहीं की थी, कभी वासना को हावी नहीं होने दिया था। पता नहीं, वह अपने गुजरे हुए अतीत से डरता था, या वर्तमान का सामना करने से। उसका पारिवारिक स्तर दिव्या के पारिवारिक स्तर से कोई मेल नहीं रखता था। दिव्या के पिता सेठ माणकचंद अच्छे बड़े व्यापारी थे। कोई थोक का रंग- पेंट का पुश्तैनी काम था और एक बड़ा भाई सुदेश, उनके साथ काम संभालता था । दिव्या से बड़े दूसरे भाई सुकेश की व्यापार में रुचि न थी, तो वह पढ़ लिख कर कोई बैंक अधिकारी बन गया था। इसलिए दिल में लाख हसरतें होकर भी उसने जैसे- तैसे दबा रखा था । फिर उसके स्वभाव में स्वार्थपरता, संकीर्णता और लोलुपता नहीं थी। वह दिव्या से अपना आत्मिक संबंध मानता था और उसी में आनंदित होता था।

दिव्या भी उदय तहे दिल से चाहती थी। शायद उसने उदय के साथ कल्पना में अपनी दुनिया बसा ली थी, किंतु पारिवारिक संस्कारों को दिमाग पर लादे, नारी लज्जा को धारण किए उसने भी काम वासना को हावी नहीं होने दिया था । किंतु अब दोनों परिपक्व हो चले थे। दिव्या समझती थी कि अब उसके घर में उसके रिश्ते की चर्चा चलने लगी थी और अब कोई निर्णायक फैसला लेना ही पड़ेगा।

आज दिव्या का जन्मदिन था। दोनों ही सुबह समय से पहले कॉलेज के लान में पहुंच गए थे। उदय ने अपने बैग में से एक छोटा सा उपहार का डिब्बा और गुलदस्ता देखकर दिव्या को जन्मदिन की शुभकामनाएं दी। आखिर उस दिन दिव्या ने हीं साहस जुटाकर लान में पेड़ के नीचे बैठे हुए बात की शुरुआत की,- " उदय तुम जानते हो मेरी शादी को लेकर घर में चर्चा शुरू हो चुकी है?"

उदय उदास सा हुए चुप बना रहा, कुछ कहना चाह कर भी शायद कुछ कह नहीं पा रहा था । आखिर दिव्या ने ही कहना जारी रखा,- " उदय तुम जानते हो मैं तुम्हें बहुत चाहती हूं , तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना करना ही दुस्वप्न जैसा लगता है, शायद इसी को प्यार कहते हैं।"

" तेरे बिना मैं भी कहां जी पाऊंगा दिव्या, पर कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई।" उदय ने चुप्पी तोड़ी।

"तू ना सच में भोलू है ऐसा ही सीधा भोलू बना रहेगा तो दुनिया नहीं जीने देगी।"

" क्या करूं , भगवान ने ऐसा ही बनाया है, तभी तो जन्म से ही मेरी तकदीर कुछ ऐसी ही लिखी होगी। पैदाईशी लावारिस बना दिया था , लेकिन तेरा साथ मिले तो मुझे जिंदगी भर भोलू बनने से कोई शिकायत नहीं है दिव्या, तेरे बिना जिंदगी जी भी पाऊंगा या.............!"

उसके मुंह पर अपना हाथ रखते हुए दिव्या बोली,- " चुप , ऐसी अशुभ बातें ना निकालो और तकदीर को कोसना बंद करो, तकदीर अच्छी है तभी तो भगवान ने एक अच्छी मां भी दी है तुम्हें।"

" हां ।"

"उदय मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं ।" दिव्या ही आगे बढ़ी।

"दिव्या, मैं तो कब से तैयार हूं , मेरी मां के लिए मेरी इच्छा ही सर्वोपरि है, और तुम्हारे जैसी बहू पाकर तो वह धन्य ही हो जाएगी, लेकिन तुम्हारे पापा- भैया से डर लगता है, क्या वे स्वीकार कर पाएंगे?"

" इतनी सहजता से तो नहीं लेकिन मैं मम्मी को मनाकर कोशिश करती हूं ।"

"देखो दिव्या, समझदारी से ना, कहीं बात बिगड़ नहीं जाए।"

और इस तरह दोनों ने एक- दूसरे को पति- पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया और मौका देखकर दिव्या ने पहले मम्मी से बात करने का निर्णय लिया। दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि फाइनल परीक्षा होने वाली है और उसके बाद ही बात का जिक्र घर में करेंगे। दोनों ने अभी पिछले हफ्ते ही जे.आर. एफ. ( रिसर्च फैलोशिप) की परीक्षा भी दी थी।

उस दिन दिव्या थोड़ा गम, लेकिन खुशी ज्यादा हो रही थी जब एम. ए. की अंतिम परीक्षा के बाद जे.आर.एफ. का परिणाम घोषित हुआ था । दिव्या का तो नहीं किंतु उदय का रिसर्च फैलोशिप हेतु चयन हो गया था ।अच्छी खासी छात्रवृत्ति मिलनी थी । उसने पीएचडी हेतु रजिस्ट्रेशन का मन पहले ही बना लिया था । दिव्या को अपना चयन नहीं होने के दुख से ज्यादा, इस बात की खुशी थी कि उदय का अच्छा सा कैरियर बनने जा रहा था और यह बात उनकी शादी के निर्णय में बहुत मददगार होगी। लेकिन हमारा आकलन हमेशा सही कहां होता है?

उस दिन मिठाई का डिब्बा लिए शाम ढले जब उदय घर आया तो बाजार की छुट्टी का दिन था। शायद महीने का आखिरी दिन था। दिव्या के पापा बैठक कक्ष में बैठे थे और बड़े भैया अपने शयनकक्ष में पलंग पर लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे । छोटे भैया- भाभी तो बैंक की नौकरी में दूसरे शहर में थे। उदय ने आते ही उसके पापा के पैर छुए और बोला,- " अंकल जी मेरा जे.आर. एफ. में चयन हो गया है, लो प्रसाद लो।" कहते हुए एक मोतीचूर का लड्डू निकालकर उनके हाथ पर रखा। साथ ही बोला,- " दिव्या का भी चयन हो जाता तो बहुत अच्छा होता।"

"कोई बात नहीं बेटा, फिर परीक्षा दे लेगी। तुम सचमुच बहुत होनहार हो, तुम्हारा होना जरूरी था ।"

उदय अंदर घुस आया और उसको देखकर रसोई में भाभी के साथ काम कर रही मां बाहर निकल आ गई। उनके पैर छूते हुए बोला,- " आंटी आप सभी मुंह मीठा करो मेरा चयन आप सभी बड़ों का आशीर्वाद है।"

‌ घर में दिव्या कई बार इस परीक्षा का जिक्र कर चुकी थी, तो सभी जे.आर.एफ. के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानते थे। उसकी मम्मी बोली,- " बेटा तुम बहुत मेहनती हो, अच्छे हो, इसलिए किशन भगवान भी तुम्हारा पूरा ध्यान रखते हैं। ऐसे ही फलो- फूलो, तरक्की करते रहो।"

दिव्या जो आवाज सुनकर पहले ही आंगन में आ गई थी। खुश लग रही थी। उसे लगा कि सभी उदय की तारीफ कर रहे हैं । मौके पर हल्का सा मां से जिक्र करें, उतावलापन संभाल नहीं पाई,- "मम्मी, अब उदय की कॉलेज प्रोफेसर के रूप में नौकरी तय मानो।"

"अच्छा है ना , जीवन संवर जाएगा।"

" मम्मी, आपको उदय कैसा लगता है?" धीरे से कान में फुसफुसाते हुए पूछा ।

"अच्छा लड़का है, होनहार है।" कुछ रहस्यमयी निगाहों से दिव्या की ओर देखते हुए कहा ।

"मम्मी एक बात कहूं ?"

"हूं ....?"

"मैं उदय को पसंद करती हूं और वह भी।" भावुक होते हुए दिव्या के मुंह से निकल गया। शायद वह यह मान बैठी थी कि मम्मी अधिक नाराज नहीं होगी, फिर धीरे-धीरे उसको मना लेगी, लेकिन यथार्थ कुछ अलग था।

मम्मी का लहजा एकदम बदल सा गया ,- 'क्या मतलब.......?"

" मम्मी हम जीवन साथी बनना चाहते हैं ..!"

"क्या पागल हो गई हो ?" तेवर बिल्कुल बदल गए थे ,आवाज तल्ख हो गई थी,- " कब से चल रहा है यह सब?" फिर उदय की ओर मुखातिब होते हुए अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाई और चीखती हुई सी बोली,- " अरे छोरे तुझे तो मैं बहुत भोला समझती थी, क्या गुल खिला रहा है तू ? शर्म बची है कि नहीं थोड़ी बहुत आंखों में ?"

उदय किंकर्तव्यमूढ सा होकर नीचे नजरें किये मूर्ति वत हो गया था । मम्मी की तेज आवाज में बातें सुनकर पापा, भैया, भाभी सभी आंगन में आ गए थे। पापा जी तो उबल ही पड़े थे,- " बदतमीज, बेहयाई की भी हद होती है? हम तुझे अच्छा लड़का समझते थे, दूसरे की घर- इज्जत का भी थोड़ा बहुत ख्याल है कि नहीं तुझे ? होगा भी कहां से ? तेरे तो खून में ही खोट है। नाजायज औलाद किसी की इज्जत- आबरू क्या जाने ?"

उदय थर-थर कांपने लगा था, आंखें छलक उठी थी, बोला ही नहीं गया। बस हकलाते हुए फफक पड़ा, - " नहीं ........आंटी........ नहीं...... अंकल ..........!"

बड़े भैया ने तो और भी सीमाएं तोड़ दी थी, - " नालायक , नीच, दुबारा इस घर में कदम रखा और दिव्या की तरफ आंख उठाकर भी देखा तो तेरी टांगे तोड़ दूंगा , भाग जा यहां से , वरना मैं अपना आपा खो दूंगा।' और उसका मिठाई का डिब्बा आंगन में फेंक दिया। मोतीचूर के लड्डू चूर- चूर होकर बिखर गए।

" पापा उदय का कोई दोष नहीं है।" रोते हुए दिव्या उस समय इतना ही बोल पाई थी और उदय सुबकते हुए, आंसू पहुंचते हुए, चुपचाप गर्दन नीचे किए निकल गया था।

थोड़ी देर तक सभी दिव्या को घूरते रहे और दिव्या निशब्द सी हुई वहीं दीवार से पीठ लगाकर ढ़ेर सी हो गई थी । उसकी फटी सी आंखें मानो आंगन में बिखरे हुए मोतीचूर के लड्डुओ को घूर रही थी, जैसे उन लड्डूओं की तरह उसकी आंखों के सपने भी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गए थे। बदहवास सी, सूनी सी आंखें सिर्फ उनको ताके जा रही थी। फिर मम्मी उसको उठाकर भाभी के साथ संभालते हुए उसके कमरे में ले गई और बहुत कुछ उसको समझाते हुए बोला। जिसमें से एक भी शब्द शायद दिव्या के कानों में नहीं घुसा, दिमाग सुन्न सा हो गया था।

और तब से बिस्तर पर पड़ी यूं ही पड़ी हुई थी। कई बार मां आई, भाभी भी, खाना लेकर, मां ने एक- दो निवाले खिलाने की कोशिश भी की, किंतु दिव्या जैसे सब कुछ भूल गई थी। अंत में मां को कह दिया था,- " खाना टेबल पर रख दो, इच्छा होगी तब खा लूंगी, फिलहाल मेरा मन नहीं है, और चिंता मत करो, मैं ऐसा- वैसा कुछ करके तुम्हारे परिवार की इज्जत- आबरू को खराब नहीं होने दूंगी, अभी आप जाओ यहां से, मुझे कुछ देर अकेला छोड़ दो।"

ऐसी ही खुली आंखों से सारी रात को पी गई। वह पी जाना चाहती थी खुले आसमान को, चमकते चांद को, टिमटिमाते तारों को, सारे रिश्तो को, सारी दुनिया को, सब कुछ खत्म कर देना चाहती थी। लेकिन सब कुछ हमारे वश में कहां होता है। मां-बाप ,परिवार की चिंता से मुक्त नहीं हो पा रही थी । सूरज की पहली रक्तिम किरण खिड़की से जब उसके चेहरे पर पड़ी तो मानो उसके नैनों की नमी को सुखा गई । दिमाग दस्तक देने लगा था। सोचने लगी कि " मेरे जीवन पर मेरा हक है, किंतु अन्य अपनों के जीवन को मेरी वजह से क्लेश पहुंचे यह मेरा अधिकार नहीं, आज 22 वर्ष की उम्र तक मुझ इकलौती बेटी को जीस मां- बाप ने पाल- पोष कर लाड़-चाव से बड़ा किया है, उनको जीवन भर का दुख देने का बोझ लेकर क्या मैं जी पाऊंगी और क्या मर कर भी आत्मा को चैन मिल पाएगा? वह जैसे जिए, मैं उनके जीने का तरीका, उनकी मान्यताओं, उनके रिवाजों को अब बुढ़ापे में कैसे बदलू? कैसे बदलू दुनिया की सोच को ?" और फिर आगे का सफर भगवान भरोसे भाग्य के सहारे छोड़ दिया।

दूसरे दिन से उदय और उसकी मम्मी फिर उस गली में कभी दिखाई नहीं दिए । उसमें शायद शर्मिंदगी को पचाने की क्षमता ही कहां थी ? ऐसा अपराध बोध कराया था उसको, मानो उसने दुनिया का सबसे जघन्य गुनाह किया था । लोग कहते थे दूसरे दिन प्रातः ही कोई ट्रक आया था, जिसमें सामान लादकर अपनी मां को लेकर कहीं दूर बहुत दूर चला गया था।

आज सही 7 वर्ष बीत चुके थे इस घटना को। दिव्या को एक-एक तारीख अच्छी तरह याद थी । व्हील चेयर पर बैठी दिव्या को मम्मी आज शहर के जाने पहचाने सार्वजनिक " नेहरू उद्यान " लेकर आई थी। कई दिनों से मां से आग्रह कर रही थी, खुद की असमर्थता के कारण अब उसने जिद करना छोड़ दिया था। मम्मी का सहारा लेकर उसी पुराने बरगद के पेड़ के नीचे बनी पत्थर की बेंच पर बैठ गई, जहां कभी उदय के साथ गुजरे हुए कल में घंटों बैठी थी। पेड़ बहुत पुराना था, और लोगों की श्रद्धा का प्रतीक था । ऐसा विश्वास था कि उसकी मन से पूजा करके जो कोई उसके कलाया डोरा या कच्चे सूत का धागा लपेटता था , उसकी मन्नत अवश्य पूरी होती थी । उदय और उसने भी तो कितनी ही बार उसके धागा लपेटा था, लेकिन श्रद्धा ही तो थी मनोकामना हमेशा कहां पूरी होती हैं ? इस उद्यान के पेड़- पौधों , उसके वासिंदे पक्षियों, उनकी चहचाहट को कितने आनंद से देखा, सुना करती थी । उसको रसानुभूति से जिया था उदय के साथ, उसे पल- पल याद आ रहा था, याद क्या, वह बीते 7 सालों में एक पल के लिए भी भूल ही कहां थी उदय को। वह तो जब तुरंत भैया ने उसका रिश्ता तय कर दिया था तो, अपने आप को मार कर, परिवार की इज्जत के लिए , अपने माता-पिता के सम्मान के खातिर, उस दिन उसके पिताजी ने भी कैसे उसके आगे हाथ जोड़कर विनती की थी , कितनी बेवश सी हो गई थी वह , अपने ही संस्कारों में उलझी हुई, मर्यादाओं की रस्सियों में जकड़ी हुई, जिंदा लाश बनकर सात फेरों के लिए 'हां' कह दी थी।

विधाता का करिश्मा था या उसकी श्रद्धा की ताकत उदय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर बन गया था और आज इसी पुराने शहर में जहां की गलियों में उसने अपना बचपन गुजारा था, कोई सेमिनार थी, मां की भी पुराने शहर , अपने मूल स्थान को देखने की बहुत इच्छा थी, इसलिए साथ ले आया था, दोनों उदय और उसकी मम्मी धीरे-धीरे बढे आ रहे थे , उसी बरगद के पेड़ के नीचे, दिल को बहुत ही स्पर्श करने वाला स्थान था वह उदय के लिए।

जैसे ही दिव्या और उसकी मम्मी ने उनको देखा, आंखें मिली तो झुकती ही चली गई थी। शायद उनसे नजरें मिलाने की हिम्मत ना थी, ना दिव्या में, ना उसकी मम्मी में, लेकिन जैसे ही उदय ने पास खड़ी व्हीलचेयर को देखा और देखा कि दिव्या की मम्मी उनको देखकर खड़ी हो गई , लेकिन दिव्या नहीं, लाचारी से शरीर तो तिलमिलाया, लेकिन नजरें जमीन में घुस गई, तो उदय कुछ भांप गया था। भावविह्वल होकर बोला,- " आंटी नमस्ते! कैसे हो?"

" ठीक है बेटा....!"

" यह व्हीलचेयर का क्या मामला है?.... ‌ क्या बात हो गई......?"

" सब हमारे को कर्मों का फल है और बदनसीबी का लेख है और कुछ नहीं।"

" क्या हुआ दिव्या.... .? तुम कैसी हो.. ‌‌.....? क्या हुआ ......?" उदय बेचैन हो रहा था।

दिव्या के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। आखिर उसकी मम्मी ही बोली,- " क्या बताएं बेटा विधाता का लेख कौन जानता है। उस दिन के बाद घर में बहुत क्लेश हुआ और आनन-फानन में दिव्या का रिश्ता तय कर दिया। किसी तरह जबरदस्ती इसको तैयार किया। अपनी इज्जत के लिए हर आदमी करता है । खूब धूमधाम से शादी की । अच्छी तरह से दिव्या को विदा किया। फिर पता नहीं भाग्य में क्या लिखा था, ससुराल की पहली रात को ही कोई ब्रेन अटैक , क्या कहते हैं लकवा का अटैक जैसा कुछ हुआ और दिव्या के शरीर ने हरकत करना ही बंद कर दिया। समाचार मिलते ही दौड़ -भाग करके दिल्ली के बड़े अस्पताल लेकर भी गए , लेकिन पूरी तरह से सही नहीं हो सकी , एक पैर और एक हाथ अभी भी काम नहीं करते हैं, बच गई सो भगवान की गनीमत है ।"

"हे भगवान.....! यह तूने क्या कर दिया ...? बरवश उदय के मुंह से निकल गया ।

उदय की मम्मी बोली,- " बहन जी बहुत बुरा हुआ..! लेकिन विधाता से कौन लड़ सकता है , बड़ी मुश्किल हो गई होगी बिटिया को, ससुराल में कैसे देखती होगी?"

"काहे का ससुराल ..! बिगड़ी का कौन साथी है इस दुनिया में? ससुराल वालों ने तभी विवाह- विच्छेद कर लिया। यह कहकर कि 'तुम्हारी लड़की के साथ हम अपने लड़के की जिंदगी खराब नहीं कर सकते।'"

उदय की आंखें नम हो गई अपने आपको कोस रहा था कि इन बीते 7 सालों में क्यों उसने दिव्या के बारे में जानना नहीं चाहा? जबकि एक पल के लिए भी वह उसको भूला नहीं था , तभी तो सैकड़ों बार मम्मी के पीछे पड़ने पर भी शादी के लिए' हां' नहीं कह पाया था। ऐसी भी क्या प्रतिज्ञा ले ली थी उसने कि वह कभी अब दिव्या से बात नहीं करेगा, मोबाइल नंबर तक बदल लिया था, दिव्या का क्या कसूर था ? उसके घर वालों ने ही तो उसको भला- बुरा कहा था, लेकिन उसने तो यह प्रण कर लिया था कि वह दिव्या के जीवन में कोई बाधा नहीं बनेगा, उसे क्या पता था कि ऐसा कुछ हो जाएगा। दिव्या से मुखातिब होकर बोला,- " दिव्या! हिम्मत मत हारना , विधाता की मर्जी के आगे किसकी चलती है, अपना ख्याल रखना, मेरी 3 दिन सेमिनार है , जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर का पद मिल गया है, अवसर निकालकर मम्मी के साथ घर आऊंगा।"

दिव्या सिर्फ "हूं....." कह कर रह गई । उस दिन भीगी आंखों से सब ने अलविदा कहा।

दूसरे दिन दिव्या के नाम से कोरियर से एक पार्सल आया। छोटा सा पैकेट था। भेजने वाले का नाम 'उदय' लिखा था। पैकेट खोलकर देखा तो उसमें कागज का एक पुर्जा और एक छोटी सी डिब्बी थी । दिव्या ने कागज का पुर्जा खोलकर देखा तो उसमें लिखा था-----------

"प्रिय दिव्या,

मुझे नहीं पता, मैं यह दुस्साहस कर रहा हूं या अपने हृदय की भावनाओं को रोक नहीं पा रहा हूं। जिस दिन से तुम्हारा साथ छोड़ा है, एक पल भी भुला नहीं पाया हूं तुम्हें , मम्मी रोज विवाह के लिए दबाव डालती थी, कैसे कहता मैंने तो तेरे बिना जिंदगी का सपनों में भी चित्र बनाकर नहीं देखा था। अब तो उन्होंने भी थक- हारकर कहना बंद कर दिया है। शादी की नींव ही अगर समझौते पर रखी हो तो फिर ग्रहस्थ जिंदगी में स्वाभाविक प्रेम कहां शेष रह जाता है? क्या करूं ? दिल से तुम्हें आज तक बाहर ही नहीं निकाल पाया हूं और किसी को अंदर कैसे घुसाऊं ? रिक्त स्थान ही नहीं है। मेरा हाथ थाम कर मुझे अधूरे को पूरा कर दो दिव्या , शायद मेरी जिंदगी फिर से संवर जाए, वरना पता नहीं कितना बीहड़ -उजाड़ बनकर बर्बाद होगी। इसे आबाद कर दो। तुम्हारा दिल कभी नहीं दुख आऊंगा।

यदि तुम सहमत हो तो आंटी- अंकल से मेरी तरफ से कहना कि चाहे मैं उनकी बेटी को बहुत बड़े रईस खानदानों का रुतबा नहीं दे पाऊंगा, लेकिन दिल की रानी बनाकर रखूंगा । उनकी इज्जत चाहे मैं बड़ी ना कर पाऊं, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं करूंगा कि जिससे मुझको या मेरी वजह से उनको शर्मसार होना पड़े। अंकल- आंटी में तो शायद भगवान नहीं अनाथ बनाया था, लेकिन मुझे सौभाग्य से एक अच्छी मां मिल गई । ऐसे ही इस अनाथ को आप भी आशीर्वाद देकर सनाथ बना दो ।

दिव्या शायद सामने आकर मैं इतना कह नहीं पाता, इसलिए तुम्हें यह भेज रहा हूं। यदि तुम्हें यह स्वीकार हो तो मेरी तरफ से इस छोटी सी डिब्बी में शगुन की अंगूठी है। मुझे इन नंबर 9999999999 पर संदेश भेज देना । अन्यथा अंगूठी को नाली में डाल देना । आजीवन तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा , जमीन पर नहीं मिली तो आसमान में तुम्हारा इंतजार करूंगा। वैसे भी यह जीवन पूर्ण कहां है तेरे बिना.......? तेरे बिना जिंदगी कहां है दिव्या....?

तुम्हारा

उदय। "

दिव्या के खत पढ़ते हुए, अनायास ही आंखों से कोई जलधारा सी निकल पड़ी थी। पढ़कर मम्मी की ओर बढ़ा दिया। जिसको पढ़ते हुए आज उनकी आंखें भी छलक पड़ी थी, किंतु इन आंसुओं की बूंदों में मोतियों जैसी चमक थी । भावुक होकर को दिव्या के गले से लिपट गई। सायं को सेठ जी आए तो उनके हाथ में कागज थमाते हुए बोली,- " आज उदय मिला था, जेएनयू दिल्ली में प्रोफेसर बन गया है, उसने हम सबको संदेशा भिजवाया है।"

सेठ जी ने खत पढ़ा तो जैसे महसूस किया कि उसने एक अच्छे इंसान को पहचानने में बड़ी चूक की और रूंधे गले से दिव्या से बोले, - " बेटी मैं संकीर्ण विचारों में सिमटा, कभी दिल की बातों को समझ ही नहीं पाया, बहुत बड़ी भूल हो गई हमसे, दिव्या ! मेरी बेटी ! मुझे अपनी भूल को थोड़ा सा सुधारने का मौका दे दो...! हां ' कह दो बेटी, वरना मर कर भी आत्मा को शांति नसीब नहीं होगी।"

आज सेठ जी का मकान रंग- बिरंगी रोशनियों से जगमग हो रहा था । दुल्हन की पोशाक में दिव्या प्रफुल्लित होकर कितनी सुंदर लग रही थी , जैसे अचानक जीने की उमंग लौट आई थी । अबे इसे ईश्वर का चमत्कार कहेंगे या कुछ और , कि उसका वह हाथ और पैर जो अब तक सुन्न से थे, उनकी नसें फड़कने लगी थी, जैसे कोई हरकत करने को आतुर थे । ढोल- नगाड़ों की उमंग भरी आवाज आ रही थी और शहनाई की मधुर तान गूंज रही थी, जो वातावरण में दूर तक रस घोल रही थी।