Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 73 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 73

जीवन सूत्र 93,94,95:भाग 72


जीवन सूत्र 93:अपनी प्रकृति को सकारात्मक मोड़ दें

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -


सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।3/33।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3/34।।

इसका अर्थ है: -

भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन!सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?

प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति मनुष्य के मन में रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे आत्म कल्याण के मार्ग में मनुष्य के शत्रु हैं।


भगवान कृष्ण की इस वाणी से हम कर्मों को स्वाभाविक रूप से करने की प्रवृत्ति को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं। इस प्रकृति में उसका प्रारब्ध रहता है जो पूर्व जन्मों के संचित संस्कार,उसके कर्म फलों के रूप में इस जन्म में उपस्थित होता है। इसके अलावा अपनी बुद्धि और मन के अनुरूप स्वयं उसका स्वभाव अनेक चीजों के प्रति उसकी रुचि को दर्शाता है। यह एकदम स्वभाविक प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी को लाल रंग पसंद है,किसी को हरा रंग और किसी को नीला। किसी के स्वभाव में सरलता और शांत चित्त रहना है तो किसी के स्वभाव में आक्रामकता होती है। कोई चिंतनशील प्रकृति का होता है तो कोई विनोदपूर्ण।हम इस स्वाभाविक रुचि प्रवृति को एकाएक बदल नहीं सकते हैं। इसे बदला जाना आवश्यक भी नहीं है।अगर यह हमारे कार्य में बाधक बने,तो इसे धीरे-धीरे अभ्यास से उचित दिशा की ओर मोड़ा जा सकता है।

इस बात को पहले स्वीकार करने की आवश्यकता होती है कि हमारा स्वाभाविक गुण धर्म क्या है?


जीवन सूत्र 94:वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद करें प्रवृत्तियों में परिष्कार


भगवान कृष्ण का संकेत है कि इस वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद ही अपनी प्रवृत्तियों में परिष्कार की ओर बढ़ा जा सकता है। इंद्रियों और विषयों के संयोग भी मनुष्य को विचलित करते हैं। जो विषय मनुष्य को अपने अनुकूल लगते हैं,मनुष्य की उन विषयों के प्रति मोह और आसक्ति होती है। जो विषय मनुष्य को अनुकूल नहीं लगते, उनके प्रति द्वेष या विरक्ति होती है।कठिन होने पर भी मनुष्य को इस राग और द्वेष दोनों की भावना से आसक्ति न रखते हुए प्रभु का स्मरण करते हुए विवेकपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए।


जीवन सूत्र :95 अपना निर्धारित प्रकृति धर्म न भूलें


सभी लोग अपने गुण और स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं।मनुष्य के वर्तमान कर्मों पर उसके स्वभाव की छाप होती है।वास्तव में मनुष्य के कर्मों पर कई कारकों का प्रभाव होता है। पूर्व जन्म के कर्म के फल जो प्रारब्ध के रूप में उसे इस जन्म में भोगने होते हैं।इस जन्म के कार्य संचित कर्म के रूप में उसके आगामी जन्मों के लिए जमा हो जाते हैं।क्रियमाण कर्म अर्थात वर्तमान जन्म में किए जाने वाले कार्यों का प्रतिफल।

इस जन्म में भी मनुष्य जो कार्य करता है उस पर प्रकृति के तीन गुणों का प्रभाव होता है।सत्व,रजस और तमस; ये तीन गुण मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं।वहीं मनुष्य अपने परिश्रम और अपने संकल्प से तामसिक के बदले सात्विक गुणों की ओर जा सकता है।केवल वर्तमान कार्य और उसके फलों पर ही नहीं बल्कि मनुष्य के मूल स्वभाव और गुणधर्म पर भी उसके पूर्व संचित कर्मों का गहरा प्रभाव पड़ता है।यही कारण है कि एक परिवार में जन्म लेने वाले सहोदर भाई बहन भी एक जैसे गुण व स्वभाव वाले नहीं होते हैं।

भगवान कृष्ण मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करने को कहते हैं।अगर हमने अपनी प्रकृति का परिष्कार कर लिया है और हम ईश्वर की अभिमुख होकर सात्विक कर्मों को करने लगे हैं तो फिर हमें इस प्रकृति से बार-बार विचलित होने की आवश्यकता नहीं है,चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों न हो जाए। कुरुक्षेत्र के मैदान में आसन्न युद्ध से पूर्व अर्जुन अपना शौर्य धर्म विस्मृत कर रहे थे, जिसके लिए भगवान ने उन्हें अपनी प्रकृति के अनुरूप आचरण करने और कर्तव्य निभाने का निर्देश दिया।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय