Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 74 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 74

जीवन सूत्र 96, 97,98 भाग 73


जीवन सूत्र 96 अपने कार्य को विशिष्ट समझें


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3/35।।

इसका अर्थ है - अच्छी तरह आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है।अपने धर्म में तो मरना भी श्रेयस्कर है और दूसरे का धर्म भयानक परिणाम को देने वाला है।

अनेक बार हमें अपना दायित्व दूसरे की तुलना में अरुचिकर लगने लगता है। हम स्वयं के कार्य को कमतर आंकते हैं और दूसरे के कार्य को अपनाने की चेष्टा करते हैं।अर्जुन एक योद्धा थे और उन्हें अपना क्षात्र धर्म विस्मरण हो रहा था।अर्जुन अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर युद्ध क्षेत्र से हटने और किसी भी तरह जीविकोपार्जन के लिए तैयार थे।गीता के दूसरे अध्याय के अनुसार उन्हें यहां तक कि भिक्षा मांगकर जीवन व्यतीत करने से भी परहेज नहीं था। भगवान श्रीकृष्ण उन्हें युद्ध क्षेत्र में पलायन करने से रोकते हैं और तरह-तरह के तर्क देकर उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं। यहां पर स्वधर्म का प्रश्न उपस्थित हुआ है।

आधुनिक लोकतांत्रिक युग में जब वर्ण व्यवस्था शिथिल हो गई है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार जीविकोपार्जन के लिए कोई भी कार्य करने को स्वतंत्र है,श्री कृष्ण की कही स्वधर्म पालन की बात कुछ लोगों को असंगत सी प्रतीत हो सकती है।इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने आजीविका वाले कार्यों की चर्चा नहीं की है।वह तो आसानी से बदली जा सकती है लेकिन यहां भगवान का तात्पर्य कर्तव्यों से है।आसन्न युद्ध में जिस तरह अर्जुन का दायित्व युद्ध लड़ना और उसमें वीरता का प्रदर्शन था; उसी तरह हमारे जीवन में भी अनेक बार हमारे लिए निर्धारित दायित्व एवं स्वयं द्वारा तय किए गए कार्य को करने के समय धर्मसंकट,भ्रम और अनिर्णय की स्थिति का सामना करना होता है।

ऐसी स्थिति में हम पाला बदलकर स्वयं के लिए अधिक सुविधाजनक कार्य को करने के संबंध में गंभीरतापूर्वक सोचने लगते हैं।यह तो अपने दायित्व से पलायन हुआ।कई बार इसके पीछे यह सोच कार्य करती है कि हमारा वर्तमान कार्य जटिल,कठिन एवं हमारे स्तर का नहीं है।

यह सच है कि कोई दूसरा दायित्व हमें अधिक आकर्षित करे और हम उसे अच्छी तरह कर भी लें।यह भी संभव है कि अपने धर्म या अपने दायित्व के पालन में हम असफल हो जाएं।ऐसी स्थिति में भी धैर्य के साथ पुनः प्रयास करते हुए स्वधर्म का पालन श्रेष्ठ है।दूसरे के धर्म का पालन करना या दूसरे की नकल करने की कोशिश करने का परिणाम खतरनाक होता है।इसका कारण यह है कि हमने किसी आसक्ति या लोभ के कारण ही स्वधर्म छोड़ा है।आगे चलकर इस अस्वाभाविक कार्य चयन का परिणाम असुविधाजनक ही होगा।अतः आपातकालीन परिस्थितियों को छोड़कर स्वधर्म में दृढ़ रहना ही उचित है।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम 'अपने धर्म के लिए मरना भी कल्याणकारक' इन शब्दों को सूत्र के रूप में लेते हैं ।


जीवन सूत्र 97: दूसरों की वस्तु या उपलब्धि को स्वयं से श्रेष्ठ है न मानें


वास्तव में हम स्वयं के पास जो है, उसे छोड़कर और उसका सही तरह से आकलन न कर दूसरे लोगों के पास उपलब्ध चीजों को श्रेष्ठ मानने लगते हैं। अगर संस्थागत धर्म से शुरुआत करें तो जिन आस्थाओं,मान्यताओं,रीति-रिवाजों और परंपराओं का हम पालन करते हैं, उसके बारे में अध्ययन कर उसकी बातों का अनुपालन करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि स्वधर्म में ऐसी बातें अवश्य होती हैं, जो व्यक्ति की आत्म-उन्नति में सहायक होती हैं, इतना ही नहीं वह अंततः जनसेवा के मार्ग में हमें प्रवृत्त करती हैं।

जीवन सूत्र 98 अंधानुकरण से बचें


अगर धर्म के अर्थ को और विस्तार देते हुए हम 'धारयते इति धर्मः' अर्थात जो धारण करने योग्य है वह धर्म है,इस अर्थ को ग्रहण करें तो यह बात माननी होगी कि जिन उच्च आदर्शों, जीवन मूल्यों और सिद्धांतों पर हम चल रहे हैं, उन पर कई तरह की विपरीत परिस्थितियों और परेशानियों के बाद भी हमें दृढ़ रहना है और आगे बढ़ते रहना है। प्रायः लोक व्यवहार में हम स्वयं के पास उपलब्ध संसाधनों पर विश्वास नहीं रखते और यह मानकर मनोबल ऊंचा नहीं रख पाते कि अन्य लोगों के पास हमसे अधिक संसाधन हैं।हम से अधिक सुविधाएं हैं और हम हार मानने लगते हैं ।हमें पहले स्वयं में विश्वास जगाना होगा और अन्य लोगों का अंधानुकरण करने से अच्छा है हम पहले स्वयं को जानें।अपने पास उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करें और फिर दूसरों के अनुकरण के बारे में सोचें।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय