Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 156 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 156

जीवन सूत्र 466 ईश्वर कृपा हेतु आवश्यक है उदार दृष्टि


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।(6/30)।

इसका अर्थ है:- हे अर्जुन,जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।


सब जगह अपने स्वरूपको देखने वाला योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यान योगसे युक्त अन्तःकरण वाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है।साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है।

एक उदारवादी पांडव राजकुमार होने के बाद भी अर्जुन के मन में हमेशा यह बात रहती थी कि संसार के प्रत्येक प्राणी से एक समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। दुर्योधन के नेतृत्व में कौरव पक्ष से मिले गहरे घावों के कारण अर्जुन की यह मान्यता दृढ़ होती जाती थी। वही जब भगवान श्री कृष्ण ने परमात्मा तत्व की सर्वव्यापकता बताते हुए सभी प्राणियों में स्वयं को देखने और स्वयं में सभी प्राणियों को अनुभूत करने का उपदेश दिया तो अर्जुन विचार मग्न हो गए।


जीवन सूत्र 467 एक व्यक्ति का अच्छा दृष्टिकोण भी है समष्टि के लिए महत्वपूर्ण


उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से जिज्ञासा प्रकट की।

अर्जुन: अब सारे संसार में केवल मेरे या कुछ व्यक्तियों के ऐसा उदार दृष्टिकोण रखने से ही क्या होगा केशव? जब अधिकतर लोग या सभी लोग ऐसा दृष्टिकोण रखेंगे, तब ही आपके इस लोक कल्याण का उद्देश्य पूरा हो पाएगा।

श्री कृष्ण मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा।

श्री कृष्ण: अर्जुन सभी प्राणियों में उस व्यक्ति के बाह्य आकार - प्रकार, आचरण आदि के यथार्थ और दूसरे की मनोवृत्ति को प्रभावित करने वाला होने के बाद भी तुम्हें उस व्यक्ति के भीतर परमात्मा तत्व को देखना है। ठीक उसी तरह सभी प्राणियों को मुझ परमात्मा तत्व के भीतर भी देखना है।


जीवन सूत्र 468 सब में ईश्वर को देखने से समाप्त होती है कलुषता

सभी व्यक्ति की आत्मा में ईश्वर हैं। मैंने पहले भी कहा है कि ऐसा दृष्टिकोण रखने पर तुम्हारे मन की कलुषता समाप्त हो जाएगी। दुष्ट व्यक्ति में दुष्टता तो दिखाई देगी लेकिन उसके भीतर बैठे हुई उस परम सत्ता को देखने की बड़ी भावना रखना चित्त के शुद्धिकरण के लिए आवश्यक है।

अर्जुन :तो इसका मतलब ऐसा दृष्टिकोण रखने वालों पर आपका विशेष अनुग्रह रहता है?

श्री कृष्ण: (हंसते हुए) हां अर्जुन! ऐसा व्यक्ति तो अपनी सोच में सीधे मुझसे ही जुड़ा रहेगा ना? मुझे उसका ध्यान कैसे नहीं रहेगा?



जीवन सूत्र 469 आपके अपने हैं हर जगह


वास्तव में ईश्वर हर कहीं हैं। सृष्टि के एक कण से लेकर ब्रह्मांड के अनंत विस्तार तक। वह हमारे भीतर आत्म तत्व के रूप में भी हैं। कभी-कभी ईश्वर हमारे सम्मुख अनेक रूपों में आते हैं। क्या आपने याद किया है कि कभी आपके जीवन में ऐसा अवसर आया होगा, जब आप कष्ट में थे।आपको सहायता की आवश्यकता थी। तब अनायास कोई सामने आकर आपको वह सहायता उपलब्ध करा देता है। इसमें ईश्वर की ही कृपा है।


जीवन सूत्र 470 हमेशा साथ हैं ईश्वर

कभी हमें साथ और सहायता उपलब्ध नहीं हो पाती है और हम अकेलेपन की स्थिति में होते हैं। ऐसे में हम हताश होकर अवसाद का शिकार हो जाते हैं।भीड़ में रहना हमारी आदत है। हम हर क्षण, हर पल किसी का साथ, किसी का समर्थन, किसी का सहयोग ढूंढते हैं। ऐसे में तो हम परावलंबी हो गए। वास्तव में अन्य किसी की उपस्थिति हो या न हो। उस परम सत्ता की हमारे भीतर चेतना और आत्म तत्व के रूप में उपस्थिति अवश्य है। ऐसे में अकेलापन कैसे?

हमारे संबंधी और स्वजनों, मित्रों के अतिरिक्त इस संसार में ऐसे अनेक लोग होते हैं जिनसे हमें अचानक सहायता पहुंचती है।इस विषय पर मेरी मौलिक कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं:-


अभी भी बचे हैं अपने,

घर की चहारदीवारी से बाहर भी,

जब कोई शॉपिंग स्टोर में

हाथ से सामान फिसल कर

नीचे गिर पड़ने पर,

तुरंत झुकता है

उठाकर देने के लिए सामान।


अभी भी बचे हैं अपने,

बगल से गुजर रहा बाइक सवार

करता है इशारा,

कि खुला है साइड स्टैंड

आपकी गाड़ी का।


अभी भी बचे हैं अपने,

जब कोरोना वैक्सीन के लांच से पहले

ह्युमन ट्रायल के लिए

सामने आ जाते हैं कुछ लोग,

और,किसी दुर्घटना के

शिकार लोगों को

रक्त देने के लिए,

अस्पताल में लग जाती है

तत्काल भीड़।


अभी भी बचे हैं अपने,

जब सीमा पर शत्रु पक्ष

की क्रॉस बॉर्डर फायरिंग में

बुरी तरह घायल

किसी बहादुर सैनिक

की जीवन रक्षा के लिए

आवश्यकता का समाचार जानकर,

कोई अनजान आदमी

सेना मुख्यालय भेज देता है आवेदन,

ट्रांसप्लांट के लिए

आवेदन अपनी किडनी देने का।


अभी भी बचे हैं अपने,

जब भटकते अनजान आदमी के

पता पूछने पर,

रास्ता बताने के बदले

सीधे,उसे अपने साथ लेकर

पहुंचा देता है कोई,

गंतव्य के घर तक।






(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय