Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 31 books and stories free download online pdf in Hindi

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 31

[ मृत्यु के पश्चात् रामानुजन के परिवार की स्थिति ]
रामानुजन की मृत्यु से उनके परिवार पर मानो वज्रपात ही हुआ था। पिता पहले ही दृष्टिहीन हो चुके थे। कुछ समय पश्चात् वह बीमार पड़े और उसी वर्ष नवंबर में चल बसे। माता भी रामानुजन की मृत्यु के शोक को सहन नहीं कर पाई।
बीस वर्षीया पत्नी जानकीअम्मल में तथा रामानुजन के परिवार के अन्य सदस्यों में सौहार्द की कमी थी।
रामानुजन की मृत्यु से दो दिन पूर्व उनकी माता तथा भाई चेतपुर (मद्रास) पहुँच गए थे। सास-ससुर के पास जानकी का जीवन निर्वाह संभव नहीं था। अतः मृत्यु के ठीक बाद वह पहले अपनी माँ के साथ राजेंद्रम चली गई और बाद में अपने भाई आर. एस. आयंगर के साथ बंबई में रहने लगीं। मद्रास विश्वविद्यालय ने उन्हें 20 रुपए प्रति माह की पेंशन देनी आरंभ कर दी।
29 अप्रैल को रामानुजन के भाई लक्ष्मी नरसिंहा ने प्रो. हार्डी को पत्र लिखा कि रामानुजन की पुस्तकें तथा लेख—सभी उनकी पत्नी के अधिकार में हैं। उन्होंने प्रो. हार्डी को इस आशय के पत्र भी लिखे कि परिवार को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता सरकार से पाने में वह सहायता करें पर ऐसा संभव नहीं हुआ।
अगस्त 1927 में, सात वर्ष पश्चात्, कोमलता अम्मल ने घर के आर्थिक संकट से तंग आकर किसी के द्वारा प्रो. हार्डी को पुनः एक पत्र लिखवाया था। वह चाहती थीं कि प्रो. हार्डी अपने प्रभाव से लक्ष्मी नरसिंहा तथा तिरु नारायण को डाक विभाग में अच्छे पद पर नियुक्त करवा दें। प्रो. हार्डी ने इस विषय में उनकी बात पर विचार किया। हाँ, तिरु नारायण बाद में सहायक पोस्ट मास्टर बन गए थे। लक्ष्मी नरसिंहा की कम आयु में ही मृत्यु हो गई।

[ श्रीमती जानकी अम्मल ]
जानकी ने रामानुजन के अंतिम दिनों में उनकी सेवा-शुश्रूषा जी-जान से की थी। रामानुजन को अपनी मृत्यु के पश्चात् उनके भरण-पोषण की चिंता थी। वह यह भी जानते थे कि उनकी माँ तथा अन्य घरवालों के साथ उनकी पत्नी का निभाव संभव नहीं होगा। संभव है कि रामानुजन ने उनको अपनी मृत्यु से पूर्व कुछ निर्देश भी दिए हों, क्योंकि बाद में पुरानी बातों को याद करते हुए जानकी अम्मल ने यह कहा कि रामानुजन उससे कह गए थे कि “मेरा गणित मेरे बाद तुम्हारे जीवन-यापन का साधन बनेगा।”

जानकी ने न तो कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी, न अन्य किसी प्रकार का शिक्षण प्रशिक्षण ही। अपने भाई के पास वह बंबई लगभग आठ वर्ष रहीं। वहाँ उन्होंने घर पर रहकर ही सिलाई सीखी तथा अंग्रेजी की कुछ शिक्षा ली। फिर वह भाई के पास से मद्रास लौट आई। पहले एक वर्ष अपनी बहन के पास तथा बाद में एक परिचित परिवार के निकट रहकर उन्होंने हनुमंथारयण कोयल स्ट्रीट पर अलग रहना निश्चित किया। वहाँ उन्होंने सिलाई सिखाने तथा कपड़े सीने का कार्य आरंभ कर दिया। सरल जीवन के कारण उन्हें सिलाई तथा विश्वविद्यालय से मिल रही राशि से काम अच्छी तरह चल जाता था। उसमें से वह कुछ बचा भी लेती थीं।
रामानुजन की सेवा में बिताए समय के बारे में उन्होंने बाद में कुछ इस प्रकार कहा—
“यह मेरा सौभाग्य ही था कि मैं उनको चावल, नींबू का रस तथा छाछ आदि नियम से समय-समय पर दे पाई। और जब कभी उन्हें दर्द हुआ तो गरम पानी से उनके पैरों और सीने की सेंकाई कर सकी। उस समय जिन दो बरतनों में मैं पानी गरम करती थी, वे अब भी उन दिनों की स्मृति के रूप में मेरे पास हैं।”

सन् 1950 में उनके एक हितैषी श्री सुंदरावल्ली ने अपनी अचानक मृत्यु के ठीक पहले अपने सात वर्षीय पुत्र नारायणन का भार उनपर सौंप दिया था। जानकी-अम्मल ने दत्तक पुत्र नारायण का पालन-पोषण किया। शिक्षा के लिए उसे सन् 1952-1955 तक रामकृष्ण स्कूल के छात्रावास में भी भेजा। बाद में नारायणन ने विवेकानंद कॉलेज से बी. कॉम. की शिक्षा समाप्त करके स्टेट बैंक में कार्य करना आरंभ किया। सन् 1972 में जानकी अम्मल ने दत्तक पुत्र नारायणन का वैदेही से विधिवत् विवाह संपन्न कराया। नारायणन एवं वैदेही अपने एक बेटे और बेटियों सहित जानकीअम्मल के साथ ही रहते रहे। सन् 1988 में नारायणन ने वहाँ से स्थानांतरण अस्वीकार करके अवकाश प्राप्त कर लिया।

जानकीअम्मल बहुत ही धार्मिक एवं शुद्ध प्रवृत्ति की महिला थीं। जनसेवा में उन्हें विशेष रुचि थी। वह कई बच्चों को पढ़ाई के लिए धन दिया करती थीं। समाज में उन्हें बहुत आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें इतना भाग्यवान् माना जाता था कि बहुत से अभिभावक उनके हाथों से अपने बच्चों को धन दिलाने को बड़ा शुभ मानते थे।
चौरानबे वर्ष की आयु में 13 अप्रैल, 1994 को उनकी मृत्यु हुई। मद्रास विश्वविद्यालय से उन्हें 20 रुपए प्रतिमाह की जो पेंशन मिलनी आरंभ हुई, वह बाद में सन् 1994 तक बढ़कर 500 रुपए प्रतिमाह हो गई थी। सन् 1962 में रामानुजन के पचहत्तरवें जन्म दिवस पर भारत सरकार ने रामानुजन के चित्र का एक डाक टिकट जारी किया। तब से जानकीअम्मल को सरकार से भी सहायतार्थ और राशि मिलने लगी थी। मद्रास बंदरगाह के सौवें वर्ष पूरे होने के अवसर पर उन्हें सम्मानित किया गया था और तब से तमिलनाडु सरकार, आंध्र प्रदेश सरकार, बंगाल प्रदेश सरकार, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी, रामानुजन मैथेमेटिकल सोसाइटी (जिसका गठन सन् 1985 में हुआ) एवं हिंदुजा फाउंडेशन भी उनको पेंशन की राशि देने लगे थे।
रामानुजन की स्मृति को बनाए रखने के लिए जानकीअम्मल हमेशा प्रयत्नशील रहीं। बाद के वर्षों में, रामानुजन के कारण उनको याद किया जाता है। सन् 1976 में जब रामानुजन की 'लॉस्ट बुक' जॉर्ज एंडूज द्वारा प्रकाश में आई तब जानकीअम्मल का एक वक्तव्य भारतीय समाचार पत्र में छपा, जिसमें उन्होंने इस बात पर बहुत खेद व्यक्त किया था कि रामानुजन की कहीं कोई प्रतिमा नहीं है। यह वक्तव्य मिनिसोटा विश्वविद्यालय के प्रो. रिचर्ड एस्के ने पढ़ा और फिर बहुत से गणितज्ञों के अनुदान और सहयोग से मिनिसोटा निवासी विश्व प्रसिद्ध मूर्तिकार श्री पॉल ग्रेनलुंड को रामानुजन की कांस्य प्रतिमा बनाने का कार्य सौंपा गया। पाल ग्रेनलुंड ने इस शर्त पर यह प्रतिमा बनाना स्वीकार किया कि उनकी कम-से-कम तीन प्रतियाँ खरीदी जाएँगी। कदाचित् प्रत्येक मूर्ति का मूल्य तीन हजार डॉलर निश्चित हुआ। बाद में उस प्रतिमा की मानक प्रति के बाद दस और प्रतियाँ बनीं। इन पर होने वाले कुछ बड़े भागीदारों के अतिरिक्त छोटी राशियों ( 25 डॉलर) के रूप में जमा हुआ।
नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. एस. चंद्रशेखर ने ऐसी ही एक प्रतिमा 6 फरवरी, 1985 को 'इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस' को भेंट की। उस समय से इन ग्यारह प्रतिमाओं में से पाँच प्रतिमाएँ भारत में, दो इंग्लैंड में तथा चार अमेरिका में स्थापित हैं। भारत में ये निम्नलिखित स्थानों पर स्थापित हैं—
1. वह प्रतिमा जो श्रीमती जानकी अम्मल को भेंट की गई, 14 हनुमंथरायण कोइल मार्ग, त्रिप्लिकेन, चेन्नई— जहाँ पर जानकी अम्मल ने अपने दिन बिताए।
2. इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस, रमण रिसर्च इंस्टीट्यूट, बंगलौर।
3. रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
4. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई।
5. एस्ट्रोनॉमी एवं एस्ट्रोफिजिक्स का अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र, पुणे।
रामानुजन की जन्म शताब्दी तक उनका घर तीर्थ स्थान बन गया था। प्रतिवर्ष उनके जन्मदिन पर गणितज्ञ तथा अन्य व्यक्ति चेन्नई जाकर वहाँ उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। जन्म शताब्दी के अवसर पर रामानुजन के जीवन पर ब्रिटिश टेलीविजन ने एक वृत्तचित्र भी बनाया, जो विश्व के विभिन्न देशों में टेलीविजन पर दिखाया गया।
इसमें श्रीमती जानकी अम्मल से हुई वार्त्ता को भी सम्मिलित किया गया है।
जन्म शताब्दी के अवसर पर जानकीअम्मल ने रामानुजन की स्मृति में एक ट्रस्ट बनाने का प्रस्ताव रखा, जिससे मेधावी छात्रों को शिक्षा के लिए पारितोषिक दिए जा सकें। फरवरी 1988 में ट्रिनिटी कॉलेज ने दो हजार पाउंड प्रतिवर्ष देने का निर्णय लिया। तभी उन्हें बीस हजार रुपए की एक थैली भी भेंट की गई थी। रामानुजन संग्रहालय की स्थापना भी की गई। इस अवसर पर उनकी 'लॉस्ट बुक' का फेसिमाइल प्रकाशन हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने एक विशाल समारोह में उस पुस्तक की प्रथम प्रति जानकी अम्मल को भेंट की तथा दूसरी प्रो. एंड्रज को, जिन्होंने उस लॉस्ट-बुक को खोजा था।
सन् 1987 में ही मद्रास विश्वविद्यालय के सहयोग से रामानुजन की एक प्रतिमा प्रसिद्ध मूर्तिकार श्री एन.
मसिलमणि ने बनाई, जिसका अनावरण 26 मार्च, 1993 को मद्रास विश्वविद्यालय में हुआ।