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थैंक यू मां लक्ष्मी

क़ाज़ी वाजिद की कहानी -प्रेमकथा

मेरे बेटे ने अपने पापा को देखा ही नहीं था, पर कार्निस पर रखी उनकी तस्वीर को दिल में उतार लिया था। वह 4 वर्ष का हो गया था, स्कूल जाने लगा था। पेरेंट्स मीटिंग में पंकज मुझ से पापा के बारे में पूछता, मैं उसे झूठी दिलासा देती और करण की याद में खो जाती।
...पहले दिन जब मैने करण को देखा तो मै उसे देखती ही रह गई थी। ज़ारा की पार्टी मे किसी ने उसे मिलवाया था। 'इनसे मिलो यह करण हैं।' करण मेरे लिए मुकम्मल अजनबी था, मगर उस अजनबीपन में एक अजीब-सी जान-पहचान थी। जैसे बरसों या शायद सदियों के बाद आज दोनों मिले हों...।
दूसरी बार रेशमा की कॉफी पार्टी में मुलाकात हुई और इस बार भी उस बेगांगी के अंदर वही अपनाइयत हम दोनों को महसूस हो रही थी। ये पहली निगाह वाली मुहब्बत नहीं थी। एक अजीब-सी नज़दीकी और गहरी जान पहचान का एहसास था, जो हमारे दिलों में उमड़ रहा था। ्
रात की तन्हाई मेें मुझे अपने बिस्तर पर अकेले लेटे-लेटे एकदम एहसास हुआ, जैसे मेरे बहुत ही करीब मेरे चेहरे पर करण झुका हुआ है, घबराकर मैने बेड स्विच दबाकर रोशनी की। कमरे में कोई नहीं था फिर भी मैं घबरा-सी गई। उस एक लम्हे में ऐसा महसूस हुआ, जैसे करण को पता चल गया है, कपिल भी मुझसे मुहब्बत करता है। हालांकि यह मुहब्बत कपिल की तरफ से थी। और मैंने कभी उसमें इंट्रेस्ट नहीं लिया था। फिर नितिन की दावत पर मिली, तो मैंने करण को कपिल के बारे में बता दिया। मेरी साफगोई से वह बहुत खुश हुआ। उसने मेरा हाथ पकड़ा, कहा नेहा दूसरा हाथ भी दो, फिर हाथ चूम लिए। बेइख्तियार मेरी आखें झुक गई और गालों पे रंग आ गया।
...मुझे और करण को एक-दूसरे के करीब आते ज़्यादा देर नहीं लगी। कुछ ऐसा महसूस होता है, जैसे बनाने वाले ने हम दोनों को बनाया तो एक-दूसरे के लिए ही था। दोनों ज़िद्दी और मगरूर थे। सच बोलने वाले और मेहनती, न किसी से दबने वाले न किसी से बेजा खुशामद करने वाले, दोनों किसी कदर बहसा-बहसी करने वाले भी थे। यूनिवर्सिटी के चुने हुए स्कॉलरों में हमारा शुमार होता था।...इस पर तुर्रा ये कि हम दोनों खूबसूरत और हसीन थे।
... ये पहचान कई माह तक चलती गई और गहरी होती गई। इस अरसे में करण का आई. ए .एस में चयन हो चुका था और ट्रेनिंग हासिल कर रहा था। मेरी नौकरी लग गई थी। हम दोनों शादी के बंधन में बंध गए।
हमारी शादी के शुरू के दिन तो बहुत अच्छे थे। करण की पोस्टिंग पुणे में हुई। ईश्वर की कृपा से हर तरह की फैसिलिटी उसे हासिल थी। 'अब तुम्हे इस्तीफा दाखि़ल कर देना चाहिए।' करण ने छुट्टी के दिन मुझ से कहा। मेरे मुंह से न निकल गई। नहीं, अपनी नौकरी कभी नहीं छोड़ुंगी। नौकरी छोड़ने की ज़रूरत क्या है मुझे...। मैं रिसर्च पूरी करना चाहती हूँ। शादी का यह मतलब तो नहीं कि औरत मर्द की गुलाम होकर रह जाए, घरदारी में ऐसा कौन सा वक्त लगता है- खाना बावर्ची पकाता है, झाड़ू- पोछा मेड करती है। बाक़ी रह गया क्या? सोफे पर एक उम्दा सी साड़ी पहनकर पति की राह तकना? सो यह काम कौन-सा मुश्किल है...।
जूं- जूं हम बात करते गए बहस उलझती ही गई। मेरे लहजे में तल्खी आने लगी। फिर मुझे ये महसूस हुआ जैसे ये सब गलत हो रहा है। मुझे मुआमले को संभाल लेना चाहिए, मगर वो एक 'ना' जो मेरे मुंह से निकली, तो निकलती ही चली गई। कर्ण भी संजीदगी को छोड़कर गुस्से से काम लेने लगा,'तुम्हें यह नौकरी छोड़ देनी होगी।'
'तुम मुझे ऐसी कोई धमकी नहीं दे सकते।' मेरे लहजे में आंसू आने लगे और मैं अपने विश्वास पर सख़्त होती गई। 'किसी क़ीमत पर मैं यह नौकरी नही छोडूंगी। चाहे शादी रहे या न रहे...' यकायक मैंने अपना फैसला दे दिया व बहस एकदम बंद हो गई। करण ने अपना सामान गाड़ी में डाला और चला गया।
दो-चार दिन तक मैंने उसका इंतजार किया। उसके बाद केयरटेकर को चाबी देकर मैं अपने मायके चली गई। मेरे मम्मी-पापा की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। जब मुझे डॉक्टर ने मां बनने की खुशखबरी दी, मेरी खुशी बांटने वाला कोई न था। मेरा कोई रिश्तेदार या दोस्त ऐसा नहीं था, जो हमारी सुलह- सफाई करा देता।
मेरे पापा का एक छोटा सा खस्ताहाल बंगला था। एक शाम उसके बाहर पंकज के साथ गेंद से खेल रही थी, तभी मुझे कपिल दिखा। मैंने उसे पुकारा। हमेशा चहकती रहने वाली लड़की की यह दशा देखकर वह असमंजस में पड़ गया। और मुझे कपिल को सब कुछ बताना पड़ा। कपिल ने मुझ से कहा, मैं बेंगलुरु जा रहा था, मौसम खराब होने की वजह से फ्लाइट को हैदराबाद रुकना पड़ा। इस बहाने तुमसे मिलना हो गया। कुछ देर रुकने के बाद उसकी फ्लाइट का समय हो गया, और वह चला गया।
छोटी दीवाली की रात थी। घर में एक छोटा सा लक्ष्मी जी का मंदिर था, जो बाबा के ज़माने से ही हमारी आस्था का केंद्र था। होश संभालते ही मैं लक्ष्मी मैया से चॉकलेट और आइसक्रीम मांगती थी और मुझे मिल जाती थी। स्कूल जाने लगी, तो मेरा मैया से ऐसा बंधन बंधा, वह सगी मां की तरह मेरा दिल पढ़ लेती और मेरी मुराद पूरी कर देती थी।
रात को सोने से पहले मैं पंकज को अपने बचपन की कहानियां सुनाती थी, जिसे वह बड़े चाव से सुनता था। उसे लक्ष्मी मैया सुपरमैन की तरह लगने लगी थी।
मैं पूजा कर रही थी। पता ही नहीं चला, पंकज कब मेरे बराबर में बैठ गया और पूजा में लीन हो गया। मेरा हृदय तो कई बार उचाट हुआ, भूख-प्यास से, नींद से कभी डर से, कहीं इसकी तबीयत बिगड़ न जाए, पर पूजा में विधन डालना मुनासिब नहीं लगा। उसके साथ बैठी रही।
किसी ने पंकज कहकर दरवाज़े पर दस्तक दी। मैंने दरवाज़ा खोला, करण को देखकर स्तबध रह गई, पूछा, 'आप अचानक कैसे?' उसने कहा कपिल ने मुझे सब कुछ बता दिया।
करण अपने बच्चे को मां के सामने हाथ जोड़कर विनती करते देख भाव विभोर हो गया।
उसने बेटे को गोद में ले लिया। पंकज ने अपनी तोतली ज़ुबान से 'थैंक यू मां लक्ष्मी' कहा और मम्मी- पापा के साथ दिवाली मनाने ‌ लगा।
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