Kataasraj.. The Silent Witness - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 17

भाग 17

इधर महाराजगंज में अशोक की गुलाब बुआ के पति जवाहर राय जब घर आए तो गुलाब ने उनको बताया कि अशोक आया था। वो अपनी बेटी पुरवा का रिश्ता हमारे बेटे महेश से करने की बात कर रहा था।

महेश भी पूरे बीस बरस का इसी माघ में हो गया था। पटना कॉलेज में एलएलबी का दूसरा साल चल रहा था। उनको भी चिंता थी महेश के विवाह की। पर कोई अच्छा परिवार का रिश्ता नही आ रहा था। अब जिंदगी भर का सौदा था। ऐसे ही तो किसी लड़की को अपने बेटे के पल्ले नहीं बांध सकते थे। तलाश थी उनको एक अच्छे परिवार की समझदार लड़की की।

अब जब ऐसे में अशोक खुद रिश्ता ले कर आया है तो मना करना समझदारी नहीं थी। एक हफ्ते की छुट्टी ले कर आए थे जवाहर जी।

सोच विचार कर के जवाहर जी पत्नी गुलाब से बोले,

"गुलाब ऐसा करो। रिश्तेदारी तो हमारे यहां उनकी पहले से ही है। इसलिए जाने में कोई संकोच नहीं है। ऐसा करो कल ही हम चलते है। तुम्हारे घर वालों से और अशोक से मुलाकात भी हो जायेगी और इसी बहाने लड़की को भी देख परख लेंगे। अगर हमारे हिसाब से ठीक होगी तो फिर बात पक्की कर लेंगे। अनजान जगह किसी और जगह ऐसा थोड़े ही ना हो पाएगा।"

गुलाब को भी पति की बात ठीक लगी। इसी बहाने अपने नैहर भी हो लेगी। घर गृहस्ती में ऐसा फंसी है कि दो साल हो गए माई बाबू , भाई भतीजा को देखे हुए। अब चाहे शादी तय हो या नही हो… वो अपने नैहर वालों से तो मिल लेगी। गुलाब ने तत्काल अपनी सहमति दे दी चलने के लिए।

वैसे तो काफी समय लगता जाने में। पर एक छोटी खटारा बस छपरा से चल कर सिवान महाराजगंज होते हुए थावे दर्शनार्थियों को ले कर आती जाती थी। सुबह जाती थी शाम को आती थी। इसलिए शाम को चलने का कार्यक्रम तय हुआ। पांच बजे बस आती थी और साढ़े साथ आठ बजे तक सिवान पहुंचा देती थी।

सामान से लदी फदी गुलाब बुआ बस में पति के साथ सवार हुई। अब इतने लंबे समय बाद जा रही थीं तो सबके लिए कुछ ना कुछ ले जा रही थी।

आठ बजते बजते वो अपने मायके के दरवाजे पर खड़ी थीं।

उनकी माई बेटी को इस तरह अचानक से देख कर खुशी से बौरा गई। जोर जोर से बहुओं को चिल्ला कर पानी का धार देने को बोलने लगी। अब बहुओं को क्या पता कि माई रात में किसे धार देने को बोल रही हैं। उमर हो गई थी उनकी ऐसे ही अनाप शनाप बकती रहती थीं। तो उन्हें लगा कि ऐसे ही कुछ बडबडा रही हैं। बहुओं को अपनी बात ना सुनते देख लोटे में पानी ले कर आने में होती देर देख वो अब गाली पर उतर आईं। उमर बढ़ने के साथ साथ उनका धैर्य चुकता गया था। अब वो बात बिन बात गालियों से ही बात करती थी। जरा सी देर हुई नही उनका कहा पूरा होने में कि बहुओं के स्वर्गवासी पुरखो को नई नई ईजाद गालियों से तार दिया जाता।

पूरा घर कोशिश करता कि सबसे पहले उनका कहा ही पूरा किया जाए।

अशोक तो बाहर ही था। अभी अभी मैदान से लौटा था और हाथ मुंह धो रहा था कुएं पर। अंधेरे से भी उसे कुछ दिक्कत नही हुई गुलाब बुआ और जवाहर फूफा को पहचानने में। उसने देखा कि वो दोनो दरवाजे पर खड़े हैं और चाची की आवाज को कोई नही सुन रहा है। वो जल्दी जल्दी हाथ मुंह धो कर तेज कदमों से अंदर गया। उसके हाथ में भरा हुआ लोटा तो था ही।

जल्दी से कम शब्दों में उर्मिला को बताते हुए बाहर ले कर आया।

उर्मिला ने साड़ी से छोटा सा घूंघट निकाल कर चेहरा ढका और फिर उस ने गुलाब बुआ के करीब आ कर लोटे का पानी उनके सिर से पांच बार उबार कर किनारे गिरा दिया।

फिर बारी बारी से उसने और अशोक ने बुआ फूफा के पैर छुए।

फिर वो दोनो माई के पास आए। माई ने पैर छूते ही गदगद हृदय से असीसों की झड़ी लगा दी। फिर बेटी दामाद को बैठने को बोली।

थोड़ा सा अपनी जिह्वा को विराम दे कर इंतजार किया बहुओं के बाहर आने का।

अब एक बार फिर बहुओं को सुंदर सुंदर गालियों से नवाजने लगी कि मेरी बेटी और दामाद इतनी दूर से थके हुए आ रहे हैं। पर ये कुलच्छनियां …. किसी को फुरसत नहीं है आगवानी करने की। ना ही पानी पूछने की जरूरत समझी।

उर्मिला ने आज ही अपनी भैंस के दूध का पेड़ा बनाया था। झट से गई और एक कटोरी में भर कर ले आई।

उसे बड़े अपनत्व से बुआ और फूफा के सामने रख दिया।

जब उन्होंने खाना शुरू किया तो उर्मिला खुद ही चाची के घर के भीतर गई और जेठानियों से बुआ फूफा के आने की बात बताई और साथ ही ये भी बताया कि चाची खूब नाराज हैं और गालियां भी दे रही हैं।

दोनो बहुओं की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई ये जान कर की सास नाराज हैं। उनको तो लगा कि रोज शाम को तेल लगाने के लिए ऐसे ही चिल्लाती है। वही आज भी होगा।

दोनों ही बाहर भागी। बड़ी ने गिलास और लोटे में पानी और कटोरी में गुड़ लिया। छोटी ने थाली में पानी लिया। बड़ी ने पीने को पानी दिया उनको। छोटी थाली के पानी में पहले फूफा का फिर बुआ का पैर धोना शुरू किया।

बेटी दामाद का स्वागत होते देख कर चाची का गुस्सा अब जा कर थोड़ा शांत हुआ।

अशोक और उर्मिला भी साथ साथ पूरी आवभगत में लगे रहे। जब तक वो दोनो खाना खा कर सोने नहीं लेट गए।

अगले दिन अपने घर खाने का न्योता दे कर उर्मिला और अशोक वापस आ गए।

सुबह से ही खाने की तैयारी शुरू हो गई। उर्मिला ने रात में ही उरद की दाल भिगो कर रख दी थी दही बड़े के लिए। घर के पिछवाड़े लगे कटहल के पेड़ में अभी छोटे छोटे फल लगे थे। अशोक उन्हें तोड़ कर लाया और पुरवा से बोला,

"बिटिया….! खूब गरम मसाला डाल कर खूब चटपटी सब्जी बना तो….।"

उर्मिला सिल पर सब्जी का मसाला और बड़े के लिए दाल पीसने में जुट गई। पूरी ताकत लगा कर उर्मिला पीस रही थी जितना महीन हो सकता था उतना महीन। जिससे एक भी धनिया या और कोई मसाला मुंह में पता नही चले।

उर्मिला तैयारियां कर के देती गई और पुरवा सब कुछ पकाती गई।

क्या पुरवा अच्छा खाना बनाने में सफल हुई….? क्या जवाहर और गुलाब जैसी पतोह चाहते थे वैसी पुरवा थी…? क्या पुरवा उन्हें पसंद आई…? जानने के लिए पढ़े अगला भाग।