Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me - 2 - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 2 - (भाग 1)



‌‌अध्याय 2 (भाग 1)


सांख्यदर्शन


अर्जुन को दुविधा की स्थिति में देखकर श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि हे अर्जुन तुम इस प्रकार की दुर्बलता क्यों दिखा रहे हो ? तुम इस भ्रम की अवस्था में किस तरह आ गए ? तुम जैसे महान योद्धा को इस तरह का आचरण शोभा नहीं देता है। यह तुम्हारे और तुम्हारे वंश के लिए अपकीर्ति लेकर आएगा। कायर मत बनो। ह्रदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध करो।
श्रीकृष्ण के इस तरह के वचन सुनकर भी अर्जुन की दुविधा समाप्त नहीं हुई। उसने कहा कि उसे यही लग रहा है कि स्वजनों की हत्या कर प्राप्त किया गया राज्य किसी काम का नहीं है। इससे तो अच्छा है कि वह भिक्षा मांगते हुए अपना बाकी का जीवन बिता दे। परिजनों का वध करने से अच्छा है कि वह उनके हाथों मारा जाए।
वह जिस मनःस्थिति में है, सही और गलत का फैसला करने में असमर्थ है। वह दिग्भ्रमित है। इस स्थिति में युद्ध नहीं कर सकता है। अतः अपने आप को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रहा है। अब वह उसे सही मार्ग दिखाएं।
श्रीकृष्ण ने मुस्कुरा कर अर्जुन की तरफ देखा और कहा कि वह उस बात के लिए दुखी हो रहा है जिसके लिए किसी भी तरह का दुख नहीं किया जाना चाहिए। समझदार लोग जीवित या मृत दोनों का ही शोक नहीं मनाते हैं। कोई भी ऐसा समय नहीं था जब इस युद्धभूमि में एकत्रित लोग न रहे हों। भविष्य में भी ऐसा नहीं होगा कि यह लोग न रहें। मृत्यु अंत नहीं है। केवल एक बदलाव है। जैसे कि एक मनुष्य जन्म लेने के बाद बाल्यावस्था, युवावस्था और फिर वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर कर्म के अनुसार नया शरीर धारण करती है। अतः मृत्यु होने पर शरीर मरता है। आत्मा दूसरा शरीर धारण कर लेती है। जो मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को समझते हैं वह मृत्यु का शोक नहीं करते हैं।
जो वस्तु नाशवान है उसे किसी भी प्रकार से नहीं बचाया जा सकता है। उसका अंत निश्चित है। जो वस्तु अविनाशी है उसका कभी भी अंत नहीं होता है। शरीर नाशवान है। उसका अंत निश्चित है। परंतु शरीर में वास करने वाली आत्मा अविनाशी है। उसका कभी अंत नहीं हो सकता है। अतः जो व्यक्ति यह मानता है कि आत्मा का अंत हो सकता है और वह उसे समाप्त कर सकता है वह भ्रम की अवस्था में है।
आत्मा का न जन्म होता है न मृत्यु। इसका निर्माण न कभी हुआ है और न कभी होगा‌। आत्मा शाश्वत, अविनाशी है। यह काल से परे है। नाश केवल शरीर का होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि आत्मा की मृत्यु नहीं हो सकती है तो वह अपने प्रियजनों की हत्या कैसे कर सकता है ?
श्रीकृष्ण ने समझाया कि जिस प्रकार पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। अतः शरीर नष्ट होता है आत्मा नहीं। आत्मा को न शस्त्र काट सकता है न अग्नि जला सकती है। इसे न जल डुबो या भिंगो सकता है और न ही वायु सुखा सकती है। अतः आत्मा ही सत्य है। तुम इस बात के लिए शोक न करो कि यहाँ उपस्थित योद्धा मारे जाएंगे।
अर्जुन को आत्मा की अमरता का ज्ञान देने के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसके कर्तव्य का बोध कराया। उन्होंने कहा कि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है। यह युद्ध सत्य के लिए लड़ा जा रहा है। इस युद्ध से दूर भागकर वह अपने धर्म से विमुख होगा। उसके शत्रु‌ उसे कायर कहेंगे। यह उसके लिए अपकीर्ति लेकर आएगा। अपकीर्ति मृत्यु से भी भयंकर है। यदि वह युद्ध करते हुए मारा गया तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। यदि युद्ध में विजय मिली तो राज्य का सुख प्राप्त होगा। अतः हर्ष विषाद, हानि लाभ, जय पराजय से ऊपर उठकर युद्ध करो।
अर्जुन को उसके कर्तव्य का बोध कराने के पश्चात श्रीकृष्ण उसे वह ज्ञान देते हैं जो मुक्ति में सहायक है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिनकी बुद्धि सांसारिक सुख प्राप्त करने में लिप्त होती है वह विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की तरफ आकर्षित होते हैं। प्रलोभन उन्हें आकर्षित करते हैं। परंतु जो अपनी बुद्धि को स्थिर रखकर अपने धर्म के प्रति सजग रहते हैं उनका मन भटकता नहीं है। कामनाओं से ग्रसित लोगों की बुद्धि सीमित होती है। वह अपने कर्तव्य का पालन केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए करते हैं। ऐसे लोग वेदों से वही ग्रहण करते हैं जो स्वर्ग का सुख दिलाने में सहायक होता है। उनका उद्देश्य सिर्फ अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करना होता है।
कामनाओं से ग्रसित लोग वेदों से प्राप्त ज्ञान को अपनी सीमित बुद्धि के अनुसार समझ कर उनका उतना ही पालन करते हैं जितना उन्हें सांसारिक सुखों की प्राप्ति में सहायक होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुम सीमित बुद्धि से ऊपर उठकर परम सत्य को जानने का प्रयास करो। अतः अर्जुन तुम अपना कर्म करो। उसके परिणाम की चिंता मत करो। कर्म के फल से स्वयं को असंबद्ध रखकर केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान दो। जो स्वयं को कर्ता मानकर कर्म के फल से अपने आप को बांध लेते हैं वह परमगति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। अतः फल की इच्छा से मुक्त होकर कर्म करो। यही वास्तविक योग है।
श्रीकृष्ण से मिले ज्ञान को समझने के लिए अर्जुन उत्सुक हो जाता है। वह प्रश्न करता है कि जो लोग इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान से पूर्ण होते हैं उनकी चारित्रिक विशेषताएं क्या होती हैं ? उसकी जिज्ञासा का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ ऐसा व्यक्ति सांसारिक सुखों से अपना ध्यान हटा लेता है। राग द्वेष और भय और क्रोध से रहित होता है। ऐसे व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ कहते हैं। जैसे कछुआ अपने सारे अंगों को अपने खोल के भीतर समेट लेता है वैसे ही स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी इंद्रियों को सारी सांसारिक वस्तुओं से अलग कर लेता है।
आरंभ में यह कार्य कठिन होता है। जब व्यक्ति इंद्रियों को सांसारिक सुखों से अलग करने का प्रयास करता है तो वह उसे अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। उसी तरह जैसे तेज़ हवा नौका को उसके गंतव्य से दूर ले जाती है। सांसारिक सुखों से ध्यान हटाना कठिन होता है। ऐसे में क्रोध उत्पन्न होता है जो विवेक का नाश करता है। विवेक का नाश होने पर व्यक्ति सर्वनाश की तरफ बढ़ता है।
जो व्यक्ति फलों की इच्छा से रहित होकर स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर देता है वह सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। वह सांसारिक प्रलोभनों से प्रभावित नहीं होता है। जैसे कि सागर विभिन्न नदियों के उसमें मिलने से अशांत नहीं होता है।


अध्याय की विवेचना

प्रथम अध्याय के अंत में अर्जुन ने कई प्रकार के तर्क देते हुए अपने परिजनों के साथ युद्ध न करने की बात कही। उसने कहा कि युद्ध में स्वजनों की हत्या करके प्राप्त किया गया राज्य का सुख सही नहीं है। इससे अच्छा तो यह है कि वह सबकुछ त्याग कर सन्यासी का जीवन बिताए। अतः वह परिजनों के साथ युद्ध नहीं करेगा। यह कहकर उसने अपना गांडीव रख दिया।‌
अर्जुन सही मार्ग का चुनाव नहीं कर पा रहा था। किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन जानता था कि यदि वह स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर देगा तो वह उसे सही मार्ग दिखाएंगे। श्रीकृष्ण भी अर्जुन की मंशा समझ गए थे।‌ अपनी शरण में आए अर्जुन को उसकी दुविधा से निकाल कर सही मार्ग पर लाने के लिए उन्होंने उसे भगवद्गीता का उपदेश दिया।
अर्जुन ने एक शिष्य की भांति स्वयं को अपने गुरु भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था। श्रीकृष्ण ने एक गुरु की भांति अर्जुन को स्वीकार कर लिया। सबसे पहले गुरु की तरह उन्होंने अपने कर्म से भागने के लिए अर्जुन को डांट लगाई। उन्होंने अर्जुन से कहा कि वह एक क्षत्रिय है। अतः धर्म के लिए लड़े जा रहे इस युद्ध में भाग लेना ही उसका धर्म है। युद्ध से भागने की बात करके वह कायरता दिखा रहा है। कायरता एक क्षत्रिय को शोभा नहीं देती है। यह कायरता न सिर्फ उसके लिए अपितु उसके कुल के लिए भी अपकीर्ति लेकर आएगी।
हमारे समक्ष अक्सर ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब हम अपनी सुविधा देखते हुए उस काम को करने से बचने का प्रयास करते हैं जिसे करना हमारे लिए बहुत आवश्यक होता है। अपने उत्तरदायित्व से बचने के लिए हम बड़ी बड़ी बातें बनाकर बेवजह के तर्क देते हैं। अपने आप को सही साबित करने की कोशिश करते हैं। जबकि हम भी जानते हैं कि जो तर्क हम दे रहे हैं वह सिर्फ एक बहाना है। ऐसे में हमें श्रीकृष्ण के उस उपदेश को ध्यान में रखना चाहिए कि अपना कर्तव्य भूलकर हम कभी यश नहीं पा सकते हैं।
एक गुरु का कर्तव्य होता है कि वह राह से भटक रहे अपने शिष्य को सबसे पहले चेताए कि वह सही मार्ग से भटक गया है। अर्जुन अपने तर्क देकर युद्ध से विमुख होने को सही ठहरा रहा था। श्रीकृष्ण ने न सिर्फ उसे उसकी भूल बताई बल्कि डांट लगाते हुए उसे यह भी बताया कि इस तरह वह अपने साथ साथ अपने कुछ की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा रहा है।‌
पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसकी भूल का ज्ञान कराया उसके बाद ही उसे वह ज्ञान दिया जिससे वह समझ सके कि वह सिर्फ अपने दायित्व का पालन कर रहा है।‌ कोई भी व्यक्ति किसी ज्ञान को तब ही सही प्रकार से ग्रहण कर सकता है जब उसका मन उसे प्राप्त करने के लिए तैयार हो। यदि श्रीकृष्ण अर्जुन को उसकी भूल बताए बिना सीधे आत्मा और उसकी अमरता का ज्ञान प्रदान करते तो वह उसे सही तरह से समझ न पाता। उसका मन तो इसी में उलझा रहता कि युद्ध करने से अच्छा तो सन्यास लेना है। परिजनों का वध करने से भिक्षा मांग कर जीवन यापन करना श्रेष्ठ है। तब वह आत्मा और उसकी अमरता को सही तरीके से न समझ पाता।
भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे पहले उसे बताया कि जिसे वह श्रेष्ठ समझ रहा है वह सिर्फ अपने कर्तव्य से भागना है। जब अर्जुन ने यह बात स्वीकार कर ली कि वास्तव में वह दिग्भ्रमित हो गया था तब वह आत्मा और उसकी अमारता को उस रूप में समझ पाया जिस रूप में वह उसके कर्तव्य के पालन में सहायक था।
बहुत से लोग अक्सर अपने कर्तव्य को सही तरीके से समझ नहीं पाते हैं। जब ऐसा होता है तब वह भ्रमित हो जाते हैं। तब वह उस काम को अपना कर्तव्य समझ लेते हैं जो उनका कर्तव्य नहीं है। भगवद्गीता में एक शब्द आया है स्वधर्म। अतः स्वधर्म को समझ कर ही हम अपने कर्तव्य को समझ सकते हैं।
धर्म का अर्थ होता है जो ग्राह्य और अनुकरणीय है। अतः स्वधर्म का अर्थ होता है व्यक्ति‌ विशेष के लिए क्या ग्राह्य और अनुकरणीय है। एक व्यक्ति के लिए अपना कर्तव्य ही सबसे अधिक ग्राह्य और अनुकरणीय है।‌ कर्तव्य का अर्थ है वह उत्तरदायित्व जो आपको मिला है।‌
वर्तमान समय और सामाजिक ढांचे के संदर्भ में स्वधर्म का मतलब है कि व्यक्ति को उन कर्मों का पालन करना चाहिए जो उसके आधुनिक समाज और समय के साथ मेल खाते हैं। जो सामाजिक संतुलन, नैतिकता, और यथार्थता को बनाए रखते हैं।
पुलिस बल में काम करने वाले व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह समाज में कानून व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक हो। समाज में घूम रहे आपराधिक तत्वों को पकड़ कर उनके किए की सज़ा दिलाए। मान लीजिए कि यह काम करते हुए एक पुलिसकर्मी के समक्ष उसका कोई परिजन आ जाता है। उस परिजन पर धोखाधड़ी करने का इल्ज़ाम है। उसका परिजन बहुत समय से बेरोज़गार था जिसके कारण ही उसने अपराध किया है।
ऐसी स्थिति में यदि वह समाज सुधारक की अवस्था में आकर यह कहे कि अपराध का कारण समाज में व्याप्त असमानता है। सभी को समान अवसर नहीं मिलते हैं। उसके परिजन को भी नहीं मिले। जिसके कारण उसे अपराध का रास्ता चुनना पड़ा। अतः उसके अनुसार अपराधी को सज़ा देने की जगह अपराध के कारणों को समाप्त करना श्रेष्ठ है।
अब क्या वह पुलिसकर्मी होने के नाते अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है ? नहीं...…वह तो समाज सुधारक की छद्म भूमिका में आकर अपने कर्तव्य से बचने का काम कर रहा है। पुलिसकर्मी होने के नाते उसका कर्तव्य यह देखना है कि उसके परिजन ने अपराध किया है जो दंडनीय है।
एक सैनिक जब सीमा पर तैनात होता है तब उसका कर्तव्य घुसपैठियों से देश की सीमा की रक्षा करना होता है। यदि कोई घुसपैठिया सीमा में प्रवेश करने की कोशिश करे तो उसे रोकना और न मानने पर गोली चलाना ही उसका कर्तव्य है। उस समय यदि यह सोचकर उसके हाथ गोली चलाने से चूकते हैं कि जबरन घुसने का प्रयास करने वाला एक इंसान है और मुझे इंसानियत के नाते उस पर गोली नहीं चलानी चाहिए तो वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है।
अतः अपने कर्तव्य का पालन करने वाला समाज में सही और नैतिक रूप से योगदान करता है। इससे समाज की व्यवस्था बनी रहती है। अपने कर्तव्य का पालन व्यक्तिगत संतुष्टि और समृद्धि की ओर ले जाता है।

क्रमशः.....