Shrimad Bhagwat Geeta Meri Samaj me - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 1



अध्याय 1

सैन्यदर्शन

इस अध्याय के आरंभ में धृतराष्ट्र संजय से युद्धक्षेत्र की गतिविधियों के बारे में प्रश्न करते हैं। वह पूछते हैं कि कुरुक्षेत्र में मेरे और पांडु के पुत्र, जो युद्ध के लिए एकत्रित हुए हैं क्या कर रहे हैं ?
उनके प्रश्न के उत्तर में संजय कहते हैं कि हे राजन युद्धभूमि में पांडवों के पक्ष का सैन्यविन्यास देखने के बाद आपका पुत्र दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया है। वह उन्हें बता रहा है कि पांडवों की सेना का नेतृत्व द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न कर रहा है। पांडव सेना में कई अच्छे योद्धा हैं। जिनमें सात्यकि, विराट, द्रुपद, चेकितान, पुरोजित, कुंतिभोज, युधामन्यु, उत्मौजा, अभिमन्यु आदि हैं।
उसके बाद दुर्योधन ने अपने पक्ष में लड़ने वाले योद्धाओं के बारे में बताया। पितामह भीष्म सेना का नेतृत्व कर रहे थे। उनके नेतृत्व में द्रोणाचार्य के अतिरिक्त कर्ण, कृपाचार्य, अश्वसथामा, विकर्ण, जयद्रथ आदि कौरव सेना के पक्ष में थे।
दुर्योधन द्वारा दोनों पक्षों का विवरण देने के बाद भीष्म ने शंख बजाकर युद्ध की घोषणा की। युद्धभूमि शंख और दुंदुभी के कोलाहल से गूंज उठा। पांडवों के पक्ष में सबसे पहले श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंख बजाया। उनके बाद अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया। भीम ने पौण्ड्र, युधिष्ठिर ने अनंत विजय, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक‌ नामक शंख बजाकर युद्ध के आरंभ की घोषणा की।
युद्ध आरंभ होने वाला था। अर्जुन अपने रथ पर सवार था। रथ पर महावीर हनुमान की पताका थी। उसके रथ के सारथी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण थे। अर्जुन ने उनसे विनती करते हुए कहा कि वह उसका रथ युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य के स्थान पर ले जाने की कृपा करें। श्रीकृष्ण ने उसका रथ युद्धभूमि के मध्य में ले जाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने कौरव सेना की तरफ दृष्टि डाली।
कौरव पक्ष में उसके पितामह, गुरु द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य, बंधु बांधव, मित्र, पुत्र, पौत्र आदि थे। अर्जुन को वहाँ शत्रु नहीं अपितु अपने प्रियजन दिखाई पड़े। उसे उनके साथ युद्ध करना था। यह देखकर उसका संकल्प दुर्बल पड़ गया। वह कांपने लगा। उसका धनुष गाण्डीव उसके हाथों से छूट गया। उसने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से कहा कि उसके सामने उसके अपने परिजन हैं। वह अपने परिजनों के साथ युद्ध नहीं करना चाहता है। उसका कहना था कि अपने प्रियजनों को युद्ध में मारकर वह राज्य का सुख नहीं भोगना चाहता है। ऐसा कोई भी सुख उसे नहीं चाहिए जिसके लिए परिजनों की हत्या करनी पड़े। अतः परिजनों के साथ युद्ध करने से अच्छा है कि वह संन्यासी बन जाए। वह श्रीकृष्ण को कई तरह से समझाने लगा कि उसे यह युद्ध क्यों नहीं करना चाहिए। उसने समझाया कि अपने परिजनों को मारने से कुल का नाश हो जाएगा। कुल का नाश होने से समाज में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी। कुल का नाश होने से उसकी परंपराओं का नाश होगा। अधर्म और अनाचार बढ़ेगा। अंततः उसने युद्ध करने से मना कर दिया।

अर्जुन का विषाद

युद्धभूमि में एकत्र अपने लोगों को देखकर अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था। अपने परिवार के मोह में वह अपने कर्तव्य से विमुख होना चाहता था। इसके लिए कई तरह के कुतर्क देकर वह स्वयं को सही साबित करने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मोह के अंधेरे में अपने कर्तव्य की अनदेखी करने के बावजूद भी वह जानता था कि उसे सही मार्ग केवल भगवान श्रीकृष्ण दिखा सकते हैं। उसने अपने रथ की ही नहीं बल्कि अपने संपूर्ण अस्तित्व की लगाम भगवान श्रीकृष्ण के हाथों में सौंप रखी थी। इसलिए विषाद की स्थिति में भी वह जानता था कि उसके परम हितैषी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। उसने अपने मन में उत्पन्न दुविधा उनके सामने खोलकर रख दी। भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी दुविधा को दूर करने के लिए उसे गीता का ज्ञान दिया।
अर्जुन के इस विषाद को समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। देखा जाए तो अपने जीवन में हम सब भी दुविधा की स्थिति में होते हैं। ऐसी स्थिति में होते हैं जब अपने कर्तव्य का सही प्रकार से पालन नहीं कर पाते हैं। अपने कर्तव्य से बचने का प्रयास करते हैं। इसके लिए अर्जुन की तरह कई प्रकार के तर्क देते हैं। पर हममें से अधिकांश लोग अर्जुन की तरह स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण को नहीं सौंप पाते हैं। इसलिए दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
इसका कारण यह है कि हम यह तो मानते हैं कि श्रीकृष्ण भगवान हैं। पर हमें लगता है कि वह कुछ समय के लिए अपनी लीला करने इस धरती पर आए थे। उस काल में अर्जुन उनके साथ था। अतः उसे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा वह ज्ञान दिया गया जो उसे सही निर्णय पर पहुँचा सका। पर अब भगवान अपनी लीला समाप्त करके इस धरती से जा चुके हैं।
हमारा ऐसा मानना सही नहीं है।‌ सही मार्गदर्शन देने के लिए ईश्वर का मूर्त रूप में होना आवश्यक नहीं है।‌ यदि हम अर्जुन की तरह दुविधा की स्थिति में स्वयं को भगवान के समक्ष समर्पित कर दें तो वह हमें सही दिशा निर्देश देंगे। हमें हमारी दुविधा से बाहर निकाल कर सही मार्ग दिखाएंगे। यदि हम समर्पण भाव से अपने भीतर देखेंगे तो पाएंगे कि ईश्वर हमारे भीतर ही विद्यमान हैं।
अब यह समझने का प्रयास करते हैं कि जो अर्जुन एक महान योद्धा था। जो धर्म को समझता था। सत्य की स्थापना के लिए लड़े जाने वाले युद्ध में एक प्रमुख योद्धा के तौर पर लड़ने आया था। वह इस प्रकार युद्ध से पीछे हटने की बात क्यों करने लगा ? उसके भीतर वैराग्य ने जन्म लिया। वह इस बात के लिए तैयार हो गया कि संन्यास लेकर कहीं और चला जाएगा परंतु अपने परिजनों के रक्त से सने राज्य और ऐश्वर्य का उपभोग नहीं करेगा।
युद्ध आरंभ होने से पहले ही अर्जुन यह जानता था कि उसे किन लोगों के साथ युद्ध करना है। उसने अचानक ही उन लोगों को युद्धभूमि में नहीं देखा था। वह यह भी जानता था कि जिनके साथ वह युद्ध कर रहा है सब अधर्म के पक्ष‌ में हैं। इसलिए वह उनके साथ युद्ध करने के लिए तैयार हुआ था। फिर भी जब उसने उन लोगों को रणक्षेत्र में देखा तो मोहग्रस्त हो गया।
कर्तव्य पथ पर चलने के बारे में सोचने और वास्तविकता में उस पर चलने में बहुत अंतर होता है। जब हम कर्तव्य पथ पर अपने कदम रखते हैं तब पता चलता है कि अब अपना पराया, मान अपमान, हानि लाभ सबसे ऊपर उठकर सिर्फ कर्तव्य के बारे में सोचना है। लेकिन हम इस संसार में निवास करते हैं।‌ हमें हमारे कर्तव्य से विमुख करने के कई कारण हमारे आसपास होते हैं। हमारा मोह, लालच और अहंकार हमें अपने कर्तव्य के सही पालन से रोकते हैं।
कर्तव्य पथ पर चलते हुए कई बार हमारे सामने ऐसी स्थिति आती है जब मोह, लालच और अहंकार हमें अपने कर्तव्य से विमुख होने के लिए प्रेरित करते हैं। उदाहरण के लिए कोई शिक्षक है। उसकी अपनी संतान भी उसकी कक्षा में पढ़ती है। परीक्षा का प्रश्नपत्र उसके पास है। वह चाहता है कि उसकी संतान अव्वल रहे। इसलिए वह सोचता है कि प्रश्नपत्र में आए प्रश्न अपनी संतान को बता दे। इसी तरह अपने लालच के लिए कुछ ऐसा करने के बारे में सोचना जो दूसरों के लिए नुकसानदायक हो। अपने अंहकार के चलते दूसरे व्यक्ति को नीचा दिखाने के बारे में सोचना।‌
अब यदि शिक्षक अपनी संतान के मोह में उसे प्रश्नपत्र बता देता है। कोई अपने लालच में ऐसा काम करने को तैयार हो जाता है जो दूसरों को नुक्सान पहुँचाए। अपने अंहकार के कारण अपना कर्तव्य भूलकर दूसरे का अपमान करे तो वह अपने कर्तव्य पथ से च्युत हो जाता है।‌ उसे उसके किए का परिणाम भुगतना पड़ता है।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो मोह, लालच, अहंकार और अपने कर्तव्य के बीच में झूल रहे होते हैं। अपने मोह, लालच या अहंकार के आगे कमज़ोर पड़ रहे होते हैं। दुविधा में होते हैं। तब उनके पास अर्जुन की तरह सही निर्णय लेने के लिए स्वयं को भगवान के समक्ष समर्पित करने का रास्ता होता है। यदि वह दुविधा से बाहर निकलने के लिए भगवान की शरण में जाते हैं तो अर्जुन की तरह सही चुनाव करने में ईश्वर उनकी मदद करते हैं।
जब कोई व्यक्ति दुविधा में होता है तब अपनी आंतरिक दुर्बलताओं के कारण कर्तव्य से विमुख होने का प्रयास करता है। कर्तव्य से दूर भागने के लिए वह कई तरह के बहाने बनाता है। अपने निर्णय को सही बताने के लिए कई तरह के तर्क प्रस्तुत करता है। जैसे अर्जुन ने किया। उसने युद्ध का परित्याग कर संन्यास लेने की बात कही। कहा कि अपनों का रक्त बहाकर पाया गया सुख किसी काम का नहीं है। उसने कुल के विनाश से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के बारे में भी बताया। परंतु श्रीकृष्ण जानते थे कि उसका वैराग्य उसके अंतस से नहीं उपजा है। अर्जुन वैराग्य की बात सिर्फ इसलिए कर रहा है क्योंकि वह मोहग्रस्त है।
आचार्य विनोबा भावे जी ने अपने गीता प्रवचन में इसी संबंध में एक कहानी का उल्लेख किया है। एक जज महोदय थे। जो गुनहगारों को उनके किए की सज़ा सुनाते थे। गुनाह साबित होने पर उसकी गंभीरता के अनुसार दंड देते थे। उन्होंने बहुत से हत्या करने वाले गुनहगारों को मृत्युदंड दिया था। एकबार अदालत में हत्या का एक मुकदमा आया। हत्या का आरोप उनके पुत्र पर था। मुकदमा लड़ा गया। सारे साक्ष्य साबित करते थे कि उनके पुत्र ने हत्या की है। जब जज महोदय को फैसला सुनाना था तब वह पुत्र मोह में ग्रसित हो गए। पहले वह आराम से हत्या के लिए मृत्युदंड की सज़ा सुनाते थे। अपने पुत्र के दोषी होने पर उन्होंने ज्ञान दिया कि अपराधी को मार देने से अपराध समाप्त नहीं होता है। अतः दंड की जगह गुनहगार को सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए।
जज महोदय ने जो कहा वह एक आदर्श बात थी। लंबे समय से इस बात पर चर्चा हो रही है कि अपराध समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि अपराधियों को सुधार का मौका देकर उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया जाए। पर जज महोदय ने वह आदर्श विचार सिर्फ इसलिए दिए थे क्योंकि अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने पुत्र को मृत्युदंड नहीं देना चाहते थे। अपने कर्तव्य से बचने के लिए वह आदर्श भरी बातें कर रहे थे।
इसी तरह अर्जुन जिस वैराग्य की बात कर रहा था वह उसका स्वाभाविक गुण नहीं था। व्यक्ति का स्वाभाविक गुण ही उसका धर्म होता है। अर्जुन एक क्षत्रिय था। समाज और धर्म की रक्षा करना ही उसका कर्तव्य था। महाभारत का युद्ध इसी उद्देश्य के लिए लड़ा जा रहा था। अतः उसका वैराग्य मोह से उत्पन्न था न कि ज्ञान के कारण। इसलिए वह क्षणिक था। अपने कर्तव्य से विमुख होना न ही उसके हित में था और न समाज के हित में था।
मोह के कारण उत्पन्न वैराग्य उसे कायर बना रहा था। वह अपनी कायरता को ज्ञानभरी बातों से छुपाना चाह रहा था।
सौभाग्य की बात थी कि वह भगवान श्रीकृष्ण की शरण में था। उसने अपने मन को पूरी तरह से उनके समक्ष खोल दिया। जैसे कि एक मरीज़ बिना किसी संकोच के अपने रोग के बारे में अपने चिकित्सक से बात करता है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपने ह्रदय की दुर्बलता को भगवान श्रीकृष्ण के सामने प्रकट किया। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देकर उसके अज्ञान को दूर किया और दुविधा से बाहर निकाल कर कर्तव्य पथ दिखाया।
अतः जब हम दुविधा में हों तो अर्जुन की भांति स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दें।

अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के लिए किए गए संबोधन
अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के लिए कई संबोधनों का प्रयोग किया। आइए समझने का प्रयास करते हैं कि उन संबोधनों का क्या अर्थ है और क्या उनके प्रयोग का कोई विशेष प्रायोजन है।

ह्रषिकेष
ह्रषिकेष का अर्थ होता है वह व्यक्ति जिसने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो। जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर लेता है वह उनके प्रभाव में नहीं आता है। भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। वह समस्त इंद्रियों से परे है। इंद्रियां उनके वश में हैं। अर्जुन ने उन्हें ह्रषिकेष कहा क्योंकि जो इंद्रियों के वश में ना हो वही सही निर्णय ले सकता है। वही सही मार्ग पर ले जा सकता है।

अच्युत
जो त्रुटियों से रहित हो। अटल हो। भगवान श्रीकृष्ण अटल हैं। वह त्रुटियों से रहित हैं। अतः सही ज्ञान दे सकते हैं।

केशव
भगवान श्रीकृष्ण ने केशी नामक दानव का वध किया था। अतः उनका एक नाम केशव भी है। केशी दानव अहंकार का परिचायक था। अतः अर्जुन ने केशव संबोधन द्वारा अपने अहंकार का नाश करने को कहा जिससे वह सही और गलत में अंतर को समझ सके।

गोविंद
गोविंद का अर्थ होता है इंद्रियों को सुख देने वाला। श्रीकृष्ण हमारी हर इंद्री को सुख प्रदान करते हैं। अर्जुन चाहता था कि श्रीकृष्ण उसे दुविधा से निकाल कर उसे सुख प्रदान करें।

मधुसूदन
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं। भगवान विष्णु ने मधु नामक दैत्य का वध किया था। इसलिए श्रीकृष्ण को मधुसूदन भी कहा जाता है। अर्जुन चाहता था कि श्रीकृष्ण उसकी अज्ञानता रूपी दैत्य का वध करें।

जनार्दन
जनार्दन का अर्थ होता है पालनकर्ता। श्रीकृष्ण पालनकर्ता हैं। पालनकर्ता के रूप में वह पिता के समान हैं। अर्जुन उसी प्रकार उनकी शरण में गया जैसे पुत्र विपत्ति के समय अपने पिता के संरक्षण में जाता है।

माधव
माता लक्ष्मी के पति जो मधुरता से परिपूर्ण हैं। अर्जुन चाहता था कि उसके ह्रदय की चिंता को दूर कर श्रीकृष्ण उसे मधुरता प्रदान करें।

वार्ष्णेय
वृष्नि वंश से संबंधित। भगवान श्रीकृष्ण के वंश का नाम वृष्नि था। अर्जुन चाहता था कि श्रीकृष्ण उसे सही मार्ग दिखाकर उसके कुल का उद्धार करें।