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यात्रा-(उत्तराखण्ड)

यात्रा- (उत्तराखण्ड)

इस बार यात्रा अल्मोड़ा, चितई,जागेश्वर, बिनसर, घर, बद्रीनाथ, हरिद्वार के लिये है। हल्द्वानी से कार काठगोदाम होते हुये पर्वतीय क्षेत्र में आ गयी है। रानीबाग में एच एम टी की फैक्ट्री खण्डहर स्थिति में पड़ी है। समय के साथ नहीं चल पायी, यह। भीमताल झील में पहले से अधिक नावें सजी दिख रही हैं। पहाड़ी शहर पहले से बड़ा। पहाड़ पर कार का चलना पर्वत श्रेणियों को लपेटे रहता है। भवाली में पहुँच कर ग्वेल देवता का मन्दिर याद आता है। हाल ही में भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान भी वहाँ गये थे। राजयक्ष्मा( टीबी) का सैनिटोरियम भी यहाँ हुआ करता था। स्व.कमला नेहरु भी यहाँ रही थीं, मैंने बातोंबातों में कहा। कैंची में शनिवार होने के कारण अच्छी खासी भीड़ थी। यहाँ अमेरिकी कम्पनी "एप्पल" और फेसबुक के संस्थापक भी आये थे, ऐसा कहा जाता है। भारतीय क्रिकेट टीम के भूतपूर्व कप्तान भी यहाँ देखे गये थे जो सोशल मीडिया का समाचार बने थे। आस्था में शक्ति होती है,ऐसा लगा। कार ड्राइवर ने कहा," कुछ लोग बिना कुछ करे सब पाना चाहते हैं इसलिए भी भीड़ दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।" अल्मोड़ा पहुँच कर प्रकृति का विहंगम दृश्य देखने को मिला। नन्दा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर यहाँ है। नन्दा,पार्वती जी का ही रूप हैं। जिस पर कुमाऊँनी भाषा में गीत हैं-
" अल्मोड़े कि नन्दा देवि तु दैड़ैं है जैये( कृपा बनी रहे) ---"
अल्मोड़ा में मालरोड, लाला बाजार, लोहे का शेर,टेढ़ी बाजार, कचहरी बाजार, कारखाना बाजार, खजांची मोहल्ला, जौहरी बाजार, थाना बाजार,पलटन बाजार आदि स्थान है।बाजार का रास्ता चौड़े पत्थरों से बना है। अल्मोड़ा चंद राजाओं की राजधानी रहा है, लगभग १७९० तक। मैंने अपना राजकीय इण्टर कालेज देखा और उसकी राहें भी। चितई ग्वेल देवता के मन्दिर में हजारों घंटियां और चिट्ठियां टकीं देख कर मानव मन की अभिलाषाओं के दर्शन होते हैं। जागेश्वर मन्दिर शिव जी के प्रतीक के रूप में विद्यमान है। देवदार के घने जंगल के बीच। चारों ओर का नैसर्गिक सौन्दर्य मन को मोह लेता है। यहाँ पर लगभग १२४ मन्दिर हैं। दो मुख्य मन्दिर हैं। मन्दिरों का कत्यूरी और चन्द राजाओं ने जीर्णोद्धार किया था। कहा जाता है पहले यहाँ जो कुछ माँगा जाता था, वह इच्छा पूरी हो जाती थी लेकिन इस शक्ति का दुरुपयोग होने पर इसे सीमित कर दिया गया। दुकानें पहले से बहुत अधिक हो गयी हैं। शरत ऋतु है अतः अच्छी खासी ठंड है। बिनसर जाते समय कार को जंगल में काफी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। अन्त में लगभग दो किलोमीटर दूरी पैदल चलनी पड़ती है। पैदल चलते समय हिमालय के दर्शन बीच-बीच में होते रहते हैं। इसमें नन्दा देवी चोटी और अन्य शिखरों का मनभावन दृश्य देखने को मिलता है।वैसे तो आकाश पृथ्वी को हर स्थान पर स्पर्श करता है लेकिन पहाड़ों में लगता है जैसे पहाड़ आकाश को छू रहा है, इसलिए गगनचुम्बी कहलाते हैं। हिमालय के सौन्दर्य का विश्व में अपना विशेष स्थान है। इस सौन्दर्य में हम बार-बार लिपटते हैं।
यात्रा-(उत्तराखण्ड):
गाँव के शिखर पहले जैसे साफ और स्वस्थ दिख रहे हैं। जहाँ देखो वहाँ से बचपन याद आता है। पहाड़ की ककड़ी जो लगभग एक फीट लम्बी और बहुत मोटी होती है। पककर हल्की लाली ले चुकी है। "रैते" के लिये उपयुक्त। अखरोट इस साल बहुत अच्छे हुये हैं। गडेरी( अरबी) का उत्पादन गाँव में बहुत होने लगा है। बड़ी इलाइची भी दिख रही है। संतरे/नारंगी अभी पके नहीं हैं। लेकिन एक माह बाद पकने की संभावना है। उत्तरायणी के मेले में पहले खूब बिकती थीं। अब बाजार सहजता से उपलब्ध है। पड़ोस में चाची रहती है।उनकी आयु नब्बे साल हो चुकी है। सुख- दुख लिये बहुत क्षीण हो चुकी है। याद उन्हें सब कुछ है। ९३ साल के पिरदा से मिलने गया। उन्होंने बताया १९४६ में एक स्वतंत्रता सेनानी उनके घर ठहरे थे। उन्होंने पड़ोस के घर पर अ,आ,क,ख लिख दिये,शिक्षा के प्रसार के लिए। लेकिन पड़ोसी जब उन अक्षरों को देखा तो उसे विचित्र लगा और उसने उन पर मिट्टी पोत दी। तब अशिक्षा बहुत थी यह उसका उदाहरण था,चिट्ठी पढ़ने और लिखने वाले केवल दो लोग गाँव में थे, उन्होंने कहा। उन्होंने आगे कहा कल जब उन्होंने अपने नाती से फोन में वीडियो देखने से मना किया तो वह बोला," सैट अप,बूढ़े (दादा) ।" 93 साल की उम्र में भी वे गाय,भैंसों को चारा दे रहे थे। हम अपने प्राथमिक विद्यालय देखने गये। उन्होंने कहा जाते समय इधर से आना चाय बनाते हैं। आते समय जब हम चढ़ाई में आ रहे थे तो वे अपने घर के किनारे से हमारी राह देख रहे थे। भावुक दृश्य था। चाय पी। और उन्होंने कहा आजकल सपने में आपके पिताजी, रामू चाचा,बहादुर चाचा को देखता हूँ। तीनों के साथ अच्छा प्रेमभाव था।
उन्होंने फिर दही,गडेरी,मिर्च दी जिसमें वही पुरानी परंपरा की छवि देखने को मिली। सूरज ढलने को था और हम अपने घर की ओर बढ़े।
बद्रीनाथ के लिए हमें गाँव से ही कार मिल गयी। हम चौखुटिया होते हुए ये गैरसैंण पहुँचे,उत्तराखण्ड की घोषित राजधानी। चौखुटिया राजुला और कत्यूरी राजा मालूशाही की प्रेमगाथा के लिए भी जाना जाता है, उस समय इसे बैराठ के नाम से जाना जाता था। और यह एक संपन्न राज्य था। कर्णप्रयाग में अलकनन्दा और पिण्डर नदियों का संगम देखा। अलकनन्दा का पानी साफ नीले रंग का था और पिण्डर का गदला। अलकनन्दा जल देखकर ( नीला रंग), विज्ञान का "रमन प्रभाव" याद आया।
फिर नन्दप्रयाग और विष्णु प्रयाग आते हैं। नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम है और विष्णु प्रयाग में धौलीगंगा और अलकनन्दा का संगम होता है। रात को पांडुकेश्वर में विश्राम करते हैं। बद्रीनाथ पहुँच कर दर्शन होते हैं। यहीं विष्णु भगवान ने तपस्या की थी,यह मान्यता है। चोटियों पर बर्फ है। उसकी कुछ फाँहें उड़कर हम तक पहुँच रही हैं। वहाँ ठंड में चाय बेहतरीन लग रही थी। कहने को मन हुआ," चाय की एक घूंट मुझे तरोताजा कर गयी।" माणा गाँव में पैदल चलने का अलग आनन्द है। भीम पुल के दर्शन होते हैं। वह पत्थर जिसे कहा जाता है भीम ने पांडवों के स्वर्गारोहण के समय सरस्वती नदी पर पुल के रूप में प्रयोग किया था,वह दिखता है। वहाँ दुकान पर दुकानदार अल्मोड़ा की "बाल मिठाई" का संदर्भ उठाता है। माँ सरस्वती का सुन्दर मन्दिर भी यहाँ पर है।
लौटते समय कर्णप्रयाग से रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग, ऋषिकेश होते हुये हरिद्वार पहुँचते हैं। रुद्रप्रयाग में मंदाकिनी नदी अलकनंदा में मिलती है और देवप्रयाग में भागीरथी, अलकनंदा से मिलती है और दोनों मिलकर "गंगा" नाम से जाने जाते हैं। बद्रीनाथ जाते-आते समय पहाड़ बहुत विकट लगते हैं।भगवान की माया अद्भुत है। एक ओर वे गोकुल में खेलते हैं और दूसरी ओर विकट पहाड़ों में ध्यानमग्न हो जाते हैं।
हरिद्वार में हरि की पौड़ी में गंगा में बहुत कम जल था। पता चला कि दशहरे के बाद सफाई के लिए गंगा के जल प्रवाह को रोक दिया जाता है और सफाई के बाद दीपावली से फिर से "गंगा" में सामान्य जल प्रवाह हो जाता है।

** महेश रौतेला