Asamartho ka bal Samarth Rmadas - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 14

जामगाँव से पुनः प्रस्थान :
लगभग चार माह बीत गए। अब जामगाँव के युवाओं में नया चैतन्य भर गया था। वे अपने धर्म और समाज की रक्षा में सक्षम और तत्पर हो रहे थे। उन्हें किसी बाहरी मदद की आवश्यकता नहीं थी। अपना उद्देश्य सफल हुआ देख, समर्थ रामदास ने वहाँ से प्रस्थान करने का निर्णय लिया। क्योंकि देश में और भी कई स्थान थे, जहाँ लोगों को जगाने की, प्रेरित करने की आवश्यकता थी।

उन्होंने अपने प्रस्थान की बात माँ को सुनाई तो मानो उन पर पहाड़ ही टूट पड़ा। पुत्रवियोग में सारा जीवन बीता था । नारायण के रूप में बरसों पहले खोई खुशी लौट आई थी। इस खुशी में कुछ माह ही बीते थे कि नारायण के मुख से दोबारा विदा लेने की बात आ गई।

‘अरे नारायण, तू इतना निर्मोही क्यों है? क्या तुम्हें अपनी माँ पर दया नहीं आती? मुझे दोबारा पुत्रवियोग की पीड़ा देकर क्यों जाना चाहता है? क्या मैं जीवन का अंतिम समय पूरे परिवार के साथ नहीं बिता सकती? चाहो तो मेरे मृत्यु के बाद ही चले जाना’, माँ ने रोते हुए कहा। लेकिन समर्थ रामदास अपने निश्चय से टलनेवाले नहीं थे।

गंगाधरपंत को मालूम था कि एक न एक दिन यह घड़ी आने ही वाली है। उन्होंने बीच-बचाव करते हुए माँ को समझाया, 'माँ, अब यह सिर्फ हमारा नारायण नहीं है। प्रभु राम ने इसे महान कार्य के लिए चुना है। बचपन से वह इसी प्रेरणा पर चल रहा है। एक स्थान पर बँधे रहकर उस कार्य की पूर्ति संभव नहीं है। तुम्हें माँ होने के नाते उसे विजयी होने का आशीर्वाद देना चाहिए, न कि पुत्र मोहवश उसके पवित्र कार्य में विघ्न डालना चाहिए। तुम अपनी ममता का त्याग नहीं करोगी तो नारायण कभी अपने संकल्प को पूरा नहीं कर पाएगा। अपने हृदय को पाषाण जैसा दृढ़ बनाओ और शुभकामनाओं के साथ उसे विदा करो।'

बड़ी मुश्किल से राणोबाई का हृदय परिवर्तित हो पाया। समाज की ज़रूरत को देखते हुए, दिल पर पत्थर रखकर वह पुत्रमोह त्यागने के लिए तैयार हो गईं। अश्रु भरे नेत्रों से उसने नारायण से वचन लिया कि अपनी माँ के अंतिम समय में वह कहीं भी हो लेकिन माँ से मिलने ज़रूर आएगा।

माँ के त्याग को प्रणाम करते हुए, नारायण ने माँ को वचन दिया, साथ ही उनसे यह वचन भी लिया कि वे उन्हें बिना आँखों में आँसू लाए, हँसकर विदा करेंगी।

सारे ग्रामवासियों को देव, देश और धर्म की रक्षा का उपदेश देकर समर्थ जामगाँव छोड़ चले। माँ ने उनके माथे पर तिलक लगाया और उन्होंने 'कपिल गीता' द्वारा माँ को आत्मबोध का ज्ञान दिया। जिसे सुन माँ के अंदर का रहासहा क्लेश भी मिट गया। बिदाई के समय आत्मबोध (ज्ञान) से बढ़कर उपहार भला किसी के लिए और क्या हो सकता था!

‘जय जय रघुवीर समर्थ’ का नामघोष करते हुए समर्थ रामदास जामगाँव छोड़कर, अपनी ध्येय प्राप्ति के लिए अज्ञात की यात्रा में निकल पड़े। इस नामघोष ने पूरे महाराष्ट्र में चैतन्य भर दिया था। सिर्फ सह्याद्रि पर्वत ही नहीं, गंगा-यमुना के साथ कृष्णा और कावेरी के घाटों को भी उन्होंने जगा दिया था। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतु तक मठ-महंतों की स्थापना द्वारा राष्ट्र निर्माण के कार्य की नींव इस संन्यासी द्वारा रखी गई थी ।

जामगाँव से निकलकर वे दोबारा टाकली आ गए, जहाँ उन्होंने आदिमठ की स्थापना की थी। उनका पहला शिष्य उद्धव जो कि ब्राह्मण दंपति ने उन्हें अर्पित किया था, अब उद्धवस्वामी बन चुका था और अपने गुरुदेव के बताए रास्ते पर नित-नियम से धर्मपालन कर रहा था । एक तप से भी ज़्यादा समय के बाद उद्धव की भेंट अपने गुरुदेव से हो रही थी।

उनसे भेंट कर उद्धव को बड़ा हर्ष हुआ। अपना कार्य नए सिरे से शुरू करने के लिए समर्थ रामदास वहाँ से जल्द ही जानेवाले थे लेकिन उद्धवस्वामी के लिए शुभ समाचार यह था कि अब वे भी अपने गुरुदेव के साथ इस कार्य में उनके सहायक बनकर चलनेवाले थे। गुरुदेव की आज्ञा को आखिरी शब्द मानते हुए उद्धवस्वामी उनके साथ चल पड़े।

ऐसा माना जाता है कि लगभग इसी समय में उनकी भेंट निज़ामशाही की सेवा में कार्यरत शहाजी राजे भोसले से हुई। वे भी स्वतंत्रता पाने के लिए व्याकुल थे। वे चाहते थे कि किसी धर्मपुरुष, संन्यासी का उन्हें इस कार्य में मार्गदर्शन मिले। उनके पुत्र शिवाजी भोसले (शिवबा) तब कुछ मावलों (मराठा सैनिक) को साथ लिए मुगलों के खिलाफ लड़ाई शुरू कर चुके थे और उन्होंने कुछ किले भी जीत लिए थे। हिंदवी स्वराज्य स्थापना का वह शुरुआती दौर था। अभी शिवाजी, छत्रपती शिवाजी महाराज नहीं बने थे।

जब हम सच्चे दिल से किसी चीज़ की कामना करते हैं तो कुदरत उसे हमारे सामने प्रस्तुत करती है। हमारी प्रार्थनाएँ अदृश्य में कार्य करती हैं और उसकी पूर्ति के लिए घटनाएँ आपस में जुड़ जाती हैं।

धर्मजागृति करते हुए एक तरफ समर्थ रामदास देशाटन कर रहे थे, प्रजा को मुगलों के खिलाफ शक्ति अर्जित करने का संदेश दे रहे थे और दूसरी तरफ शिवबा ने हिंदवी स्वराज्य की नींव कुछ गिने-चुने लोगों को साथ लेकर रख दी। अर्थात किसी के अंदर ज़ोरदार प्रार्थना उठी है, उसकी पूर्ति के लिए वह निरंतर प्रयासरत है और दूसरी तरफ उसका निर्माण शुरू हो चुका है। प्रार्थनाएँ कैसे कार्य करती हैं, यह ईश्वर की लीला है।

प्रयास में प्रार्थना की शक्ति और आत्मबल जुड़ना बड़े परिवर्तन की शुरुआत है।


जेणें मक्षिका भक्षिली जाणिवेची। तया भोजनाची रुची प्राप्ति कैंची।
अहंभाव ज्या मानसींचा विरेना। तया ज्ञान हे अन्न पोटीं जिरेना ॥ 159 ॥

अर्थ- आत्मज्ञान के भोजन में अहंभाव की मक्खी गिरी है तो वह मक्खी उस ज्ञान का पाचन नहीं होने देती। अहंभाव की वजह से ज्ञान की बातें नापसंद हो जाती हैं, उनसे घिन आने लगती है। जिसका अहंभाव समाप्त नहीं होता, उसे ज्ञान हज़म नहीं होता।

अर्क- अहंकार ही आत्मज्ञान होने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकार को समर्थ रामदास ज्ञान के अन्न में गिरी हुई मक्खी कहते हैं, जिसकी वजह से वह ज्ञान का अमृत अहंकारी को रास नहीं आता। अहंकारी इंसान अपनी ही अकड़ में रहता है और ज्ञान की बातों का उपहास करता है। क्योंकि 'मैं सब जानता हूँ' यह भ्रम उसके मन में होता है, जो उसे असली ज्ञान से दूर रखता है। से

अहंतागुणें सर्व ही दुःख होतें। मुखें बोलिलें ज्ञान तें वेर्थ जातें।
सुखी राहतां सर्व ही सूख आहे। अहंता तुझी तूं चि शोधूनि पाहें ॥161॥

अर्थ- अहंकार है तो सभी दुःख आते हैं। अहंकारी के मुख से निकलनेवाला ज्ञान का उपदेश भी व्यर्थ हो जाता है। अपना अहंकार खोजकर उसका नाश करो तो चारों ओर सुख ही सुख है।

अर्क - अहंकार ही सारे दुःखों का मूल है। अहंकारी इंसान अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ मानकर ही व्यवहार करता है इसलिए उसके मन मुताबिक कुछ न हो तो उसे दुःख होता है। वह दूसरों पर नियंत्रण पाना चाहता है। समय के साथ ऐसा अहंकारी इंसान महत्वहीन हो जाता है क्योंकि ऐसे इंसान से सभी दूरी बनाए रखना चाहते हैं। अगर अहंकार का त्याग करके हरेक के साथ व्यवहार हो तो ऐसा इंसान लोगों में प्रिय होकर उसे हर जगह सुख ही मिलता है। इसलिए समर्थ रामदास अहंकार त्यागने का उपदेश देते हैं। लोकव्यवहार में सुख, शांति पाने के लिए भी यह बहुत मददगार है।
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