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ठंडी सड़क (नैनीताल) - 8

ठंडी सड़क (नैनीताल)-8

मैं उस दिन अकेले बैठा था। ठंडी सड़क कुछ सर्पीली सी मेरे अन्दर घुमाव बना रही थी। नैनीताल ,एक लघुकथा, मेरे अन्दर जगमगाने लगती है।

नैनीताल( एक लघुकथा)-१

वहाँ मेरा होना और तुम्हारा होना
एक सत्य था,
इस बार वहाँ जाऊँगा
तो सोहन की दुकान पर
चाय पीऊँगा,
रिक्शा स्टैंड पर बैठ
कुछ गुनगुना लूँगा,
बिष्ट जी जहाँ खड़े होते थे
वहाँ से दूर तक देखूँगा,
यादों की बारात में
तुम्हें खोजते-खोजते
नीचे उतर आऊँगा।
नन्दा देवी के मन्दिर में जा
सभी देवी देवताओं को धन्यवाद दे
कहूँगा कि जैसा चाहा वैसा नहीं दिया
पर जो दिया वह भी मूल्यवान है
जन्मों का फल है,
नैनी झील को
नाव से पार करते समय
देख लूँगा वृक्षों के बीच दुबके छात्रावासों को,
धूप सेंकने बैठे
खिलखिलाते-शरमाते चेहरों की ओर
जो लगता है हमारे जमाने से बैठे हैं।
हवा जो बह रही है
उससे पूछ लूँगा
तुम कब तक रूकोगी यहाँ,
वृक्ष जो छायादार हैं
उनसे पूछ लूँगा
कब तक फलोगे यहाँ पर,
जब उत्तर मिलेंगे
तब तल्लीताल आ जाऊँगा।
डाकघर पर
अपनी पत्र की प्रतीक्षा में
खो जाऊँगा दीर्घ सांस लेकर।
इधर मिलना
उधर मिलना
पैरों से कहूँगा रुक जाओ
नहीं होगा पार मन, शाम घिर आयी है।
ठंडी सड़क को
पड़ी रहने दें एकान्त में,
पाषाण देवी के मन्दिर जा, सोचें
चलो लौट चलें गाँव के पास।
देवदार के पेड़
अपनी छाया में
मिला लेंगे हमारी छाया,
हम समय के द्वार खोल
अन्दर हो आयेंगे,
बत्तखों को देखते
चलते-फिरते,आते-जाते
स्वयं को भूल जायेंगे।
अपने को भूलने के लिए
बुद्ध होना होगा,
अपने को भूलते हुये
किसी से भी मिल लेंगे,
आटे की दुकान से आटा खरीद लेंगे
चावल की दुकान से चावल
तेल की दुकान से तेल
और पका लेंगे अपना खाना।
कभी-कभी प्यार का सुर सुन
हो जायेंगे उदास।
समय का कोई ठिकाना नहीं
विद्यालय की कक्षा में बैठ
विज्ञान के आश्चर्य जान लेंगे,
मन नहीं मानेगा तो
आकाश और धरती को देख खुश हो लेंगे,
बर्फ के गोलों की ठंड
स्वयं ही नहीं दोस्तों को भी छुआयेंगे,
अपने को ही नहीं
दूसरे को भी देखेंगे,
फूल सी हँसी कभी कहीं से झड़
बना सकती है लम्बा मार्ग,
मनुष्य के लिए सब कुछ सरल नहीं
कभी वह आग में जल सकता है
कभी बाढ़ में बह सकता है,
हर चाह चकित करती है
मरने के बाद फिर जीवित होती है।
हस्तलिखित हमारा मन
मालरोड के पुस्तकालय में पढ़
सारे समाचारों को इकट्ठा कर
एक-दूसरे को बतायेगा,
तब हमारी दुनिया
वहीं इकट्ठी हो जायेगी।
इसी बीच कहने लगूँगा
"ठंड में मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होती,
प्यार की ऊष्मा लिए
पहाड़ की ऊँचाई को पकड़े होती है,
हाथों के उत्तर
चलते कदमों की साथी,
क्षणों को गुदगुदाती
बातों को आगे ले जाती,
सशक्त पुल बनाती
उनको और हमको पहचानती,
तब मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होती.
(वही मूँगफली जो साथ-साथ मिलकर खाये थे।)"

नैनीताल ( एक लघुकथा)-२

जमाना हो गया है
प्यार में बैठे हुये,
इस बीच क्रोध से मिलना हुआ
राग-द्वेष से भेंट हुयी,
अन्तहीन बातें हुयी
इतिहास से सामना हुआ
वीरों का गुणगान सुना
ध्यान में हूँ
नैनी झील से बात कर रहा हूँ
झील के किनारे नगर है
तुम तक पहुँचने में समय था
हालांकि छाया आधे मैदान को घेर चुकी थी
मैदान में खेल चल रहा था
कौन हारेगा कौन जीतेगा
इससे मुझे लेनादेना नहीं था,
गीता पढ़ी
जय-पराजय,लाभ-हानि समान समझने का पाठ पढ़ा
हाँल में सनेमा चल रहा था
गुरुद्वारे के आगे भीड़ थी
बैंड बजने की तैयारी थी
मैं छाया - धूप में खिसकते खिसकते
बड़े बाजार में आ गया हूँ
जीवन कुछ स्नेह का
कुछ क्रोध का, कुछ राग-द्वेष का
कुछ खेत का, कुछ बाजार का
कुछ लड़ाई-झगड़ों का।
समुद्र मंथन सा कुछ हुआ
रत्न निकले
विष निकला
अमृत भी निकला
और सब संसार में रह गया।
पहिचान में आये
नैना चोटी,इधर-उधर की चोटियां
रास्ते, रास्तों में खिली दोस्ती
मैंने जाना
रास्ते लौटने के लिए होते हैं
मेरे बगल में बैठे तुम
फूलों से लदे
मानो फल देने वाले वृक्ष थे,
फिर दिन ढले
और चहल-पहल में डूबा शहर।

नैनीताल( एक लघुकथा)-३

हिमपात था
शहर शुभ्र-श्वेत हो चुका था,
पूस के महिने का दिन
कंपकंपा रहा था,
हिमयुग का विचार
आते ही अस्त हो गया,
बर्फ पर फिसलना
एक खेल हुआ करता था,
हिम के गोलों में
एक शरारत होती थी,
महाविद्यालय में मिल जाया करती थी
धूप की गरमी,
कक्षाओं के नूतन पाठ
कुछ सरल, कुछ कठिन,
इलक्ट्रोन का घूमना और
प्रोट्रान-न्यूट्रॉन से दूर रहना बहुत भाता था,
दूर तक झाँकना
सब कुछ बटोर कर लाना,
सब यादों में घुला।
चुनावी सरगर्मियां
मनमुटाव को सहेजना,
जीत का स्वाद
फिर हिम सा पिघल जाना
और पाँव तले जमीन घिसक जाना।
ठंड को जीतकर
पढ़ाई-लिखाई में तल्लीन
हम प्यार के शीर्षक लिखते थे।
सोचते थे
आखिर यह हिमपात रूकेगा,
बसंत आयेगा
और भेंट की आशा बँधेगी।
हमारे विरोध
समय के कटघरे में रह
स्वतंत्र नहीं हो पाते थे,
मनुष्य का सत्य
बहुरूपिया होता देख
हम चकित थे।
हिमपात एक खबर हुआ करती थी
विषाक्त भाव को छोड़,
हम मधुर हो
हिम में लोटपोट हो जाते थे।
हिमपात जो रास्तों को रोक
हमें मिलने देता था,
वृक्षों की टहनियों को झुका
बड़ा हो जाया करता था,
तन की गरमी
हिमपात की ठंड से मिलजुल कर
बातें किया करते थे,
हम साल दर साल गिरी बर्फ की
किंवदंतियां सुना
बर्फ को पिघलाकर पानी बनाया करते थे,
पानी में बर्फ को तैरता देख5
वैज्ञानिक बहस छेड़ देते थे,
और मधुमक्खियों का छत्ता जैसा उसे मान लेते थे।
ऐसा लगा था प्रकृति की कविता है
मौन हँसता हिमपात,
इसकी हर पंक्ति
शुभ्र,श्वेत आवरण में
स्नेह में लिपटी, आँखें जगमगाती
ऊँचाई पर रहती हैं।
बादलों का इतना सफेद बोलना
मनुष्य की ईहा को
जगमगा देता है।
हम हिम से श्वेत न हों
पर हिम तो देख सकते हैं,
उसे छू सकते हैं
अथाह शीतलता महसूस कर
एक नूतन आभास पा सकते हैं।
शब्दों को आनन्द दे
जितना ही चुप, शान्त रहें
उतना ही प्यार बढ़ता है,
अथाह नहीं तो तैरने लायक बना रहता है।
हाँ, तो हम कहाँ थे
पाँचों दोस्त,
उस हिमपात में स्वर्गारोहण की बातें कर रहे थे,
पांडवों की उस यात्रा को
अन्तिम नहीं, प्रथम मान रहे थे।

नैनीताल( लघुकथा)-४

छोटी सी पगडण्डी
जहाँ से विद्यालय आता जाता था,
इतनी बार दौड़ाती थी
कि मन में छप चुकी थी,
उसका कब्रिस्तान से जाना
बहुत डराता था,
कब्रों में लेटे शव
जो अस्थियों में बदल
मिट्टी हो चुके होंगे
डरावने लगते थे।
पहाड़ याद रह जाते हैं
ऊँचाई के कारण,
चोटियों के साथ
अद्भुत दृश्यों को समेटे
दुरुहता में अटके,
भव्यता में आकंठ डूबे
हमारे झुकाव के कारण
प्रिय बने रहते हैं।
जितने पहाड़ बदले
उतने बदलाव हुये,
नींद खुली, सुख दिखे।
हमारी बातों ने
पहाड़ों को पहाड़ बना दिया
जीवन को कहा "पहाड़ सा जीवन"
फिर लौटे तो
संक्षिप्त लगा वह,
शतायु का आशीष लिए
प्यार का आयातक
प्यार का निर्यातक
खंदकों में गिरता
विभीषिकाओं से क्षतिग्रस्त
निडरता का परिचय देता
पहाड़ बन जाता है।
उसी पगडण्डी से आ
मैंने चुराया था एक पता
जो था बहुमूल्य,प्रिय
जो मुझे लगा अटूट रास्ता
प्रकृति तक पहुँचने का।

नैनीताल( एक लघुकथा)-५

मैं १६ नम्बर कोठी के कमरे में बैठा
खिड़की खोलता हूँ
कि थोड़ी धूप,प्रकाश आ जाय
गरमी दे, प्यार भरी उष्मा में तपाय,
वह बिना माध्यम हम तक पहुँच
हमारी पहिचान बनाता है,
लेकिन आकाश उसे भी चाहिए खुला
चेहरों पर पड़,
परावर्तित हो,ममत्व से घिर
प्यार करने को बाध्य करता है।
मैं गीता लिए
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद को
प्रकाश में पढ़,
आलोकित हो रहा हूँ।
आगे खेत में आलू लगे हैं
"नैनीताल का आलू"
अपनी पहिचान के साथ
साहित्यिक स्वाद लिये
"कफन" के आलू की याद दिलाते हैं।
गीता हाथ में है
श्रीकृष्ण ,अर्जुन द्वापर में,
संजय बता रहा है
और अन्धा राजा सुन रहा है,
ज्ञान केवल अर्जुन ले रहा है
श्रीकृष्ण कहते हैं
परिस्थितियां जैसी भी हों
कर्म करो,फल की चिन्ता मत करो,
जय-पराजय, लाभ-हानि को समान मानो।
अहिंसक हो जाती हैं उनकी बातें
जब वे कहते हैं
आत्मा अजर-अमर है-
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।"
सामने पेड़ों के पतझड़ में
बसन्त आने लगा है,
मैं पुराने कपड़े छोड़
नये कपड़े पहनने लगा हूँ।

"कफन" - कहानी

नैनीताल( एक लघुकथा)-६

मैं युवा नैनीताल के बारे में सोचता
कुछ हिमाच्छादित,
कुछ धूप में हूँ।
प्यार के प्रखर प्रहरों को
आता-जाता देख,
सोचता हूँ,नैनीताल को हारना नहीं चाहिए।
यह दृष्टि ही है
जो हमें बनाती-बिगाड़ती है,
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
" पुण्यो गन्धः पृथिव्यां ----"(मैं पृथ्वी की पुण्य सुगन्ध हूँ---)
बस, यही मान
झील को बार-बार देख
वृक्षों को बार-बार निहार,
राहों पर आड़ा-तिरछा चल
उन शिखरों को बताता हूँ
हर परिच्छाई को बड़ा देखता हूँ।
ध्यान जब टूटे
तो सब हराभरा दिखे,
पत्रों की बात हो
दोस्ती में बहाव हो,
आँखों से टपकता प्यार
इसपार भी हो,उसपार भी हो,
संघर्षों के वृक्षों पर
फूल खिल
बसंत को पुकारते रहें।
पहाड़ की भूख
एक अदृश्य भूख है,
जो जीजिविषा को शीतल कर
तपस्वी बन जाती है।
झील से बातें करना
वृक्षों के लिए गुनगुनाना,
देवी-देवताओं को आवेदन देना
पुरानी बातों की जड़ ढूंढना,
अनन्त को सजीव करना
हमारे अमरत्व के प्रमाण हैं।
प्यार के प्रखर प्रहरों को
आता-जाता देख,
सोचता हूँ, आधुनिक मौजमस्ती में
नैनीताल को हारना नहीं चाहिए।

नैनीताल(एक लघुकथा)-७

मेरे स्नेह के साक्षी
अब बूढ़े होने लगे हैं,
तब जब पौ फटती थी
यौवन का उत्साह
बुरुंश के फूल सा लाल हो
मन में खिला रहता था।
सूरज आज की तरह निकलता था
आज की तरह छिपता था,
ग्रहण भी आज की तरह लगते थे,
पर थकान का नाम नहीं था
सोचते थे
कृष्ण-राधा की तरह हम प्यार कर सकते हैं,
जुआ हमने खेला
शकुनि की तरह नहीं,
युधिष्ठिर की तरह
राजपाट था नहीं
तो हारे भी नहीं,
महाभारत के कुछ पर्व
हमारे अन्दर घराट की तरह नाचते रहे।
वन हम भी गये
पर वनवास में नहीं,
सुबह गये,शाम को लौट आये,
जंगल में डर रहता है
ऐसा सोचा जाता है,
जंगलराज में
सिंह, हिरण को खा जाता है।
अब मैं कमरे की धूप से बात कर लेता हूँ
सन्नाटे में आवाज लगा लेता हूँ,
सती की आँख जहाँ गिरी थी
उसे देवस्थान मान लेता हूँ।
आत्मा का आत्मा से
मौन संवाद यहीं हुये,
कदम हमारे ठिठके
संशय बड़े हो गये।
पतझड़ की पीड़ा
साथ-साथ सहे,
पेड़ों के बीच चुपके से
छिपते रहे।
हमारा यह नगर
माँ सती के आँख सा
हमें देखता रहा,
जब भी आत्मिक हुये
झील के किनारे बैठे मिले।

नैनीताल( एक लघुकथा)-८

झील के किनारे बैठ
सोच रहा हूँ
मैं बूढ़ा युवक हूँ,
वहाँ बूढ़ी युवती सोच रही होगी,
पत्र लिख,शब्दों को
झील में बहा देता हूँ,
आँखों की रोशनी से
दूर तक देख लेता हूँ,
उसकी छाया को
दूर से पहिचान लेता हूँ।
चलते-चलते रुका,ठिठका
सोचा "प्यार भी तो साधु ही है"
अब तक प्यार की आग मुझे तपा चुकी थी,
वृक्ष मौन थे
लेकिन हवा से हिल रहे थे।
नल का ठंडा पानी
अपनी प्रकृति में बह रहा था,
सूखे पेड़ों की लकड़ी जल रही थी,
दोस्त पत्र लिख रहा था
मन की चोटों को गिना रहा था,
जो मुझमें था
वह उस पर हँस रहा था,
जो उसमें था
मैं उसे काट रहा था,
फिर जो सत्य निकला
यादों में उसे छुपाकर
वर्षों बाद खोला
जो हीरे सा चमक रहा था।
भजन हमारे एक ही थे
बसंत भू का सबका था,
थोड़े दिन की पहिचान हमारी
क्षण-क्षण मन को छूती थी,
संग में होना वरदान सूक्ष्म था
नाराजगी सभ्य बहुत थी।
ईश्वर यों तो घट- घट है
पर मेरा परिचय बहुत नहीं है,
कहने को बहुत नहीं है
पर संग- संग का उधार बहुत है।