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अपनी दुनिया

कहानी

अपनी दुनिया

धीरेन्द्र अस्थाना

एक खूबसूरत और सुसंस्कृत शहर। शहर के सुन्दर बंगले और सभ्य लोग। लोगों का उच्चस्तरीय सौन्दर्यबोध और नफासत। नफासत की शानदार जगहें और जगहों में बसे हुए रिटायर्ड ऑफीसर। शायद इसीलिए शहर को रिटायर्ड लोगों का शहर कहा जाता है। राजधानी के एक विख्यात, युवा स्टेज डायरेक्टर ने अपने अड़तालिस दिन शहर में गुजारने के बाद कहा था—सचमुच यह रिटायर्ड लोगों का शहर है। यहां का युवक भी रिटायर्ड मानसिकता की देन है।

इसी शहर की एक साधारण—सी ‘मखमल में टाट के पैबन्द‘ वाले मुहावरे को सार्थक करती कॉलोनी है, रामनगर कॉलोनी, जहां अरसा पहले शरणार्थी आकर बस गए थे, और अब जंगल की आग की तरह चारों ओर फैल गए हैं, अपनी एक अलग संस्कृति, अलग दुनिया और अलग मानसिकता के साथ। शहर के भीतर एक और शहर, कल्चर के भीतर एक और कल्चर और जिंदगी के भीतर एक और जिंदगी की बातों को सिद्ध करते हुए। शहर से चौदह किलो मीटर दूर स्थित यह कॉलोनी, कॉलोनी के लोग, लोगों की जिंदगी और जिंदगी का घटियापन अजीब—सी बात है, लेकिन अंतरंग बात है।

यह मेरी दुनिया है, मेरी अपनी दुनिया, जिसमें मैं अपने समूचे घटियापन, कमजोरी और बदहाली के साथ जिंदा हूं, हालांकि मैं शरणार्थी नहीं हूं। जितना कुछ जान सका उसके अनुसार किसी और शहर में मुझे पैदा करते वक्त मां ने मौत को चुन लिया था। जब मैं बारह वर्ष का था तब मेरे पिता ने भी जिंदगी की बजाय मौत का चुनाव किया था। उन दिनों मैं सातवीं क्लास में पढ़ा करता था और आशा इंटर में। आशा मेरी बहन का नाम था जो उस वक्त सत्रह वर्ष की थी और जिसके सामने एकाएक यह चुनौती खड़ी हो गयी थी कि वह अपने साथ मेरा बेड़ा भी पार करे, चाहे जैसे। वह मुझे लेकर इस शहर की इस कॉलोनी में चली आयी, जहां तब से लेकर अब तक की जिंदगी के दिनों को मैंने जी—जी कर पीछे फेंक दिया है और बाकी के दिनों को फेंकने की तैयारी व तत्परता में हूं।

आपने यह जरूर सोचा होगा कि मेरी बहन मुझे लेकर इसी शहर की इसी कॉलोनी में क्यों आ गयी? यह कोई ज्यादा पेचीदा सवाल नहीं है। इस सवाल का जवाब रिश्तों से जुड़ा हुआ है। दरअसल, यहां हमारे एक दूर के रिश्ते के चाचा रहा करते थे जिनका जिक्र अपने बाप के मुंह से हमने कई बार सुना था। बस! अनाथ होने के तुरंत बाद, जाहिर है हमें उनकी खोज में यहीं आना था। यह अलग बात है कि यहां आने पर बहन को पता चला कि चाचा की मौत को एक जमाना गुजर गया। चाचा का एक लड़का था जो चाचा की मौत के बाद बंबई चला गया था। यह हमें लोगों ने बताया था। लोग, जिन्हें बहन की ‘जरूरत‘ थी और बहन, जिसे मेरे लिए रोटी की जरूरत थी। समीकरण बहुत सीधा—साधा था। यह बात मैं अब सोचता हूं। उन दिनों तो मुझे जल्दी—जल्दी भूख लग आया करती थी। बस, उसके बाद हम यहीं रहने लगे थे और एक सुस्त अंधेरे के आदी हो गए थे।

कॉलोनी से लगभग दो र्फ्लांग की दूरी पर एक टेक्सटाइल मिल थी जिसमें कॉलोनी के कई आदमी—औरतें कार्य करते थे। हालांकि मिल में काम करने वाले लोगों में बहुमत शरणार्थी लोगों का नहीं वरन्‌ दूसरे शहरों से आए पुरबिए मजदूरों का था, जिनके लिए मिल के पास ही एक अलग बस्ती स्थापित थी, जो मिल के इर्द—गिर्द एकाएक उग आए घने जंगल का अहसास कराती थी।

मैं नहीं जानता कि क्यों आशा को मिल में नौकरी मिल गयी, कि कैसे हम बस्ती में बने मिल—क्वार्टर्स के एक कमरे में रहने लगे। मैं सिर्फ यही जानता हूं कि आशा ने मुझे कभी रोटी और पढ़ाई नहीं छोड़ने दी, जिसके लिए मैं उसका अहसानमंद हूं। आप आदर्शवादी शब्दों में इसे मेरी कृतघ्नता ही कहेंगे कि मैं सब कुछ जानकर भी अनजान बना रहा। यकीनन, मुझे मालूम था कि बहन घर से आधी—आधी रात तक गायब रहकर कहां जाती है, क्या करती है आदि—आदि।

दरअसल, आप तकलीफों के दर्शन से अपरिचित हैं, वरना फौरन समझ जाते कि एक खास सीमा को पार कर लेने के बाद आदमी अपनी तकलीफों के प्रति भी सर्द रूप से तटस्थ हो जाता है। मुझे सिर्फ उस वक्त एक दहशतजदा बेचैनी हुई जब आशा सिफलिस का शिकार हो गयी और मैं उसे किसी अच्छे डॉक्टर को नहीं दिखा सका जबकि आशा मुझे अच्छी शिक्षा, अच्छी खुराक और अच्छे कपड़े देती आ रही थी। उन दिनों मैं बी.ए. कर लेने के बाद अपनी डिग्री को दस—बीस रुपए में बेचने के लिए तैयार था, मगर यह भी संभव नहीं हो पा रहा था। उन्हीं दिनों मुझे अहसास हुआ था कि मुल्क का असली संविधान क्या है जबकि मुझे पढ़ाया कुछ और गया था। आशा, मेरी बहन, एड़ियां रगड़ती रही और मैं डिग्री के ग्राहक खोजता रहा। आखिर, वह भी मौत का ही चुनाव कर सकी, अपनी तमाम जिजीविषा के बाबजूद। अपनी स्थितियों के कारण अपनी नियति में वह इस तरह मर जाने के लिए मजबूर थी। मेरी जगह आप होते तो आप ही क्या कर लेते?

मुझे बाद में पता चला कि आशा का एक खास मित्र था। प्रेमीनुमा मित्र। आशा की बीमारी के दौरन वह किसी आवश्यक और लंबे कार्य से किसी दूसरे शहर गया हुआ था, तकरीबन आठ सौ किलोमीटर दूर। उन दिनों मैं बेरोजगार था और अपने स्तर के छिटपुट कार्य करके किसी तरह खुद को जीवित रखे हुए था। यह काफी गरीबी के दिन थे, और मिल का कमरा खाली कर देने का नोटिस जेब में लिए मैं रोजगार और मकान दोनों की एक साथ तलाश में था। हालांकि यह हास्यास्पद उम्मीद थी और आगे आने वाले दिन मेरे लिए एक भयानक चुनौती साबित होने वाले थे। उन्हीं दिनों बहन का वह मित्र वापस लौटा था।

बहन की मौत का समाचार उसे काफी भावुक कर गया। मुझे पहली बार स्वयं पर तब शर्म आयी जब मैंने उसे आस्तीन से अपने आंसू पोंछते देखा। उसकी ईमानदारी को देखकर मुझे काफी सुख भी मिला। हालांकि मैं खुद को लेकर ज्यादा दुखी था।

वह मिल में फोरमैन था और ट्रेड यूनियन राजनीति में सक्रिय। आशा उसके साथ शादी करके आराम से रह सकती थी लेकिन जब तक दोनों का परिचय म़ित्रता में, फिर प्रेम में बदला, तब तक शायद देर हो चुकी थी। आशा की बदनाम लोकप्रियता और फोरमैन की राजनैतिक—सामाजिक प्रतिष्ठा, दो विपरीत धुव्र थे जिनके बीच में मेरा भविष्य—कैक्टस की तरह छाती ताने खड़ा था, अवरोधक की अदृश्य स्थिति में। मतलब यह है कि उनकी शादी नहीं हो सकती थी। फिर, फोरमैन शादीशुदा था, तीन—तीन बच्चों का बाप। यह अलग बात थी कि वह अपनी बीवी से संतुष्ट नहीं था और उसके बीवी—बच्चे गांव में थे।

आपको एक हैरतअंगेज और नाटकीय बात बताऊं? मैं, जो अपनी परेशानियों, तकलीफों व संघर्षों का खुद भोक्ता था, जिंदगी में पहली बार तब उदास हुआ जब बहन के फोरमैन प्रेमी की बदौलत मुझे मिल में हाजरी बाबू की जगह मिल गयी और मिल के उस कमरे को खाली कर देने का नोटिस भी वापस ले लिया गया जिसमें मैं तो सुख—चैन की वंशी बजाता रहा लेकिन मेरी बहन ने अपनी तकलीफों, अपमान और कष्टभरी बीमारी के बदहवास दिन गुजारे थे। मौत के बाद भी बहन मेरी मदद कर रही थी, यह आश्चर्य या सुख की बात नहीं थी, यह एक भीतरी दुख था जिसने एकाएक ही मेरी चेतना को लहूलुहान कर दिया था। आगे चलकर बहन का वह फोरमैन प्रेमी मेरे अच्छे दोस्तों में शुमार हुआ। अच्छे दोस्त, जिनके साथ निजी जिंदगी के सुखों—दुखों को लेकर रोया—हंसा जा सकता है और जो इस तरह की बस्तियों में उपलब्ध हो सकते हैं, महानगरों की यांत्रिक जिंदगी में नहीं।

मिल की चिमनी लगातार कड़वा धुआं उगलती थी। यह धुआं हर वक्त पूरी बस्ती पर काले बादलों की मनहूस शक्ल में मंडराता फिरता था। बस्ती की बायीं तरफ कूड़ा फेंकने के लिए एक विशाल अहाता था जिसमें आदमी और सुअर के बच्चे एक साथ खेलते थे। बस्ती वालों के बच्चे अपनी उमर के दस—ग्यारह साल उसी कूड़ाघर में जी चुकने के बाद, शरणार्थियों के इलाके में जाकर टीन—डिब्बा—बोतल की गुहार लगाते फिरते थे या किसी ढाबे में बर्तन मांजते थे या बीस—पच्चीस पैसे कमीशन पर कॉलोनी के शरणार्थी ग्राहकों को पटा—पटा कर, बस्ती की लड़कियों—औरतों के पास लाते थे। ये तमाम बातें मेरे लिए स्वाभाविक थीं। मेरी दुनिया ही यह थी।

सड़क के उस मोड़ पर जहां से बस्ती पीछे छूटती थी और कॉलोनी शुरू होती थी, एक लकड़ी का खोका था, जिसमें चाय बना करती थी। चाय की इस दुकान को एक शरणार्थी विधवा बूढ़ी चलाती थी। यह बूढ़ी औरत, जिसके पास खौफनाक स्मृतियों की अथाह पूंजी थी, लोगों में ताई के नाम से विख्यात थी। ताई के पति और जवान लड़के को ढाका में आतताइयों ने कत्ल कर दिया था। ताई की दुकान में एक बेहद बूढ़ा आदमी अक्सर बैठा रहा करता था, जिसके बारे में कहा जाता था कि यह अक्लमन्द पागल है। बूढ़े ने इंगलिश लिटरेचर से एम. ए. किया था और विभाजन के दंगों के दौरान ढाका में उसका मकान जला दिया गया था और उसके जीवन की कुल पूंजी, तकरीबन चार किलो सोना लूट लिया गया था। अब वह अक्लमंद, पागल बूढ़ा सोना बनाने की विधि पर खोज कर रहा था और अपनी सफलता पर पूरी तरह से आश्वस्त था। यह बूढ़ा ताई की दुकान का एक स्थायी अंग था, जिसे उसके जवान लड़के बीच सड़क पर ही गालियां दे दिया करते थे लेकिन वह सिर्फ चुप रहा करता था। शायद, वह अपनी चुप्पी के सहारे ही जिंदा था।

मैं नहीं जानता कि क्यों मुझे उस बूढ़े से खास लगाव है, कि क्यों मैं अक्सर अपनी शाम ताई की दुकान पर गुजरता हूं, कि क्यों मेरी दोस्ती सुखबीर नाम के उस जाट नौजवान से है जो कॉलोनी में स्थित पुलिस चौकी का सिपाही है और अपनी क्रूरता के लिए बस्ती और कॉलोनी के दुकानदारों और गुंडों में विख्यात है। कच्ची शराब का धन्धा करने वालों के यहां सुखबीर का कोटा बंधा हुआ है और उस कोटे में मैं कई बार ताई की दुकान पर हिस्सेदार बना हूं।

मेरे खूबसूरत शहर के तमाम दोस्तों को मेरी हरकतें और बातें सख्त नागवार गुजरती हैं और मेरी जिंदगी के इस वाहियात और घटिया हिस्से को लेकर उन्हें परेशानी और ऐतराज है लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? अपने सभ्य और तमीजदार दोस्तों को मैं कैसे समझाऊं कि बस्ती की यह घटिया और असभ्य जिंदगी और बस्ती के ये बदतमीज और वाहियात दोस्त मेरी दुनिया की कीमती और व्यक्तिगत विरासत हैं। मेरे अनुभवों की दुनिया इसी माहौल में परिपक्व और विशाल बनी है। हालांकि यहां रह कर मेरे संस्कार उन्नति नहीं कर सकते। लेकिन मुझे खुशी है कि मैं रिटायर्ड मानसिकता के सौन्दर्यबोध से वंचित हूं और गर्वीले संकोच के साथ कहूं तो राजधानी के युवा स्टेज डायरेक्टर का वह वाक्य मेरे ऊपर लागू नहीं होता जिसका अर्थ है——इस शहर का युवक भी रिटायर्ड है।

इस शहर का युवक भी रिटायर्ड है——यही बात विक्रम ने भी कही थी। विक्रम जो एक लेखक था और कच्ची शराब बेचने वाले एक शरणार्थी का इकलौता लड़का था। सबसे पहली बार विक्रम मुझे ताई की दुकान के सामने खड़े तीन—चार लड़कों के साथ बहस करता मिला था। मैं सुखबीर और फोरमैन दोस्त के साथ ताई की दुकान में बैठा कच्ची शराब को गले से नीचे उतार रहा था और फोरमैन की तरह आशा की याद में भावुक हो रहा था। आशा, जो मेरी बहन थी और फोरमैन की प्रेमिका। आज मैं यह नहीं बता सकता कि आशा की याद में फोरमैन ज्यादा भावुक था या मैं, लेकिन इतना सच है कि शराब पीने के बाद मैंने अपने आपको अक्सर भावुक स्मृतियों के साथ जुड़ा पाया है।

‘डैम दिस सिटी। अव्वल दर्जे के नपुंसक इसी शहर में आकर बस गये है।‘ विक्रम की बातें ताई की दुकान के भीतर तक आ रही थीं। मुझे एकाएक लगा था कि विक्रम से दोस्ती कर लेना अपने में एक सुखद रोमांच होगा। अपनी यह इच्छा मैंने सुखबीर को बतायी थी क्योंकि पुलिस में होने के कारण उसे ही लोगों का ज्यादा ज्ञान था। सुखबीर ने विक्रम को आवाज देकर अन्दर ही बुला लिया था और इस तरह मुझे उसका नाम मालूम पड़ा था।

सुखबीर ने हमारा परिचय कराया था और विक्रम तुरन्त ही अनौपचारिक हो गया था। आम बुद्धिजीवियों की तरह उसके हाथ में बीड़ी सुलग रही थी और उसके सिर के बाल गर्दन के नीचे तक पहुंच गये थे। उसकी छोटी भूरी—भूरी आंखें इतनी पैनी थीं कि बर्दाश्त नहीं हो पाती थीं। परिचय प्राप्त करने के बाद वह ‘अभी आया‘ कह कर बाहर निकल गया था और थोड़ी देर बाद अपने साथ कच्ची शराब की एक पूरी बोतल उठा लाया था। इस बीच सुखबीर ने हमें उसके विषय में तफसील से बता दिया था कि उसका बाप कच्ची शराब का धन्धा करता है, कि विक्रम एक लेखक है, कि उसके दिल में गुस्सा है और वह क्रान्ति की बातें करता है। मुझे उसके लेखक होने से खुशी थी और फौरमैन को उसके क्रान्ति समर्थक होने से। यह काफी पहले की बात है, जब क्रान्ति वगैरह में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी और राजनीति को मैं सर से पांव तक भ्रष्ट लोगों का नाटक मानता था।

अब तो खैर बात ही दूसरी है। राजनीति मेरे लिए पहले दर्जे की जरूरत बन गयी है और मैं जान गया हूं कि राजनीति से अलग रहने की भी एक राजनीति होती है, जिसके पीछे काफी खूंख्वार इरादे काम किया करते हैं। बहरहाल इस वक्त तो मैं उन दिनों की बात कर रहा हूं जिन दिनों के अनुभवों ने मेरी चेतना को सही निर्णयों और ठिकानों पर उंगली रखने की समझ से लैस किया है।

विक्रम की बोतल का दूसरा पैग पीते—पीते एकाएक ही फोरमैन आंसुओ सहित सिसकने लगा था।

‘क्या हुआ?‘ मैंने चिल्लाकर पूछा था और फिर अपने आपको एक बदहवास उदासी के बीच घिरा पाया था। विक्रम और फोरमैन अलबत्ता चुप ही रहे थे।

‘मुझे आशा की याद आ रही है।‘ फोरमैन ने हिचकियों के बीच कहा था और फिर रोने लगा था। फोरमैन की बात सुनकर विक्रम और सुखबीर मुस्करा पड़े लेकिन मुझे गुस्सा आ गया था। बात मेरी बहन की थी जिसकी याद आ जाने पर किसी के हंस पड़ने से मुझे सख्त एतराज था। मैंने तीखी नजरों के साथ विक्रम और सुखबीर को घूरा था फिर अनायास ही पूरी गम्भीरता के साथ उदास होता चला गया था।

‘अब कुछ नहीं किया जा सकता। वह मर चुकी है।‘ मैंने अपना थका—थका हाथ फोरमैन के झुके हुए कन्धों पर रख दिया था।

‘जब जिन्दा थी, तभी तुमने क्या कर लिया था?‘ फोरमैन ने एकाएक ही गुस्से भरी आवाज में मेरा हाथ झटक दिया और एक मजबूर दर्द के तहत मैं भीतर तक टूटता चला गया। एक औचक अपमान से मेरा मुंह झुलस गया था और बावजूद एक भावुक तकलीफ के, क्रोध से मेरी मुटि्‌ठयां भिंचने लगी थीं।

‘तुम...तुम मेरा अपमान कर रहे हो।‘ मैंने अचानक ही फोरमैन को बुरी तरह झिंझोर दिया।

‘शटअप।‘ फोरमैन दहाड़ा, ‘तुम अव्वल दर्जे के हरामखोर और कमीने आदमी हो। तुम्हारी वजह से...सिर्फ तुम्हारी वजह से आशा को अकाल मौत मरना पड़ा और तुम...तुम एक घटिया इंसान हो। घटिया और नमकहराम!‘ फोरमैन के चेहरे पर गुस्से भरी नफरत घिर आयी थी। मेरी मुटि्‌ठयां भिंच चुकी थीं और उन मुटि्‌ठयों को फोरमैन के वाहियात चेहरे पर तोड़ देने की मेरी दिली तमन्ना थी। लेकिन इतने गुस्से के बावजूद मैं उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। बहुत भीतर न जाने क्यों मैं कहीं बहुत कमजोर होता चला गया। कमजोर और दयनीय। और फिर, सहसा ही मैं उसके गले से लिपट गया और धीरे से बुदबुदाया—‘मुझे माफ कर दो। मैं मजबूर था, तुमने देखा नहीं यार, मैं किस कदर लाचार था।‘

फोरमैन चुप हो गया। शायद, उसे मेरा इस तरह हार जाना सुखद लगा था। उस दिन की इस घटना को देखते हुए मैं आज भी नहीं समझ पाया कि आशा की मौत से कौन ज्यादा टूटा था, कौन ज्यादा कमजोर हुआ था, कौन ज्यादा परेशान हुआ था और कौन ज्यादा बदहवास हुआ था? आशा का प्रेमी या आशा का भाई? बहरहाल, उसके बाद हम चुपचाप विक्रम का तीसरा पैग पीने लगे थे।

‘हम लोगों को एक जंगल में निर्वासित कर दिया गया है।‘ विक्रम ताई की दुकान के बाहर, पता नहीं कहां देखता हुआ बड़बड़ाने लगा था। उसकी छोटी आंखें और छोटी हो गयी थीं और उनका पैनापन और बढ़ गया था——‘इस जंगल का निर्माण करने वाले बहुत खतरनाक और क्रूर लोग हैं और वे जानते हैं कि किस तरीके से आदमी को दहशतभरी यंत्रणा दी जा सकती है।‘ विक्रम ने बीड़ी सुलगा ली थी, उसी तरह बाहर ताकते हुए। एकटक। यकाएक एक प्रतीक्षित खुशी के तहत मैंने सोचा था — विक्रम की दोस्ती सुखदायक है। मुझे बौद्धिक स्तर पर बात करने वाला सहयोगी मिल गया था। वो भी इसी गलीज और घटिया दुनिया का आदमी, खूबसूरत शहर का हिप्पोक्रेट बुद्धिजीवी नहीं, जो कहीं भीतर से रिटायर्ड मानसिकता के सौन्दर्यबोध से जुड़ा रहता है।

‘वे कहीं नहीं होते और वे सब जगह होते हैं।‘ विक्रम कह रहा था। ‘वे जानते हैं कि जब तक आदमी के हौसले भावुकता की हद तक बुलन्द रहें तब तक आदमी को ‘इग्नोर‘ करते रहना चाहिए। इससे आदमी चोट खाए सांप की तरह सिर पटकने लगता है। वे लोगों की पहुंच से बाहर रहते हैं। अपनी मजबूत किलेबन्दी के पीछे— महफूज और लापरवाह। उन्हें यकीन है कि इस देश के लोग उनकी हदों को लांघ नहीं सकते। सचमुच...।‘ विक्रम एकाएक उदास हो गया। ‘सचमुच, इस देश के लोग क्या कर सकते हैं? इस देश के लोग सिर्फ भावुक हो सकते हैं और भावुक आदमी एक दिन शराब के ठेके पर आकर खड़ा हो जाता है, जैसे कि मैं।‘ विक्रम ठहाका लगा कर हंस पड़ा। उसके ठहाके से ताई की दुकान की दीवारें तक हिल उठी थीं।

अचानक ही, मेरे दिमाग में, एक खौफनाक किस्म का रहस्य ‘खुल जा सिमसिम‘ की तरह औचक तरीके से बे—पर्द हो गया। सुखबीर और फोरमैन काफी ध्यान से विक्रम की बातें सुन रहे थे। फोरमैन का चेहरा विकृत हो गया था। फोरमैन का चेहरा विकृत क्यों हो गया था, यह उस वक्त तो नहीं समझ सका था लेकिन आज जानता हूं कि फोरमैन को विक्रम की बातों से हताशा और कुंठा की पहचान हो रही थी जबकि वह यह सोच कर खुश हुुआ था कि विक्रम क्रांति—समर्थक है और क्रांति—समर्थक का सीधा मतलब होता है——अपराजेय आस्था। निराश निष्कर्ष नहीं।

‘तुम्हारा अनुमान गलत है।‘ फोरमैन एकाएक ही बोला था। ‘इस देश के लोग अब ज्यादा नहीं सहेंगे। सहने की जो सीमा है न, लोग उस सीमा से भी आगे निकल आये हैं। मैं मजदूरों के बीच काम करता हूं और दावे के साथ कहता हूं कि उन्हें दुश्मन की पहचान होने लगी है। तुम देखना, जल्दी ही यहां कुछ होगा।‘

‘शायद हां। शायद नहीं।‘ विक्रम ने कहा था।

‘तुम्हारे दिमाग में शक का घुन लग गया है।‘ फोरमैन ने दृढ़ आवाज में कहा, ‘तुम जनता की ताकत को कम करके आंक रहे हो। मैं ऐसा सोचता हूं।‘

‘शायद हां शायद नहीं।‘ विक्रम ने फिर वही वाक्य दोहराया और सुस्त पड़ गया। ‘दरअसल बात यहां की जनता की है, बाहरी मुल्कों की नहीं, जहां जिंदा कौम बसती है। इस देश के लोग तो गुस्से की सीमा से बहुत—बहुत पीछे जीते हैं। दरअसल, यहां के लोग मोर हैं।‘

‘मोर...।‘ मैं एकाएक चौंका था।

‘यह क्या बात हुई?‘ फोरमैन झुंझला पड़ा था।

‘यही तो बात है।‘ विक्रम ने किसी तिलिस्मी उपन्यास के ऐय्‌यार नायक की तरह रहस्यमयी आवाज में कहा——‘सुनो, मैं एक कहानी सुनाता हूं।‘

सुखबीर ने आखिरी पैग गिलासों में डाल दिया। यह रात के दस बजे का वक्त था। ताई की दुकान के बाहर घनघोर अंधेरा था और खामोश सड़क पर कोहरा उतर आया था। दुकान के भीतर सिर्फ एक लैम्प जल रहा था जो कि बगैर चिमनी का था और हवा के झोंकों से जिसकी कमजोर लौ कांप—कांप उठती थी। हम चारों एक मेज के इर्द—गिर्द बैठे थे और दुकान में कोई ग्राहक नहीं था। ताई शायद सोना चाहती थी लेकिन सुखबीर के कारण चुप बैठी थी। भट्‌ठी में आग ताप रही थी——हमारी तरफ से उदासीन और निर्लिप्त। वातावरण कुछ रहस्यमय—सा लगने लगा था। हमने अपने—अपने पैग गले से नीचे उतार लिए थे और सिगरेटें सुलगा ली थीं।

‘एक थी गौरैया। बदसूरत पैरों वाली गौरैया। उसका दोस्त एक मोर था। मोर के पांव खूबसूरत थे।‘ विक्रम की आवाज थरथराने लगी थी, शायद नशे के कारण।

‘लेकिन मोर के पैर तो बदसूरत होते हैं।‘ मैंने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया, नशे के बावजूद।

‘सुनते रहो। टोका—टाकी असभ्यता है।‘ विक्रम झुंझलाकर बोला—‘हां, तो गौरैया को एक बार राजमहल जाने का निमंत्रण मिला। वह उदास हो गयी। पैरों का सुन्दर होना राजमहल जाने की पहली और अन्तिम शर्त थी, और गौरेया के पांव निहायत बदसूरत थे। उसने मोर से कहा—मुझे राजमहल जाना है लेकिन बिना सुन्दर पांवों के मैं वहां नहीं जा सकती। तुम मुझे अपने पांव दे दो। लौटने पर मैं तुम्हारे लिए खूब सारी खुशियां लाऊंगी और पांव भी वापस कर दूंगी। मोर नहीं माना। —सोच लो, गौरैया आंखों में पानी भर कर गिड़गिड़ाई, मेरे राजमहल जाने से हम दोनों की तकलीफें मिट सकती हैं, हम दोनों ऐशो—आराम की जिन्दगी बिता सकते हैं! आखिर मोर पसीज गया। उसने गौरैया को अपने पांव दे दिए। गौरैया राजमहल चली गयी। एक साल गुजरा, दो साल गुजरे, दस साल गुजरे और तीस साल गुजर गये। गौरैया नहीं लौटी। मोर बहुत अधिक परेशान था। उसे गहरा सदमा पहुंचा। आखिर एक दिन, जब बिना पांवों के उसके प्राण निकलने को हुए तो उसने निर्णय किया कि वह भी राजमहल जायेगा और गौरैया को घसीट कर बीच सड़क पर खुलेआम मार डालेगा। गद्‌दारी की सजा मौत ही होनी चाहिए।

‘पूछते—पूछते, पता लगाते हुए वह एक दिन राजमहल के विशाल फाटक पर पहुंच ही गया। जैसे ही, उसने अन्दर घुसना चाहा उसे पकड़ लिया गया और बताया गया कि अन्दर वे ही लोग घुस सकते हैं जिनके पास सुन्दर और कीमती पांव हों। गन्दे, घटिया पांवों को तो महामहिम पांव ही नहीं मानते। मोर हतप्रभ रह गया, उसे धक्का—सा लगा। इसके बाद उसने गर्दन झुकायी और चुपचाप वापस लौट आया। जंगल वापस आने के बाद से वह अपने बदूसरत पांवों को देखकर (जो कि असल में गौरैया के थे) रोता रहता है।‘

‘तुम मोर हो।‘ विक्रम कहानी खत्म करने के बाद जोर से चीखा। ‘तुम मोर हो। मैं मोर हूं और पूरे मुल्क के आदमी मोर है।‘

सन्नाटा एकाएक ही घिर आया था। भट्‌ठी के पास ही रखी कुर्सी पर, ताई बदन के चारों ओर कम्बल लपेट कर सो गयी थी। ठण्ड ज्यादा ही बढ़ गयी थी। सड़क पर कोहरा था।

‘यह एक वाहियात बात है‘, फोरमैन एक झटके से उठकर खड़ा हो गया। ‘तुम्हारे निष्कर्षों पर निराशा और कुंठा का अन्धेरा चिपका हुआ है। दरअसल, तुम सपनों की दुनिया में जीने वाले मिडिल क्लास के बुद्धिजीवी हो, और कुछ नहीं।‘ फोरमैन के चेहरे पर गुस्से के निशान अंकित थे।

‘शायद हां, शायद नहीं।‘ विक्रम ने सहजता के साथ कहा और उसके चेहरे पर एक साथ थकान और उदासी घिर आयी।

‘यार, ताई को तकलीफ हो रही होगी।‘ सुखबीर ने एकाएक ही जैसे कुछ याद करते हुए कहा और उठ खड़ा हुआ।

‘लोगों की तकलीफों के बारे में तुम कब से सोचने लगे?‘ मैंने व्यंग्य किया और विक्रम तथा फोरमैन ठहाका लगाकर हंस पड़े। सुनसान अंधेरे में उनके ठहाके दूर तक गूंजते चले गये। ताई की नींद खुली और हमें जाते देख उसके चेहरे पर एक सुकून भरा इतमीनान आकर ठहर गया। अब हम दुकान के बाहर लगे एक सरकारी बोर्ड ‘अच्छा बर्ताव कीजिए, जनता का दिल जीतिए‘ के नीचे खड़े थे।

‘हां, लोग ऐसा ही सोचते हैं।‘ सुखबीर एकाएक बेहद उदास हो गया। पुलिस वालों को लोग दुश्मन समझते हैं। कई बार मैंने अपने कानों से सुना है कि हमें देखते ही लोग कहते हैं... कुत्ते आ गये। लेकिन... लेकिन तुम मेरे घर चल कर देखो... मैं भी जनता का आदमी हूं। मेरे एक बीवी है और तीन बच्चे। मेरे बच्चों को भी वैसी ही तकलीफें झेलनी पड़ती हैं जैसी किसी भी गरीब आदमी के बच्चों को... मेरी बीवी भी पूरी बांह का स्वेटर न होने की वजह से ठंड में कांपती है। हर वर्दी के नीचे एक आम आदमी का दिल मजबूरियों से परेशान थरथराता है... कांपता है। मैं अफसरों की बातें नहीं कर रहा हूं... मामूली सिपाहियों की बातें कर रहा हूं जो किसी—न—किसी मजबूर तकलीफ के तहत पुलिस में नौकरी करने आते हैं।‘ सुखबीर की आवाज टूटती चली गयी। तकलीफ से उसका चेहरा दाएं—बाएं झूलने लगा और नशे से बोझिल उसकी आंखें थरथराने लगीं। लग रहा था, वह रो पड़ेगा।

यक—ब—यक मिल का सायरन चीखने लगा। रात के बारह बजे थे और दूसरी शिफ्ट खत्म हो गयी थी। सुबह आठ बजे ड्‌यूटी भी जाना था और इसलिए सो लेना जरूरी था। मुझे लगा—मेरी आंखों में एक साथ नींद और थकान उतरने लगी है।

इसके बाद हम विदा हो गये थे। विक्रम और सुखबीर कॉलोनी जाने वाली सड़क पर लड़खड़ाते हुए बढ़ रहे थे और मुझे तथा फोरमैन को बस्ती की तरफ मुड़ना था। मैं थकान से भरा हुआ और जिन्दगी से ऊबा डगमग करते पैरों के सहारे, कोहरे को चीरता हुआ, एकाएक तेजी के साथ मिल के क्वार्टर्स की दिशा में चलने लगा था और भूल गया था कि मेेरे साथ खड़े फोरमैन को भी वहां जाना है, कि अचानक अपने पीछे मुझे फोरमैन की चीख सुनाई दी। मैंने चौंक कर पीछे देखा—सुनसान अंधेरी रात में, एक बिजली के खम्बे से लगकर खड़ा फोरमैन, ठण्ड में कांपता हुआ फूट—फूट कर रो रहा था।

आसमान में बादल गड़गड़ाने लगे थे और रह—रह कर बिजली चमक रही थी, फोरमैन को दिलासा देने का वक्त नहीं था। इस शहर की मूसलाधार बारिश का कुछ पता नहीं चलता, कब मूड आया और बरस पड़ी। फोरमैन उल्लू है, मैंने नशे में सोचा। नहीं, उल्लू का पट्‌ठा है। उसे आशा की याद आ रही होगी। मैं लापरवाही से बुदबुदाया और उसे रोता छोड़ तेजी से आगे बढ़ने लगा। मेरे कदम डगमगा रहे थे, यह मुझे आज भी याद है। एकाएक ही, बिजली जोर से चमकी, इसके साथ ही फोरमैन के रोने की आवाज तेज हो गयी और फिर पानी बरसने लगा। फोरमैन के रोने की तेज आवाज कब्रिस्तान में मंडराते किसी प्रेत की बिलखती आवाज की तरह मेरा पीछा कर रही थी। मुझे अचानक ही, पता नहीं क्या हुआ कि मैं सड़क पर बेतहाशा दौड़ने लगा और आखिर कुछ दूर जाकर, किसी पत्थर से उलझ कर या नशे में, संतुलन न रख पाने के कारण, जमीन पर मुंह के बल गिर पड़ा।

फोरमैन के रोने की आवाज अभी भी सुनायी पड़ रही थी और मैं बस्ती ले जाने वाली कच्ची सड़क पर औंधा गिरा पड़ा था। बारिश के बरसने की रफ्तार लगातार तेज होती जा रही थी। मुझे इतना ही याद है।

रचनाकाल : 1977

कहानी

लोग/हाशिए पर

धीरेन्द्र अस्थाना

‘प्रेस तो एक प्रतीक है‘, बन्धु ने कहा था, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं और मैं या तुम भी उन्हीं की एक इकाई हैं। देश के अधिकांश लोग कगार पर खड़े हैं और नीचे अन्तहीन खाई है, सुरक्षित कोई नहीं है।‘ श्रीवास्तव सोचता है।

सामने की दीवार पर राम, कृष्ण और भगत सिंह के कैलेण्डर लटक रहे थे और ठीक उनके बगल में एक नंगी औरत का फोटो चिपका हुआ था।

‘यह अफसरों के आने की जगह है, क्लर्कों की जगह बार है।‘ एक सूटेड—बूटेड आदमी अपने साथ खड़े क्लर्कनुमा व्यक्ति को समझा रहा था।

‘यस सर।‘ क्लर्कनुमा व्यक्ति दारू पीने के बावजूद तमीज से पेश आ रहा था। दरअसल, उसने इतनी दारू नहीं पी थी कि दफ्तर की मानसिकता को उतार सके। वह चुपचाप खिसक लिया।

ठेके का शोर आत्मीय था, इसके बावजूद माहौल अचानक ही कहीं गलत हो गया।

‘तुम अपना कवर डिजाइन किसी और से क्यों नहीं बनवाते?‘ अवधेश ने गिलास की अन्तिम बूंदें तक हलक में उंडेल लीं।

‘तुम्हें क्या एतराज है?‘ श्रीवास्तव नरम पड़ गया। अवधेश देर तक चुप रहा फिर बीड़ी निकाल कर सुलगाने लगा।

‘तुम मुझे हमेशा गलत समझते रहे हो।‘ श्रीवास्तव भावुक होने लगा।

‘मैं तुम्हें कुछ समझता ही नहीं।‘

‘क्या?‘ श्रीवास्तव का सारा सुरूर तुरन्त उतर गया। उसके जी में आया, सोडे की बोतल खींचकर अवधेश के सिर पर दे मारे।

‘मैं ही तुझे कौन—सा कुछ समझता हूं।‘ श्रीवास्तव उत्तेजित था।

‘बात खत्म‘, अवधेश सहजता से बोला, ‘तू मुझे कुछ नहीं समझता, मैं तुझे कुछ नहीं समझता, कवर कैसा?‘

‘साले, जब मेरी दारू ढकोसी जा रही थी, तब ये बात दिमाग में नहीं आयी थी।‘

‘गाली—गलौज न कर, मैं जा रहा हूं।‘ अवधेश ने रवि जी से हाथ मिलाया और ठेके के बाहर चला गया।

‘कॉलेज खुलने दे बेटे, सारी चित्रकारी घुसेड़ दूंगा।‘

‘हल्ला न मचा यार।‘ रवि जी ने उसका कन्धा थपथपाया और पव्वा खरीदने चले गये।

‘मैं नहीं पीता।‘ श्रीवास्तव गुर्राया और बाहर निकल गया। रवि जी का मूड चौपट हो गया। वे सोच रहे थे रात को कोई गीत—वीत लिख डालेंगे, लेकिन सारा मामला ही खराब हो गया। एक ही सांस में पव्वा धकेल कर वे लड़खड़ाते हुए बाहर निकल गए।

उसकी तकलीफों से कौन जुड़ा है? श्रीवास्तव ने सोचा, किसे नहीं पता कि किताब छपवाने के लिए उसे पूरे सात सौ रुपए का कर्ज लेना पड़ा है, साले जितने भी लोग हैं, जड़ों में मट्‌ठा देने वाले ही हैं।

00

सामने घण्टाघर था और घड़ी में सवा नौ हो गये थे। आखिरी बस छूटने में पन्द्रह मिनट बाकी थे। उसने पान की दुकान से दो चारमीनार खरीदींं और एक को सुलगाने लगा। तभी सामने से प्रेमनगर की बस आती दिखायी पड़ी। वह हड़बड़ा कर और बगैर पैसे चुकाये भागकर बस के पायदान से लटक गया। पान वाला गाली देने के सिवा कुछ नहीं कर सका।

‘सवा नौ पर ही गाड़ी भगा ली?‘ उसने कन्डक्टर से बहस करनी चाही।

‘पौने दस हो गये श्रीमान जी।‘ कन्डक्टर ने व्यंग्य किया।

‘पास‘ का नम्बर बोलकर उसने बस के कन्डक्टर, घण्टाघर की घड़ी और अवधेश को मन ही मन मां की गाली दी और अन्दर जगह बनाने लगा।

घर पहुंचते—पहुंचते नशा तेज हो गया। पता नहीं गुस्से के आधिक्य से या ठण्ड के कारण। एक बोतल तीन जनों में कोई नयी बात तो थी नहीं। उसने दरवाजा खटखटाया और जोर—जोर से एक घटिया गाना गाने लगा। अन्दर की लाइट जली और दरवाजा खुला। उपमा थी, शायद बिस्तर से उठ कर आयी थी।

‘तुम आज फिर पी आये?‘

‘अरे सामने से हट।‘ वह बहन को धक्का देकर भीतर आ गया।

‘बाऊजी नाराज हो रहे थे।‘

‘तो?‘ उसने जूते उतारे और बगैर कपड़े बदले मोजों समेत बिस्तर में घुस गया।

‘खाना....?‘

‘लाइट बढ़ा के दफा हो ले।‘

उपमा पैर पटकती हुई कमरे से चली गयी। वह सिगरेट सुलगाकर पीता हुआ सोचता रहा कि छपने के बाद अपने उपन्यास की समीक्षा कहां—कहां और किस तरह करवायी जाये। उपन्यास बेचा कैसे जाये ताकि कर्जा उतर सके। ज्यादा देर वह सोच नहीं सका, उसका दिमाग नशे में डूबने लगा।

00

सुना था—पहाड़ों पर बर्फ गिरी है। कोट के कॉलर खड़े करने के बावजूद ठण्ड बदन के भीतर तक घुसती जा रही थी—मांस को चीरती, हडि्‌डयों को तोड़ती—सी। बालकराम ने एक भद्‌दी—सी गाली ठण्ड को दी, इसके बावजूद ठण्ड कम न हुई। प्रेस का ताला बन्द करने के बाद श्रीवास्तव चाबी देने ऊपर चला गया—फ्लैट में।

‘रवि जी दो रुपये दे दो, एडवांस वाले दिन काट लेना।‘ बालकराम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

‘हैं नहीं यार।‘ रवि जी ने बीड़ी सुलगा ली। बालकराम कुछ उदास गया। श्रीवास्तव लौट आया। उसके हाथ में गोर्की की किताब थी जिसे वह बीच—बीच में प्रूफ निपटाने के बाद पढ़ता रहा था।

‘चलें।‘ रवि जी ने अचानक पूछा।

‘मेरे पास सिर्फ दो रुपये हैं।‘ श्रीवास्तव ने जवाब दिया।

‘चलते हैं, देख लेंगे।‘

बालकराम सब कुछ भांप गया। उनसे विदा लेकर वह चकरौता रोड की तरफ मुड़ गया। रवि जी और श्रीवास्तव मच्छी बाजार वाली गली में मुड़ गये।

(पाठक ध्यान दें, इस बार हमारा कथाकर बालकराम के साथ है।)

घण्टाघर पहुंचते—पहुंचते बालकराम के दांत किटकिटाने लगे और पैरों की उंगलियां बर्फ के टुकड़ों—सी हो गयीं। तिब्बती मार्केट से बीस रुपये में खरीदा गया कोट ठण्ड को रोक पाने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हो रहा था। घण्टाघर से बालकराम गांधी रोड की तरफ मुड़ गया। गांधी रोड के चौराहे पर उसका एक जिगरी यार कच्ची शराब बेचता था। कच्ची ज्यादा महंगी नहीं होती। पूरी बोतल तीन रुपये की पड़ती है। उसे यकीन था कि उसका दोस्त पावभर कच्ची और एक भरी सिगरेट उधार दे ही सकता है। दुकान बन्द थी और ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। साढ़े सात का भोंपू कुछ देर पहले बजा था उसे ताज्जुब हुआ।

‘किशन कहां गया?‘ उसने साथ के चाय वाले से पूछा।

‘पुलिस ले गई हरामी को।‘

‘क्यों?‘

‘क्यों क्या, चरस पकड़ी गयी दुकान पर और दारू भी।‘ चाय वाला खुश—खुश आवाज में बोला, ‘पांच महीने से पहले नहीं छूटते बेटा, मजाक थोड़े ही है, साले गांधी महात्मा के मुंह पर ही शराब का धन्धा... पकड़ा गया स्साला, अच्छा हुआ।‘

बालकराम कुछ देर खड़ा रहा और चाय वाले को मन—ही—मन गालियां देता रहा, जो किशन के पकड़े जाने पर खुश था। फिर वह घर की तरफ मुड़ गया, इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था।

घर पहुंचने पर उसने अपनी सबसे बड़ी लड़की सीता, जो तकरीबन ग्यारह वर्ष की थी, को जागते पाया। सीता से छोटे उसके तीन लड़के और थे। जब तक वह घर पहुंचता था। उसके चारों बच्चे सो चुकते थे।

‘तेरी मां कहां है?‘

‘मां काम पर गयी है।‘

‘तू सोयी नहीं?‘

‘भूख लगी है, मां ने कहा था—लौटने पर रोटी लायेगी।‘

‘रोटी नहीं बनी आज, हरामजादी।‘ वह गुस्से में बड़बड़ाया और दोनों लड़कों वाली खाट पर एक तरफ लेट गया। सबसे छोटा मुन्नू लक्ष्मी की खाट पर लेटा था। तीन खाटें आने के बाद कमरे में मुश्किल से खड़े होने की जगह बचती थी। कमरे से लगकर एक छोटी रसोई जैसी कोठरी और थी जिसमें कुछ कनस्तर और एक—दो बक्से थे। वहीं पर रसोई का काम लिया जाता था।

उसने सीता को डांटकर सो जाने के लिए कहा और खड़ा होकर बीड़ी खोजने लगा। उसे ध्यान था कि सुबह जाते वक्त वह कोठरी में दो—तीन बीड़ियां छोड़ गया था। लैम्प लेकर वह कोठरी में गया और बीड़ी—माचीस तलाश लाया।

जब तक दरवाजे पर थाप पड़ी वह दो बीड़ी पी चुका था और सीता चुपचाप सो गयी थी। उसे गुस्सा आ गया, पता नहीं क्यों? उसने उठकर दरवाजा खोल दिया, लक्ष्मी थी। सर्द हवा का झोंका लक्ष्मी के साथ कमरे में घुसा और बगैर चिमनी वाले लैम्प को बुझा गया। कमरे में एकाएक घुप्प अंधेरा फैल गया। जब आंखें कुछ देखने लगीं तो उसने लैम्प को जला दिया। तब तक लक्ष्मी किवाड़ बन्द कर चुकी थी।

‘रोटी क्यों नहीं बनायी?‘

‘उसी का जुगाड़ करने तो गयी थी।‘

वह कुछ नहीं कह सका, चुप पड़ गया। ये औरत बोलती नहीं चाकू मारती है। उसने सोचा।

‘पांच का पत्ता मिला, लेकिन जान खींच ली, दो थे।‘ लक्ष्मी पीठ खुजाते हुए बोली और धोती के छोर में बंधा पांच का नोट कोठरी में कहीं रख आयी।

कितनी चालू है मादर...। बलराम ने सोचा, सारी बातें साफ—साफ ही बोलेगी ताकि सुनकर कलेजा फुंक उठे। उसने एक—एक करके दोनों बच्चों को सीता की खाट पर लिटा लिया और लक्ष्मी को अपनी खाट पर ले लिया।

‘आज नहीं, तकलीफ है।‘ लक्ष्मी ने तुरन्त करवट बदल ली।

उसका पोर—पोर दुख रहा था। दो जनों ने एक घण्टा लगा दिया था पूरा और वह सुबह से भूखी थी।

‘बाहर तकलीफ नहीं होती, छिनाल।‘ बालकराम को गुस्सा आ गया। एक तो उसे दारू नहीं मिल पायी थी, दूसरे वह सुबह से भूखा था और तीसरे ठण्ड बदन तोड़े दे रही थी।

‘किसके कारण बाहर जाती हूं।‘ लक्ष्मी बिफर गयी, ‘जिन्दगी को नरक बना दिया तूने, रोटी तक खिला नहीं पाता, ऊपर से इल्जाम ठोंकता है अलग।‘

‘चुप।‘ उसने लक्ष्मी का मुंह दबा दिया और उसे दबोच लिया।

लैम्प को फूंक मारने के बाद उसने लक्ष्मी की गर्दन पर अपने होंठ चिपका दिये और उसके ऊपर आ गया। लक्ष्मी के होंठों से कराह फूट पड़ी और उसकी आंखों में आंसू उतर आये। तकलीफ से होंठ भिंच—भिंच जाते थे। तभी सीता उठ बैठी और अंधेरे में अपनी मां की कराहें सुनती रही। सीता की समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी मां पर चढ़ा हुआ उसका बापू क्या कर रहा है?

(हमारे कथाकार के दिमाग में एकदम ‘राग—दरबारी‘ का पलायन संगीत गूंजने लगा... भागो, भागो, यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है। कथाकार इससे पहले आम लोगों के बीच कभी नहीं आया था, वह परेशान हो गया। उसे लगा, प्रेमिका की आंखें ज्यादा सुविधाजनक हैं। उसे कार्ल मार्क्स पर क्रोध आने लगा जिसने अच्छे—खासे अमूर्त और मनोरंजक साहित्य को तकलीफों और जनसाधारण से जोड़ने की बात शुरू की।)

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ये देहरादून के साहित्यकार हैं, श्रीवास्तव प्रूफ देखता हुआ सोचता है, ये सब प्रेस से जुड़े हुए लोग हैं, यहां आए बिना जिनका खाना हजम नहीं होता। प्रूफ निपटाने के बाद उसने सोचा — वह प्रेस के स्टाफ और प्रेस से जुड़े साहित्यकारों को लेकर कोई लम्बी चीज लिखेगा। प्रेस में एक—से—एक ‘धापसोल‘ कैरेक्टर भरे पड़े हैं। प्रेस वर्कर्स की तकलीफों, मालिक द्वारा उनका शोषण और शोषण के खिलाफ उठ खड़े होने के बजाय हतवीर्यों की तरह लगातार बर्दाश्त करते चले जाना। वह पन्त और बन्धु से इस थीम पर डिस्कस करेगा, उसने सोचा और पढ़ा हुआ प्रूफ लेकर कम्पोजिंग रूम में चला गया। मसूरी की नेशनल एकेडमी से एक जरूरी काम आ जाने के कारण उसका उपन्यास बीच में ही रुक गया था। ‘नवरक्त‘ का गणतंत्र विशेषांक भी छप रहा था। और छोटे—छोटे डेली—वर्क अलग से। सारा टाइप ब्लॉक था।

‘नवरक्त‘ प्रेस का अखबार था और रवि जी प्रेस मैनेजर होने के साथ—साथ ‘नवरक्त‘ के सम्पादक भी थे। वैसे चीफ एडीटर तो प्रेस के मालिक विक्रम साहब ही थे। पढ़ा हुआ प्रूफ पेज सेट करने के लिए अनूप सिंह को देकर वह दूसरा गैली प्रूफ उठवा कर ले आया। अभी सिर्फ साढ़े छह हुए थे और प्रेस सवा सात पर बन्द होता था।

प्रूफ पढ़ने से पहले उसने देखा—बन्धु ‘दिनमान‘ का नया अंक पढ़ रहा था और अवधेश किसी छोटी पत्रिका को देख रहा था, जो कानपुर से नयी—नयी निकली थी। रवि जी बड़ी तन्मयता से खत लिखने में व्यस्त थे। श्रीवास्तव प्रूफ पढ़ने लगा। इस बीच अवधेश चला गया। पू्रूफ पढ़ने के बाद श्रीवास्तव ने घड़ी देखी—सात बजकर तेरह मिनट। रवि जी से हाथ मिला कर वह पन्त और बन्धु के साथ बाहर आ गया। वे ‘डिलाइट‘ में जाकर बैठ गये। किशन तुरन्त तीन गिलास पानी रख गया और बन्धु को एक भद्‌दी गाली भी दे गया। बन्धु के साथ उसका अश्लील मजाक चलता था—आत्मीयता के स्तर पर।

चाय पीकर पन्त जी उठ खड़े हुए, उन्हें कोई काम था, वे चले गये।

‘मैंने एक कविता लिखी है।‘ बन्धु ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा।

‘सुना दे।‘

‘ऐसे नहीं। पहले दारू पियेंगे, फिर रात का शो देखेंगे, इसके बाद कविता। रात को तू मेरे घर रुक जाना।‘

‘पैसे?‘

‘आज साइकिल—एडवान्स मिला है।‘ बन्धु ने इत्मीनान से जवाब दिया। श्रीवास्तव खुश हो गया।

चाय के पैसे बन्धु ने ही चुकाये। इसके बाद दोनों मच्छी बाजार की तरफ मुड़ गये। दारू खरीदने के बाद दोनों एक खाली बेंच पर बैठ गये। बेंच का खाली पाया जाना वैसा ही विचित्र था जैसे डिलाइट में किसी गैर—बौद्धिक का मिलना। बोतल निपटाने के बाद उन्होंने पान खाये और चारमीनार की डिब्बी खरीदी। बन्धु आज बादशाह बना हुआ है, श्रीवास्तव ने सोचा।

फिल्म देखने के बाद उन्होंने चाय पी और कनाट—प्लेस की तरफ मुड़ गये। कनाट—प्लेस से कुछ ही दूर यमुना कालोनी थी, जहां बन्धु रहा करता था।

घर पहुंचने से पहले घर के सामने के खम्बे के नीचे खड़े होकर बन्धु ने एक सिगरेट खुद जलायी और एक उसे दी, इसके बाद वो जेबें टटोलने लगा।

‘क्या हुआ?‘

‘यार वो कविता वाला कागज तो दफ्तर में ही छूट गया शायद।‘

‘फिर?‘

‘फिर क्या... अन्तिम लाइनें याद हैं।‘

‘वोई सुना दे।‘ श्रीवास्तव मुस्कराया। दिसम्बर के अन्तिम दिनों की ठण्ड में सड़क के किनारे, ट्‌यूब लाइट वाले खम्बे के नीचे खड़े होकर कविता सुनना अपने में एक मौलिक सुख है। श्रीवास्तव ने सोचा।

‘आखीर की लाइनें इस प्रकार हैं, बन्धु अपने विशेष लहजे में बोला, ‘हां, यह भी एक रास्ता है/इस पर वर्तमान कभी दौड़ता है हम से/आगे भविष्य की तरह/कभी पीछे/भूत की तरह लग जाता है/हम इसकी तरह उल्टे लटके हैं, आग के अलाव पर/आग ही आग है/नसों के बिलकुल करीब जिनमें बारूद भरा है।‘

हालांकि कविताओं में श्रीवास्तव का विश्वास नहीं था फिर भी बन्धु अभी भी ऐसी चीजें लिख रहा था जो सोचने के लिए एक लड़ाकू जमीन तैयार करती थीं।

‘तेरी उमर कितनी हो गयी?‘ श्रीवास्तव ने अचानक ही पूछा।

‘सत्ताइस, क्यों?‘

‘शादी कब करेगा?‘

‘शादी?‘ बन्धु चौंक पड़ा, फिर हंसा और चुप हो गया।

‘इसी साल जनवरी में अपने फण्ड से एक हजार रुपया एडवान्स लेकर और पिताजी की वो एक अदद छोटी—सी कपड़े की दुकान बेचकर मैंने अपनी बहन की शादी की है।‘ बन्धु एकाएक ही टूट गया, ‘अब दूसरी बहन भी तैयार है।‘ वह घर की तरफ चलता हुआ बोला, ‘क्या मैं शादी कर सकता हूं?‘ बन्धु जोर का ठहाका लगाकर हंस पड़ा।

श्रीवास्तव ने साचा——ठहाका लगाकर बन्धु ने मोहन राकेश की तरह अपने अन्दर एक कील और जड़ ली है। बन्धु के साथ श्रीवास्तव घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। बन्धु का कमरा बहुत छोटा था और एक छोटी खाट के अलावा उसमें सिर्फ कुछ किताबें थीं। बगल के कमरे में उसके पिताजी, उसकी बहन और उसका छोटा भाई था। श्रीवास्तव जूते उतार कर बन्धु के बिस्तर में घुस गया। वह काफी उदास था।

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पेशाब करने के बाद अनूपसिंह ने एक गिलास ठण्डा पानी पिया और कम्पोजिंग रूम से होता हुआ ऑफिस में आ गया। अनूपसिंह बहुत उदास था। वह किसी भी काम में हिस्सा नहीं ले पा रहा था। प्रेस की घड़ी में साढ़े सात हो गये थे और विक्रम साहब का पता नहीं था। उसे आज पैसों की सख्त जरूरत थी। आज सुबह जब वह काम पर आया था तो घरवाली के दर्द हो रहे थे। उम्मीद थी कि बाल—बच्चा आज ही हो ले। हालांकि घर पर अनूपसिंह की बहन और उसका बारह साल का लड़का भी था लेकिन बगैर पैसों के तो वे कोई तीर नहीं मार सकते थे।

उधार वालों को तो वह अगली तनख्वाह तक टरका भी सकता है लेकिन जो बच्चा होने वाला है उसे कैसे समझाये कि इस बार कड़की है, अगले महीने पैदा होना। पता नहीं ऐन मौके पर किस चीज की जरूरत पड़ जाये। पैसा पास हो तो दिल मजबूत तो रहता ही है। वैसे भी इस बार वह अपनी औरत को गिजा वाली कोई चीज नहीं खिला पाया था, जबकि उसने सुना था कि बाल—बच्चे वाली औरतों को इस मौके पर घी देना चाहिए। उनका तो ये दूसरा जन्म होता है।

दो—चार वर्कर बेसबरी में प्रेस के बाहर जाकर खड़े हो गये थे।

अनूपसिंह भी बाहर निकल आया। सर्द हवा का झोंका उसे बहुत भीतर तक झकझोरता चला गया।

कार के रुकते ही विक्रम साहब बैग उठाकर भीतर आये। कुर्सी पर बैठे रवि जी और श्रीवास्तव खड़े हो गये लेकिन सुकरम उसी तरह बैठा रहा। सुकरम मुजफ्फरनगर के एक गांव का जाट था और तड़ी के साथ ठेके के हिसाब से काम करता था। उसकी कम्पोजिंग की रफ्तार सबसे अधिक थी। इसीलिए उसका रुतबा भी था।

‘किसे एडवान्स देना है?‘

‘सभी को चाहिए, साहब।‘

‘ठीक है। विक्रम साहब ने लापरवाही से कहा, ‘कल मिलेगा।‘

अनूपसिंह को लगा, उसका चेहरा सख्त पड़ गया है, लेकिन तुरन्त ही उस पर धुआं—सा तैरने लगा।

‘साब, मुझे तो आज ही दिलवा दो।‘ अनूपसिंह गिड़गिड़ा पड़ा।

‘क्यों?‘

‘जी, घरवाली के बच्चा होने वाला है।‘

‘इस समय कोई पैसा नहीं है, कल बैंक से निकलवा कर देंगे।‘

‘दसेक रुपये तो दे दो साब।‘

‘दस रुपये रवि जी से ले लेना।‘ विक्रम साहब ने कहा और प्रेस से बाहर निकल गये।

‘रवि जी, दस रुपये...साब ने कहा है।‘

‘साब चढ़ गये मेरे इस पे।‘ रवि जी गर्म हो गये। ‘यहां क्या पेड़ लगा हुआ हैै, दस रुपये दे दो...।‘

कोट के बटन बन्द करता हुआ श्रीवास्तव बाहर निकल गया। उसके पीछे—पीछे प्रेस के सारे वर्कर भी आ गये। रवि जी ने प्रेस का ताला बन्द करने के बाद चाबी खन्ना को दे दी——विक्रम साहब तक पहुंचाने के लिए।

‘ये विक्रम है न, बड़ा हरामी है साला।‘ शामलाल ने हथेलियां मलते हुए कहा।

‘दुपहर का बीज है मादर...।‘ बालकराम गुर्राया, ‘कभी वक्त पर पैसा नहीं देगा।‘ ‘दुपहर का बीज‘ पर तमाम वर्कर ठहाका मारकर हंस पड़े लेकिन अनूपसिंह कुछ और उदास हो गया।

अनूपसिंह अचानक अकेला रह गया। सारे वर्कर खिसक लिये थे। बला की ठण्ड थी। यह दिसम्बर के दिन थे और अभी जनवरी—फरवरी भी सामने पड़ी थीं जब मंसूरी में गिरती बर्फ यहीं से दिखायी पड़ती है और घाटी में बसा हुआ यह शहर कांप—कांप जाता है। परके साल इसी ठण्ड में अनूपसिंह की इकलौती लड़की डबल निमोनिया का शिकार होकर अकाल मौत मर गयी थी।

सहसा ही अनूपसिंह के कदम एक साथ भारी हो आये और सारा बदन शिथिला गया। घर का रास्ता काफी लम्बा था और उसकी बीवी सुबह से दर्द झेल रही थी। वह परेशान हो गया। उसे लगा—खाली हाथ वह घर नहीं पहुंच पायेगा। विक्रम साहब ने ऐन मौके पर उसे तोड़कर रख दिया था। उसकी आंखों में अंधेरा—सा उतरने लगा और देर तक प्रेस के सामने से हिल नहीं सका—ठण्ड के बावजूद।

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‘मैंने तुम्हारी एक कहानी पढ़ी है श्रीवास्तव जी‘, मदन ने कम्पोजिंग रोककर कहा, ‘उसमें एक वाक्य है—व्यवस्था लोमड़ी की तरह चालाक होती है और छोटे पोस्टरों पर बड़े पोस्टर चिपकाने की कला में माहिर।‘ सिर्फ इसी वाक्य का मतलब समझ नहीं आया।

‘इन्टरवल में बताऊंगा।‘ श्रीवास्तव मुस्कराया और बीड़ी सुलगाने लगा।

‘एक आदमी है,‘ मदन ने कहा, ‘सुअर की तरह धकापेल उसने आठ बच्चे पैदा किये हैं, इसका जिम्मा किस पर जाता है?‘

‘उसी आदमी पर।‘

‘मैं नहीं मानता। इसका जिम्मेदार उसका बाप है, जिसने उन्नीस साल की उमर में ही उसका ब्याह रचा दिया। तनखा सिरफ दो सौ दस रुपये, आदमी के आत्महत्या के पूरे चांस हैं न!‘

‘बेशक।‘

‘लेकिन मैं अभी तक जिन्दा हूं।‘ मदन रुआंसा हो गया।

मदन जैसे हंसमुख कम्पोजीटर को टूटते श्रीवास्तव आज ही देख रहा था। उसे लगा हालात कुछ ज्यादा ही नाजुक हैं। आदमी अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेगा। कमरे का माहौल अचानक ही सुस्त—सी उदासी लिये भारी हो गया। दायीं तरफ बैठा शामलाल उसी का उपन्यास कम्पोज कर रहा था और बायीं ओर खन्ना ‘नवरक्त‘ का छप चुका पेज डिस्ट्रीब्यूट कर रहा था। श्रीवास्तव ने चाहा कि वह मदन को बताये कि असल में दोष उस व्यवस्था का है जो विक्रम साहब के मुनाफे के लिए बनी है। लेकिन खन्ना को देखकर वह चुप लगा गया। खन्ना मजदूर होने के बावजूद विक्रम साहब का आदमी था। श्रीवास्तव इस कमरे में गैली प्रूफ लेने आया था। बीड़ी फेंककर उसने प्रूफ को भी फाइनल करना था।

दिसम्बर की ठण्ड में आधी रात को खम्भे के नीचे खड़े होकर बन्धु कविता सुनाता है—आग—ही—आग है नसों के बिलकुल करीब... श्रीवास्तव सोचता है और प्रूफ पढ़ता है। विक्रम साहब एक—एक रात में हजार—हजार रुपया जुए में हारते हैं और मशीनमैन गुप्ता अपने लड़के की दवाई के लिए सिर्फ ढाई रुपये का इन्तजाम नहीं कर पाता। रात के हादसे बहुत खतरनाक होते हैं और सरेआम किसी का चाकू किसी की पसलियां तोड़कर गुजर जाता है। श्रीवास्तव प्रूफ नहीं पढ़ता। क्यों पढ़े? डेढ़ सौ रुपये में वह सिर झुकाकर, आंखें मलता हुआ सारा—सारा दिन प्रूफ पढ़ता रहे, उसके चश्मे का नम्बर साल—दर—साल बढ़ता चला जाये और विक्रम साहब जुआ खेलते रहें, व्हिस्की पीते रहें और औरतों को चूसते रहें। एक आदमी है जिसने धकापेल बच्चे पैदा किये। एक अदद बीवी, एक बूढ़ा बाप। यह मदन है। सुना है, एक वक्त चूल्हा जलता है और रोटी को नमक से खाया जाता है। बड़ा लड़का एक सिनेमा हाल के सामने मूंगफली बेचता है और छोटा एक होटल में बर्तन मांजता है। हम सोने की मुर्गी हैं, प्रेस में सोना हगकर जाते हैं और हमारी ही साली ये हालत। इंकमैन शास्त्री चीखता है और बगैर दवा के मर चुके अपने बच्चे की ताजा लाश पर उसकी बीवी जार—जार रोती है।

‘प्रेस तो एक प्रतीक है, इस महादेश का।‘ बन्धु कहता है, ‘लोग समान्तर तकलीफों से गुजर रहे हैं।‘

विक्रम साहब भी एक प्रतीक हैं, श्रीवास्तव सोचता है, जो एक अंधेरी गुफा के मुहाने पर पूरी व्यवस्था को लिये बैठे हैं। होटल की खिड़कियों से गोश्त की बची हडि्‌डयां फेंक दी गयी हैं। नीचे खड़े लड़के एक साथ उन पर झपटते हैं और एक—दूसरे का सिर फोड़ देते हैं। दो—एक कुत्ते गुर्राते हुए आते हैं और हडि्‌डयां लेकर भाग जाते हैं। लड़कों के सिरों से खून टपक रहा है। ताजा सूर्ख खून। सुना है क्रांति का रंग खून जैसा होता है। जमीन पर टपकने से पहले ही लड़के अपना—अपना खून पी लेते हैं और निर्मल वर्मा पाठकों को विदेशी जमीन पर खींच ले जाते हैं, भुतैली छायाओं और हवा के घोंसलों के बीच।

मोहल्ले में रात को एक कार आती है और मां अपने बच्चे को छोड़कर कार में चली जाती है। कार में विक्रम साहब हैं। और विक्रम साहब एक प्रतीक हैं। पति निरीह आंखों से सब देखता है—पति भी एक प्रतीक है।

जिन्दगी वीभत्सता की हद तक सड़ी हुई है और कहानी एक फालतू और वाहियात चीज है, जो पेट भरे उबाऊ लोगों की मानसिक अय्‌याशी पूरी करती है।

सोचो। सिर्फ इतना सोचो कि तुम्हारे खेत में उगा हुआ सोना उनकी तिजोरी में क्यों कैद हो जाता है? कि चीनी, चावल, कपड़ा और घी तुम्हारे गट्‌टों के दम पर बाजार में आता है और तुम ही भूखे—नंगे हो।

बिहार के गांव में एक औरत भूख से तंग आकर अपने बच्चों का गला घोटकर आत्महत्या कर लेती है और महानगरों में ‘अकहानी‘ का जन्म होता है। राजस्थान के गांव में प्यास से तड़पते अपने बाप को जवान लड़की रो—रोकर अपना पेशाब पिला देती है और ‘अज्ञेय‘ ‘अपने—अपने अजनबी‘ लिखकर पैसे पीटते हैं। महानगरों के सात मंजिला होटलों में बच्चों का गोश्त बिकता है, कलकत्ता के फुटपाथ पर प्रेमचन्द का ‘होरी‘ मरा हुआ पाया जाता है और बुद्धिजीवी अपनी मां के शव के बगल में लेटकर अपनी बहन के साथ संभोग करता है—यह भोगा हुआ यथार्थ है और इसने कहानी को नये आयाम दिये हैं।

यह सबसे ज्यादा गरीब देश है, इन साले गरीबों ने देश के माथे पर कलंक लगा दिया है। गरीबों का एक महानगर बनाया जाये और उस पर एटम बम डालकर तबाह कर दिया जाये। चरस के नशे में ‘फ्री वर्ल्ड‘ की बात करने वाला एक कवि यह धांसू आइडिया कॉफी हाउस की मेज पर उछालता है और ठहाकों से मेज हिलने लगती है। विक्रम साहब इस धांसू आइडिये से खुश होकर ‘फ्री वर्ल्ड‘ के हिमायती उस चरसी कवि को साहित्य अकादमी का इनाम दिलवाने का आश्वासन देते हैं और बंगाल के मजदूरों पर ताबड़ तोड़ गोलियां बरसने लगती हैं।

विक्रम सा...ह...ब...। श्रीवास्तव जोर से चीखता है। अपनी—अपनी कुर्सी पर बैठे एकाउन्टेन्ट नेगी और रवि जी एक साथ चौंक पड़ते हैं। श्रीवास्तव की सांस उखड़ गयी है, और माथे पर कड़ी ठण्ड के बावजूद पसीना चमक आया है। उसके दिमाग में कुछ बहुत बेहूदा—बेहूदा घट रहा है। यह अमूर्तीकरण है। इसे मूर्त करना है। अमूर्तता का जमाना पिकासो के साथ दफन हो गया।

श्रीवास्तव का सिर भारी हो गया, बेहद भारी। घड़ी देखी—पूरे पांच। वह जल्दी—जल्दी प्रूफ पढ़ने लगा। रवि जी अभी तक उसे घूर रहे थे। प्रूफ पढ़ता हुआ श्रीवास्तव फिर सोचता है कि लोग आत्महत्या के बजाय के बजाय हत्या की बात क्यों नहीं सोचते? दरअसल, जोतां वाली माता ने लोगों का दिमाग भी गरीब कर दिया है।

आज इतवार था। प्रूफ पढ़कर श्रीवास्तव रजिस्टर में अपना ओवर टाइम दर्ज करवाता है। साढ़े सात से साढ़े पांच। कुल दस घंटे। महीने की तनख्वाह में बीस रुपये जोड़कर कुल एक सौ सत्तर रुपये। इन बढ़े हुए रुपयों में से वह एक जोड़ी मोजे और देब्रे की ‘रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूश्न‘ खरीदेगा।

पन्त जी एक नयी कविता सुना रहे हैं। लेकिन श्रीवास्तव सिर्फ एक बात सोच रहा है—विक्रम साहब।

‘नवरक्त‘ का विशेषांक आज प्रकाशित हुआ है, कल की डाक से पोस्ट किया जायेगा। प्रेस की घड़ी में पौने सात हो गये हैं। और देहरादून के कुछ रचनाकार हमेशा की तरह प्रेस में मौजूद हैं। श्रीवास्तव को सहसा ही प्यास लग आयी है। वह उठकर कम्पोजिंग रूम में चला गया है—जहां एक ऊंचे स्टूल पर बैठा अनूपसिंह अपनी आंखों से खून के कतरे समेट रहा है। खून! यह सन्नाटा और सूर्ख खून भी एक प्रतीक है। श्रीवास्तव सोचता है — विक्रम साहब। अनूपसिंह की औरत बच्चा जन्मते समय दम तोड़ गयी थी और अनूपसिंह की आंखों में खून के कतरे हैं। श्रीवास्तव जाकर अनूपसिंह के पास खड़ा हो गया है। अनूपसिंह के कान श्रीवास्तव के होंठों के एकदम करीब हैं और श्रीवास्तव बेआवाज चीखता है—विक्रम साहब।

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अचानक ही श्रीवास्तव का पुराना चिन्तन अनायास ढह गया। नहीं, ‘अचानक‘ शब्द गलत प्रयोग हुआ है। यह सब कुछ धीरे—धीरे लेकिन लगातार हुआ था। दरअसल, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था, साथ ही अपने मूल में वह भावुक भी था। गड़बड़ी यहीं हो गयी। घृणा के आघात उसकी चेतना से लगातार टकराये और आघात—दर—आघात उसमें पैनापन भरने लगा। उसने साहित्य लिखना एकदम छोड़ दिया। साहित्य पर से उसका विश्वास उठ गया। सुकरम से उसकी खास यारी हो गयी थी और वह प्रेस के वर्कर्स के बीच अधिक उठने—बैठने लगा था। कुछ गलत है, जो बदलना ही चाहिए, वह सोचा करता। लन्च टाइम में वह सुकरम, मदन और शामलाल को चाय पिलाने ले गया और देर तक समझाता रहा। हमारे कथाकार ने सिर्फ एक ही शब्द सुना—विक्रम साहब।

प्रेस बंद होने के बाद वह अनूपसिंह और बालकराम के साथ बाहर निकला और दूर तक उन्हें कुछ समझाता चला गया। हमारा कथाकार फिर देर से पहुंचा, वह एक ही शब्द सुन पाया—विक्रम साहब।

यह सिलसिला कई दिन तक चलता रहा। इस बीच सुकरम ने कई बार विक्रम साहब के साथ बदतमीजी और झगड़ा किया। एक दिन, सबके सामने, उसने जेब का चाकू निकाल कर खोला और बन्द किया। प्रूफ देखता हुआ श्रीवास्तव चुपचाप मुस्कराता रहा।

एक दिन मशीनमैन गुप्ता काम पर नहीं आया। उसने एक दिन पहले एप्लीकेशन भी नहीं दी थी। सारे दिन मशीन खाली रही। लाख खोजने पर भी नगर भर में कोई दूसरा मशीनमैन खाली नहीं मिला। विक्रम साहब ने हंगामा मचा दिया। उनका गुस्सा कुतुबमीनार की ऊंचाई तक पहुंच गया। कुछ अरजेन्ट वर्क जो उसी दिन देने थे, नहीं दिये गये। विक्रम साहब ने एकाउन्टेन्ट नेगी को हुक्म दिया कि गुप्ता की तनख्वाह में से घाटा पूरा किया जाये।

अगले दिन गुप्ता आया, उसका चेहरा उदास था। विक्रम साहब उसी का इन्तजार कर रहे थे। देखते ही फट पड़े।

‘साहब, मेरा जो लड़का टाईफैड से बीमार था। वो गुजर गया। इसीलिए नहीं आ सका।‘ गुप्ता रुआंसा हो गया।

‘हम क्या लड़के के ठेकेदार हैं।‘ विक्रम साहब चीखे।

गुप्ता की आंखों में तुरन्त खून छलक आया, लेकिन वह चुपचाप सिर झुकाये खड़ा रहा। तनख्वाह में से घाटा पूरा करने की बात पर सुकरम बाहर निकल आया और अपनी मौलिक गालियों के साथ फैल गया। विक्रम साहब वैसे ही फुके हुए थे। उन्होंने तुरन्त सुकरम का हिसाब साफ किया और उसे निकाल बाहर किया। सुकरम वहशियों की तरह उन्हें घूरता रहा फिर वह बाहर निकल गया। उस दिन पांच जनवरी थी, सात जनवरी को तनख्वाह मिलती थी। श्रीवास्तव नाक छिनकने के बहाने बाहर निकला और शाम सात बजे के बाद सुकरम से दीपक रेस्त्रां के बाहर मिलने को कहा।

अगले दिन, छह जनवरी को प्रेस में मनहूसियत गश्त लगा रही थी। सब चुपचाप जल्दी—जल्दी अपना काम निपटा रहे थे। लंच टाइम में एकाउंटेंट नेगी, डिस्ट्रीब्यूटर खन्ना के अलावा बाकी सब वर्कर श्रीवास्तव के साथ एक चाय घर में जाकर बैठ गये और गुपचुप कुछ बात करने लगे।

(हमारा कथाकार भी वहां पहुंचा लेकिन उसे डांट कर भगा दिया गया। उस रात कथाकार को नींद नहीं आयी, वह काफी परेशान था, उसने खूब शराब पी ली और टुन्न हो गया। पता नहीं उसके पास पैसे कहां से आये? खैर ये व्यक्तिगत मामला है। क्या पता वो पैसे वाला हो। जरूरी थोड़े ही है कि कथाकार गरीब ही हो।)

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कृप्या पाठक रुकें ओर थोड़ा अधिक अपनी—अपनी संवेदनाओं के मुताबिक अफसोस जाहिर करें क्योंकि इस जगह आकर एक जबर्दस्त हादास हो गया है। पता नहीं क्यों हमारा कथाकार पागल हो गया है। कहता है—मैं आत्महत्या करूंगा। मेरी आत्महत्या का कारण है, ये प्रेस। प्रेस तो एक प्रतीक है—बन्धु ने कहा था।

मुझे लगता है, ऐसी आक्रान्त स्थितियों से गुजरते हुए कोई भी भावुक और अति संवेदनशील व्यक्ति पागल हो सकता है। अरे, आप हंस रहे हैं। एक कथाकार पागल होकर आगरे चला गया और आप में रत्ती भर भी संवदेना नहीं जागी। शर्म की बात है।

सुनिए, आप भी सुनिए उसका आर्तनाद। कह रहा है—सारे क्लाड ईथरली पागलखाने में कैद हैं और दुनिया के सारे पागल बाहर घूम रहे हैं। विदा बन्धु। ब्रह्‌मराक्षस अकाल मौत मरता है।

खैर, कोई नया कथाकार ढूंढते हैं। आखिर कहानी को आगे तो बढ़ाना ही है। जब तक कोई नया कथाकार आये तब तक मैं ही सुनाये देता हूं। लेकिन भाई साहब। ‘कहानीपन‘ का मुझे कतई नहीं पता। मैं तो इस बीच जो घटनाएं घटित हुई हैं उनका वर्णन—सा करे देता हूं। कहानीपन, स्थितियों का टैरर और कहानी की रोचकता आप स्वयं जोड़ते चलिए।

तो, किस्सा—ए—लोग/हाशिए पर, इस प्रकार है—सात तारीख को तनख्वाह लेने के बाद आठ तारीख से प्रेस में स्ट्राइक हो गयी।

स्ट्राइक का हॉरर या टैरर जो कुछ भी होता है, आप स्वयं सोचिए।

एक महीना गुजर गया। लोगों ने तनख्वाह तो ले ही ली थी। चार घंटे के अन्तर से चार—चार के गु्रप में प्रेस के सामने आठ वर्कर बैठते रहे। रवि जी ने मौके का फायदा उठाया और इससे पहले कि उनसे सवाल किया जाता कि तय करो, किस ओर हो तुम? वे अपने गांव चले गये, दो महीने की छुट्‌टी लेकर। नेगी और खन्ना इस हड़ताल में शामिल नहीं थे, वे विक्रम साहब के पक्षधर थे।

श्रीवास्तव ने दो—तीन विरोधी पार्टियों से सम्पर्क कर लिया था। मजदूरों के मसीहा भी वर्कर्स को समर्थन देने के लिए कभी टैक्सी में और कभी स्कूटर में आते थे। दरअसल, इस हड़ताल का श्रेय एक विरोधी पार्टी लेना चाहती थी। पार्टी के नेता एम.एल.ए. के इलेक्शन में खड़ा होना चाहते थे और इसके लिए जनआधार की जरूरत थी। हड़तात की सफलता—असफलता का सीधा सम्बन्ध उनकी सफलता और असफलता से जुड़ गया था। झण्डों पर काफी प्रसिद्ध नारे लिखकर टांगे गये और स्ट्राइक की खबर पूरे नगर में फैल गयी। इस बीच श्रीवास्तव भाग—दौड़ में व्यस्त रहा। उनकी आंखों में सिर्फ विक्रम साहब थे।

दूसरा महीना शुरू होते ही वर्कर्स के चेहरे स्याह पड़ गये क्योंकि उधार वाले बीच हड़ताल में ही तंग करने लगे। उनके घर वालों को राशन, पानी, दवाई और कपड़ों की किल्लत हो गयी। उधार मिलना बन्द हो गया। विरोधी पार्टी द्वारा फण्ड इकट्‌ठा किया गया और किसी तरह एक हफ्ता और खिंच गया। फिर वही दिक्कत! वे और उनके बीवी—बच्चे रोटी के बगैर तरसने लगे।

जरा आप उस वक्त के संघर्ष की कल्पना कीजिए, जब भुखमरी के दैत्याकार पंजे ने उन सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उनके पास खाने को रोटियां नहीं थीं। उनके बच्चे और बीवियां फरवरी की बर्फीली ठण्ड में बिना कपड़ों के ठिठुर रहे थे। यह वह वक्त था जब विक्रम साहब भारी—भारी कीमती कपड़ों में छुपे हुए थे और मुर्गे का गोश्त तथा व्हिस्की इस्तेमाल कर रहे थे।

भई, मुझे तो लिखना नहीं आता और कथाकार हो गया पागल। बंद है। आप स्वयं ही उन संघर्षों के स्कैच अपने मस्तिष्क में बनाइये।

श्रीवास्तव की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही थीं क्योंकि उसी के कहने पर वर्कर्स ने हड़ताल की थी। हालांकि श्रीवास्तव को तो घर पर खाना मिल ही जाता था लेकिन वह खा नहीं पाता था। आपके साथी लगातार भूखे हों और आप रोटियां तोड़ें, इससे ज्यादा कुत्सित हरकत और कोई नहीं हो सकती।

आखिर विक्रम साहब का सिंहासन चरमरा गया। हड़ताल के कारण प्रेस की साख गिर रही थी और हजारों रुपयों का काम वापस लौट रहा था। अखबारों में रोज इस बात को उछाला जा रहा था। मजाक थोड़े ही है, नगर में मजदूरों की आठ पार्टियां हैं और तेरह अखबार। व्यवस्था भी किक्रम साहब का साथ न देने के लिए मजबूर थी। इसके दो कारण थे। एक तो इस हड़ताल को लेकर नगरवासी अतिरिक्त रूप से भावुक हो गये थे, दूसरे विक्रम साहब इतने बडे़े पूंजीपति नहीं थे कि चुनावों में सत्ता को लाखों रुपया दान दिया करते। नगर की जबान पर सिर्फ हड़ताल थी और बुद्धिजीवी तक चायघरों में इसे बहस का मुद्‌दा बनाये हुए थे। मस्तराम के साहित्य से मुंह निकाल कर कॉलेज के छात्र अपने नेताओं से पूछते थे—शहर जला दें क्या? दफ्तर के दो—चार क्लर्क तो इतने गुस्सा थे कि उन्होंने अपने बॉस को सलाम तक करना छोड़ दिया।

आखिर मोर्चा फतह हो गया। हड़ताल तोड़ दी गयी। श्रीवास्तव ने उस रात शराब पी। उसकी सारी मांगें स्वीकार कर ली गयी थीं। वर्कर्स की तनख्वाह में पचास रुपये मासिक की बढ़ोतरी हुई, प्रेस टाइम सवा नौ से साढ़े सात के बाजय दस से छह कर दिया गया, हड़ताल के दौरान की तनख्वाह दी गयी, सुकरम को वापस काम पर लिया गया, इतवार के अलावा दस सालाना छुटि्‌टयां और बढ़ायी गयीं, तथा सलाना बोनस की भी व्यवस्था की गयी। रातों—रात राजनीति के रंगमंच पर श्रीवास्तव के बल्ब जगमगा उठे। वह आम आदमी का मसीहा हो गया था और कमलेश्वर से मिलना चाहता था।

लेकिन नगर के साहित्यकार नाराज हो गये। उनका कहना था, लेखक को सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए।

अचानक एक और हादसा हुआ।

एक दिन प्रेस में पूरी रात का ओवर—टाइम हुआ। पिछला नुकसान पूरा करने के लिए लगातार ओवर—टाइम चल रहा था फिर भी वर्कर्स खुश थे क्योंकि तीन रुपये घंटे के हिसाब से उनकी तनख्वाह में पैसे जुड़ते चले जा रहे थे। उनके दिमागों में एक लम्बे अरसे से कैद आकांक्षाएं आंखों में मचलने लगी थीं।

प्रेस के दरवाजे अंदर से बंद कर लिये गये थे। उस रात ओवर—टाइम में श्रीवास्तव सहित छह आदमी थे। गुप्ता, सुकरम, शामलाल, अनूपसिंह और खन्ना।

यह करीब रात का सवा बजे का वक्त था जब प्रेस का दरवाजा अचानक ही खटखटाया गया। तुरन्त सब चौंक पड़े, फिर सहज हो गये। चौंकने वालों में खन्ना शामिल नहीं था और दरवाजा भी तुरन्त खन्ना ने ही खोला। एकदम से दो पेशेवर किस्म के बदमाश भीतर घुस आये। यह अप्रत्याशित था, सभी हतप्रभ रह गये।

श्रीवास्तव ने चौंक कर देखा—खन्ना ने मुस्करा कर सुकरम की तरफ इशारा किया। पलक झपकते ही एक लम्बी खुकरी सुकरम के पेट में घुस कर उसकी आंतें बाहर खींच लायी। यह एक ऐसा खौफनाक क्षण था कि सब बुत की शक्ल में खड़े रह गये। सुकरम जोर से जिबह होते बकरे की तरह चीखा फिर जमीन पर गिरकर तड़पने लगा। दोनों बदमाश हवा हो गये।

इसके बाद जो कुछ हुआ वह एकदम नाटकीय था। श्रीवास्तव फौरन ऑफिस की तरफ भागा और दरवाजे पर विक्रम साहब से टकरा गया। उनके साथ दो पुलिस वाले भी थे। आप क्या सोचते हैं वो धरती फाड़ कर निकले थे। मेरा अनुमान है कि वो विक्रम साहब के फ्लैट में पहले से ही मौजूद थे।

अचानक बड़े नाटकीय अंदाज में खौफनाक लहजे के साथ खन्ना चीखा — सुकरम को श्रीवास्तव ने मारा है। खन्ना की चीख सुनते ही बाकी वर्कर्स चुप पड़ गये। श्रीवास्तव अवाक्‌ रह गया। जब तक वह कुछ कहता, उसे पकड़ लिया गया।

जिस दिन उसके मुकदमे की तारीख थी उस दिन कोई साहित्यकार कोर्ट नहीं पहुंचा क्योंकि उसी दिन दिल्ली से आये एक बड़े लेखक के सम्मान में गोष्ठी का आयोजन था।

श्रीवास्तव चीखता रहा — मुझे बताया जाये, सुकरम का कत्ल होने के एक मिनट के भीतर पुलिस कैसे पहुंच गयी? लेकिन उसकी आवाज पांच अदद गवाहों के नीचे दब कर रह गयी। उसने आश्चर्य से देखा—जिन लोगों के लिए वह लड़ा था, वही लोग एक—एक करके उसके खिलाफ गवाही देकर गये। इन्हीं लोगों के कारण श्रीवास्तव ने विक्रम साहब की दुश्मनी मोल ली और वही लोग कह गये कि सुकरम को श्रीवास्तव ने ही खुकरी मारी थी। मारने का कारण हड़ताल के दौरान की आपसी दुश्मनी बताया गया। श्रीवास्तव को लगा कि उसे पागल हो जाना चाहिए। वर्कर्स को या तो धमकी दी गयी है या खरीद लिया गया है, वह जानता था।

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काले फौलाद के सींखचे बहुत मजबूत हैं और उनके पीछे खड़ा हुआ श्रीवास्तव बेहद कमजोर। उसकी बोलती बंद हो गयी है और आंखें खोखली। उसका चेहरा एकदम सपाट है और गाल धंस गये हैं। वह सींखचों से लगा खड़ा है। एक लंगड़ी औरत जो उसकी मां है, श्रीवास्तव सोचता है, एक बाप जो तेजी से जिन्दगी की ढलान पर लुढ़क रहा है। एक बहन जो ताड़ सरीखी हो गयी है। चार छोटे भाई। और...और...और एक कार आयेगी रात के सन्नाटे और अन्धेरे में। कार में विक्रम साहब होंगे और उसकी बहन कार में बैठकर चली जायेगी। मां सब देखेगी और गूंगी हो जायेगी, बाप अपना सिर दीवार से फोड़ लेगा। उफ! श्रीवास्तव अपना सिर सींखचों पर पटक देता है। काश मेरी सोचने की शक्ति बरबाद हो सकती। श्रीवास्तव सोच रहा है। लगातार। हवा में लटकता एक फंदा है और एक अदद गर्दन...। विक्रम साहब ठहाका लगा रहे हैं...श्रीवास्तव के भीतर जोर से कोई रोता है और नगर के साहित्यकार ‘डिलाइट‘ में बैठकर कहानी के बदलते प्रतिमानों पर बहस कर रहे हैं।

सामने एक आदमी खड़ा है, निरीह—दयनीय। उसके चेहरे की झुर्रियों से अन्तहीन यातना झांक रही है। यह श्रीवास्तव का बाप है। श्रीवास्तव बैठा—बैठा देर तक छाया को घूरता रहता है फिर भी छाया बुत की शक्ल में खड़ी रहती है। श्रीवास्तव को लगा—उसका बाप सचमुच खड़ा है। वह उठकर ठण्डे कदमों से सींखचों के करीब आता है और अचरज से सामने खड़े आदमी का चेहरा छूता है। उसे झटका लगता है। यह मूर्तता है। उसका बाप वाकई खड़ा है। वह चश्मा उतार कर साफ करता है और पहन कर फिर देखता है—सचमुच उसका बाप ही है।

बाप हैरानी से श्रीवास्तव की हरकतें देखता है और अपनी बूढ़ी आंख चुपचाप पोंछता है। श्रीवास्तव कुछ कहना चाहता है लेकिन आवाज साथ नहीं देती। दरअसल श्रीवास्तव कुछ कहना ही नहीं चाहता। संवाद की स्थिति खत्म हो चुकी है। अब सिर्फ बियाबान है, जिसमें उसे सांय—सांय करना है। वह बुत रहता है और बाप सामने से हट जाता है। देर तक बाप का लौटना श्रीवास्तव अपनी सोच में साकार देखता है।

‘ओय हरामी। तेरे कू तेरी मां मिलने वास्ते आया।‘ मुच्छड़िया सन्तरी गुर्राता है। श्रीवास्तव उठकर मिलने वाली कोठरी में चला जाता है।‘

‘तूई तो हमारा सहारा था रे।‘ मां रो पड़ती है।

श्रीवास्तव चीखना चाहता है—विक्रम साहब। लेकिन इस बार भी आवाज साथ छोड़ जाती है।

—मुझे अपने दोस्तों ने धोखा दिया है मां। वह मां को बताना चाहता है। विक्रम साहब तो खैर एक दुश्मन थे। लेकिन मां ऐसी बातें नहीं समझती। वह फिर पत्थर की बेंच पर बैठ जाता है और मां का लौटना महसूस करता है।

—यार, श्रीवास्तव कुछ ज्यादा ही भावुक था। साहित्यकारों की बहस का यह टुकड़ा छिटक कर ‘डिलाइट‘ की खिड़की से बाहर आ जाता है और तुरन्त कथाकार के पास आगरे पहुंचता है। कथाकार जोर से हंसता है—वीभत्स ठहाके के साथ और हंसता चला जाता है।

आज भी विक्रम साहब एक रात में दो—दो हजार रुपया हार जाते हैं और शराब के साथ औरत को पीकर विजय दर्प से मुस्कराते हैं।

कोई नहीं सोचता किसी की ओर से और सुभाष पन्त ने एक कविता लिखी है—यह एक चरागाह की तरह समतल और खामोश शहर है।

रचनाकाल : 1975 (लेखक की पहली रचना)

कहानी

उस धूसर सन्नाटे में

धीरेन्द्र अस्थाना

फोन करने वाले ने जब आर्द्र स्वर में सूचना दी कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह थोड़ी देर पहले गुजर गए तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ।

उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था, जब आसमान पर मटमैले बादल छाए हुए थे और सड़कों पर धूल भरी आंधी मचल रही थी। अखबारों में मौसम की भविष्यवाणी सुबह ही की जा चुकी थी। अफवाह थी कि लोकल ट्रेनें बन्द होने वाली हैं। गोराई की खाड़ी के आसपास मूसलाधार बारिश के भी समाचार थे। कोलाबा हालांकि अभी शांत था लेकिन आजाद मैदान धूल के बवंडरों के बीच सूखे पत्ते सा खड़खड़ा रहा था।

यह रात के ग्यारह बजे का समय था। क्लब में उदासीनता और थकान एक साथ तारी हो चुकी थीं। लास्ट ड्रिंक की घंटी साढ़े दस बजे बज गई थी—नियमानुसार, हालांकि आज उसकी जरूरत नहीं थी। क्लब की चहल—पहल के सामने, ऐन उसकी छाती पर, मौसम उस रात शायद पहली बार प्रेत—बाधा सा बन कर अड़ गया था। इसलिए क्लब शुरू से ही वीरान और बेरौनक नजर आ रहा था।

उस दिन बंबई के दफ्तर शाम से पहले ही सूने हो गए थे। हर कोई लोकल के बंद हो जाने से पहले ही अपने घर के भीतर पहुंच कर सुरक्षित हो जाने की हड़बड़ी में था। भारी बारिश और लोकल जाम—यह बंबईवासियों की आदिम दहशत का सर्वाधिक असुरक्षित और भयाक्रांत कोना था, जिसमें एक पल भी ठहरना चाकुओं के बीच उतर जाने जैसा था।

और ऐसे मौसम में भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह शाम सात बजे ही क्लब चले गए थे। क्लब उनके जीवन में धमनियों की तरह था—सतत जाग्रत, सतत सक्रिय। क्लब के वेटर बताते थे कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह पश्चिम रेलवे के ट्रेक पर बने बंबई के सबसे अंतिम स्टेशन दहिसर में बने अपने दो कमरों वाले फ्लैट से निकल कर इतवार की शाम को भी आजाद मैदान के पास बने इस क्लब में चले आते थे। सो, उस शाम विपरीत मौसम के बावजूद, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब में जिद की तरह मौजूद थे।

करीब ग्यारह बजे उन्होंने खिड़की का पर्दा सरकाकर आजाद मैदान के आसमान की तरफ ताका था। नहीं, उस ताकने में कोई दुश्चिंता नहीं छिपी थी। वह ताकना लगभग उसी तरह का था जैसे कोई काम न होने पर हम अपनी उंगलियां चटकाने लगते हैं लेकिन सुखी इस तरह हो जाते हैं जैसे बहुत देर से छूटा हुआ कोई काम निपटा लिया गया हो।

आसमान पर एक धूसर किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ था और आजाद मैदान निपट खाली था—वर्षों से उजाड़ पड़ी किसी हवेली के अराजक और रहस्यमय कंपाउंड सा। विषाद जैसा कुछ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की आंखों में उतरा और उन्होंने हाथ में पकड़े गिलास से रम का एक छोटा घूंट भरा फिर वह उसी गिलास में एक लार्ज पैग और डलवा कर टीवी के सामने आ बैठ गए—रात ग्यारह के अंतिम समाचार सुनने।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब के नियमों से ऊपर थे। उन्हें साढ़े दस बजे के बाद भी शराब मिल जाती थी, चुपके चुपके, फिर आज तो क्लब वैसे भी सिर्फ उन्हीं से गुलजार था। छह वेटर और ग्राहक दो, एक ब्रजेंद्र बहादुर सिंह और दूसरा मैं।

मैं दफ्तर में उनका सहयोगी था और उनके फ्लैट से एक स्टेशन पहले बोरीवली में किराए के एक कमरे में रहता था। उतरते वह भी बोरीवली में ही थे और वहां से ऑटो पकड़कर अपने फ्लैट तक चले जाते थे। मैं उनका दोस्त तो था ही, एक सुविधा भी था। सुबह ग्यारह बजे से रात ग्यारह, बारह और कभी कभी एक बजे तक उनके संग—साथ और निर्भरता की सुविधा। हां, निर्भरता भी क्योंकि कभी—कभी जब वह बांद्रा आने तक ही सो जाते थे तो मैं ही उन्हें बोरीवली में जगा कर दहिसर के ऑटो में बिठाया करता था। मेरे परिचितों में जहां बाकी लोग नशा चढ़ने पर गाली—गलौज करने लगते थे या वेटरों से उलझ पड़ते थे वहीं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चुपचाप सो जाते थे। कई बार वह क्लब में ही सो जाते थे और जगाने पर ‘लास्ट फॉर द रोड‘ बोल कर एक पैग और मंगा कर पी लेते थे। कई बार तो मैंने यह भी पाया था कि अगर वह लास्ट पैग मांगना भूल कर लड़खड़ाते से चल पड़ते थे, तो क्लब के बाहरी गेट की सीढ़ियों पर कोई वेटर भूली हुई मोहब्बत सा प्रकट हो जाता था—हाथ में उनका लास्ट पैग लिए।

ऐसे क्षणों में ब्रजेंद्र सिंह भावुक हो जाते थे, बोलते वह बहुत कम थे, धन्यवाद भी नहीं देते थे। सिर्फ कृतज्ञ हो उठते थे। उनके प्रति वेटरों के इस लगाव को देख बहुत से लोग खफा रहते थे। लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता था कि क्लब के हर वेटर के घर में उनके द्वारा दिया गया कोई न कोई उपहार अवश्य मौजूद था—बॉलपेन से लेकर कर कमीज तक और पेंट से लेकर घड़ी तक।

नहीं, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह रईस नहीं थे। जिस कंपनी में वह परचेज ऑफीसर थे, वहां उपहारों का आना मामूली बात थी। यही उपहार वह अपने शुभचिंतकों को बांट देते थे। फिर वह शुभचिंतक चाहे क्लब का वेटर हो या उस बिल्डिंग का दरबान, जिसमें उनका छोटा सा, दो कमरों वाला फ्लैट था। फिलीपींस में असेंबल हुई एक कीमती रिस्टवाच उस वक्त मेरी कलाई में भी दमक रही थी जब ब्रजेंद्र बहादुर सिंह आजाद मैदान के आसमान में रंगे उस सन्नाटे से टकरा कर टीवी के सामने आ बैठ गए थे—अंतिम समाचार सुनने।

कुछ अरसा पहले एक गिफ्ट मेकर उन्हें यह घड़ी दे गया था। जिस क्षण वह खूबसूरत रैपर को उतारकर उस घड़ी को उलट—पुलट रहे थे, ठीक उसी क्षण मेरी नजर उनकी तरफ चली गई थी। मुझसे आंख मिलते ही वह तपाक से बोले थे—‘तुम ले लो। मेरे पास तो है।‘

यह दया नहीं थी। यह उनकी आदत थी। उनका कहना था कि ऐसा करके वह अपने बचपन के बुरे दिनों से बदला लेते हैं। सिर्फ उपहार में प्राप्त वस्तुओं के माध्यम से ही नहीं, अपनी गाढ़ी कमाई से अर्जित धन को भी वह इसी तरह नष्ट करते थे। एक सीमित, बंधी तन्ख्वाह के बावजूद टैक्सी और ऑटो में चलने के पीछे भी उनका यही तर्क काम कर रहा होता था।

सुनते हैं कि अपने बचपन में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपने घर से अपने स्कूल की सात किलोमीटर की दूरी पैदल नापा करते थे क्योंकि तब उनके पास बस का किराया दो आना नहीं होता था।

टीवी के सामने बैठे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपना लास्ट पैग ले रहे थे और मैं टॉयलेट गया हुआ था। लौटा तो क्लब का मरघटी सन्नाटा एक अविश्वसनीय शोरगुल और अचरज के बीच खड़ा कांप रहा था, पता चला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने अपने सबसे चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।

जिंदगी के निचले पायदानों पर लटके—अटके हुए लोग, क्रांति की भाषा में उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। अगर प्रतिक्रिया स्वरूप सारे वेटर एक हो जाएं और उस सुनसान रात में एक चांटा भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को जड़ दें तो उसकी आवाज पूरे शहर में कोलाहल की तरह गूंज सकती थी और मीमो बन कर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के बेदाग कैरियर में पैबंद की तरह चिपक सकती थी।

ऐसा कैसे संभव है? मैं पूरी तरह बौराया हुआ था और अविश्वसनीय नजरों से उन्हें घूर रहा था। अब तक अपना चेहरा उन्होंने अपने दोनों हाथो में छुपा लिया था।

क्या हुआ? मैंने उन्हें छुआ। यह मेरा एक सहमा हुआ सा प्रयत्न था। लेकिन वह उलझी हुई गांठ की तरह खुल गए।

उस निर्जन और तूफानी रात के नशीले एकांत में मैंने देखा अपने जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार। वह चमत्कार था या रहस्य। रहस्य था या दर्द। वह जो भी था इतना निष्पाप और सघन था कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के अधेड़ और अनुभवी चेहरे पर दो गोल, पारदर्शी आंसू ठहरे हुए थे और उनकी गहरी, भूरी आंखें इस तरह निस्संग थीं, मानों आंसू लुढ़का कर निर्वाण पा चुकी हों। दोनों घुटनों पर अपने दोनों हाथों का बोझ डाल कर वह उठे। जेेब से क्लब का सदस्यता कार्ड निकाला। उसके चार टुकड़े कर हवा में उछाले और कहीं दूर किसी चट्‌टान से टकरा कर क्षत—विक्षत हो चुकी भर्राई आवाज में बोले —‘चलो, अब हम यहां कभी नहीं आएंगे।‘

‘लेकिन हुआ क्या? मैं उनके पीछे—पीछे हैरान—परेशान स्थिति में लगभग घिसटता सा क्लब की सीढ़ियों पर पहुंचा।‘

बाहर बारिश होने लगी थी। वह उसी बारिश में भीगते हुए स्थिर कदमों से क्लब का कंपाउड पार कर मुख्य दरवाजे पर आ खड़े हुए थे। अब बाहर धूल के बवंडर नहीं, लगातार बरसती बारिश थी और ब्रजेंद्र सिंह उस बारिश में किसी प्रतिमा की तरह निर्विकार खड़े थे। निर्विकार और अविचलित। यह रात का ग्यारह बीस का समय था और सड़क पर एक भी टैक्सी उपलब्ध नहीं थी। मुख्य द्वार के कोने पर स्थित पान वाले की गुमटी भी बन्द थी और बारिश धारासार हो चली थी।

‘मुझे भी नहीं बताएंगे?‘ मैंने उत्सुक लेकिन भर्राई आवाज में पूछा। बारिश की सीधी मार से बचने के लिए मैंने अपने हाथ में पकड़ी प्लास्टिक की फाइल को सिर पर तान लिया था और उनकी बगल में आ गया था, जहां दुख का अंधेरा बहुत गाढ़ा और चिपचिपा हो चला था।

‘वो साला हनीफ बोलता है कि सुदर्शन सक्सेना मर गया तो क्या हुआ? रोज कोई न कोई मरता है। सुदर्शन ‘कोई‘ था?‘ ब्रजेद्र बहादुर सिंह अभी तक थरथरा रहे थे। उनकी आंखें भी बह रही थीं—पता नहीं वे आंसू थे या बारिश?

‘क्या?‘ मैं लगभग चिल्लाया था शायद, क्योंकि ठीक उसी क्षण सड़क से गुजरती एक टैक्सी ने च्चीं च्चीं कर ब्रेक लगाए थे और पल भर को हमें देख आगे रपट गई थी।

‘सुदर्शन मर गया? कब?‘ मैंने उन्हें लगभग झिंझोड़ दिया।

‘अभी, अभी समाचारों में एक क्षण की खबर आई थी—प्रख्यात कहानीकार सुदर्शन सक्सेना का नई दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद देहांत।‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह समाचार पढ़नें की तरह बुदबुदा रहे थे, ‘तुम देखना, कल के किसी अखबार में यह खबर नहीं छपेगी। उनमें बलात्कार छप सकता है, मंत्री का जुकाम छप सकता है, किसी जोकर कवि के अभिनंदन समारोह का चित्र छप सकता है लेकिन सुदर्शन सक्सेना का निधन नहीं छप सकता। छपेगा भी तो तीन लाइन में... मानों सड़क पर पड़ा कोई भिखारी मर गया हो,‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्रमशः उत्तेजित होते जा रहे थे। आज शराब का अंतिम पैग उनकी आंखों में नींद के बजाय गुस्सा उपस्थित किए दे रहा था। लेकिन यह गुस्सा बहुत ही कातर और नख—दंत विहीन था, जिसे बंबई के उस उजाड़ मौसम ने और भी अधिक अकेला और बेचारा कर दिया था।

‘और वो हनीफ...‘ सहसा उनकी आवाज बहुत आहत हो गई, ‘तुम टॉयलेट में थे, जब समाचार आया। हनीफ सोडा रखने आया था... तुम जानते ही हो कि मैंने कितना कुछ किया है हनीफ के लिए... पहली तारीख को सेलरी लेकर यहां आया था जब हनीफ ने बताया था कि उसकी बीवी अस्पताल में मौत से जूझ रही है...पूरे पांच सौ रुपए दे दिए थे मैंने जो आज तक वापस नहीं मांगे... और उसी हनीफ से जब मैंने अपना सदमा शेयर करना चाहा तो बोलता है आप शराब पियो, रोज कोई न कोई मरता है... गिरीश के केस में भी यही हुआ था। दिल्ली से खत आया था विकास का कि गिरीश की अंत्येष्टि में उस समेत हिंदी के कुल तीन लेखक थे। केवल ‘वर्तमान‘ ने उसकी मौत पर आधे पन्ने का लेख कंपोज करवाया था लेकिन साला वह भी नहीं छप पाया था क्योंकि ऐन वक्त पर ठीक उसी जगह के लिए लक्स साबुन का विज्ञापन आ गया था... यू नो, हम कहां जा रहे हैं?‘

सहसा मैं घबरा गया, क्योंकि अधेड़ उम्र का वह अनुभवी, परचेज ऑफीसर, क्लब का नियमित ग्राहक, बुलंद ठहाकों से माहौल को जीवंत रखने वाला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बाकायदा सिसकने लगा था।

हमें सिर से पांव तक पूरी तरह तरबतर कर देने के बाद बारिश थम गई थी, और ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को शायद एक लंबी, गरम नींद की जरूरत थी। ऐसी नींद, जिसमें वह मनहूस हाहाकार न हो जिसके बीच इस समय ब्रजेंद्र बहादुर सिंह घायल हिरनी की तरह तड़प रहे थे।

तभी एक अजाने वरदान की तरह सामने एक टैक्सी आकर रुकी और टैक्सी चालक ने किसी देवदूत की तरह चर्चगेट ले चलना भी मंजूर कर लिया। हम टैक्सी में लद गए।

बारिश फिर होने लगी थी। ब्रजेंद्र बहादुर सिंह टैक्सी की सीट से सिर टिका कर सो गए थे। उनके थके—थके आहत चेहरे पर एक साबुत वेदना अपने पंख फैला रही थी।

फिर करीब छह महीने तक उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। वह दफ्तर से लंबी छुट्‌टी पर थे। तीन चार बार मैं अलग—अलग समय पर उनके फ्लैट में गया लेकिन हर बार वहां ताला लटकता पाया।

इस बीच देश और दुनिया, समाज और राजनीति, अपराध और संस्कृति के बीच काफी कुछ हुआ। छोटी बच्चियों से बलात्कार हुए, निरपराधों की हत्याएं हुईं, कुछ नामी गुंडे गिरफ्तार हुए, कुछ छूट गए, टैक्सी और ऑटो के किराए बढ़ गए। घर—घर में स्टार, जी और एमटीवी आ गए। पूजा बेदी कंडोम बेचने लगी और पूजा भट्‌ट बीयर। फिल्मों में लव स्टोरी की जगह गैंगवार ने ले ली। कुछ पत्रिकाएं बंद हो गईं और कुछ नए शराबघर खुल गए। और हां, इसी बीच कलकत्ता में एक, दिल्ली में दो, बंबई में तीन और पटना में एक लेखक का कैंसर, हार्टफेल, किडनी फेल्योर या ब्रेन ट्‌यूमर से देहांत हो गया! गाजियाबाद में एक लेखक को गोली मार दी गई और मुरादाबाद में एक कवि ने आत्महत्या कर ली।

ऐसी हर सूचना पर मुझे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बेतरह याद आए। लेकिन वह पता नहीं कहां गायब हो गए थे। क्लब उनके बिना सूली पर चढ़े ईसा सा नजर आता था!

फिर तीन महीने बाद अप्रैल की एक सुबह ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दफ्तर में अपनी सीट पर बैठे नजर आए। दफ्तर के हॉल में घुसने पर जैसे ही मेरी नजर उनकी सीट पर पड़ी और वे उस पर बैठे दिखाई दिए तो अचरज और खुशी के आधिक्य से मेरा तन मन लरज उठा। मैं तो इस बीच उनको लगभग खो देने की पीड़ा के हवाले हो चुका था। लेकिन वह थे, साक्षात।

‘बैठो!‘ मुझे अपने सामने पा कर उन्होंने अत्यंत संयत और सधे हुए लहजे में कहा। वे किसी फाइल में नत्थी ढेर सारे कागजों पर दस्तखत करने में तल्लीन थे और मेरी उत्सुकता थी कि पसीने की मानिंद गर्दन से फिसल कर रीढ़ के सबसे अंतिम बिंदु पर पहुंच रही थी। मैं चुपचाप, अपनी उत्सुकता में बर्फ सा गलता हुआ अपने उस चहेते, अधेड़ दोस्त को अनुभव कर रहा था जो नौ महीने पहले बंबई की एक मनहूस, बरसाती रात में मुझसे बिछुड़ गया था और आज, अचानक, बिना पूर्व सूचना के अपनी उस चिर परिचित सीट पर आ बैठा था जो इन नौ महीनों में निरंतर घटती अनेक घटनाओं के बावजूद एक जिद्‌दी प्रतीक्षा में थिर थी।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दुबले हो गए थे। उनकी आंखों के नीचे स्याह थैलियां सी लटक आई थीं। कनपटियों पर के मेंहदी से भूरे बने बाल झक्क सफेद थे। आंखों पर नजर का चश्मा था जिसे वह रह—रह कर सीधे हाथ की पहली उंगली से ऊपर सरकाते थे। और हां, दस्तखत करने के दौरान या बीच बीच में पानी का गिलास उठाते समय उनके हाथ कांपते थे। उनकी आंखों में एक शाश्वत किस्म की ऐसी निस्संगता थी जो जीवन के कठिनतम यथार्थ के बीच आकार ग्रहण करती है। नौ महीने बाद लौटे अपने उस पुराने मित्र को इन नई स्थितियों और अजाने रहस्यों सहित झेलने का माद्‌दा मेरे भीतर बहुत देर तक टिका नहीं रह सका। फिर, मुझे भी अपनी सीट पर जाकर अपने कामकाज देखने थे।

‘मिलते हैं।‘ कह कर मैंने उनके सामने से उठने की कोशिश की तो वे एक अत्यंत तटस्थ सी ‘अच्छा‘ थमा कर फिर से फाइल के बीच गुम हो गए।

मैं अवाक रह गया। उत्सुकता को कब का पाला मार चुका था। फिर सारे दिन दर्द की ऐंठन से घबरा कर जब—जब मैंने उनकी सीट की तरफ ताका, वह किसी फंतासी की तरह यथार्थ के बीचोंबीच झूलते से मिले।

छत्तीस साल गुजारे थे मैंने इस दुनिया में। उन छत्तीस वर्षों के अपने बेहद मौलिक किस्म के दुख—दर्द, हर्ष—विषाद, अपमान और सुख थे मेरे खाते में। नाते—रिश्तेदारों और एकदम करीबी मित्रों के छल—कपट भी थे। प्यार की गर्मी और ताकत थी तथा बेवफाई के संगदिल और अनगढ़ टुकड़े भी थे। नशीली रातें, बीमार दिन, सूनी दुपहरियां, अश्लील नीली फिल्में और धूल चाटता उत्साह—क्या कुछ तो दर्ज नहीं हुआ था इन छत्तीस सालोंं में लेकिन इन छत्तीस कठिन और लंबे वर्षोें में मैं एक पल के लिए भी उतना आंतकित और उदास नहीं हुआ था जितना इस एक छोटे से लम्हे में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की वीतरागी उपस्थिति ने मुझे बना डाला था। क्या वह दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से बाहर चले गए हैं? दुनिया देख लेना और दुनिया से बाहर चले जाना क्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं या इनका कोई अलग अलग मतलब है? नौ महीने बाद वापस लौटे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के पास ऐसे कौन से रहस्य हैं जिन्होंने उन्हें इतना रूक्ष और ठंडा बना दिया है? मां केे गर्भ में नौ महीने बिताने वाला शिशु भी क्या कुछ ऐसे रहस्यों के बीच विचरण करता है जो आज तक अनावृत नहीं हुए। आखिर किस गर्भ में नौ महीने बिता कर लौटे हैं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह।

पूरा एक दिन मेरा सवालों के साथ लड़ते—झगड़ते बीत गया। दो सेरीडॉन सटकने के बावजूद दर्द माथे पर जोंक सा चिपटा हुआ था और उधर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की सदा—बहार—खुशगवार सीट पर जैसे एक दर्जन मुर्दों का मातम कोहरे सा बरस रहा था।

आखिर वह उठे। शाम के सात बजे। दफ्तर साढ़े पांच बजे खाली हो चुका था। अब तीन लोग थे—मैं, वे और चपरासी दीनदयाल। मैं रूठा सा बैठा रहा, उनके उठने के बावजूद। वे धीरे—धीरे चलते हुए मेरी सीट तक आए। मैंने उन्हें देखा, उन्होंने मुझे। उनकी आंखों में रोशनी नहीं, राख थी। मैं पल भर के लिए सिहर गया।

‘उठो दोस्त!‘ वे बोले, उनकी आवाज कई सदियों को पार कर आती सी लग रही थी। मैंने देखा, वह ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे थे। कभी दाएं झूल जाते थे, कभी बाएं, मानों किसी बांस पर कोई कुर्ता हवा में अकेला टंगा हो।

बिना वार्तालाप का तीसरा पैग चल रहा था और मैं भावुकता के कगार पर आ पहुंचा था। हम उनके दहिसर वाले फ्लैट में थे— नौ महीने के स्पर्श और संवादहीन अंतराल के बाद। कमरे में रौशन तीन मोमबत्तियों की लौ एक नंबर पर चलते पंखे की हल्की हल्की हवा के बीच पीलिया के मरीज सी कांप रही थीं। फ्लैट में घुसते ही उन्होंने बता दिया था कि अब उन्हें अपनी रातें कम से कम रोशनी के बीच ही सुखकर लगती हैं और पूरा अंधेरा तो उन्हें बुखार में बर्फ की पट्‌टी सा अनुभव होता है। चीजों, रहस्यों और सत्यों को अंधेरे में टटोल टटोलकर पाने का सुख ही कुछ और है।

आखिर एक घंटे की मुसलसल खामोशी के सामने मेरा धैर्य तड़क गया। शब्दों में तरलता उंडेलते हुए मैंने धीमे धीमे कहन शुरू किया, ‘आपको मालूम है, आपके सबसे प्रिय नौजवान कवि ने कुछ समय पहले पंखे से लटक कर जान दे दी।‘

‘हां, यह समाचार मैंने दार्जिलिंग में पढ़ा था।‘ उन्होंने आहिस्ता से कहा और चुप हो गए।

मैं चकित रह गया। यह वे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह नहीं थे जिन्होंने नौ महीने पहले क्लब में अपने चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।

‘और... और आपके बचपन के दोस्त, हम प्याला—हम निवाला शायर विलास देशमुख भी जाते रहे...‘ एक सच्चे दुख के ताप के बीच खड़ा मैं पिघल रहा था... ‘बहुत कारुणिक अंत हुआ उनका। घटिया से अस्पताल में बिना इलाज के मर गए... यहां की हिंदी और उर्दू अकादमियों ने कुछ नहीं किया। वे अंत समय तक यही तय नहीं कर पाईं कि एक महाराष्ट्रियन व्यक्ति को उर्दू का शायर माना जाए या हिन्दी का गजलगाें।‘ मैंने क्षुब्ध स्वर में उन्हें जानकारी देनी चाही।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने गहरी खामोशी के साथ अपने गिलास से रम का एक बड़ा घूंट भरा और बिना किसी उतार चढ़ाव के पहले जैसी शांत—स्थिर आवाज में बोले —‘हां, उन दिनों मैं देहरादून में था अपनी एक दूर की भतीजी के पास, मुझे कोई अजीब सी स्किन प्रॉब्लम हो गई थी। चालीस दिन तक लगातार सहस्रधारा के गंधक वाले सोते में नहाता रहा। इस विवाद के बारे में मैंने अखबारों में पढ़ा था।‘

अखबार... समाचार... खबर... हर मृत्यु पर वे क्लब के वेटर हनीफ की तरह बोल रहे थे—क्रूरता की हद तक पहुंची निस्संगता के शिखर पर खड़े हो कर। नहीं, वे मेरे दोस्त ब्रजेंद्र सिंह तो कतई—कतई नहीं थे। मेरे उस दोस्त की काया में कोई संवेदनहीन, निर्लज्ज और पथरीला दैत्य प्रवेश पा चुका था।

चौथा पैग खत्म करते करते मेरा जी उचट गया। एक क्षण भी वहां बैठना भारी पड़ने लगा मुझे। मुंह का स्वाद कैसला हो गया था और शब्द मन के भीतर पारे की तरह थरथराने लगे थे।

और फिर मैं उठा। लड़खड़ाते कदमों से बिजली के स्विच बोर्ड के पास जाकर मैंने सारे बटन दबा दिए। कमरा कई तरह के बल्बों और ट्‌यूबलाइट की मिली—जुली रोशनी में नहाता हुआ विचित्र सी स्थित में तन गया। साथ ही तन गईं, अब तक किसी संत की तरह बैठे ब्रजेंद्र सिंह के माथे की नसें।

‘ऑफ... लाइट ऑफ!‘ वे दहाड़ पड़े। यह दहाड़ इतनी भयंकर थी कि डर के मारे मैंने फौरन ही कमरे को फिर अंधेरे के हवाले कर दिया।

‘सर, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह, आप तो ऐसे नहीं थे?‘ मैंने आहत होकर कहा था और स्विच बोर्ड वाली दीवार से टिक कर जमीन पर पसर गया था, ‘जीवन की उस करुणा को कहां फेंक आए आप जो...‘

‘यंग मैन!‘ मोमबत्तियों के उस अपाहिज उजाले में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह का भर्राया और गीला स्वर गूंजा—‘किस करुणा की बात कर रहे हो तुम, करुणा की जरूरत किसे है आज? नौ महीने इस शहर में नहीं था मैं... क्या मेरे बिना इस दुनिया का काम नहीं चला?‘

‘वो तो ठीक है सर...‘ अब तक मेरा स्वर भी आर्द्र हो चुका था।

‘कुछ ठीक नहीं है यंगमैन।‘ उनकी थकी—थकी आवाज उभरी, ‘तुम जानते हो कि मेरा अपना कोई परिवार नहीं है। क्लब में घटी उस घटना के बाद मैं अपनी सारी जमा पूंजी लेकर यात्रा पर निकल गया था। इस उम्मीद में कि शायद कहीं कोई उम्मीद नजर आए लेकिन गलत... एकदम गलत... मेरे प्यारे नौजवान दोस्त! संवेदनशील लोगों की जरूरत किसी को नहीं है और कहीं नहीं है। मुझे समझ में आ गया है कि उस रात हनीफ ने कितने बड़े सच को मेरे सामने खड़ा किया था। रोज कोई न कोई मरता है... क्या फर्क पड़ता है कि किसी कवि ने आत्महत्या की या कोई कारीगर रेल से कटा। कवि का मरना अब कोई घटना नहीं है। वह भी सिर्फ एक खबर है।‘

‘तो?‘ मैंने तनिक व्यंग्य के साथ प्रश्न किया।

‘तो कुछ नहीं। फिनिश। इसके बाद भी कुछ बचता है क्या?‘ वे मुझसे ही पूछने लगे थे। फिर से वही मुर्दा राख उनकी आंखों में उड़ने लगी थी, जिससे मैं डरा हुआ था।

यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। नशे में थरथराती उस दार्शनिक सी लगती रात के दो महीने बाद तक वह फिर दफ्तर नहीं आए थे। कुछ व्यस्तता के कारण और कुछ उनको बर्दाश्त न कर पाने की कमजोरी के कारण मैं स्वयं भी उनकी तरफ नहीं जा सका था।

और अब यह सूचना कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चल बसे। मैंने बताया न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था जब आजाद मैदान के आसमान पर वह धूसर सन्नाटा पसरा हुआ था। जिस रात उन्होंने क्लब के वेटर हनीफ के गाल पर चांटा मारा था। उसी रात जब रात के अंतिम समाचारों की अंतिम पंंक्ति में दूरदर्शन वालों ने सुदर्शन सक्सेना के देहांत की खबर दी थी और सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह निपट अकेले थे।

नहीं, सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह लेखक या कवि या कलाकार नहीं थे। वह तो एक व्यावसायिक कम्पनी में परचेज ऑफीसर थे।

लेकिन उनका दुर्भाग्य कि वह उन किताबों के साथ बड़े हुए थे जिनकी अब इस दुनिया में कोई जरूरत नहीं रही।

(रचनाकाल : दिसंबर 1992)