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सम्पादक से रूठा लेखक

सम्पादक से रूठा लेखक

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दिन के खाने के बाद सम्पादक जी का कक्ष अन्दर से बंद हो जाता था. पूरे एक डेढ़ घंटे तक वे अपनी महिमामंडित मेज़ की बगल में लगे हुए आरामदेह सोफे पर लेटते थे. इस बीच उनके आराम में खलल डालने की मजाल किसी में नहीं थी. यदि कोई अपवाद था तो उनकी सुन्दर सेक्रेटरी जिसकी टेबुल उनके पावन कक्ष के बाहर सुरक्षाकर्मी की तरह लगी हुई थी. एक वही थी जिसका अधिकाँश समय सम्पादक जी से डिक्टेशन लेने तथा अन्य बेहद ज़रूरी कामों के लिए सम्पादक जी के कक्ष के अन्दर ही बीतता था. बाहर उसकी मेज़ सूनी आँखों से उसकी प्रतीक्षा किया करती थी पर वहाँ तक भी किसकी पहुँच थी जो उससे पूछता कि आराम के समय वह सम्पादक जी को कौन सा कष्ट देने उनके कमरे के अन्दर होती थी. उसकी मेज़ पर रखे फोन की घंटी जब बजते बजते थक कर चुप हो जाती थी तो पूरे संस्थान के लिए यह एक संकेत होता था कि वह बेहद ज़रूरी कामों में लगी हुई है और उसमें व्यवधान न डाला जाए. पर कुछ सिरफिरे , विशेषकर बाहरी लोग ऐसे थे जिनकी मोटी खोपड़ी में इतनी सूक्ष्म बातें नहीं समाती थीं.

ऐसे ही एक नाज़ुक समय जब सम्पादक जी और उनकी सेक्रेटरी बेहद आवश्यक कामो में लगे हुए थे एक सिरफिरे लेखक के मन में एक समसामयिक विषय पर लेख लिखने का खब्त सवार हुआ. पर उसे लिखने के लिए बहुत खोज और अध्ययन की ज़रुरत थी. ऐसा करने से पहले वह आश्वस्त होना चाहता था कि उस विषय पर किसी और ने पहले ही तो नहीं कोई लेख लिख कर उस पत्रिका में भेज दिया था. अगर ऐसा हुआ तो व्यर्थ मेहनत करने से क्या फ़ायदा. बस लगाया उसने फोन और बोर्ड पर बैठी ओपरेटर से कहा कि सम्पादक जी का फोन मिलाये. ओपरेटर समझदार थी. उसने बता दिया कि सम्पादक जी और उनकी सेक्रेटरी दोनों व्यस्त हैं और सुझाव दिया कि लेखक महोदय कुछ देर बाद दुबारा फोन मिलाने का कष्ट करें. लेखक जी एक स्वयं एक अच्छे भले सरकारी पद से सेवानिवृत्त होकर लेखन को पूरा समय दे रहे थे और उन्हें अब बदली हुई परिस्थितियों में अपने निजी सहायक की कमी बहुत खल रही थी. उन्होंने ओपरेटर को अपना नंबर दिया और निवेदन किया कि सम्पादक जी बहुत व्यस्त हों तो कम से कम उनकी पी ए से ,जब वे खाली हों, बात करवा दें. दुर्भाग्य से उस दिन सम्पादक जी की निजी सहायक कुछ ज़्यादा ही देर तक उनके कक्ष में निजी सहायता करती रही. अगले डेढ़ दो घंटों में दो बार और जब फोन लगाने पर लेखक जी असफल रहे तो उन्हें चिढ लगनी शुरू हुई. चौथी बार प्रयत्न करने पर जब वे सम्पादक जी की सेक्रेटरी से बात कर पाए तो उन्होंने पूछा ‘क्या सम्पादक जी प्रधान मंत्री से भी अधिक व्यस्त रहते हैं?’ अपने अस्त व्यस्त कपडे संभालती, अपनी बिखरी लटें चेहरे से हटाती पी ए ने उत्तर दिया कि ये तो सम्पादक जी ही बता सकते हैं. उसने आधा मिनट होल्ड करा कर उनका फोन मिला दिया पर होल्ड कराने के दौरान ही अपने बॉस को लेखक का दिया हुआ ताना भी पहुंचा दिया. वह भी नमक मिर्च लगाने के बाद बताया कि लेखक जी पूछ रहे थे कि आप स्वयं को क्या प्रधान मंत्री समझते हैं?

सम्पादक जी यह सब सुनकर लेखक से बात करने के पहले ही आग बबूला हो गए. फोन उठाकर उन्होंने लेखक पर हाबी होना चाहा. उधर लेखक भी दबंग निकला. उसने सम्पादक से बात शुरू ही की संस्थान के बोर्ड पर बैठे फोन ओपरेटर से हुई बात का हवाला देकर. उनकी पी ए की शिकायत की कि वह अपनी सीट से गायब रहती है. रसिया सम्पादक जी सब सुन सकते थे पर अपनी प्रिये, सॉरी , पी ए के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे. उन्होंने लेखक को बहुत रूखे शब्दों में लेख लिखने से मना करके रफा दफा किया और अपनी ‘उनको’ फिर अपने कक्ष में बुलाया.

अपनी ढलती उम्र में भी वे गोपनीय डिक्टेशन देने के लिए इतनी जल्दी दुबारा उसे बुला लेंगे ये सेक्रेटरी ने सोचा भी नहीं था. अपनी बिखरी लटें संवारने का समय भी नही मिला. दुबारा अन्दर गयी तो उसकी हिरनी जैसी आँखों में दो मोती जैसे आंसू चमक रहे थे. सम्पादक जी के ह्रदय में करुणा, ममता ,स्नेह , वात्सल्य सब एक साथ ज्वार की तरह उफन पड़े. सेक्रेटरी को पास बुलाकर उन्होंने पुचकारा, उसकी बिखरी लटें ठीक कीं ,उसके आंसुओं को अपनी वात्सल्य भरी उँगलियों से छुआ और पूछा कि वह क्यूँ दुखी थी. सेक्रेटरी ने बताया कि ये लेखक न जाने अपने को क्या समझता है. सारी दुनिया जानती थी कि सम्पादक जी और उनकी पी ए तक केवल तभी पहुंचा जा सकता है जब वे दोनों फ्री हों. इतना तो वे तमाम युवा से लेकर अधेड़ उम्र तक की कवियित्रियां भी जानती थीं जो समय समय पर अपनी बेतुकी और फूहड़ कवितायें लेकर सम्पादक जी तक आती थीं और उनकी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपने का सुख प्राप्त कर पाती थीं. इन कवियित्रियों से भेंट के समय कितना भी महत्वपूर्ण फोन या आगंतुक आ जाए पर सम्पादक जी को डिस्टर्ब नहीं किया जा सकता था. इस मूर्ख लेखक को तो शायद इतना भी नहीं मालूम था.

सम्पादक जी ने सेक्रेटरी को प्यार से पुचकारते हुए कहा “ छोडो भी बेबी, ऐसे टुच्चे लेखकों की कौन परवाह करता है जो सात आठ सौ रुपयों के लिए कागज़ कलम का खून करते रहते हैं. इसका पारिश्रमिक तो मैं अगली बार से आधा कर दूंगा.” सेक्रेटरी बीच में ही बोल पडी ‘अरे नहीं सर, एक तो वह अच्छी खासी नौकरी से रिटायर हुआ है. उस पर सुना कि उसके बेटे की दो दो फैक्टरियां भी चल रही हैं. वह पैसे कमाने के लिए नहीं लिखता.’ सम्पादक जी बोले ‘ तो क्या दिक्कत है, अपनी वर्कर्स यूनियन के बहुत से सदस्य मेरे एहसान के तले दबे हैं . किसी को भेजकर उसकी ठुकाई करवाता हूँ.’

सेक्रेटरी ने फिर बात काटी. बोली ‘ सर, अभी बताया तो कि शायद उसके जवान बेटे की भी अपनी फैक्टरियां हैं. आप जो करवाने की सोच रहे हैं उसके बाद अगर भगवान न करे उसने भी वही करने की सोची तो औरों की छोडिये , मेरा क्या होगा? सरकारी अधिकारियों का सहारा लेकर उसे फिट करवाने में भी ऐसे ही पलटवार का ख़तरा है. फिर हम सबका क्या होगा?’

सम्पादक जी ने सारा जीवन संपादकी करते हुए यूँ ही नहीं बिताया था. मुस्कराते हुए बोले ‘ बेबी, तुम तो बहुत मासूम, बहुत भोली हो. सुनो मैं किस किस तरह से उसे फिट कर सकता हूँ. तुम मेरे साथ इसने दिनों से हो फिर भी अभी तक नहीं समझ पाई कि किसी भी लेखक का खाने पीने से कितना भी पेट भरा हो , नाम की उसकी भूख अमिट होती है. और इस बन्दे का तो अहम् भी बहुत बड़ा है. इसे फिट करना तो मेरे बाएं हाथ का खेल है. अब ध्यान से सुनो कि कैसे उसकी इस नाम की भूख को ही हम अपना हथियार बना सकते हैं. सहयोगी सम्पादक को मेरे ये निर्देश भेज दो ; पहला कि इस बन्दे की जिन रचनाओं को हम प्रकाशन के लिए चुन चुके हैं उन्हें छापते समय उनके लेखक का नाम न छापा जाए. अगले या उसके भी अगले अंक में महीन अक्षरों में भूलसुधार टिप्पणी देकर लेखक का नाम छापना होगा , वह भी अपनी पत्रिका के अन्दर कहीं इतने गहरे में उसकी अपनी नज़र भी आसानी से न पड़े.

‘दूसरा ये कि आगे से इस बन्दे की हर रचना स्वीकृत की जाए, उसके लिए अग्रिम पेमेंट भी कर दिया जाए पर छापा बिलकुल नहीं जाए. जब भी पूछे, बताया जाए कि अगले अंक में छपेगी उसकी रचना. अब मेरी बेबीडॉल, कम से कम तुम ये तो जानती ही हो कि इंतज़ार की घड़ियाँ कितनी मुश्किल से कटती हैं. ख़ास कर बूढों से तो वे झेली नहीं जातीं. मुझी को देखो, किसी दिन तुम नहीं आती और कोई कवियित्री भी मिलने नहीं आती तो मेरा तो एक एक मिनट इस दफ्तर में काटना भारी पड जाता है. फिर ये बन्दा तो मुझसे बात करने के लिए चार बार फोन करने में ही अपना धीरज खो बैठा. ऐसे बेसब्र बन्दे के लिए तो जब तक उसकी स्वीकृत रचना छपेगी नहीं जीना भी दुश्वार हो जाएगा. तुम्हे एक्टर अजित का वह मशहूर डायलोग याद है न “इसको ऑक्सीजन के टैंक में फेंक दो फिर ये न मर पायेगा न जी पायेगा?” वही हाल इसका मैं करूंगा. न मरने दूंगा न जीने दूंगा.’

सुन्दरी सेक्रेटरी के चेहरे पर छाये उदासी के बादल छंट गए. वह इस अनोखी सज़ा की जुगत के बारे में सुनकर मुस्करा पडी. उसका मुस्कराता हुआ चेहरा सम्पादक जी को इतना सुन्दर लगा कि उस दिन उन्हें दुबारा एक लम्बे किन्तु गोपनीय डिक्टेशन देने की याद आ गयी. सेक्रेटरी वह गोपनीय डिक्टेशन लेने जा ही रही थी कि जैसे कोई भूली हुई बात उसे याद आ गयी. चुपके से बाहर जाकर उसने फोन का रिसीवर क्रेडेल से हटा कर परे रख दिया और अपनी दो एक लटें फिर से अपने चेहरे पर बिखरा कर वह वापस सम्पादक जी के कमरे में आ गयी.

न के झोंकों के साथ लौटकर, नीचे धरती पर कृपाकांक्षी आम आदमियों पर उड़ती हुई नज़र डालकर कहते हैं ‘आज बड़े साहेब ने बुला लिया था अतः तुम्हारा काम नहीं हो सका, कल आना कोशिश करेंगे कि तुम्हारा काम हो जाए.’

जल के लिए तड़पते खेतों को छोड़ लाचार किसान शहर आता है. दिन भर रिक्शा ठेला खींचने के श्रम से क्लांत होकर वह रात में फुटपाथ पर शरण लेता है. लेकिन आकाशीय सत्ता के नशे में चूर बा