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सिक्के चमड़े के

सिक्के चमड़े के

जब किसी की किस्मत में लिखा हो कि चमड़े की मशक ढोते रहने से छिल रहे उसके दुखते कन्धों पर एक दिन मुल्क की बादशाहत आ बैठेगी, तो फिर बाकायदा ऐसा होकर ही रहता है. यह सब होता भी है कितनी मासूमियत के साथ. अचानक एक दिन एक बादशाह किसी दूसरे बादशाह से युद्ध में लड़ते लड़ते बुरी तरह घायल हो जाता है. उसके सेनापति, सरदार और आमात्य तितर बितर हो जाते हैं. अपने ही रक्त में सराबोर बादशाह अपने स्वामिभक्त और रणबाँकुरे घोड़े को एड़ लगाता है. फिर पवन की चाल से सरपट भागता वह घोडा बाढ़ में उफनती एक नदी के तट पर हताश होकर रुक जाता है. उसके नथुनों से झाग निकल रही होती है, आँखों की कोर बेबसी के आंसुओं से गीली हो रही है.

बादशाह पस्त होकर आत्म समर्पण की सोच ही रहा होता है कि हमारे नायक भिश्ती जी वहाँ अपनी चमड़े की मशक के साथ प्रकट हो जाते हैं. वे अपनी चमड़े की मशक को फुलाकर उसके ऊपर उस हताश बादशाह को बैठा लेते हैं और किसी तरह नदी पार करा देते हैं. पीछा करता हुआ दुश्मन नदी के इस तट पर मुंह बाए देखता रह जाता है और समर्पण के कगार पर पहुंचा हुआ उसका शिकार यह जा, वह जा, हो जाता है. मुंहमांगा ईनाम देने का वचन देकर बादशाह भिश्ती की एक ख्वाह्श पूरी करने के लिए मजबूर हो जाता है. और फिर भिश्ती की मुराद पूरी हो जाती है- एक दिन का बादशाह बनकर. इस बादशाहत को वह चमड़े के सिक्के चलाकर अमरत्व प्रदान कर देता है.

साढे बीस साल के पायलट ऑफिसर ए एन वर्मा अर्थात इस बन्दे को भी, सपने तक में, यह विचार नहीं आता कि भारतीय वायु सेना में कमीशन मिलने के बाद जुम्मा-जुम्मा दो महीने की नौकरी पूरी होते होते किसी यूनिट का कमांडिंग ऑफिसर (सी ओ) बन जाने का सौभाग्य मिल जाएगा- भले अस्थायी रूप से, बहुत छोटी सी अवधि के लिए ही सही. पर यह अवसर आया और जब आया तो बेहद अप्रत्याशित रूप से आया.

पायलटों और नेवीगेटरों का हमारा बैच प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादमी (एन डी ए) में लगभग सोलह वर्ष की आयु में 1961 में आया था. वहाँ तीन साल की लम्बी और कठिन ट्रेनिंग, फिर एक साल और एयर फ़ोर्स फ़्लाइंग कॉलेज में. तब जाकर लगनी थी हमारे कन्धों पर एक पतली सी फीती यह दिखाने के लिए कि हम पायलट ऑफिसर बन गए हैं. पर वाह री किस्मत! इसके पहले कि हमारी ट्रेनिंग समाप्त हो, भारत-पाकिस्तान युद्ध के बादल आकाश में मंडराने लगे. फिर कुछ ही महीनों में पहला वार कर के पाकिस्तानी वायु सेना ने युद्ध छेड़ भी दिया. हमारी ट्रेनिंग तब अन्तिम चरण में थी. हमें आभास होने लगा कि युद्ध में काम आ सकें इसलिए हमारी ट्रेनिंग शायद जल्दी समाप्त कर दी जाये. पर हुआ इसका ठीक उलटा. हमारे प्रशिक्षकों को फ़्लाइंग कॉलेज से हटाकर युद्ध की तय्यारियों में रत सक्रिय स्क्वाड्रनों में भेज दिया गया. हमारी ट्रेनिंग ठप्प हो गयी. युद्ध छिड़ा और समाप्त भी हो गया पर हमारी ट्रेनिंग कई महींनों के अंतराल के बाद अक्टूबर 1965 में जाकर पूरी हो सकी. इस लम्बी तपस्या के बाद हम नए नए पायलट ऑफिसर विभिन्न इकाइयों में भेज दिए गए. मेरी नियुक्ति हुई एक प्रमुख ट्रांसपोर्ट स्क्वाड्रन में, जिसमे उस समय डकोटा भारवाहक विमान थे. यूनिट कोलकोता के उपनगर बैरकपुर में नियुक्त थी.

नए नए पायलट जब स्क्वाड्रन में पहुंचते हैं तो भी उनका प्रशिक्षण जारी रह्ता है. जब तक वे पूरी तरह से ऑपरेशनल (सक्रिय) न घोषित कर दिए जाएँ उन्हें कोपायलट की ड्यटी ही दी जाती है. पर हमारी ट्रेनिंग स्क्वाड्रन में आकर भी सुचारू रूप से आरम्भ न हो पायी. बस पायलट ऑफिसर का वेतन मिलने लगा. युद्ध छिड़ने के काफी पहले से ही तीनों सशस्त्र सेनाओं में छुट्टियाँ रद्द कर दी गयी थीं. अब पिछले कई महीनों से व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों और अधिकारियों को युद्ध समाप्ति के बाद क्रमशः वार्षिक अवकाश पर भेजा जा रहा था. हमारी स्क्वाड्रन के भी बहुत से अधिकारी अवकाश पर थे.

ऐसी बहुत सी छोटी छोटी यूनिटें भी थीं जहां पहले से ही बहुत कम अधिकारी होते थे. इन यूनिटों के अधिकारी भी एक एक कर के छुट्टी पर जा रहे थे. हम नए पायलट ओफिसरों को उनकी एवजी में प्रशासनिक काम चलाने के लिए तात्कालिक रूप से भेजा जा रहा था.

इस तात्कालिक व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि स्क्वाड्रन में आये हुए हमे मुश्किल से दो महीने बीते थे कि अस्थायी ड्यूटी पर मुझे पूर्णिया भेज दिया गया. पूर्णिया हवाई अड्डे पर कोई स्क्वाड्रन नियुक्त नहीं थी. वैसे वह वायु यातायात- नियंत्रण (एयर ट्रैफिक कण्ट्रोल) तथा रात्रिकालीन उड़ानों के लिए अन्य सभी सुविधाओं से लैस था. युद्ध काल में अचानक एक सशक्त वायु सेना बेस में एकाध घंटों की तय्यारी में बदल सके इसके लिए पूरी तरह से सक्षम. ऐसे हवाई अड्डों पर रख रखाव के लिए एक छोटी इकाई होती थी जिसे केयर एंड मेंटेनेंस यूनिट (सी एम यू) कहते थे. पूर्णिया सी एम यू में लगभग सौ- सवा सौ वायुसैनिक तैनात थे जिनकी कमान संभालता था एक फ्लाईट लेफ्टिनेंट. उसकी सहायता के लिए एक फ़्लाइंग अफसर रैंक का अधिकारी होता था. मुझे एक फ्लाइंग अफसर की एवजी में भेजा गया था जो पैंतालीस दिनों के अवकाश पर जा रहा था.

पूर्णिया सी एम यू के कमान अधिकारी (सी ओ) थे फ्लाईट लेफ्टिनेंट सचदेवा. उन्होंने बड़े भाई की तरह से मेरा स्वागत किया. परिवार तो थे नहीं वहाँ. इतने सारे सैनिकों के बीच एक और अधिकारी का साथ उन्हें अच्छा लगना स्वाभाविक था. पहले ही दिन उन्होंने कहा “ भाई, युद्ध अभी अभी समाप्त हुआ है. काम यहाँ अब कोई विशेष है नहीं. तुम्हे रहना भी यहाँ बस चालीस दिन के लगभग है. हमारे यूनिट वारंट ऑफिसर ( थलसेना की बटालियन में सूबेदार मेजर के समकक्ष) एम डब्ल्यू ओ ( मास्टर वारंट ऑफिसर) पिंटो हैं. रोजमर्रा की कार्यवाही देखने में वे अकेले ही पूरी तरह सक्षम हैं. तुम तो बस मज़ा करो. यहाँ फ़्लाइंग तो तुम मिस करोगे, पर ऐडमिनिसट्रेशन सीखने का तुम्हे अच्छा मौक़ा मिला है. ध्यान से देखना कि हम अपने बेस को इतना चुस्त दुरुस्त रखने के लिए कि घंटे भर की नोटिस पर ही इसे एक पक्के फाइटर बेस (लड़ाकू विमान केंद्र) की तरह प्रयोग किया जा सके, रोजाना क्या करते हैं. मिस्टर पिंटो से कुछ भी पूछने में संकोच मत करना. तुम्हारी आयु से ड्योढ़ा लंबा उनका सर्विस का अनुभव है. तुम कमीशंड ऑफिसर हो अतः वे तुम्हे सलूट तो करेंगे पर तुम उन्हें यदि पितातुल्य नहीं तो बड़े भाई के जगह तो ज़रूर ही समझना. पता है, इसीलिए वायुसेना का चलन है कि कारपोरल, सार्जेंट आदि को तो उनकी रैंक के साथ नाम लेकर बुलाते हैं. पर वारंट ऑफिसर और मास्टर वारंट ऑफिसर को मिस्टर कहकर संबोधित किया जाता है. वायुसैनिक भी उनकी सी ओ से कम इज्ज़त नहीं करते हैं.

मैं सचदेव साहेब की बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा था और मन ही मन प्रसन्न हो रहा था- अच्छा हुआ मेरे अनाडीपन के चलते मुझे कोई भारी ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी जायेगी- सचदेव साहेब काम तो सारा लेंगे मिस्टर पिंटो से. फिर मुझे मिस्टर पिंटो से मिलवाया उन्होंने. वे लगभग बावन चौवन वर्ष के, साधारण कद काठी के थे. बाल खिचडी थे. पतली सी मूंछें रखी हुई थीं उन्होंने. गोवा के मूल निवासी थे- अंग्रेज़ी बोलते थे तो पता चलता था कि रोयल इन्डियन एयर फ़ोर्स में अंग्रेजों के नीचे काम किया हुआ है. पर बोलते वे बहुत कम ही थे. मिलवाने पर उन्होंने मुझे पूरा सम्मान दिया- बोले ‘ सर, आपको कोई असुविधा हो तो बताइयेगा.’ मिस्टर पिंटो बहुत ही शरीफ और ज़िम्मेदार आदमी लगे मुझे.

अगले चार दिनों में ही समझ में आ गया कि पिछले चार सालों में जितना रगडा लगा था सबका हिसाब पूरा करने के दिन आ गए थे. मेरी दिनचर्या क्या थी कि बस निर्मल आनंद! वायु सेना के दैनिक कार्य के घंटे सुबह आठ से दिन के दो बजे तक होते हैं. फिर दोपहर का भोजन और दो घंटों के आराम के बाद शाम को साढ़े चार बजे से साढ़े पांच बजे तक खेलकूद. फिर पूर्ण विराम!

पूर्णिया में कोई कमी खटकती थी तो अन्य समकक्ष और हमउम्र दोस्तों का अभाव. वायुसैनिकों और जे सी ओज के अलग अलग दो मेस थे पर अधिकारियों के लिए कोई मेस नहीं था जो सामान्यतः हर वायुसेना बेस पर होता है. अफसर थे भी तो कुल मिलाकर दो- मैं और सचदेवा साहेब. हम दोनों को मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विस (एम ई एस) निरीक्षण भवन में एक एक कमरा मिला हुआ था. खाना एयरमैन मेस से पैक हो कर आ जाता था. सुबह शाम की चाय इंस्पेक्शन बंगलो का चौकीदार बना कर दे देता था.

दिनचर्या सुबह आठ बजे से प्रारम्भ होती थी, जवानों की परेड के साथ. मेरा काम था केवल मिस्टर पिंटो से परेड स्टेट लेना और सी ओ अर्थात सचदेवा को दे देना. इसके बाद सप्ताह में दो दिन ड्रिल यानी कवायद परेड होती थी. अन्य पांच दिन परेड स्टेट लेने के बाद परेड भंग कर दी जाती थी. फिर सब लोग अपने अपने दफ्तरों में चले जाते थे. मेरा दफ्तर सी ओ साहेब और एम डब्ल्यू ओ पिंटो के दफ्तरों के बीच में था. उसमे एक टेबुल और तीन कुर्सियां लगी हुई थीं. एक मेरे लिए और दो आगंतुकों के लिए – जो कभी भूले से आ जाएँ, यद्यपि ऐसा कभी हुआ नहीं. मेज़ पर कलम दावात और टेलीफोन तो थे पर फाइलों के नाम पर कुछ भी नहीं. मेज़ पर सुबह-सुबह दो अखबार रखे रहते थे जो कलकत्ते से आने के कारण बासी होते थे. खबरें तो हम ट्रांजिस्टर पर ही सुन लेते थे. दीवार के सहारे एक आलमारी भी थी जिसमे बासी अखबार और पुरानी पत्रिकाएं पता नहीं किसके जतन से संजो कर रखी हुई थीं.

परेड भंग होने के बाद मैं और सी ओ साहेब अपने –अपने दफ्तरों में आते थे तो पीछे पीछे एक प्याला गर्म चाय आ जाती थी. फिर आते थे मिस्टर पिंटो – पिछले दिन आयी हुई डाक लेकर, जिसमे देखने के लिए सामान्यतः कुछ नहीं के बराबर मसाला होता था. स्वाभाविक भी था. युद्ध के पहले की ज़बरदस्त तय्यारियाँ, फिर युद्ध के दौरान दिनरात के तनाव और फिर युद्ध की समाप्ति पर – जिसमे वायुसेना ने खासा कौशल दिखाया था- खुशियाँ मनाने का माहौल. वह सब कुछ हमारे पीछे था. पूरी वायुसेना पर अजब तरह की खुमारी छाई हुई थी. हर गैरज़रूरी काम ठन्डे बस्ते में डालकर चैन से पैर फैलाने का पूरा आनंद लिया जा रहा था. हरेक यूनिट में लगभग आधे लोग छुट्टी पर थे. फिर पूर्णिया जैसे बेस का तो कहना ही क्या जहाँ कोई हवाई जहाज़ थे ही नहीं. बस हवाई अड्डे को तय्यार रखना था उस युद्ध के लिए जिसके निकट भविष्य में छिड़ने की उतनी ही संभावना थी जितनी मेरे तुरंत वायुसेनाध्यक्ष बन जाने की.

मिस्टर पिंटो डाक मुझे दिखाकर सी ओ साहेब के पास ले जाते और मुश्किल से दस पंद्रह मिनट वहाँ बिताकर अपने दफ्तर में वापस जाते. सी ओ साहेब और मैं अपने अपने दफ्तरों में बैठे घंटे भर तक पूरे अखबार को आद्योपांत चाट डालते थे. फिर साढ़े दस बजे वे अपने राउंड पर निकलते थे- मुझे अपने साथ लेकर. इस राउंड का उद्देश्य कोई गंभीर निरीक्षण नहीं बल्कि बस मज़ा करने और वक्त काटने का होता था. ड्राईवर को पीछे बिठाकर सचदेवा साहेब स्वयं जीप ड्राइव करते और मैं आगे बैठता, उनके साथ. फिर हम लम्बे चौड़े क्षेत्र में फैले हुए हवाईअड्डे की परिक्रमा कर डालते थे. हवाई अड्डे के चारों तरफ सरसों के खेत फैले हुए थे. उन्होंने अभी पीली चादर नहीं ओढी थी. बीच बीच में छोटे छोटे टुकड़ों में आलू के खेत थे. उठी हुई नालियों के ऊपर जमे हुए पौधों में सफ़ेद फूल मुस्करा रहे होते थे. हरे भरे खेतों के बीच इन नालियों पर ध्यान लगाकर बैठे हुए सफ़ेद बगुले रह रह कर अपने परों को पीछे सिकोड़कर धीरे धीरे चहलकदमी करने लगते थे मानों परीक्षा हाल में परीक्षार्थियों पर नज़र जमा कर चुपचाप टहलते हुए इनविजिलेटर हों. जीप पास आने पर वे थोड़ा उचकते, थोड़ा उड़ लेते तो फिर मुझे अचानक ही भूले बिसरे गीत याद आने लगते थे.

‘राउंड’ से वापस आकर हम दोनों अपने अपने दफ्तरों में थोड़ी देर बैठते थे. मैं तो आलमारी से पुरानी पत्रिकाएं निकालकर पढ़ता, सचदेवा साहेब शायद अपनी श्रीमती जी को पत्र लिखने में व्यस्त हो जाते थे. थोड़ी देर में दो बज जाते. हम दोनों अपने कमरों में वापस आकर खा पीकर लम्बी तान लेते., जैसे बहुत काम करके थक गए हों. शाम को खेल के मैदान में मैं जवानों के साथ फ़ुटबाल या वोलीबाल खेलता. खेल के बाद जब सारे जवान अपनी बैरकों में वापस जाते तब मैं, सचदेवा साहेब और दो तीन जे सी ओ बैडमिन्टन खेलते थे. आयु में सबसे कम होने के कारण मैं सबसे अधिक चुस्त दुरुस्त और फुर्तीला था. पर एक सार्जेंट राव भी बहुत अच्छा खेलता था. वही मुझे बराबर की टक्कर देता था. यूँ तो पूरे खेल में वह मुझे दबाये रखता था पर निर्णायक पॉइंट तक आते आते शायद उसका स्टेमिना जवाब दे जाता था. मैं वास्तव में बिलकुल बच्चा था. खूब खुश होता था राव को हराकर. ये तो कई वर्षों की सर्विस के बाद समझ में आया कि सर्विस में ऊपर उठकर चमकने वाले सितारे अपने सी ओ या अन्य सीनियर अधिकारियों से कैसे आख़िरी पॉइंट पर हारना जानते हैं, फिर वह चाहे टेनिस या गोल्फ हो या फिर ब्रिज और रमी.

बहरहाल ज़िंदगी मज़े में कट रही थी. इतनी कि कोई पूछता आगे और क्या चाहिए तो मैं जल्दी उत्तर न दे पाता. पर इससे भी ज़्यादा कुछ मजेदार हो सकता था और वह हुआ. अचानक हुआ. बहुत अप्रत्याशित ढंग से हुआ.

पूर्णिया के इस स्वर्ग में चार ही पांच दिन बीते थे कि एक दिन सुबह साढ़े छः बजे ही सी ओ साहेब ने बुलवा भेजा ,जबकि रोज़ हम पौने आठ पर निकलते थे. मुझे आश्चर्य हुआ –अचानक क्या हो गया. वर्दी भी नहीं पहनी, तुरंत अस्त व्यस्त सा उनके कमरे तक पहुँच गया. मुझे देखते ही वे बोले ‘ वर्मा, अभी जालंधर से ट्रंक काल आया था. वहाँ मेरे पिताजी, जो सत्तर साल के हैं, बाथरूम में गिर पड़े, कुल्हे की हड्डी टूट गयी है. घर पर सिर्फ माताजी और मेरी पत्नी हैं. मुझे तुरंत जाना होगा. मेरी एच क्यू, ई ए सी (मुख्यालय पूर्वी वायु कमान- जो तब कलकत्ते में था और जिसके अधीन पूर्णिया का बेस था) से बात हो गयी है. एस ओ ए (वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी) ने एक महीने की छुट्टी मौखिक रूप से सैंक्शन कर दी है. आश्वासन दिया है कि मेरा रिप्लेसमेंट दो चार दिनों में भेज देंगे. वैसे सब कुछ सुचारू रूप से चल ही रहा है. मिस्टर पिंटो हैं ही. तुम संभालो यूनिट को. मैं तुरंत रेलवे स्टेशन जा रहा हूँ, पटना से इन्डियन एयर लाइंस की फ्लाईट पकड़नी है.

थोड़ी देर में सचदेवा साहेब चल भी दिए. ज़रूरी निर्देश उन्होंने मिस्टर पिंटो को दे दिए. मुझसे बस यही कहते रहे कि तुम चिंता मत करना. अब भला मैं क्यूँ चिंता करने लगा. जिस चरण पादुका को भरत जी ने रामचंद्र की अनुपस्थिति में राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया था उसने क्या चिंता की होगी कि अयोध्या का राजकाज कैसे चलेगा? उसका मन भी मेरी तरह बल्लियों उछल रहा होगा. वहाँ सिंहासन के पीछे भरत थे तो यहाँ भी मिस्टर पिंटो थे न! तो इस तरह कुल जमा दो महीनों की सर्विस में पायलट ऑफिसर ए एन वर्मा एयर फ़ोर्स स्टेशन, पूर्णिया पर एकछत्र राज्य करने लगे –जबकि उनके साथ के अन्य पायलट ऑफिसर अपनी अपनी यूनिटों में सीनियर्स का हुक्का चिलम भर रहे होंगे.

बस इसी बादशाहत की चर्चा से बात शुरू की थी मैंने. मानना पडेगा कि मिस्टर पिंटो ने मुझे कभी थोड़ी सी चिंता करने का अवसर भी नहीं दिया. रोज़ सुबह परेड पर एक कड़क सलूट देकर वे मेरी दिनचर्या शुरू कराते. पहले दिन परेड के बाद जब मैं अपने याने यूनिट ऐडजुटेंट के दफ्तर की तरफ जाने लगा तो उन्होंने कहा ‘ सर, आप सी ओ की जगह ओफिशियेट कर रहे हैं.-सी ओ के दफ्तर में कुर्सी संभालिये. पहले तो बहुत झिझकते हुए मैं उस कुर्सी पर बैठा लेकिन दो तीन दिनों में ही सब कुछ स्वाभाविक सा लगने लगा. मिस्टर पिंटो परेड के बाद वहीं डाक ले आते. शुरू में तो कुछ दिन मैंने कुछ सीखने की कोशिश की, पर जल्दी ही मिस्टर पिंटो जहां बताएं वहाँ हस्ताक्षर कर देना मुझे बहुत सुगम लगने लगा.

अफसरी का नशा धीरे धीरे गहरा रहा था कि अचानक एक दिन मिस्टर पिंटो एक पत्र तैयार करके लाये- मेरे हस्ताक्षर के लिए. पत्र पूर्वी वायुकमान मुख्यालय को संबोधित किया गया था. उसमे आग्रह किया गया था कि सचदेवा साहेब की एवजी में किसी फ्लाईट लेफ्टिनेंट को जल्दी भेजा जाए क्यूंकि एक अनुभवहीन पायलट ऑफिसर यूनिट को अकेले ही संभाल रहा था. मुझे बहुत बुरा लगा- जैसे मिस्टर पिंटो मेरे सामने रखी हुई पकवान की थाली परे हटा रहे हों. पत्र पर हस्ताक्षर करने की बिलकुल इच्छा नहीं हो रही थी. पर मिस्टर पिंटो को साफ़ मना करने का साहस भी नहीं कर पा रहा था मैं. वे मेरी मनःस्थिति भांप गए. समझाते हुए बोले ’सर, अभी लड़ाई के तुरंत बाद कमांड मुख्यालय वाले ढीले पड़ गए हैं. लगता है सचदेवा साहेब का रिप्लेसमेंट भेजना भूल गए हैं. कल को यहाँ कुछ गड़बड़ हुई तो हमी से पूछेंगे कि रिमाइंडर क्यूँ नहीं भेजा.’ मैंने मिस्टर पिंटो को फुसलाने के लिए शुद्ध मक्कखन का प्रयोग किया. ‘मिस्टर पिंटो, आपके रहते हुए यहाँ गड़बड़ क्या हो सकती है?’ मिस्टर पिंटो ने दुनिया देख रही थी. मेरे मक्खन को सूंघने से भी उन्होंने इनकार कर दिया. बोले ‘सर, मेरा काम आपको सही सलाह देना है. बाकी आप सी ओ हैं. जैसा उचित समझें, करें.” और वे फ़ाइल बगल में दबा कर चल दिए.

पहले तो मैं थोड़ा घबडाया पर धीरे धीरे लालच ने भरमा ही लिया. मन ने कहा ‘ क्यूँ बेकार रंग में भंग होने दे रहे हो. कौन सा युद्ध दुबारा छिड़ा जा रहा है. चुपचाप मज़ा करते रहो –डेढ़ महीने की ही तो बात है सारी’. फिर हम दोनों की ओर से बात आयी गयी हो गयी. वह पत्र नहीं भेजा गया.

पंद्रह बीस दिन ऐसे ही और बीत गए. ऐडजुटेंट से सी ओ बन जाने के बाद से मेरा बैडमिन्टन भी बहुत बेहतर हो गया था. अब तो सार्जेंट राव एक भी गेम नहीं जीत पाता था. देखते ही देखते वह मेरा सबसे प्रिय एन सी ओ बन गया. उधर पूर्वी वायु कमान पूर्णिया को भूल ही गयी थी.

पूर्णिया शहर हवाई अड्डे से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर था. छोटा सा, बहुत गरीब शहर था. मेरी दिलचस्पी जगा सके ऐसा उसमे कुछ भी नहीं था. दो एक पिक्चर हाल थे जहां हातिमताई की बेटी या मिस तूफ़ान मेल जैसी फ़िल्में लगती थीं. कोई साधारण सा होटल या रेस्तरां भी इस लायक नहीं था जहां थोड़ी देर बैठने की सोची जा सके. पर हमारे वायुसेना बेस पर खेलकूद के सिवा मनोरंजन का कोई अन्य साधन नहीं था. टी-वी युग तब तक आया नहीं था. अतः हमारे जवान शहर जाकर कुछ मनोरंजन कर सकें इसके लिए दो ट्रकों को अन्दर बेंचें डालकर बसों में परिवर्तित कर लिया गया था. ये ट्रकें सप्ताहांत में दो दिन, शनिवार और रविवार को शहर जाती थीं. इस ट्रिप को रिक्रियेशन रन (संक्षेप में आर आर कहते थे). चूँकि हमारे बेस पर परिवारों के लिए आवास नहीं बने थे अतः सारे ही जवान, एन सी ओज और जे सी ओज परिवारों के बिना थे. सैनिक जीवन की एकरसता से तंग आते थे तो वे शहर में जाकर कोई फिल्म देखकर और चाट – मिठाई खाकर अपने मुंह का स्वाद बदल आते थे. हाँ, एक और चीज़ मुंह का स्वाद बदलने के लिए मुफ्त बंटती थी- सप्ताह में दो पेग रम. पर वह बुधवार को मिलती थी. समझदार लोग अपने हिस्से की रम छुपाकर रखते थे –शनिवार रविवार को अपने साथ शहर ले जाने के लिए. मनोरंजन ज़रूरी नापतौल से अधिक न होने पाए इसके लिए वायुसेना में एक नियम का बड़ी कडाई से पालन होता था. वह ये था कि आर आर वाली गाड़ियां हर हालत में बेस पर रात्रि के बारह बजे के पहले अवश्य आ जाएँ. पुपूर्णिया में सिनेमा के शो रात में साढ़े नौ बजे तक समाप्त हो जाते थे. दस बजे तक सारे शहर में सोता पड़ जाता था अतः गाड़ियों के बारह बजे तक लौटने में कोई दिक्कत नहीं होती थी.

मेरी बादशाहत के बीस पचीस दिन ही हुए थे कि पूर्णियाके ठहरे हुए तालाब में एक ज़बरदस्त हलचल उठी. शहर के दूसरे छोर पर माघ के महीन मे एक बड़ा भारी मेला लगता था. पूरे उत्तरी बिहार मे गुलाबी बाग़ के मेले के नाम से वह मशहूर था. बिहार में सोनपुर के मेले की जान थी पशुओं की खरीद फरोख्त – वैसे ही गुलाबी बाग़ मेले की शान और जान थीं कानपूर, इटावा आदि से आनेवाली नौटंकी कम्पनियां. मध्यवर्गीय मूलभूत संस्कारों से मुक्ति पाना कठिन काम होता है. अतः नौटंकी मेरी दृष्टि में बड़ा निकृष्ट श्रेणी का मनोरंजन था. जब एन डी ए में था तो पुणे का मशहूर नृत्य नाट्य ‘तमाशा’ भी हम कैडेटों के लिए वर्जित स्थान था- वह संस्कार भी बना हुआ था. अतः नौटंकी का मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं था. फिर भी शाम को जवानों के साथ खेलते हुए गुलाबी बाग़ की नौटंकी की भनक कानो में पड़ही जाती थी.

तभी एक दिन बैडमिन्टन के खेल में लगातार 15-5, 15-3, और 15-2 जैसे स्कोर से मुझसे हारने के बाद सार्जेंट राव ने कहा ‘ सर, आज तो आपने कमाल ही कर दिया. क्या ग़ज़ब के शोट्स लगाये: ’मैंने अभिनय करते हुए कहा ‘हाँ, आज का खेल ठीक ही रहा.’ राव ने मेरे खेल के कसीदे पढ़ते हुए दो चार जुमले और बोले. फिर कहा ‘सर, एयरमैंन लोग शनिवार की शाम को बहुत बोर होते हैं. मुझसे कई जवानों ने कहा है कि सर से रिक्वेस्ट कर लो तो हम भी नौटंकी देख लें.‘ मैं पाँचों गेम्स जीतकर लक्का कबूतर की तरह सीना फुलाए हुए था. बोला ‘तो जाते क्यूँ नहीं? आर आर तो जाता ही है!” राव ने आवाज़ में और भी शहद घोलते हुए कहा ‘सर, नौटंकी तो रात में ग्यारह बजे तक शुरू ही होती है. ख़तम होते होते डेढ़ बज जाते हैं. फिर देखें कैसे? अगर आप अनुमति दे दें कि सिर्फ एक बार आर आर बारह बजे के बजाय रात में दो बजे तक आये तो लड़के लोगों की बड़ी हसरत पूरी हो जायेगी.’ बादशाहत का नशा पूरा न चढ़ा हुआ होता तो मैं मिस्टर पिंटो से मशविरा करने तक बात टाल देता. पर सार्जेंट राव ने तभी तुरुप का पत्ता चल दिया ‘सर, मैंने तो सबसे कह दिया है कि अपने सी ओ साहेब राजा आदमी हैं, मना नहीं करेंगे.’ मेरे कानों में जो बात सबसे जोर से गूंजी वह थी ‘ अपने सी ओ साहेब!’ अगले ही क्षण बादशाह सलामत ने फरियादी की पुकार पर फतवा दे दिया-‘ चलो, इस रविवार की अनुमति दे देता हूँ. दुबारा मत कहना’

अपनी समझ से मैंने थोड़ी सी उदारता भर दिखाई थी. लेकिन अगली सुबह परेड पर जाने से पहले ही मिस्टर पिंटो ने मुझे घेर लिया. ‘सर क्या मैं सही सुन रहा हूँ कि आपने आर आर को शनिवार की रात में दो बजे लौटने की अनुमति दे दी है?’ मेरे अहम् को बड़ा धक्का लगा. आहत सा मैं बोला ‘ बारह बजे तक की अनुमति तो पहले से है ही. अब अगर सिर्फ दो घंटे और दे दिए तो कौन सी क़यामत आ जायेगी?’

‘ आ सकती है सर,’ वे परेशान होकर बोले ‘आपको पता नहीं है, नौटंकी में बहुत से लोग शराब पीकर आते हैं. हमारे जवान महीनों से अपने परिवार से दूर हैं. उन्हें वहाँ होना ही नहीं चाहिए.’

मुझे शायद उनकी बात समझ में आ जाती पर तभी गलती से मिस्टर पिंटो ने मेरे अहम् पर एक भारी सा पत्थर पटक दिया. बोले ‘आपने एक बार मेरी सलाह तो ले ली होती”

आहत हो गया. बड़ी तुर्शी थी मेरी आवाज़ में जब मैंने कहा ‘ मिस्टर पिंटो, मैं कोई छोटा सा बच्चा तो नहीं हूँ कि हर बात आपसे पूछकर ही करूँ!’ इस परदे के पीछे से मेरा मन गुर्रा कर बोल रहा था ‘मैं यहाँ का सी ओ हूँ. आपने मज़ाक समझ रखा है मुझको?’पर इतना कह नहीं पाया. ज़रुरत भी नहीं पडी. जितना कुछ कहा उसी से मिस्टर पिंटो को काठ मार गया.

‘ओ के सर!’ उनके मुंह से बस इतना ही निकला. मुझे सल्यूट मारकर वे अपने दफ्तर में चले गए. उस दिन शुक्रवार था. अगले दिन शनिवार की शाम तक मेरे पास पुनर्विचार करने के लिए बहुत समय था. पर मेरा गुस्सा मन ही मन उबलता रहा. ‘इस पिंटो ने अपने आपको मेरा लोकल गार्जियन समझ लिया है.’ फिर इस विषय पर दुबारा न उन्होंने कुछ कहा, न मैंने सोचा.

शनिवार की संध्या लगभग सारे लोग नौटंकी देखने चले गए. हाँ मिस्टर पिंटो ने अवश्य अपने मेस में अकेले बैठ कर शाम बिताई होगी. फिर रात हो गयी, पूर्णिया में दिसंबर में खासी ठंढ पडती है. मैं रजाई में लिपटा कोई मीठा मीठा सपना देख रहा था कि सिरहाने रखे फोन की घंटी ने जगा दिया .लाईट ओन की, देखा सुबह के तीन बजे थे. फोन की घंटी थी कि बजती ही जा रही थी. लपककर मैंने उठाया तो ‘गुड मोर्निंग सर ‘ सुनायी पडा. आवाज़ मिस्टर पिंटो की थी. ‘क्या हुआ मिस्टर पिंटो?’ मैंने उनींदे स्वर में पूछा. ‘

‘आपको बताना था, आर आर की गाडी अभी तक वापस नहीं आयी है’. मेरी नींद पूरी खुल गयी.

‘तीन बज रहे हैं. अभी तक क्यूँ नहीं आई? आपने कुछ पता किया?’

‘कर लिया सर” मिस्टर पिंटो ने बड़े शांत स्वर में उत्तर दिया.

‘क्या पता किया ?’ मैंने चिढ़कर पूछा. उनकी असम्पृक्त आवाज़ पर गुस्सा आ रहा था.

पूर्ववत स्वर में बिना किसी विशेष उतार चढ़ाव के उन्होंने बताया ‘एक गाडी पुलिस की हिरासत में है गुलाबी बैग थाने में. हमारे पांच जवान भी हवालात के अन्दर हैं. दूसरी गाडी अन्य सारे लोगों को लेकर किसी और रास्ते से घूमकर आ रही है, अभी हमसे कान्टेक्ट में नहीं है’ मैं उछल पडा बिस्तर से. पर मिस्टर पिंटो की बात जारी थी ‘मारपीट का आरोप है उन जवानों पर जो हवालात में हैं’

मैंने लगभग चीखते हुए पूछा ‘किसने मारपीट की, किस से की, क्यूँ की?.

पहले ही जैसे ठंढे स्वर में उत्तर मिला ‘सर, पुलिसवालों से ही. नौटंकी में हमारे जवानों की उनलोगों से लड़ाई हो गयी थी. हमारे लड़कों ने एक नायब दारोगा की पिटाई कर दी है- कुछ ज़्यादा ही.’

‘अरे!’ मेरा तो सर ही घूम गया. जितना संभव हो सका आवाज़ को उतना मीठा बनाकर पूछा’ अब क्या करना चाहिए मिस्टर पिंटो?’उधर से उत्तर मिला ‘मैं क्या बताउंगा सर. सी ओ तो आप हैं. आपसे बेहतर कौन जानेगा.’ एक मिनट तक न मुझसे कुछ बोलते बना, न वे बोले. फिर मिस्टर पिंटो ही बोले ‘ अछा सर, फोन रखता हूँ’. रात के सन्नाटे में फोन की क्लिक शेर की दहाड़ से भी अधिक भयावनी लगी मुझे.

बेचैन होकर मैं थोड़ी देर कमरे में ही गोल गोल चहल कदमी करता रहा. फिर सोचा जाऊं जीप उठाकर जाकर देखूं क्या हुआ. फिर लगा कि मुख्यालय पूर्वी एयर कमान को सूचित कर देना चाहिए. पर रात में तीन बजे फोन करना क्या ठीक होगा? मिस्टर पिंटो से पूछूं सोच कर फोन उठाया पर नंबर मिलाने से पहले हाथ ठिठक गए. फिर भी, कुछ न सूझा तो आखिरकार फोन मिला ही लिया.

‘ येस सर?’ मिस्टर पिंटो की आवाज़ बर्फ से भी अधिक सर्द थी.

‘मिस्टर पिंटो, पूर्वी कमान में कमान ड्यूटी ऑफिसर को सूचित करूँ या सीधे एस ओ ए साहेब को?’ मैंने पूछा. पर एस ओ एयर कमोडोर रैंक के अफसर थे- मुख्यालय में तीसरे नंबर पर. मुझे उनसे बात करने की सोच कर ही डर लग रहा था.

मिस्टर पिंटो का उत्तर बहुत संक्षिप्त था ‘किसी को नहीं’. फिर चुप्पी. थोड़ी देर तक न वे बोले न मैं. फिर परेशानी, घबराहट, अनिश्चय, असमर्थता सबकी मिली जुली ध्वनि लिए मेरी आवाज़ निकली ‘तो चलिए मेरे साथ, थाने चलते हैं.’

दुबारा दो एक क्षण की चुप्पी छाई रही. फिर पूर्ववत उदासीन, असम्पृक्त आवाज़ आयी ‘ये गलती तो भूल कर भी करियेगा मत’. न कोई स्पष्टीकरण, न कोई भूमिका! पर इस बार वाला जवाब लंबा था ‘सर, आप भूल रहे हैं कि कमीशन मिलने के बाद आप छह महीने तक प्रोबेशन पर हैं. जो कुछ हुआ वह सब आपके द्वारा वायुसेना के स्थायी आदेशों को ताक पर रख देने के कारण हुआ है. अब ये खबर फ़ैल गयी तो आपके हक़ में अच्छा न होगा. कुछ और करने की सोचिये.’

मेरा मन कर रहा था दौड़ कर जाऊं मिस्टर पिंटो के पास और माफी मांग कर कहूँ ‘ अंकलजी, ये न करो, वो न करो बहुत हुआ. कुछ तो बताइये, आखीर करूँ क्या?’ अंत में मैंने जीप उठायी और जे सी ओज मेस में उनके कमरे तक पहुँच गया. दुबारा वे भी सोये न थे. मेरी रोनी सूरत देखकर शायद वे पसीज गए. पहल उन्होंने ही की- ‘सर, आप सूरज निकलते ही डी एम साहेब (जिलाधीश) से जाकर मिलिए. फोन पर बात करने से काम नहीं चलेगा.‘

मैंने पूछा ‘ पहले एस पी से ही न जाकर मिल लूँ?’

मिस्टर पिंटो बोले ‘ सर, सुना है, पुलिसवालों पर हमारे जवान बहुत भारी पड़े हैं. नायब दरोगा के हाथ में फ्रैक्चर हो गया है. आप किसी पुलिस वाले से तो मिलिएगा भी मत. जिलाधीश की मध्यस्थता ज़रूरी है, उन्ही की सुनेंगे वे’.

मिस्टर पिंटो से बहुत आग्रह किया मैंने कि वे मेरे साथ चलें. पर उनका उत्तर बस एक रहा ‘जिलाधीश और सी ओ के बीच मेरी क्या हस्ती कि मैं कुछ बोलूंगा. आपका आदेश है तो मैं मना नहीं कर सकता, पर मेरे जाने से आपकी पोजीशन और खराब होगी.’ ज़्यादा गिड़गिड़ाने में अब मुझे शर्म आ रही थी. ‘अच्छा, ऐसा ही करता हूँ’ कहकर वापस आ गया अपने कमरे में.

सूर्योदय की इतनी प्रतीक्षा तो शायद बांग देने को आतुर मुर्गे भी न करते होंगे जितनी मैंने उस दिनकी. मंजन–पानी-शेव शैम्पू सब समाप्त करके, फ्रेश वर्दी पहन कर अपने कमरे में चहलकदमी कर कर के मैंने दो चार किलोमीटर तो पूरे कर ही लिए होंगे, तब तक भी सूर्योदय नहीं हुआ था. साढ़े छः बजते –बजते मुझसे रहा नहीं गया. चलने के पहले जिलाधीश के बंगले पर फोन किया तो पता चला अभी सो रहे हैं. मैंने सन्देश छोड़ दिया और जीप उठाकर चल पडा शहर की ओर.

जिलाधीश के बंगले पर पहले से सन्देश दे देने के कारण प्रतीक्षा नहीं करनी पडी. चपरासी चाय की प्याली रख गया था- मैं चुस्की लगाने ही वाला था कि वे ड्रेसिंग गाउन पहने हुए पधारे. मैंने उठकर अभिवादन किया पर उनकी नज़रें मेरे बजाय मेरे पीछे दरवाज़े पर किसी को तलाशती लगीं. गुड मोर्निंग का जवाब तो उन्होंने दिया पर पहला सवाल किया ‘ आपके कमांडिंग ऑफिसर साहेब आने वाले थे, वे कहाँ हैं?’ मैंने झेंपते हुए कहा ‘सर, मैं ही हूँ, एयर फ़ोर्स स्टेशन, पूर्णिया का कमांडिंग ऑफिसर.’ जिलाधीश के चेहरे पर मुस्कान आ गयी. मुझे कुछ राहत मिली पर अगला सवाल बिलकुल अच्छा नहीं लगा. बोले’ बड़ी जल्दी स्वतंत्र कमान आपके हाथों में सौंप दी गयी है. कितनी सर्विस है आपकी?’ मैंने जब कहा ‘दो महीने’ तो वे खुलकर हंस पड़े. मेरी जान में जान आयी. मूड अच्छा लग रहा था, सहानुभूति अर्जित करने में आसानी होगी. मैंने फिर विस्तार में उनको बताया कि किस तरह मुझे अपने सिक्के चलाने का अवसर मिल गया था. बात ख़तम इस पर हुई कि किस तरह मेरे चलाये सिक्के भी चमड़े के निकले.

पूरी कहानी सुनकर जिलाधीश बोले ‘गलती तो आपसे बड़ी हो गयी है, पूर्णिया छोटी जगह है. दो एक ही पत्रकार हैं यहाँ, फिर भी बात उन तक पहुँच गयी तो आपको बचाना मुश्किल हो जाएगा. अभी आपकी सर्विस बहुत कच्ची है- कुछ तो मदद करनी ही पड़ेगी आप की. वो भी अपने पुलिसवालों को नाराज़ करके. पर आपको वादा करना पडेगा कि वापस जाकर अपने जवानों को आप दुरुस्त करेंगे.’ मैं उठकर खडा हो गया. उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बोला ‘ज़रूर सर, आपका एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगा.’ जिलाधीश बोले ‘यहाँ एस पी एक मिस्टर सहाय हैं. उनका बँगला मेरे बंगले से ही लगा हुआ है. आप उनसे जाकर मिल लीजिये. मैं फोन पर उनको समझा दूंगा कि क्या करना है.’

जिलाधीश सीधे आई ए एस में भरती हुए जवान आदमी थे, पर एस पी साहेब निकले दरोगा से एस पी बने, घुटे हुए पुलिस वाले. लगभग पचपन वर्ष के होंगे. रिटायरमेंट दूर नहीं लग रहा था. मेरी आयु और बहुत ही कम अनुभव को लेकर पहले उन्होंने अच्छी तरह मेरी टांग खींची. फिर भाषण शुरू किया कि जो वर्दी पहनने वाले अपने आदमियों को अनुशासन में नहीं रख सकते उन्हें अफसर बन जाने का कोई अधिकार नहीं है. मेरा मन कर रहा था कि उन्हें बताऊँ कि मुझे मिली खबर के अनुसार नौटंकी में छम्मो के डांस पर खड़े होकर जोर-जोर से वाह-वाह करते हुए नायब दरोगा जी को उनके पीछे बैठे हमारे जवानों ने बैठ जाने के लिए कहा था तो उन्होंने ही पहले हमारे जवानों की माँ बहन की ऐसी-तैसी की थी. ऊपर से दारोगा जी नशे में धुत्त पहले ही से थे. पर यह मौक़ा था एस पी साहेब के तानों को चुप चाप पी जाने का और उनके भाषण सुनते जाने का. मैं सुनता रहा. लगभग पंद्रह बीस मिनट के भाषण के बाद सहाय साहेब ने अचानक पैंतरा बदला. पूछा ‘कहाँ के रहने वाले हैं आप?’

मैंने बताया ‘पूर्वी उत्तर प्रदेश का हूँ. गाजीपुर का, जो बिहार के बक्सर से लगा हुआ है.’

सहाय साहेब प्रसन्न दिखे. अगला प्रश्न था’ आप वर्मा लिख्रते हैं. कायस्थ बिरादरी के हैं क्या?’

मैंने हामी भरी. उनकी बांछें खिल गयीं. बोले ‘ अरे, यह तो बड़ी खुशी की बात है. आप तो अपने ही आदमी हैं. ठहरिये, आपको अपनी पत्नी से मिलवाता हूँ.’

फिर श्रीमती सहाय भी पधारीं- सांवली सी, भरे भरे बदन की सौम्य महिला थीं. सहाय साहेब ने नाश्ता किये बिना जाने की बात सुनने से साफ़ इनकार कर दिया. फिर बोले’ आपके पिताजी क्या करते हैं?’मेरे बताने पर कि डॉक्टर हैं, उन्होंने मेरे पूरे खानदान को टटोलना शुरू कर दिया. मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी., कब अपने मतलब की बात कर पाउँगा. जल्दी से जल्दी वायुसेना की गाडी न छोडी गयी और पाँचों जवान हवालात से बाहर न आये तो मेरी तो खटिया खड़ी हो जायेगी. पर सहाय साहेब थे कि काबू में ही नहीं आ रहे थे. मेरे खानदान की जड़ों में गहराई से पैठ लेने के बाद उन्होंने अपने परिवार का चिठ्ठा खोल दिया. तीन लडकियां थीं. सबसे बड़ी पटना में बी ए फाइनल में थी, बाकी दोनों अभी छोटी थीं. पूर्णिया में ही पढ़ती थीं. लड़का कोई नहीं था. होता तो उसे भी एयर फ़ोर्स में ही भेजते, भला और कौन सी सर्विस है जिसमे दो ढाई महीनों में ही इतने बड़े बेस की स्वतंत्र कमान सौंप दी जाती है. मैं लगातार चुप ही रहा. सहाय साहेब बड़ी देर तक बड़ी लडकी के मीठे स्वभाव, धार्मिक संस्कारों और गायन से लेकर पाक कला तक में पारंगत होने का बखान करते रहे. अचानक मेरी तरफ ध्यान पलटा तो बोले’ अरे, आप तो एकदम चुप बैठे हैं. बिलकुल चिंता छोड़ दीजिये. आप वापस हवाई अड्डे तक पहुंचेंगे इसके पहले ही आपके जवान और गाडी वापस पहुँच चुके होंगे. और हाँ, उस साले दारोगा को तो मैं ऐसा फिट करूंगा कि बैंचो याद रखेगा.‘

इसके बाद जितनी देर तक श्रीमती सहाय ‘ एक लड्डू और लीजिये,. चाय ठंढी हो गयी होगी, छोड़ दीजिये, दूसरा गर्म कप मंगवाती हूँ, लीजिये न.’ का सप्रेम अनुरोध करती रहीं, एस पी साहेब ने सारे ज़रूरी आदेश फोन पर अपने मातहतों को दे डाले.

कहानी बहुत लम्बी हो गयी है. पर अब पटाक्षेप करना आसान है. नाश्ते के बाद, दिन के खाने पर भी रुकने का आग्रह किया गया. लेकिन मैं किसी तरह जान छुडा कर वापस भाग आया. हवाई अड्डे पर मुख्य द्वार वाले गार्ड रूम पर पहुंचते ही पता चल गया कि मेरी वानरसेना मय अपने रथ के सकुशल वापस आ गयी थी.

मिस्टर पिंटो का सामना फिर होना ही था, सो हुआ. मैंने सारी कहानी विस्तार से सुनायी और उन्होंने बिना किसी टीका टिप्पणी के चुपचाप सुनी. अंत में मैंने बड़ी इज्ज़त के साथ पूछा ‘ मिस्टर पिंटो, अब क्या करना चाहिए?’ उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ‘ कुछ विशेष नहीं. लड़कों को तो मैं देख लूंगा. आप केवल इतना करिए कि एस पी साहेब से कहकर अपना सिविल ड्रायविंग लाइसेंस बनवा लीजिये. आप जो एयर फ़ोर्स की जीप सारे शहर में केवल सर्विस लाइसेंस के सहारे चलाते हैं वह वायुसेना के स्थायी आदेशों के विरुद्ध है.”

मैंने दबी जुबान से कहा ‘येस मिस्टर पिंटो’