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लौटते हुए

लौटते हुए

‘बंगला' खचाखच भरा हुआ था । सभी लोग आ—आकर बैठते जा रहे थे । कहते हैं, बहुत पहले यहाँ दूसरा बंगला बना हुआ था । तब विदेशी हुकूमत थी । गाँव के मुखिया थे राम टहल बाबा । उन्हीं की देखरेख में बंगले की सारी कार्यवाही हुआ करती थी । कलक्टर, दरोगा, सिपाही—जो भी गाँव में आता, सबसे पहले उसी बंगले में बैठाया जाता था । जमकर आव—भगत होती । राम टहल बाबा उनसे घुल—मिलकर बातें करते और पिफर गाँव के जिस किसी से उन्हें मिलना रहता, तत्काल वहीं बुलवाया जाता । गाँव के अनगिनत लठैत भी बाबा की सेवा—टहल में दिन—रात लगे रहते थे । गाँव के किसी भी झगड़ा—झंझट, चोरी—चकारी, लूट—खसोट के मुकदमे का पैफसला बाबा पलक झपकते ही सुना देते थे । साज—सज्जा और सपफाई के दृष्टिकोण से भी बंगला नायाब था । पता नहीं, कब वह बंगला मटियामेट हुआ और उसकी जगह यहाँ इस बरामदे का निर्माण हुआ । मगर यह बरामदा आज भी उस बंगले की याद ताजा करता है । गाँव के लोग अब इस बरामदे को ही बंगला कबूल कर बैठे थे ।

सभी पंच आकर बंगले में बैठ चुके थे । मुखिया जी ने आकर अपना आसन ग्रहण किया । सभी लोगों ने उनका हार्दिक अभिवादन किया । राम टहल बाबा के नाती लगते हैं बलेसर बाबा । आजकल गाँव के मुखिया । इंसापफ के लिए मशहूर । भला हों भी तो क्यों नहीं ! न्याय करने की विलक्षण सूझबूझ उन्हें विरासत में जो मिली है !

कई दिनों से गाँव में जो चर्चा का विषय बना हुआ था, उसी का आज पैफसला होने वाला था । युवक—युवतियाँ, बूढ़े—बूढ़ियाँ सभी रस ले रहे थे । जहाँ भी दो—चार लोग जमा होते थे, बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती थी । पूरे गाँव के लिए यह एक अभूतपूर्व मसला था । सभी लोग अपने—अपने तरीके के तर्क दे रहे थे । अपनी डपफली—अपना राग अलापना जैसे सबके लिए निहायत जरूरी हो गया था ।

खेत—खिलिहान में, बाजार—दूकान में सिपर्फ एक ही चर्चा थी और वह चर्चा थी छितेश्वर काका की ।

छितेश्वर काका एक कोने में सिमटकर बैठे हुए थे । उनकी बेचैन निगाहें एकाएक देवकली पर जा टिकीं । वह भी डबडबाई आँखों से उन्हें ही टुकुर—टुकुर ताक रही थी । उसके दोनों बेटे कभी अपनी माँ को और कभी भीड़ में बैठे—खड़े लोगों को कुतूहल से देखे जा रहे थे । छितेश्वर काका की आँखें छलछला आयीं । दूसरी तरपफ मुँह पेफरकर उन्होंने गमछे से आँखों में भरे हुए पानी को सापफ किया । एकाएक थोड़ी देर बाद होने वाले पैफसले का उन्हें पूर्वाभास—सा हुआ और वह सिर से पाँव तक काँप उठे । ललाट पर पसीने की बूँदे चुहचुहा आयीं । इच्छा हुई कि अभी जाकर वह देवकली की बाँह थाम लें और दोनों बेटों समेत, परिवार और गाँव—समाज को नजर अन्दाज करते हुए निकल भागें—सबकी निगाहों से दूर—बहुत दूर ।

लोगों की बढ़ती हुई भीड़ को देखकर उनकी आँखों में वह दिन अचानक घूम गया । वहाँ भी उस रोज ऐसे ही खचाखच लोग—बाग इकट्‌ठे हुए थे । वहाँ का तथाकथित मुखिया गरज रहा था । पंच गला पफाड़—पफाड़कर चिल्ला रहे थे । सबका क्रोध् सातवें आसमान पर जा चढ़ा था । इस इलाके में ऐसा अनर्थ ! तमाम लोग एक—दूसरे का मुँह देखने में ही मशगूल थे । देवकली को घसीटकर सभा में हाजिर किया गया था । उसने पाप किया था, जिसकी सजा उसे तब भुगतनी थी । अमरेश ने उसके साथ विश्वासघात किया था । उन दोनों के खुलेआम चलते प्रणय—प्रसंग, रात—बिरात उनका निःसंकोच मिलना—जुलना और सुबह—शाम साथ—साथ घूमना—टहलना । दोनों मोहल्ले की आँखों की किरकिरी थे । मगर जब शादी की चर्चा छिड़ी तो एक रात अमरेश एक खत छोड़कर हमेशा—हमेशा के लिए कहीं भाग गया, उसे दगा दे गया । अपने खत में उसने अपनी असमर्थता जाहिर की थी कि उसे शादी—वादी में जरा भी विश्वास नहीं है, कि वह जीवन भर निर्बन्ध् रहना चाहता है ।

देवकली पत्रा पढ़ते ही अपना माथा पीटने लगी थी । वह अमरेश के द्वारा छली जो गयी थी ! वह चिल्ला—चिल्ला कर, चीख—चीखकर पूछना चाहती थी कि आखिर उसकी होनेवाली संतान का क्या होगा, कि उसके पाप को कोई दीगर मर्द कबूल भी करेगा ? मगर वह कहे भी तो किससे ? कौन मुँह लेकर ?

देवकली से ज्यादा मोहल्ले के लोग ही चिन्तित हो उठे थे । उसे ढाढ़स बंधने और कोई विकल्प ढूँढ़ निकालने को कौन कहे, अब तो गाहे—बगाहे उसे बच्चे से बूढ़े तक कोसने लगे थे । सबकी हिकारत—भरी नजरें उसकी देह पर निब( हो जाया करती थीं और देवकली अंदर—ही—अंदर तिममिला उठती थी । सबों के द्वारा चलाये गये सवालों के तीर उसके जिगर को छलनी कर देते थे । तब कौन माई का लाल उस पापिन का हाथ थामेगा ? राध बनकर कृष्ण के साथ रास रचाते तो खूब रुचता होगा, अब कौन उसके पाप का हकदार होगा ? बोलो ? और तब मोहल्ले को बदनाम करने वाली देवकली को सजा भुगतने के लिए सभा में घसीटकर लाया गया था । सबका एक ही सवाल था, उसके होने वाले बच्चे का बाप कौन है ?

छितेश्वर काका अतीत से वर्तमान की तरपफ पलटे । गरमागरम बहस जारी थी । सभी तमाशबीन लोग ‘चिड़िया की जान जाये, लड़कों का खिलौना' वाली उक्ति को चरितार्थ कर रहे थे ।

छितेश्वर काका को वह दिन पिफर बरबस याद हो आया । वहाँ भी सभा में लोग इसी तरह दहाड़ रहे थे । दूसरों की मजबूरी में खूब दहाड़ना आता है—पंचों को । उनकी दहाड़ थाने में भी गूँजी थी । तब छितेश्वर काका उसी थाने में सिपाही थे । उनकी नसें तन गयी थीं । एक औरत की इज्जत की चीर खींचने वाले इतने दुर्योध्न ! एक मर्द उसे दगा दे गया तो क्या यहाँ के बाकी सभी नौजवान हिजड़े हैं ? उनकी लाल—लाल आँखों में जैसे खून के थक्के जम गये थे । दो सिपाहियों के साथ जब वह सभा में हाजिर हुए तो उस वक्त देवकली के लिए लोहे की छड़ लाल की जा रही थी ।

उन्होंने मूँछें ऐंठते हुए दहाड़ा था— ‘‘इस कन्या के पाप की भागी यह खुद नहीं, बल्कि वह अमरेश है जो इसे दगा देकर नौ—दो—ग्यारह हो गया । एक हिजड़ा तो इस अबला की इज्जत के साथ खिलवाड़ करके गया ही मगर मैं समझता हूँ, यहाँ पर बैठे—खड़े तमाम नौजवान हिजड़े हैं ।'' पिफर उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुनाया था —‘‘देवकली का हाथ थामने के लिए मैं तैयार हूँ । अगर वह भी तैयार हो तो बोले । आज शाम ही शादी की मुहूर्त है ।''

छितेश्वर काका की बात सुनकर सभी लोग हैरत से उनकी तरपफ एकटक देखने लगे थे । कहीं यह सिपाही पागल तो नहीं हो गया ? मुखिया जी ने बहुत समझाया—बुझाया कि देवकली पापिन है, कि इसने अमरेश नामक छोकरे के साथ खुलकर रंगरेलियाँ मनाई हैं, कि वह इस कुलटा का हाथ न थामे तो अच्छा । मगर उन सबों के तमाम तीर निष्पफल साबित हुए । छितेश्वर काका अपनी बात पर अटल रहे और बिलखती हुई देवकली उनके पैरों से लिपट गयी थी ।

शाम को जब छितेश्वर काका की शादी की बारात सज—ध्जकर निकली तो पूरे कस्बे में सिपर्फ उन्हीं की बहादुरी की चर्चाएँ छिड़ी हुई थीं । सड़क के इर्द—गिर्द खड़े नर—नारी उन्हें देखने को आतुर हो उठे थे ।

छितेश्वर काका उस समय यह भूल ही गये थे कि उनका ब्याह हो चुका था, कि उनकी तीन—तीन बेटियाँ थीं । बचपन में शादी रचाई गयी थी । ललिता के साथ कब उनकी सगाई हुई, कब गवना हुआ, उन्हें कुछ भी याद नहीं आ रहा था । भला आठ—दस बरस की उमर भी कोई उमर ठहरी ! नौकरी मिली तो उन्होंने किसी को भी अपने ब्याह की जरा भी भनक नहीं दी । ‘पुलिस इंक्वायरी' के वक्त भी उन्होंने सबको समझा—बुझा दिया था । सबकी नजरों में वह कुँआरे थे ओर आज जब शादी रचाई जा रही थी तो दुल्हन देवकली का माथा एहसान से झुका जा रहा था । छितेश्वर काका ने ही तो उसकी आबरू की रक्षा की थी, वरना भगवान ही मालिक था ।

उनकी सेवानिवृत्ति के बाद देवकली और दोनों बेटे उनका गाँव देखने के लिए बहुत बेचैन थे । सुना था, उनका शानदार मकान है, नौकर—चाकर हैं, चार—चार बैल हैं, खेती—बारी है । कैसा होगा उनका गाँव ? कैसे होंगे वहाँ के लोग ? बच्चे अचरज से इध्र—उध्र ताकने लगे थे । सभी कुछ उन्हें बड़ा ही विचित्रा लग रहा था । सचमुच गाँव की छटा कितनी निराली थी ! मगर वहाँ के लोगों की व्यंग्यपूर्ण बातें, तरह—तरह के बेतुके सवाल उनके दिल—दिमाग में बार—बार हंट करने लगे थे । ललिता के चेहरे को देखकर छितेश्वर काका को पहली बार अहसास हुआ था कि उन्होंने भी तो उसके साथ विश्वासघात ही किया था । ठीक अमरेश की ही तरह । तीन—तीन बेटियाँ जनमाकर पिफर कोई खोज—खबर न लेना....! उन्हें लगा जैसे उन्होंने एक ऐसा अन्याय किया हो, जिसके लिए भगवान भी क्षमा करने की खातिर हाथ उठाने को तैयार न हो । सचमुच आदमी जोश में होश—हवास तक कैसे खो बैठता है !

छितेश्वर काका के साथ देवकली को देखते ही ललिता के तन—बदन में आग लग गयी थी । अपने सम्मुख अपनी सौत को साक्षात्‌ खड़ी देख वह एक

विषध्र नागिन—सी पुफपफकार छोड़ने लगी थी । देवकली ज्योंही पैर छूने के लिए आगे बढ़ी, उसने अपने पैर झटक दिये थे । मुकेश और सुरेश कभी एक—दूसरे को, तो कभी अपने माँ—बाप को हक्के—बक्के—से देखने लगे थे । उन्हें अचरज था कि पापा ने उन्हें कहाँ ला पटका था, जहाँ कदम रखते ही वैसी दुर्गति !

छितेश्वर काका ने अपनी औकात के मुताबिक ललिता को लाख समझाया कि अब तो बेटियों के हाथ भी पीले हो गये, कि अब कोई इस घर में उसकी सेवा—सुश्रुषा के लिए भी तो नहीं रहा, कि ललिता के बाद अब खानदान का दीपक बुझने वाला था.....।

‘‘तो क्या सौत के बेटे हमारे घर—द्वार के हकदार होंगे ? इस नीच की औलाद, जिसकी जाति—इज्जत का भी कोई ठिकाना नहीं ?'' ललिता की लाल—लाल आँखें छितेश्वर काका की आँखों में ध्ँसने लगी थीं ।

‘‘यह मत भूलो ललिता कि देवकली के साथ भी मेरी शादी पंडितों के मंत्राोच्चार और नगरवासियों की उपस्थिति में ध्ूमधम के साथ हुई थी । ये दोनों बच्चे मेरे अपने बेटे हैं— ठीक तुम्हारी तीनों बेटियों की नार्इं.... ।'' एकाएक छितेश्वर काका अपने को संभाल नहीं पाये थे और कड़ककर गरज पड़े थे ।

‘‘तो क्या मुकेश भी तुम्हारा ही बेटा है ? दूसरे के पाप को अपना कहते शर्म आनी चाहिए, छितेसर !'' एकाएक उनके बड़े भइया ध्ड़ध्ड़ाते हुए अंदर आये थे और बात काटकर दहाड़ने लगे थे ।

छितेश्वर काका को याद हो आया था—परमेश्वर भइया एक बार उनसे मिलने की खातिर शहर गये थे और वहाँ उन्हें उनके बारे में सब कुछ खुलासा मालूम हो गया था ।

‘‘मगर, मैंने एक अबला की रक्षा की तो कौन—सा अनर्थ कर डाला ? देवकली ठगी गयी थी, यह बात सच है । मैंने इसे कोठे पर जाने से रोक लिया तो कौन—सा पाप कर दिया !'' छितेश्वर काका ने भइया को आड़े हाथों लेने की भरपूर चेष्टा की थी, ‘‘मैं समझ रहा हूँ, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं । इसलिए ताकि मेरे ये बेटे यहाँ की जमीन—जायदाद में हिस्सेदार न बन पायें ।''

‘‘छितेसर, जबान पर लगाम कसो । गाँव में पंचायत है, पंच हैं । मुखियाजी हैं । वे लोग ही इसका पैफसला करेेंगे । मैं तुम्हारे कल्याण की बात कह रहा हूँ और तुम.....?'' परमेश्वर ने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए होंठ चबाये ।

‘‘कैसी पंचायत और कैसे पंच ?'' छितेश्वर काका तो पंचायत के पैफसले से पूरी तरह वाकिपफ थे ही ।

‘‘नहीं छितेसर ! गाँव में रहना है तो पंचायत को मानना ही होगा । पंच परमेश्वर होते हैं ।'' पीछे खड़े सुरेन्दर चाचा की आवाज कंपकपाई थी ।

.....और छितेश्वर काका के लाख आनाकानी करने के बावजूद आज पंचायत बैठ ही तो गयी थी । सभी लोग कौतूहल भरी नजरों से एक—दूसरे की तरपफ देखने लगे थे । सबको पैफसले की प्रतीक्षा थी ।

खैर, छितेश्वर काका को आखिर जिस बात की आशंका थी, वही हुई । पंचों ने देवकली को रखैल साबित कर दिया और उसे बच्चों समेत गाँव से निकाल बाहर कर देने का पैफसला सुना दिया ।

‘‘ठीक है, मैं बच्चों को साथ लेकर अभी चली जाती हूँ । बहन, आपका सुहाग अमर रहे । इनका ख्याल रखियेगा । खेत—बारी, घर—द्वार—सब आपको मुबारक हो । कहीं भीख माँगकर भी तो....'' देवकली की आँखों में बाढ़—सी आ गयी थी ।

‘‘नहीं देवकली, ऐसा कभी नहीं हो सकता । मेरा अब यहाँ कौन है ही ? मैं यहाँ ललिता की नजरों में गिर चुका हूँ । यहाँ मेरा जीवन पल भर भी नहीं टिक सकता । मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा । अभी चलो ।'' छितेश्वर काका ने अपनी आँखें पोंछते हुए देवकली की बात काटकर अपना आखिरी निर्णय सुनाया ।

‘‘नहीं, आप मुझे इस अवस्था में छोड़कर न जाएँ । आपको मेरी कसम !'' ललिता अचानक रोती—बिलखती छितेश्वर काका के पैरों से आ लिपटी ।

छितेश्वर काका ने पैर छुड़ाये, दोनों बेटों के हाथ थामे और गमछे से आँखों को पाेंछते हुए देवकली के साथ चल पड़े ।

मुखियाजी और पंचों ने खड़े होकर अचरज से उन पर निगाहें टिका दीं । लोगों ने पीछे से व्यंग्य—बोल पेंफके, पर उन्होंने उनकी बातों की जरा भी परवाह न की ।

थोड़ी दूर आगे बढ़कर उन्होंने एक बार पीछे मुड़कर देखा । ललिता उन्हें अपलक ताकती हुई खड़ी थी । उसका झुर्रियों से भरा हुआ चेहरा आँसुओं से सराबोर हो गया था । छितेश्वर काका समझ नहीं पा रहे थे कि ललिता की आँखों के आँसू सौत के गाँव छोड़कर चले जाने की खुशी में बहते हुए आँसू थे अथवा पति के वापस लौट जाने के वियोग में विपदा व बिछोह के आँसू ?