Milan books and stories free download online pdf in Hindi

मिलन

मिलन

देवी राधा को पुराणों में श्री कृष्ण की शश्वत जीवनसंगिनी बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि राधा और कृष्ण का प्रेम इस लोक का नहीं बल्कि परलोक का है। सृष्टि के आरंभ से और सृष्टि के अंत होने के बाद भी दोनों नित्य गोलोक में वास करते हैं।

(प्रथम मिलन श्री कृष्ण के साथ)

राधा जी भगवान श्री कृष्ण से 11 महीने 17 दिन बड़ी थीं....राधा जी कृष्ण के जन्मोत्सव पर अपनी माता कीर्ति के साथ नंदगांव आई थी यहां श्री कृष्ण पालने में झूल रहे थे और राधा माता की गोद में थी।

(दूसरी मुलाकात)

दूसरी मुलाकात लौकिक न होकर अलौकिक थी। इसी दूसरे मिलन में श्री राधा ने भगवान श्री कृष्ण के साथ भांडीर वन में विवाह कर लिया,

(तीसरी मुलाकात)

राधा कृष्ण की तीसरी मुलाकात और प्रेम की शुरुआत संकेत नामक स्थान से माना जाता है। नंद गांव से चार मील की दूरी पर बसा है बरसाना गांव बरसाना को राधा जी की जन्मस्थली माना जाता है ।

नंदगांव और बरसाना के बीच में एक गांव है जो 'संकेत' कहलाता है इस स्थान के विषय में मान्यता है कि यहीं पर तीसरी बार भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का लौकिक मिलन हुआ था ।

हर साल राधाष्टमी यानी भाद्र शुक्ल अष्टमी से चतुर्दशी तिथि तक यहां मेला लगता है और राधा कृष्ण के प्रेम को याद कर भक्तगण आनंदित होते हैं।

(चौथी मुलाकात)

यह चौथी मुलाकात उस समय की है जब राधा रानी 14 साल की थीं, और भगवान श्री कृष्ण उन्हें छोड़कर हमेशा के लिऐ मथुरा जा रहे थे, दोंनो का मन बहुत दुखी था, पर किसी ने भी एक दूसरे से बात नही की, बस एक दूसरे को देखते रहे, राधा जानती थीं कि कृष्ण अब कभी लौटकर नहीं आयेंगे, कृष्ण भी जानते थे कि राधा को वो अब कभी नहीं देख पायेंगे, उसी समय भगवान श्री कृष्ण ने राधा की मोहिनी मूरत को अपने ह्रदय मे बसा लिया और छोड़कर चले गये ।

(पांचमी और आखरी मुलाकात)

पांचमी मुलाकात राधा की भगवान श्री कृष्ण से द्वारिकापुरी में हुई, राधा का अन्त समय था, जीवन के कुछ ही क्षण बचे थे, तो भगवान श्री कृष्ण ने राधा से कहा " हे राधे" तमने आज तक जीवन में मुझ से कुछ नहीं मांगा, अब आखरी समय है कुछ तो मांगो, राधा जी ने मना कर दिया कृष्ण के बार बार कहने पर, श्री राधा रानी ने बस एक ही इच्छा प्रकट की वो भगवान श्री कृष्ण को बंसी बजाते हुऐ देखना चाहती हैं ।

भगवान श्री कृष्ण ने जब बंसी बजाई तो बंसी को सुनते ही राधा ने अपने प्राण त्याग दियें, यह देख भगवान श्री कृष्ण और उनकी अर्धागिनी रुकमणी दोनों व्याकुल हो गये, भगवान श्री कृष्ण रुकमणी से बोले, प्रिये यह बंसी मेरे अधरों पर आज तक जिनके लिये बजी आज वो ही इस संसार को छोड़कर चलीं गयीं, अब इस बंसी को मेरे पास रहने का कोई अधिकार नही है, भगवान श्री कृष्ण ने बंसी उठाई तुरंन्त ही तोड़ दी और उसे कोसों दूर फेक दिया ‌ ।

x x x x x x x x x x

आज भी बरसाना और नंदगांव जैसे गाँव आपको दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे दोनों में सिर्फ पांच छह मील का फर्क है !! ऊंचाई से देखने पर दोनों एक जैसे ही दीखते हैं !! आज तक बरसाना वासी राधा को अपनी बेटी और नंदगांव वाले कान्हा को अपना बेटा मानते हैं । ५१६० बरस बीत गए परन्तु उन लोगों के भावों में फर्क नहीं आया ।

आज तक बरसाने की लड़की नंदगांव में ब्याही नहीं जाती सिर्फ इसलिए की नया रिश्ता जोड़ लिया तो पुराना भूल जाएगा । हमारा राधाकृष्ण से प्रेम कम ना हो इसलिए हम नया रिश्ता नहीं जोड़ेंगे आपस में आज भी नंदगांव के कुछ घरों की स्त्रियां घर के बाहर मटकी में माखन रखती हैं कान्हा ब्रज में ही है वेश बदल कर आएगा और माखन खायेगा ।

जहां 10 -12 बच्चे खेल रहे हैं उनमे एक कान्हा जरूर है ऐसा उनका भाव है आज भी । ब्रज भूमि को भाव से देखिये वरना जाना बेकार है । लेकिन आज भी बरसाने का वृद्द नंदगांव आएगा तो प्यास चाहे तड़प ले पर एक बूँद पानी नहीं पियेगा नंदगांव का क्योंकि उनके बरसाने की राधा का ससुराल नंदगांव है।

और बेटी के घर का पानी भी नहीं पिया जाता । उनका मानना आज भी जारी है । इतने प्राचीन सम्बन्ध को आज भी निभाया जा रहा है। धन्य है ब्रज भूमि का कण कण । करोड़ों बार प्रणाम मेरे प्रियतम प्रभु की जनम भूमि , लीलाभूमि व् प्रेमभूमि को ।

x x x x x x x x x x x x x x x

राधा जी की मांग में सिंदूर भांडीर वन में श्री राधा जी और भगवान श्री कृष्ण का मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर में स्थित विग्रह अपने आप अनोखा है क्योंकि यह अकेला ऐसा विग्रह है जिसमें श्री कृष्ण भगवान राधा जी की मांग में सिंदूर भरते हुए दृश्य हैं। क्योंकि राधा रानी बड़ी थी कानहा छोटे तो जब माँग भरने लगे तो अपने पैरों की उँगलियों पर खड़े होकर ऊपर होकर राधा रानी जी की माँग भरी ।

आप सब दरशन कर सकते है। पुजारी जी ख़ुद दरशन करवाते है ठाकुर जी के चरणों के। श्रीगर्ग संहिता के अनुसार राधा-कृष्ण का विवाह भांडीरवन में हुआ था। आज भी उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में मौजूद है। मथुरा से यहां की दूरी लगभग 20 किमी. है।

राधा-कृष्ण से जुड़ी होने के कारण इस जगह को बहुत ही पवित्र माना जाता है। जिस जगह पर राधा-कृष्ण का विवाह हुआ था, आज भी वह पेड़ मौजूद है। उस पेड़ के नीचे ही राधा-कृष्ण के साथ भगवान ब्रह्मा की मूर्ति स्थापित है। साथ ही पेड़ के नीचे लगे एक बोर्ड पर विवाह का पूरा वर्णन भी दिया गया है।

एक दिन नंदबाबा बालक कृष्ण को गोद में लिए घूम रहे थे। घूमते हुए वे दोनों पहुंच गए। पहुंचते ही भगवान कृष्ण ने अपनी माया से आंधी तूफान का वातावरण बना दिया। भगवान कृष्ण की इच्छा से वन में बहुत तेज तूफान आ गया। यह देखकर नंद बाबा बहुत डर गए। ।

वे कृष्ण को गोद में लेकर एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए और भगवान का स्मरण करने लगे। ।उसी समय वहां पर देवी राधा आ गईं। नंद बाबा कृष्ण और राधा के देव अवतार होने की बात जानते थे।

वह देवी राधा को देखते ही हाथ जोड़ कर उनकी स्तुति करने लगे। कुछ समय बाद नंद बाबा बालरूपी भगवान कृष्ण को देवी राधा के हाथों में सौप कर वहां से चले गए। नंदजी के जाते ही श्रीकृष्ण ने अपना दिव्य रूप धारण कर लिया। श्रीकृष्ण की इच्छा पर भगवान ब्रह्मा वहां आ गए।

इसके बाद भगवान ब्रह्मा ने अग्नि की स्थापना करके देवी राधा और भगवान कृष्ण का विवाह करवाया था। राधा-कृष्ण के विवाह में सभी देवी-देवताओं ने भाग लेकर उन्हें आशीर्वाद दिया था। भांडीरवन मे जिस भाँडीर वट वृक्ष के नीचे ब्रह्मा जी ने कानहा जी के और राधा रानी जी के फेरे करवाए थे। उसी वृक्ष का प्राकृतिक गठबंधन हुआ है , यह क़ुदरत का ऐसा नज़ारा है जिसकी शोभा देखते ही बनती है। इस पवित्र स्थान की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता।

x x x x x x x x x x x x

श्रीजगन्नाथ पुरी से दस कोस दूर पीपलीचटी गाम में रघु केवट का घर था। घर में स्त्री और बूढ़ी माता थी। प्रातः जाल लेकर रघु मछलियां पकड़ने जाता और पकड़ी हुई मछलियों को बेचकर परिवार का पालन करता ।

रघु ने गुरु दीक्षा लेकर गले में तुलसी की कंठी बांध ली थी। प्रातः स्नान करके भगवन्नाम का जप करता था। अब तो उसे मछली पकड़ना भी अच्छा नहीं लगता था। उसने इस काम को छोड़ दिया। कुछ दिन तो संचित अन्न से काम चला , फिर उपवास होने लगा।

पेट की ज्वाला तथा माता और स्त्री के तिरस्कार से व्याकुल होकर रघु को फिर जाल उठाना पड़ा । जाल डालने पर एक बड़ी लाल मछली फंस गई और जल से निकालने पर तड़पने लगी। रघु ने दोनों हाथों से मछली का मुख पकड़ा और उसे फाड़ने लगा।

सहसा मछली के भीतर से आवाज आई- ‘रक्षा कर, नारायण ! रक्षा कर।’ रघु चकित हो गया। उसका हृदय आनंद से भीग गया। मछली को लेकर वह वन की ओर भागा । वहां पर्वत से बहुत से झरने गिरते थे। उन झरनों ने अनेक जलकुंड बना दिए थे। रघु ने एक कुंड में मछली डाल दी।

रघु अपनी मां और पत्नी की भूख को भूल गया। वह भरे कंठ से कहने लगा । ‘मछली के भीतर से मुझे तुमने ‘नारायण’ नाम सुनाया ? मैं तुम्हारा दर्शन पाए बिना अब यहां से उठूंगा नहीं । रघु को वहां बैठे-बैठे तीन दिन हो गए। वह ‘नारायण, नारायण’ की रट लगाए था। एक बूंद जल तक उसके मुख में नहीं गया।

भगवान एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में वहां आए और पूछने लगे- ‘अरे तपस्वी ! तू कौन है ?’ तू इस निर्जन वन में बैठा क्या कर रहा है ? रघु ने ब्राह्मण को प्रणाम करके कहा- ‘महाराज ! मैं कोई भी होऊं, आपको क्या ? बातें करने से मेरे काम में विघ्न पड़ता है। आप जाएं।’

ब्राह्मण ने तनिक हंसकर कहा- ‘मैं तो चला जाऊंगा, पर तू सोच कि मछली भी कहीं मनुष्य की बोली बोल सकती है। रघु ब्राह्मण की बात सुनकर चौंक उठा। उसने समझ लिया कि मछली की बात जानने वाले ये सर्वज्ञ मेरे प्रभु हैं।

वह बोला ‘भगवन ! सब जीवों में परमात्मा ही है, यह बात मैं जानता हूं। मैंने जीवों की हत्या की है। क्या इसलिए आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं ? आप नारायण हैं। मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? मुझे क्यों तरसा रहे हैं, नाथ।’

भक्त की प्रार्थना सुनकर प्रभु दिव्य चतुर्भुजरूप में प्रकट हो गए और वर मांगने को कहा,रघु ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो ! आपके दर्शन हो गए फिर अब मांगने को क्या रहा, परंतु आपकी आज्ञा है, तो मैं एक छोटी सी वस्तु मांगता हूं ।

जाति से धीवर हूं। मछली मारना मेरा पैतृक स्वभाव है। मैं यही वरदान मांगता हूं कि मेरा स्वभाव छूट जाए। पेट के लिए भी मैं कभी हिंसा न करूं। अंत समय में मेरी जीभ आपका नाम रटती रहे और आपका दर्शन करते हुए मेरे प्राण निकलें।’ भगवान ने रघु के मस्तक पर हाथ रख कर ‘तथास्तु’ कहा और अंतर्धान हो गए।

वह घर आया, तो गांव के लोगों ने उसे धिक्कारा कि माता और स्त्री को भूखा छोड़कर कहां गया था । दयावश गांव के जमींदार ने उनके लिए अन्न का प्रबंध कर दिया था। इस प्रकार उसका तथा परिवार का पालन- पोषण होने लगा ।

उसके मुख से जो निकल जाता, वही सत्य हो जाता। बाद में वह घर छोड़कर निर्जन वन में रहने लगा और चौबीसों घंटे प्रभु भजन में ही बिताने लगा। एक दिन रघु को लगा कि मानो नीलांचलनाथ श्रीजगन्नाथ जी उनसे भोजन मांग रहे हैं।

भोजन-सामग्री लेकर रघु ने कुटिया का द्वार बंद कर लिया। भक्त के बुलाते ही भाव के भूखे श्रीजगन्नाथ जी प्रकट हो गए और रघु के हाथ से भोजन करने लगे। उधर, उसी समय नीलांचल में श्रीजगन्नाथ जी के भोग-मंडप में पुजारी ने नाना प्रकार के पकवान सजाए।

भोग-मंडप में एक दर्पण लगा है, उस दर्पण में श्रीजगन्नाथ जी के श्री विग्रह का जो प्रतिबिंब पड़ता है, उसी को नैवेद्य चढ़ाया जाता है।सब सामग्री आ जाने पर पुजारी जब भोग लगाने लगा, तब उसने देखा कि दर्पण में प्रति बिंब तो है ही नहीं ।

घबरा कर वह राजा के पास जाकर बोला, ‘महाराज ! नैवेद्य में कुछ दोष होना चाहिए। श्रीजगन्नाथ स्वामी उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अब क्या किया जाए । राजा ने भी देखा कि दर्पण में प्रभु का प्रतिबिंब नहीं पड़ रहा है। राजा को बड़ा दुख हुआ। वे कहने लगे मुझसे कोई अपराध हुआ हो, तो प्रायश्चित करने को मैं तैयार हूं ।राजा प्रार्थना करते हुए दुखी होकर भगवान के गरुड़ध्वज के पास जाकर भूमि पर लेट गए। लेटते ही उन्हें नींद आ गई। उन्होंने स्वप्न में देखा कि प्रभु कह रहे हैं ।

राजा ! तेरा कोई अपराध नहीं । तू दुखी मत हो। मैं नीलांचल में था ही नहीं, तो प्रतिबिंब कैसे पड़ता । मैं तो इस समय पीपलीचटी ग्राम में अपने भक्त रघु केवट की झोपड़ी में बैठा उसके हाथ से भोजन कर रहा हूं ।

वह जब तक नहीं छोड़ता, मैं यहां आकर तेरा नैवेद्य कैसे स्वीकार कर सकता हूं ।यदि तू मुझे यहां बुलाना चाहता है, तो मेरे उस भक्त को उसकी माता तथा स्त्री के साथ यहां ले आ। यहीं उनके रहने की व्यवस्था कर।

राजा की तंद्रा भंग हुई, तो वे पीपलीचटी पहुंचे। पूछकर रघु केवट की झोपड़ी का पता लगाया। जब कई बार पुकारने पर भी द्वार न खुला, तब द्वार बल लगाकर उन्होंने स्वयं खोला। कुटिया का दृश्य देखकर वे मूर्तिवत् हो गए। रघु, के हाथ में अन्न का ग्रास दिखाई देता है, पर ग्रास लेने वाला मुख नहीं दिखता। सहसा प्रभु अंतर्धान हो गए ।

तभी राजा को देख उसने उठकर राजा को प्रणाम किया। श्रीजगन्नाथ जी की आज्ञा सुन कर रघु ने नीलांचल चलना स्वीकार कर लिया। माता तथा पत्नी के साथ वे पुरी आए । तब भोग मंडप के दर्पण में श्रीजगन्नाथ जी का प्रतिबिंब दिखाई पड़ा ।

पुरी के राजा ने श्रीजगन्नाथ जी के मंदिर से दक्षिण ओर रघु के लिए घर की व्यवस्था कर दी । रघु अपनी माता और स्त्री के साथ भजन करते हुए जीवन पर्यन्त ।