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पूर्वाग्रह

पूर्वाग्रह

विनीता शुक्ला

सुजाता जा रही थी. देवेन ने उसे रोकने की जरा भी कोशिश न की. सुजाता के आंसुओं से, मन भीग उठा; पर भावनाएं उसको दुर्बल न बना सकीं. कुछ मूक वेदनाएं, मौन की धडकनों में धड़क रही थीं. कुछ निठुर उपालम्भ, सन्नाटे की गूँज में गूँज रहे थे. देवेन्द्र ने ठंडी सांस ली. यह जीवन की इबारतें - शिलालेख सी पक्की इबारतें; क्या धो- पोंछकर मिटाई जा सकेंगी?!

किन्तु निस्तार ढूंढना ही होता है. शरीर का कोई अंग, विषाक्त हो जाये तो उसे काटकर फेंक देते हैं; ताकि वह देह को, बेकार न कर दे. सुजाता भी गले में, शूल सदृश अटकी थी... शूल जिसे निगलना सम्भव नहीं! दिल का गुबार, कोई कब तक दबाए रखे??? जबान सी लेने से, सच्चाई बदल तो नहीं जाती और जब सब्र का बाँध टूटता है- अपने साथ, बहुत कुछ बहाए लिए जाता है!! बचती है शून्यमय नीरवता और उसमें सुगबुगाती यादें- “कह रहे थे, बेटे के लिए, हीरा तलाशकर लाऊंगा” “हीरे के वास्ते गये- कोयले की खान में.... जो हीरा न मिला... कोयला लिए चले आये!!!” इस पर कईयों की हंसी फूट पड़ी. औरतें इस बात से अनजान थीं कि उनकी दिल्लगी भरी बातें, किसी दिल में नश्तर सी चुभ रही थीं. घूँघट के भीतर, बहती आँखें और धुआं धुआं अरमान!

दुल्हन की मुंह दिखाई हुई नहीं और स्त्रियाँ ‘पंचायत’ लेकर बैठ गयीं. सांवले चेहरे की वह लुनाई, वह तीखे नैन- नक्श, क्या मोहक न थे?! किसी ने सराहना के दो बोल नहीं बोले. खोट ढूँढने में जो मजा है, तारीफ़ में कहाँ! सुजाता गृहलक्ष्मी बनकर आई, सरस्वती का भी वरदहस्त था उस पर. वह एक सुरीली गायिका, उत्कृष्ट चित्रकार और विदुषी स्त्री थी. मगरूर औरतें, भला क्या समझें! वे तो जानती थीं कि भारी भरकम दहेज़ पर, सुदर्शन देवेन नीलाम हो गया. उनका भी सोचना स्वाभाविक था. समाज में बेमेल शादियाँ, पैसे के बल पर तो होती हैं. किन्तु क्या इसके मूल में, मात्र पैसा ही था?! सुदूर अतीत में फ़ैली थीं इसकी जड़ें. एक पूरा इतिहास था पीछे- देवेन के पिता, परेशचन्द्र का इतिहास; इतिहास, जो उनके लग्नमंडप से उद्भवित हुआ.

और देवेन... जीवन के मंच पर, कठपुतलियों के खेले में- उस इतिहास को ढोने वाला किरदार! ‘खेल खेल में’, विवाह- प्रकरण भी जुड़ गया. वह चाहता तो रिश्ता ठुकरा देता पर वधू पक्ष की समृद्धि देख, आँखें चुंधिया गयीं. जिसे अपनी ही मां से, लोभ विरासत में मिला हो; वह लोभ संवरण कैसे करता?! भोली अदाओं वाली, रूपवती प्रेयसी, उससे छिन गयी...तो क्या!! उस रत्ना के लिए, आती हुई लक्ष्मी को छोड़ देता?!!

सुजाता बड़े घर की लड़की थी किन्तु उसका स्वाभिमान प्रबल था. जब उसके पिता, कुछ देने का प्रस्ताव रखते; वह नानुकुर करने लगती. यह बात और थी कि इन्कार के बावज़ूद, मैके से ‘लक्ष्मी’ आती रहती. जो भी हो- धन का ऐसा निरादर, देवेन को रास न आता. सुजाता में आयु से अधिक परिपक्वता थी. पति के हल्के फुल्के मजाक भी उसे विचित्र लगते...उनकी किशोरों जैसी हरकतें, पैसे उड़ाना, दोस्तों के साथ दारू- महफ़िलें सजाना, उस पर नागवार गुजरता. वह विनम्रता, किन्तु दृढ़ता से; इसका विरोध करती. धीरे धीरे पत्नी, देवेन की आँखों में चुभने लगी. वह मन से बूढ़ी, मनहूस स्त्री! पैसेवाले घर से आई; फिर भी ‘ऐश’ नहीं करने देती!!

देवेन अक्सर, रत्ना के ख्याल में गुम रहता और परेश बीते हुए पलों में. अतीत का वह ‘फ़्लैश बैक’- जब सुमुखी के साथ, फेरे लेते हुए, उनका सर्वांग पुलक उठा...जागती आँखें के सतरंगी सपने... सौभाग्य कोंपलें, हृदय की बन्ध्या- भूमि से उमगती; एक एक पल, मायावी रोमांच से सराबोर! विवाह के कुछ दिनों बाद तक, उनके पैर जमीन पर न थे. ऐसी सुन्दरी पत्नी, बिरलों को ही मिलती है. वह अनिन्द्य सौन्दर्य, उनकी प्रतिष्ठा को दमका रहा था...औरों को जलाकर!! हर स्वप्न का अंत होता है, किन्तु इस स्वप्न का अंत तो कल्पनातीत था.

एक दिन दोनों लॉन में बैठे थे. सूर्य अस्ताचल को बढ़ चला और वे सांझ की सुनहरी परछाइयों में, खो से गये. सुमुखी उनके लिए चाय बनाने लगी. चाय का प्याला बढ़ाते हुए बोली, “यह क्या?! आपने अब तक, मुंह- दिखाई का शगुन नहीं दिया” “मुंह दिखाई?!” वे नासमझ बच्चे जैसा भ्रमित थे. अर्थपूर्ण दृष्टि से वार करते हुए पत्नी ने कहा, “पहली रात मुंह देखकर, एक छोटी अंगूठी में ही ‘निपटा’ दिया आपने... बस इतनी अहमियत है मेरी??” “क्या कह रही हो सुमू?! अरे हमारा तो जन्म जन्म का साथ है...हमारा दिल, हमारी जान- सब आप पर कुर्बान!!!” परेश ने बात सम्भालनी चाही; लेकिन सुमू नहीं मानी. उसने मुंह बिचकाया और पैर पटकती हुई भीतर चली गयी.

कोपभवन में जाने का, यह पहला कारण नहीं था. सुमुखी अक्सर, ऐसे बहाने ढूंढ लेती. जब घर में शुभकार्य होता; मायके और ससुराल के रिश्तेदार इकट्ठे होते- कोपभवन में जा बैठती. पति को सताकर, उँगलियों पे नचाकर; हिंसक सुख की अनुभूति होती थी. अपनी सुन्दरता के गुमान में, ससुराल पक्ष का निरादर करना; उसके स्वभाव में था. वहीं नैहर वालों का स्वागत होता; परेश से छुपाकर, उन्हें उपहार दिए जाते. गरीब घर की वह लड़की, ऐश्वर्य और सुविधाएं देख बौरा गयी थी. सारी सत्ता, सारा ऐशोआराम मुट्ठी में कर लेना चाहती थी.

परेशचन्द्र जानकर ऐसी बहू लाये थे जो सुमुखी से १८० डिग्री उलट थी. गंभीर मिजाज, औसत रंगरूप, और समर्थ घर की उच्चशिक्षित लड़की. वह न रूप पर इतरा सकती थी और न उसकी सोच ही दरिद्र थी. सास जैसे दुर्गुण उसमें नहीं थे. सुमुखी जब तक ज़िंदा रही, पति को प्रताड़ित करती रही. उसका त्रिया हठ परेश को घर से; परिवार और बच्चों के सुख से, दूर करता गया. उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बदलकर ऐसा कर लिया- जहां आये दिन टूर पर जाना होता. सुमुखी से भागकर, वे नित नई रमणियों का साहचर्य तलाशते. भटकाव की अंधी सुरंग में; वे खुद अपना पता भूल चले! पति पत्नी के बीच मतभेद, बढ़ते ही रहे.

बेटी वैभवी के विवाह को लेकर, दोनों में खूब घमासान हुआ, “कहे देती हूँ, तुम्हारे दोस्त के बेटे को, दामाद नहीं बनने दूंगी. दोस्त के साथ मिलकर, दबंगई करोगे?! अंजाम बुरा होगा... देख लेना!!” सुमुखी अपने साम्राज्य में, सेंध लगते देख न सकी. परेश भी रोज के नाटक से, तंग आ चुके थे. उन्होंने तुरंत पलटवार किया, “क्या कर लोगी तुम...बताओ” दुस्साहसी पत्नी ने, मुंडेर से कूदने की धमकी दी; अपने कदम भी वहीं ले गयी. परेश के लिए, नौटंकी नई नहीं थी- सो अनदेखा कर दिया. किन्तु दैवयोग से इस बार, उसके पैर फिसल गये और वह तीसरी मंजिल से नीचे गिर पड़ी. ‘भेड़िया आया’ वाली दंतकथा का, यह अलग ही रूप था!

दुनियाँ उनकी गाम्भीर्य भरी चुप्पी देखकर सोचती कि वे सुमुखी का शोक मना रहे थे पर इसके विपरीत, वह स्वयं को हल्का महसूस करते - जिद्दी, सनकी औरत से, पीछा जो छूटा था! देवेन की बात दूसरी थी. वह मां का अभाव महसूस करता. उन्होंने उसे लाड़ से पाला था. उसकी हर इच्छा पूरी की...सर आँखों पर बिठाकर रखा. वह अम्मा की सनक से, परेशान जरूर रहता; किन्तु उनका प्यार, उसके लिए अनमोल था. मां का वह दिव्य रूपरंग...ऊपरवाले ने उन्हें, फुर्सत में बनाया होगा! वह भी सुंदर दुल्हन चाहता था. ऐसी कन्या- जो अम्मा जैसी आकर्षक हो पर उन सी हठी न हो. भोली और बुद्धू लड़की; जिसके पास लड़ने की बुद्धि तक न हो...जो बिना शर्त उसकी हर बात माने...उसे सबसे ऊंचा दर्जा दे!

दुर्भाग्य से सुजाता, उन मानदंडों पर खरी नहीं उतरी. वह मां का लाड़ला...उसके अंदर का बच्चा, जब भी सर उठाता- सुजाता उसे टोक देती. बचकानेपन से उसे विरक्ति सी होती. सुजाता जो भोली होने के बजाय परिपक्व थी...गोरी होने के बजाय सांवली थी...चाटुकार होने के बजाय आत्मकेंद्रित थी!! एक न एक दिन कुछ अघट तो होना था. सुजाता के पिता की मृत्यु के बाद, उसके घर से तोहफे आने बंद हो गये और समय समय पर मिलने वाले चेक भी. अब तो वह किसी काम की नहीं थी. दोनों के बीच टकराव होने लगे और फिर आज...!! देवेन वर्तमान में वापस लौट आया.

सुजाता को गये तीन घंटे हो गये थे. वह खुद को ठेलकर उठा. नौकर से चाय बनाने को कहा. झट दिमाग में, रत्ना का मोबाइल- नम्बर कौंधा और वह बैठ गया- उसे फोन लगाने. दूसरी तरफ से, कोई जगत बोल रहा था. “आप कौन” उसने देवेन से पूछा. “जी मैं...रत्ना से बात करनी थी...मैं उसके पुराने ऑफिस का हेड देवेन” जवाब देते हुए, देवेन हकलाने लगा था. उसे लगा जगत, रत्ना का कोई कजिन होगा. रत्ना ने बताया था कि वह संयुक्त परिवार में, अपने चचेरे भाइयों के साथ रहती है. उसका परिचय जानकर, जगत का रूखा स्वर कुछ नरम पड़ा, “ओह आई सी...हाउ डू यू डू देवेन जी?! मैं रत्ना का पति...पिछले ही हफ्ते, हमारा प्रेम- विवाह हुआ है” प्रेम विवाह कहते हुए, जगत की आवाज खनकने लगी! कोई जवाब न पाकर, वह खुद बोलने लगा था, “रत्ना फिलहाल बाहर गयी है. उसे बता दूंगा कि आपका फोन था” इधर देवेन के गले में मानों, कोई भारी पत्थर अटक गया था... आवाज़ ही नहीं निकल रही थी! मुश्किल से बोला, “थैंक्स... कॉल यू लेटर”

रत्ना और उसका ‘भोलापन’! देवेन की शादी को महज पांच महीने ही बीते थे...इतनी जल्दी दूसरा प्रेमी कर लिया. उससे भी पहले वह, अपने पुराने मंगेतर रमेश के प्रेम में थी- बिलकुल मजबूरन!! आखिर मां बाप यही तो चाहते थे... फिर न जाने क्यों, रमेश से सम्बन्ध तोड़ दिया. मानों प्रेम न हुआ, फुटबॉल हो गयी; कभी इस पाले में, कभी उस पाले में!!! बुरी तरह मोहभंग होने के बाद, देवेन का सर फटा जा रहा था. चाय हलक से नीचे नहीं जा रही थी. दिन भर में उसने, कुछ खाया तक नहीं. विचित्र मनःस्थिति में, चार पांच दिन गुजरे. फिर पिताजी का सन्देश आया, “तुम्हारे पास रहा हूँ. हफ्ते भर रहूंगा... बहू को बता देना...हो सके तो छुट्टी ले लेना”

देवेन मुश्किल में पड़ गया. परेशचन्द्र रिटायरमेंट के बाद, पहली बार यहाँ आ रहे थे. आश्रम जाने के पहले, उन दोनों से मिलना चाहते थे. विशेष तौर पर, अपनी प्यारी पुत्रवधू को; आशीर्वाद देना चाहते थे. गुरूजी से दीक्षा लेने के बाद, मोहमाया के बंधन टूट ही जाने थे. बेटा, बेटी से दूर... बहुत दूर चले जाना था. वे चाहते थे कि अपनी चल- अचल सम्पत्ति; दोनों संतानों में बाँट दें; ताकि सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त हो सकें. ऐसे में यदि सुजाता उन्हें न मिली तो देवेन का क्या हश्र होगा...कल्पना तक से परे था!! अब तो एक ही चारा था- पत्नी को कुछ दिनों के लिए, बुला लिया जाए. सुजाता का आत्मसम्मान इस बात की अनुमति तो नहीं देता किन्तु अपने प्रिय ससुरजी के खातिर; शायद मान ही जाए!

जैसे तैसे उसने, खुद को तैयार किया- ससुराल जाने के लिए! रास्ता आठ घंटों का था. कार ड्राइव करते हुए, खासी थकान हो गयी थी. भूख- प्यास से हाल बेहाल हो रहा था. मन करता था कि जल्दी से कुछ खा- पीकर, बिस्तर में पड़ रहे... लेकिन जिन परिस्थितियों में वह, पत्नी के घर जा रहा था; संभवतः वहां उससे, कोई बात तक न करे!! उधर बंगले के भीमकाय गेट पर, रामू काका दिखे. वह सुजाता के यहाँ, बरसों से मालीगिरी कर रहे थे. उसे देखते ही फुसफुसाए, “जंवाई राजा आप!... हियाँ बिटिया नाहीं मिलिहै. आपौ न भीतर जावो...”

“सुजाता यहाँ नहीं है, तो कहाँ है?!!” विस्मय से देवेन की आँखें चौड़ी हो गयीं. “अबै कछू पूछौ नाहीं... आप बस हमरे साथे चलो”. बंगले के पिछवाड़े पर, एक पुरानी बस्ती थी. टूटे फूटे मकान, तंग गलियाँ, उधड़े प्लास्टर वाली बाउंड्री. वहीं रामू काका की, ‘कुटिया’ भी थी. बरामदे में एक जर्जर बेंच पर; भावहीन, स्पन्दनहीन सी, कोई स्त्री बैठी थी. उसे देखते ही देवेन के मुंह से, चीख सी निकल गयी, “सुजाता!!!” पति की आवाज़ सुनकर, सुजाता बेतरह चौंक पड़ी और फुर्ती से भीतर चली गयी.

बाकी की कहानी, रामू काका के आंसुओं और सिसकियों में डूबी हुई थी, “आपौ नाहीं जानत जंवाई राजा...सुजाता की अम्मा और भैय्या सब सौतेले हंय. बहुतहि चंचल रही, हमार बिटिया- मां बाप की आँखन का तारा...ई चिरैया अस फुदकत...गावत, नाचत, बंगले भरै मां डोलत फिरत रही ...तब ई साइद (शायद), छः- आठ साल की होई. मेमसाब को मरा लरिका पैदा भवा. तीन दिनन के भीतर, ऊ भी गुजर गयीं. सौतेली अम्मा का सासन(शासन) बिकट रहा...बहुतै अतियाचार(अत्याचार) करत रही! ईका जीवन, नरक कइ(कर) दिहिस...बड़ी कुगत रही भैया... छोट उमर मां, सयान भई हमार बिटिया!!!”

देवेन की आँखें भी भर आई थीं. सुजाता उसके अंश को कोख में सहेजे, चुपचाप घर से निकल आई थी. उसके स्वभाव की गम्भीरता को, वह उसकी मनहूसियत समझता रहा... सयानेपन को उसकी खामी...और गैरत को उसकी अकड़! वक्त ने देवेन को ऐसा सबक सिखाया, जिससे मन के सारे भरम धुल गये थे!! सुजाता के वजूद की चमक, उसे अब जाकर दिखाई दी; उसके गुणों का मोल भी अब ही समझ आया. कैसे भी वह, सुजाता को वापस ले जाएगा... फिर कभी उसे, खुद से दूर न होने देगा. देवेन के सब पूर्वाग्रह, ध्वस्त हो चुके थे!!!