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ढाक के तीन पात

ढाक के तीन पात

"विज्ञान कितनी भी उन्नति कर ले ; जमाना कितना भी बदल जाए ; दुनिया मंगल ग्रह पर पहुँचे या चंद्रमा पर, आप तो वही ढाक के तीन पात रहेंगे !" तेजस्विनी के इस प्रभावशाली वक्तव्य से मुझे मेरे पिता द्वारा दी गई शिक्षा पर गर्व होने लगा और मैं अपने अतीत की यात्रा करने लगी —

सजने-सँवरने में मेरी कभी रुचि नहीं रही थी | इसका कारण मेरे पिता का वह जीवन दर्शन था, जिससे मेरा वैचारिक संसार सृजित हुआ था | मेरे विचारों को यथोचित दिशा प्रदान करने के लिए वे पिता, मित्र और अध्यापक तीनों की भूमिका का एक साथ निर्वाह करते थे | अर्थात थ्री इन वन | जब जिसकी आवश्यकता होती थी, वे तत्काल यथावश्यक भूमिका में प्रस्तुत हो जाते थे | यूँ तो माँ का सान्निध्य जिस प्रकार हर एक बच्चे के लिए अद्वितीय होता है, वैसे ही मेरे लिए भी था, किन्तु पिताजी के साथ रहना, उनकी बातें सुनना, उनसे रामायण-महाभारत की रोचक कथाएँ सुनना, अपने मस्तिष्क में उठने वाले अनेकानेक प्रश्न पूछना और पिताजी से उनका स्पष्ट-तार्किक उत्तर पाना मुझे अद्वितीय सुख प्रदान करता था | इसलिए मैं अवसर पाते ही अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए पिता के पास पहुँच जाती थी |

पिताजी का दृष्टिकोण प्रत्येक विषय पर स्पष्ट और तार्किक होने के कारण मेरे लिए बहुत ही सहज ग्रहणीय होता था, मेरे भावी जीवन के लिए दृढ पृष्ठभूमि तैयार करता था | मेरे समक्ष एक ओर पिताजी थे, जिनकी हर बात में एक तर्क होता था ; दृढ़ अवलम्ब होता था, तो दूसरी ओर सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएँ थी, जिनका अन्धानुकरण करने पर समाज से सहानुभूति और समर्थन मिलता था | प्रायः तर्क और परम्परा मुझे किसी छड़ के दो छोरों के समान प्रतीत होते थे, जिन्हें एक साथ मिलाना दुष्कर कार्य था | तार्किक विचार दृष्टि को अपने यथार्थ जीवन में क्रियान्वित करना मेरे लिए अपेक्षाकृत अधिक रुचिकर हेता था, परन्तु ऐसा करके मैं सदैव अपने समाज से अलग-थलग पड़ जाती थी | उस परिस्थिति में मैं तनावग्रस्त होकर एक विचित्र प्रकार की मानसिक यातना भोगती थी, तब पिताजी ही मेरी समस्या का सांगोपांग विश्लेषण करके यथोचित और दमदार तर्क- रज्जु मेरे समक्ष प्रस्तुत करते थे, जिसके सहारे मैं अपनी मानसिक यातना के गहरे अंधेरे कूप से बाहर आती थी और पिताजी के जीवन दर्शन का अवलम्ब लेकर अपनी विचारवल्लरी को विकसित-पल्लवित करने का प्रयास करते थी |

पिताजी के आधुनिक-प्रगतिशील दृष्टिकोण के प्रबल प्रमाणस्वरूप मेरे वैवाहिक जीवन की एक घटना को प्रस्तुत किया जा सकता है । चूँकि अपनी कौमार्यावस्था में मैं प्रायः कंगन-चूड़ियाँ तथा गहने आदि नहीं पहनती थी और सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह करने के लिए विवाहोपरांत कलाइयाँ भर-भरकर काँच की चूड़ियाँ पहनना आवश्यक हो गया था, इसलिए घरेलू कार्य संपन्न करते समय किसी-न-किसी वस्तु से टकराकर मेरी एकाधिक चूड़ियाँ टूट जाती थी । जल्दी-जल्दी चूड़ियाँ टूटने से सासू माँ और पास-पड़ोस तथा रिश्तेदारी की स्त्रियाँ आकर मुझे समझाती थी -

"बऊ, चूड़ियाँ औरतों का सुहाग होवै है । भगवान के दरबार से गिनती की (निश्चित संख्या में ) चूड़ियाँ मिलैं है । जितनी जल्दी-जल्दी चूड़ियाँ मोलेंगी, पति की उम्र उतनी ही कम हो जावेगी !" (कौरवी बोली-क्षेत्र में स्त्रियों की आस्था के अनुसार चूड़ियों के लिए टूटना शब्द अशुभ माना जाता है । अतः चूड़ियों के लिए 'टूटना' शब्द के स्थान पर 'मोलना' शब्द का प्रयोग किया जाता है )

ससुराल से लौटकर मैंने इस घटना का वर्णन पिताजी के समक्ष किया । उन्होंने मुझे अपनी तर्कपूर्ण-रोचक शैली में समझाया -

"बेटी, हमारे बहत-से सांस्कृतिक प्रतीक हैं । चूड़ियाँ भी उनमें से एक हैं । इन सांस्कृतिक प्रतीकों के कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी हैं, लेकिन जहाँ तक पति की आयु के साथ चूड़ियों के संबंध की बात है, तो मैं इससे सहमत नहीं हूँ ! मेरे विचार से पति के साथ-साथ दाम्पत्य सम्बन्ध की दीर्घायु के लिए पत्नी का प्रेम और विश्वास अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक है । दूसरी बात, यदि पत्नी की कलाई में पहनी हुई चूड़ियाँ पति की रक्षणीया तथा आयुवर्द्धिका होती, तो किसी भी शृंगार-प्रिय स्त्री के जीवन में कभी भी वैधव्य-क्षण की आशंका ही नहीं रहती और सीमा पर तैनात जवानों को रक्षा के लिए ढाल-तलवार, तोप और बारूद की आवश्यकता नहीं होती, पत्नी की कलाइयों में पहनी हुई चूड़ियाँ ही पर्याप्त होती ।

ससुराल में आने के बाद मेरा सबसे पहले सबसे अधिक संतोषप्रद क्षण वह था, जब मैंने अनुभव किया था कि मेरे मेरे पति का जीवन-दर्शन काफी कुछ मेरे पिता के जीवन-दर्शन से मिलता-जुलता है | अतः विवाह के पश्चात् भी समाज द्वारा निर्देशित साज-शृंगार का भार ढोने की बाध्यता से मैं प्रायः मुक्त ही रही | हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था की दृष्टि से बहू-बेटी के लिए सजने-सँवरने की अनिवार्यता को मेरे पति ने भी सिरे से नकार दिया था, जिससे मेरी मनोवृति को पर्याप्त बल मिला |

मेरे विवाह के लगभग दो माह पश्चात् हमारे पड़ोस में उत्सव का कार्यक्रम था | मेरी सासु माँ ने उस उत्सव में सम्मिलित होने के लिए मुझे शीघ्रातिशीघ्र सज-सँवरकर तैयार होने के लिए आदेश दिया —

" चल, जल्दी तैयार हो ले, ब्याह वालों के घर खोड़िया ( लड़के के विवाहोत्सव में वधू के गृहप्रवेश से पहले की जाने वाली एक रस्म विशेष ) पड़ रहा है, तुझे मेरे साथ वहाँ चलना है ! और सुन, ऐसी सजयो, तेरे मुकाबले ब्याह वालों के घर में कोई बहू ना दिखे, समझ गयी ना ! उनके आदेशानुसार कृत्रिम सौन्दर्य-प्रसाधनों तथा आभूषणों का उपयोग करते हुए सज-सँवरकर उत्सव में चलने के लिए मैं शीघ्र ही तैयार हो गयी | तब तक मेरे पति का घर में आगमन हो चुका था | पति ने क्षण-भर मुझे घूरकर देखा और फिर उपेक्षा तथा उपहास की मुद्रा में कहा —

"नौटंकी में जा रही हो क्या ? "

"क्यों ?"

"चेहरे पर क्रीम—पावड़र से लिपाई-पुतीई तो कुछ ऐसे ही की गयी है ! " उन्होंने व्यंग्यात्मक शैली में कहा |

"नयी-नवेली बहू ऐसे ही सजती-सँवरती हैं ! " मैंने आत्मविश्वास निमज्जित शैली में उत्तर दिया |

"क्यों ? "

मेरे बोलने से पहले ही वे पुनः कह उठे — " अपने जीवन-साथी को लुभाने के लिए ही न ? पर मुझे तो तुम्हारा वास्तविक रूप-सौन्दर्य अधिक आकर्षित करता है ! "

"ठीक है ! आगे से ध्यान रखूँगी ! " यह कहकर मैं कमरे से बाहर निकल गयी |

विवाहोत्सव के खोड़िया-कार्यक्रम से लौटकर मैने सारा बनावटी बाना उतार फेंका | मेरे पति अभी तक घर पर ही थे | कृत्रिम सौन्दर्य-प्रसाधनों से मुक्त होकर ज्यों ही मैंने कमरे में प्रवेश किया, मुस्कुराते हुए उन्होंने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया | हृदय की अतल गहराई में सदियों से सोया हुआ उनका प्रेम जैसे आज अचानक उमड़ आया था | मैंने मुस्कुराते हुए शरारती अंदाज में कहा — "आज इतना प्यार कैसे ?"

" कृत्रिम साधनों से वास्तविक सौन्दर्य ढक जाता है । जब बनावटी सुन्दरता प्रस्तुत की जाती है, तब जो प्रेम प्रकट किया जाता है, वह भी बनावटी और सतही होता है, हृदय की गहराई से उमड़ने वाला नहीं ! " पति ने माधुर्य-भावपूर्ण शैली में कहा |

कुछ दिन पश्चात् करवाचौथ का त्यौहार था | त्योहार के उपलक्ष्य में सभी सुहागिन स्त्रियों ने नए—नए गहने और कपड़े खरीदे थे | मेरे वैवाहिक जीवन की यह पहली करवा चौथ थी, लेकिन मैंने इसके लिए कोई विशेष तैयारी नहीं की थी | मेरे हृदय में सजने-सँवरने का ऐसा उत्साह नहीं था जैसाकि गाँव की अन्य सुहागिन स्त्रियों में था, क्योंकि मैं करवाचौथ के व्रत में वैज्ञानिक तथ्य की तलाश कर रही थी |

शाम को पूजा के लिए मोहल्ले की सभी स्त्रियाँ एक स्थान पर एकत्रित हुई | उस समय सभी ने नये—नये वस्त्र—आभूषणों पहने और सज-सँवर कर अपने सौंदर्य का प्रदर्शन किया | मैं नितांत सामान्य वेशभूषा में थी | सौंदर्य प्रसाधन से रहित, हर दिन की तरह ही | यद्यपि मेरे उस समाज की सभी स्त्रियाँ मुझे उपेक्षा से देख रही थी, तथापि मैं आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी और सभी की दृष्टि का केंद्र बिंदु मैं ही बनी हुई थी | उस समय मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि अपनी सादगी के कारण मैं उन सबकी ईर्ष्या का पात्र बन गई हूँ ! तभी एक स्त्री ने कूट संकेत करके मेरा उपहास करते हुए हुए कहा —

"सब दिन रंगी-चंगी त्योहार के दिन भूखी-नंगी !" उस स्त्री के शब्द मुझे काँटे की तरह चुभे थे ; मुझे उस पर क्रोध भी आ रहा था लेकिन, मैंने शालीनतापूर्वक कहा—

" मेेरे पति को मैं साज-शृंगार के बिना ही ज्यादा अच्छी लगती हूँ , उन्हें मेरा सादा जीवन उच्च विचार अधिक पसंद है !" मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा | लेकिन उनके दृष्टिकोण में कोई फर्क नहीं आया | उन सभी ने मेररे उत्तर का उपहास करते हुए कहा ——

" पैसे बचाने का अच्छा तरीका निकाला है, तेरे पति ने !"

उनके उपहास को निराधार सिद्ध करने के लिए मैंने अपने मत के पक्ष में उनके समक्ष अनेक तर्क प्रस्तुत किये कि विज्ञान के इस युग में हमें अपने बुद्धिबल, धनबल और समय का अपव्यय सजने-सँवरने में नहीं करना चाहिए, बल्कि अपनी सारी शक्तियों का उपयोग रचनात्मक कार्यों के लिए करना चाहिए, ताकि हमारा व्यक्तित्व प्रभावशाली बन सके | लेकिन अपने प्रयास में मैं असफल ही रहीं | उनके पास तर्क नहीं थे, परंतु विजय-पराजय का भेद वे भली-भाँति जानती थी, इसलिए परम्परा का आश्रय लेकर वे अपने कुतर्को पर अड़ी रही | जब तक हम साथ-साथ रहे, मैं उन्हें आधुनिकता का पाठ पढ़ाती रही, वेेे मुझे परम्परा की रक्षा का महत्त्व समझाती रही और अन्त तक हम दोनों ही अपने-अपने मतों पर दृढ़ बने रहे |

समय बीतता रहा | धीरे-धीरे कंप्यूटर और इंटरनेट का युग आ गया | मेरी विचार दृष्टि सकारात्मक दिशा में युगानुरूप विकसित होती रही और मैं रूढ़िवादी समाज से कदम कदम पर उपेक्षा की शिकार होती रही | उस घटना के बीस वर्ष पश्चात् हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी मेरे ऊपर व्यंग्य बाणों की वर्षा हुई | लेकिन विडंबना का विषय यह था कि इस बार घटना—स्थल एक विश्व विद्यालय था | उस दिन भी करवा चौथ का त्यौहार था | सभी प्राध्यापक स्टाफ रूम में बैठे हुए थे | सामान्य दिनों की तरह मेरी सामान्य वेशभूषा को देख कर एक पुरुष प्राध्यापक ने मुझसे कहा —

"मैडम, आप करवा चौथ का त्यौहार नहीं मनाते हैं ?"

"मनाते हैं !" मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया |

"आपकी वेशभूषा को देखकर ऐसा लगता तो नहीं है ! हाथों में मेहंदी तक नहीं लगाई है आपने तो !" पुरुष प्राध्यापक में उपहास की मुद्रा में कहा |

"सादगी से मनाती हूँ, दिखाती नहीं हूँ !" मैंने उदासीन भाव से उत्तर दिया |

"मैडम बहुत मितव्ययी है, पति का पैसा बचाती है, खर्च नहीं करती हैं !" एक महिला प्राध्यापक ने मजाक उड़ाते हुए ठहाका लगाया | "

"दस-बीस हजार तो कम करते-करते तब खर्च हो जाता है, जब मुठ्ठी बाँधकर खर्च करते हैं ! पर लगता है, मैडम ने तो करवाचौथ के नाम का एक भी पैसा...!"इस बार दूसरी महिला प्राध्यापक ने ठहाका लगाते हुए कहा | उसके बाद स्टाफ रूम में बैठे अधिकांश महिला-पुरुष प्राध्यापक अपनी-अपनी रूढिवादी टिप्पणियों के रूप में व्यंग्य बाणों की वर्षा कर—करके हँसने लगे | अब मेरे पास दो ही विकल्प थे— बिना संघर्ष किये उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेना अथवा संघर्ष करना | मैंने संघर्ष करना ही अधिक उचित समझा और अपने नये-पुराने तर्कों को उनके रुढ़िवादी ढकोसलों के विरुद्ध हथियार बनाया | रसायन विज्ञान की प्राध्यापिका तेजस्विनी मेरे सभी तर्कों से सहमत थी | मेरे पक्ष को प्रबल बनाते हुए वह दृढ़ता से मेरे साथ आ खड़ी हुई | उसने उन सबको धिक्कारते हुए कहा —

"विज्ञान कितनी भी उन्नति कर ले ; जमाना कितना भी बदल जाए ; दुनिया मंगल ग्रह पर पहुँचे या चंद्रमा पर, आप तो वही ढाक के तीन पात रहेंगे !" तेजस्विनी के प्रभावशाली वक्तव्य ने कई प्राध्यापकों को निरुत्तर कर दिया था | मैंने अनुभव किया कि तेजस्विनी ने जो कुछ भी कहा है, समाज के बहुत बड़े वर्ग के संदर्भ में वह अक्षरशः सत्य है | आज जब मेरी तार्किक विचार-दृष्टि का शिशु पूर्ण परिपक्व होकर प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त हो चुका है, तब मैं अनुभव करती हूँ कि साक्षर-निरक्षर और शहर-गाँव में भेद किए बिना आज भी हमारे समाज में अनेक ऐसे लोग हैं, जो इक्कीसवीं शताब्दी में भी ढाक के तीन पात की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं |

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