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टारगेट

टारगेट

शहर के मुख्य रास्ते पर जाम लगा हुआ था। एक प्राइवेट चालक ने एक पैदल चल रहे आदमी और उसका हाथ पकड कर चल रही उसकी दस साल की बेटी को कुचल डाला था। इन दोनों को कुचलने के बाद बस का ड्राईवर बस छोडकर कहीं भाग गया था। बस बीच सडक पर खडी रह गयी।

कुचले पडे आदमी और उसकी बेटी अभी तक सडक पर ही पडे थे। पिता की तो मौत हो चुकी थी लेकिन बेटी अभी तक सांसे ले रही थी। किन्तु उसकी हालत बेहद गंभीर थी। किसी भले आदमी ने यह सब देख जल्दी से पुलिस को इस सब की सूचना दे दी। किन्तु कोई आदमी उस तडप रही बच्ची की मदद न कर सका।

पुलिस ने आते ही एम्बूलेंस बुलाई और उस आदमी और उसकी बच्ची को अस्पताल भिजवा दिया। इसके बाद पुलिस ने किसी तरह धकेलवा कर बस को सडक के किनारे कर दिया, जिससे सडक पर लगे जाम में थोडी राहत मिल सके। बस के सडक से हटते ही जाम खुल गया और लोग सामान्य हो फिर से उसी गति से चलने लगे।

बस के नम्बर से पुलिस ने पता लगाया तो पता चला कि बस शहर के मशहूर ट्रासपोर्ट कम्पनी की है और ये बस रोज ही इस रूट पर चलती है। ट्रासपोर्टके मालिक की दरोगा से बात हुई। दरोगा ने ड्राईवर के बारे में छानबीन की। लेकिन ट्रासपोर्ट के मालिक ने दरोगा को आश्वस्त किया कि वो ड्राईवर को थाने भेज देगा लेकिन दरोगा उसे तंग न करे।

साथ ही उसे जल्द से जल्द इस मामले से मुक्त कर दे। बल्कि मामला भी थोडा ढीला ही बनाये, जिससे ड्राईवर को जल्द राहत मिल सके। दरोगा जी जानते थे कि ट्रासपोर्टके मालिक की बात मानने पर उसे फायदा होगा। उन्होंने ऐसा ही किया। उधर अस्पताल में पिता को तो जाते ही मृत घोषित कर दिया था, थोडी ही देर बाद बच्ची भी दुनिया को छोडकर चली गयी।

बच्ची का आधा धड बस के पहिये के नीचे आ गया था, अगर वो बच भी जाती तो जिन्दगीभर अपने पैरों पर नही चल सकती थी। दोनों के मर जाने पर पुलिस ने इनके घरवालों का पता लगाना शुरू कर दिया। आदमी की जेब में रखी डायरी में से नम्बर निकाल निकाल कर पता किया गया। फोन उठाने वाले ने इस आदमी के बारे में पुलिस को पूरी सूचना दे दी।

आदमी का नाम रामदास था, साथ में मृत पडी उसकी छोटी बेटी थी। इससे बडा एक बेटा भी था। घर में पत्नी और माँ भी साथ ही रहते थे। पुलिस के द्वारा जब घर पर खबर की गयी तो रामदास की पत्नी और माँ रामदास के लडके के साथ भागे चले आये। इन लोगों को तो यकीन ही न होता था कि ऐसा कुछ हो गया है।

कुछ ही समय पहले रामदास घर से आये थे। तब कौन कह सकता था कि यह सब हो जायेगा। बूढी माँ अपने मृत पडे बेटे को देखने की हिम्मत नही कर पा रही थी। रामदास की पत्नी का रोते चीखते बुरा हाल था। रामदास का बेटा भी अपने मृत पिता और छोटी बहन को देख माँ के साथ रोये जा रहा था।

रामदास घर से अपनी बेटी को स्कूल की किताबें दिलाने निकले थे। आज रविवार था। बेटी सुबह से ही अपने पिता से किताबें दिलाने की जिद कर रही थी। कहती थी, “पापा आप भैया की किताबें ले आये लेकिन मेरी किताबें दिलाने नही जाते।”

रामदास बेटी से बहुत प्यार करते थे। जब बेटी ने इतनी जिद की तो घर से बिना खाये ही उसे किताब दिलाने निकल पडे। लेकिन जब तक बेटी को किताबें दिला पाते तब तक तेज गति से आती बस ने दोनों को कुचल दिया। जबकि रामदास अपनी बेटी के साथ सडक के किनारे पर चल रहे थे। बस चालक ने सडक के किनारे भी इन लोगों को न छोडा।

रामदास इसी शहर में किराये के एक मकान में अपने छोटे परिवार सहित रहते थे और यहीं की एक निजी कम्पनी में काम करते थे। रामदास के मरने के बाद घर में कोई ऐसा न था जो कहीं काम कर कुछ कमा सके। शायद बेटे की ठीक से पढाई के भी लाले पडने थे। निजी कम्पनी में तो कोई पेंशन या फंड बोनस भी नही मिलता, जिससे आदमी के मरने के बाद उसके परिवार को किसी तरीके की आर्थिक मदद मिल सके।

सरकार भी उन लोगों को ही आर्थिक मदद देती है जो सडक पर मृत व्यक्ति का पार्थिव शरीर रखकर चक्का जाम कर देते है, या कोई चुनाब करीब होता है। लेकिन बस से हुई दुर्घटना में उस ड्राईवर की इतनी गलती नही थी जितनी उस बस के मालिक की थी। शहर में चलने वाली सभी निजी बसों की यही हालत हाती है। उनकों एक तय समय सीमा के साथ रास्ते पर आने और जाने का सख्त फरमान होता है।

बस का मालिक दोतीन जगह अपने अपने आदमी भी लगा देता है। जिससे निगरानी रखी जा सके। अगर बस तय समय से लेट हुई तो ड्राईवर की मामूली तनख्वाह से भी पैसा काट लिया जाता है। ज्यादा देर होने पर ड्राईवर को अपनी नौकरी तक से हाथ धोना पडता है। बुरी बुरी गालियां दी जाती हैं।

ड्राईवर अपनी तनख्वाह की कटौती और गाली गलौल तथा नौकरी से छुट्टी से बचने के लिये बस को अंधाधुंध गति से भगाता है। उसे यह भी लगता है कि अगर वो समय से पहुंच गया तो मालिक उससे और ज्यादा खुश हो जायेगा। जबकि मालिक को जल्दी आने वालों से ज्यादा देर से आने वालों को गाली सुनाने का शौक होता है।

ड्राईवर को काम पर रखते समय यह भी हिदायत दी जाती है कि अगर कहीं बस से टक्कर हो जाय तो वे लोग बस को वहीं पर छोडकर भाग आयें। जिससे पब्लिक उन्हें पीट न सके और पुलिस तीव्र तरीके से उन पर शिकंजा न कस सके। बस का तो इंश्योरेंस होता है, अगर काई बस में आग भी लगा दे तो भी बस मालिक को काई फर्क नही पडता। बाकी पुलिस से हुई सेटिंग सब कुछ आसान कर देती है।

और ये हालत सिर्फ प्राइवेट बसों के नही हैं, इसमें सरकारी रोडवेज बसें भी शामिल हैं। उन्हें प्रति किमी के हिसाब से काम का पैसा दिया जाता है। संविदा पर रखे गये लोग बसों को तूफानी गति से दौडाते हैं। जिससे कम समय में ज्यादा किलोमीटर बस चल सके और उनके ज्यादा से ज्यादा रूपये तैयार हो सकें। मतलब ज्यादा तेज चले तो ज्यादा पैसा बन जायेगा।

जब ये लोग शहरों में बसों को लेकर निकलते हैं तो ऐसा लगता है मानो ये कहीं भागकर जाना चाहते हैं, या ये लोग किसी संकट से घिरे हुये हैं। या फिर इनको पीछे से कोई डराता हुआ आ रहा है। इतना तेज और जल्दबाजी से तो मरीजों को ले जा रही एम्बूलेंस भी नही भागती। एम्बूलेंस को कोई रास्ता दे न दे लेकिन सामने रोडवेज को देख लोग ऐसे हटते हैं मानो उनके ऊपर ही चढ जायेगी।

हर रोज कोई न कोई इन्हीं कारणो से अपनी जान गंवा देता है और हजारों लोग रोज इन बसों की गति से अपने आप को मौत के मुंह में देखते दिखाई देते हैं। इन बसों को दिया गया किलोमीटर और समय का टारगेट ऐसा लगता है मानो लोगों को मारने का टारगेट हो। इतनी दुर्घटनाओं के वावजूद भी इन लोगों पर कोई असर नही पडता। और न ही सरकार इन लोगों का कुछ कर पाई है।

(समाप्त)