Such Abhi Zinda Hein (Bhag -2) books and stories free download online pdf in Hindi

Such Abhi Zinda Hein (Bhag -2)

सच अभी जिंदा है

भाग — 2

अशोक मिश्र

प्रिय पप्पू को

जो किसी शरारती बच्चे की तरह जीवन की राह में

खेलते—कूदते एक दिन साथ छोड़कर चला गया।

© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

सच अभी जिंदा है

‘काफी तेज तर्रार और इंटेलिजेंट लड़का है, सर। जब मैं सारिका में था, तो उन दिनों यह फ्रीलांसर था। पत्राकारिता में तब यह नया—नया आया था। इसकी मेहनत और काम देखकर मैंने प्रोत्साहित किया। मेरे एक पत्राकार मित्रा उन दिनों दिल्ली में अखबार निकालने वाले थे। उनसे कहकर इसे उस अखबार में लगवा दिया था।' चतुर्भुज शर्मा उसकी खूबियां बता रहे थे, ‘अब आप चाहें, तो इसका इंटरव्यू ले सकते हैं। वैसे मैं बताउं+, सर। अपने अखबार के लिए यह काफी योग्य साबित होगा। मैं किसी इनकाम्पिटेंट परसन को अपने अखबार के लिए रिकमंड नहीं करने वाला। यह बात आप भी अच्छी तरह से जानते हैं।'

राय साहब ने बलिराम के रेज्यूमे पर निगाह दौड़ाई। फिर फाइल आगे सरका दी, ‘तुम कविता भी लिखते हो?'

‘जी हां सर...मेरे दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।' बलिराम के स्वर में सावन—भादों की बदली उत्साह बनकर बरसने लगी थी। उत्साह की बरसात में भीगे शर्मा दिक्कत महसूस करने लगे। उन्हें पता था, राय साहब को कविता से बड़ी चिढ़ थी। रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित होने वाली कविताओं का अक्सर विरोध किया करते थे। शर्मा कविताओं के प्रकाशन की मजबूरी बताकर हमेशा उन्हें शांत कर देते थे।

‘किस तरह की कविताएं लिखते हो?'

‘मैं समझा नहीं, सर!'

‘मेरा मतलब है, कैसी कविताएं लिखते हो?'

‘सर...मैं समसामयिक विषयों पर लिखता हूं। पहाड़, प्रकृति, झरने, प्रदूषण, शोषण—दोहन...मेरे कहने का मतलब यह है सर...समाज और समाज से जुड़े सभी मुद्दे मेरे काव्य के वर्ण्य विषय हैं।' बोलते समय बलिराम के स्वर में अजीब—सा कशमकश उभर आया था। वह उसके अति उत्साह और राय साहब की अरुचिपूर्ण सवालों की टकराहट से पैदा हुआ था। वह पहले तो यही नहीं समझ पा रहा था, राय साहब के बेतुके सवालों का क्या जवाब दे। वह उनके अखबार में नौकरी मांगने आया था। उससे पत्राकारिता से जुड़े सवाल करने की बजाय कविता से संबंधित अनर्गल सवाल किए जा रहे थे।

‘कविता और पत्राकारिता में तालमेल कैसे बैठेगा?' राय साहब का अगला सवाल था।

‘सॉरी सर! मैं एक बार फिर आपका मंतव्य नहीं समझ पाया।'

‘मैंने तो सुना है, कवि मूडी होते हैं। वे कविता तभी लिखते हैं, जब उनका मूड होता है। पत्राकारिता की प्रवृत्ति इसके विपरीत है। अब अगर काम के दौरान आपका मूड कविता लिखने का हो गया, तो फिर क्या होगा?' राय साहब ने अपनी समझ से पूरी तरह उसे घेर लिया था।

बलिराम का मन हुआ, वह ठहाका लगाकर हंस पड़े। उसने अपनी सदिच्छा पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया। उसने स्वर विनम्र रखते हुए कहा, ‘सर...काव्य सृजन मेरा शौक है। पत्राकारिता मेरा पेशा। एक से आत्मिक संतुष्टि मिलती है। दूसरी से मेरा और मेरे परिवार का पेट पलता है। शौक और पेशा दोनों अलग—अलग चीजें हैं। इसमें घालमेल कहां संभव है? आप निश्चिंत रहें, सर। मैं ड्यूटी के दौरान कविताएं नहीं लिखता।'

‘शर्मा जी, पता नहीं क्यों, मुझे कवियों को देखकर चिढ़—सी महसूस होती है। समाज के जितने भी निकम्मे हैं, कवि हो जाते हैं। कुछ काम नहीं मिला, समाज में अपनी उपयोगिता नहीं सिद्ध कर पाए, कवि हो गए। सोचो...अगर निराला, सुमित्राानंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त आदि कविता रचने के बजाय दूसरे कार्य करते, तो कितना आगे जाते? आखिर क्या पा गए पोथी—पोथी भर कविता लिखकर? निराला तो जीवन भर गरीबी भोगकर ही मरे। कोई सुख नहीं मिला। ऐसे जीवन का क्या फायदा?'

‘सर...अगर इजाजत हो, तो मैं कुछ कहूं?' बलिराम ने राय साहब पर निगाह डाली। राय साहब की स्वीकार में हिलते सिर को देखकर उसने कहना शुरू किया, ‘कवि... न तो कर्म विमुख होता है, न ही किसी को कर्म विमुख होने की प्रेरणा देता है। वह समाज को नई ऊर्जा, नई दिशा और जीने का लक्ष्य प्रदान करता है। जिस दिन कविता मर जाएगी, यह मानव समाज मर जाएगा। कविता सांसों में संगीत और सुगंध का वाहक होती है।' बलिराम का स्वर किंचित तेज हो गया था जिसे चतुर्भुज शर्मा ने भी महसूस किया।

शर्मा ने हस्तक्षेप किया, ‘बलराम ऐसा नहीं है। कम से कम मैं इसकी गारंटी ले सकता हूं।'

‘शर्मा जी, आपको याद है न! सात—आठ महीने पहले आपने ही एक लड़के को रखवाया था। उसे बाद में निकालना पड़ा था। वह भी कवि था। काम बीच में रोककर तुक मिलाने लगता था। उसके इंचार्ज ने उससे काम के दौरान कविता लिखने से मना किया, तो वह इंचार्ज से ही भिड़ गया। चार—पांच महीने में ही उसने इतनी अराजकता फैलाई कि अंततः निकालने का फैसला करना पड़ा।' राय साहब ने संपादक को याद दिलाने की कोशिश की।

‘सर, बीच में बोलने के लिए माफी चाहता हूं। किसी एक व्यक्ति के कृत्य के लिए सभी कवियों को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। हालांकि, आजकल हिंदुस्तान में एक चलन—सा हो गया है। मुस्लिम आतंकवादियों के चलते देश के सभी मुसलमान राष्ट्र विरोधी समझे और माने जाते हैं। माना कि सौ में से एकाध मुस्लिम राष्ट्रविरोधी हैं। इन एकाध लोगों के कृत्य की सजा बाकी मुसलमानों को कैसे दी जा सकती है? ऐसा करना क्या जायज होगा? मुसलमान भी उतने ही राष्ट्रभक्त हैं, जितने हिंदू या हिंदूवादी संगठन के लोग।' बलिराम का स्वर सामान्य होते हुए भी दृढ़ था। उसने कहा, ‘सृजन चाहे जैसा हो, कभी हेय नहीं होता। भले ही वह काव्य सृजन हो या मिट्टी के पात्राों का सृजन।'

चिंतामणि राय ने बलिराम से कई सवाल पूछे। पत्राकारिता और निजी जीवन से संबंधित। कुछ देर बाद चतुर्भुज शर्मा ने बलिराम को रिसेप्शन पर बैठकर इंतजार करने को कहा। दस मिनट बाद संपादक शर्मा ने उसे अपनी केबिन में बुला लिया।

बलिराम के आते ही चतुर्भुज शर्मा ने लगभग डपटने वाले लहजे में कहा, ‘मान्यवर! काव्य सृजन भले ही कभी सम्माननीय रहा हो, आज के युग में इसे डी मेरिट माना जाता है। खासकर पत्राकारों के लिए। कुछ दशक पहले तक अखबारों में साप्ताहिक परिशिष्ट वगैरह निकालने के लिए साहित्यकार और कवि भर्ती किए जाते थे। अब जमाना मैनेजरों का है। आज मालिकों को संपादक नहीं, मैनेजर चाहिए, जो खबरों को मैनेज करना जानते हों, जो खबरों को बेच सकें। अखबार का खर्चा निकाल सकें। मालिक के हितों के लिए शासन—प्रशासन के बीच तालमेल बिठा सकें। उनके हितों को साध सकें।'

‘सर...खबरों में भावों का आवेग, भाषा का लालित्य और मानवीय अनुभूतियां मैनेजर कहां से लाएंगे? यह काम तो एक साहित्यकार, कवि या कलाकार ही कर सकता है? यही वजह है कि आज अखबारों में छपने वाली बलात्कार की खबरें पाठकों में जुजुप्सा या घृणा का भाव नहीं पैदा करती हैं। उन्हें ऐसी खबरें पढ़कर आनंदानुभूति होती है।'

‘भाषा के लालित्य, भावों की संप्रेष्णीयता और मानवीय अनुभूतियों से न तो अखबार के मालिकों का कोई लेना—देना है, न ही पाठकों को। उन्हें बस सीधी—सादी, आम बोलचाल की भाषा में सूचनाएं चाहिए। विद्वता पूर्ण लेख और उबाऊ दर्शन कब के नकारे जा चुके हैं। तुम्हें मेरी इस बात को ध्यान में रखना होगा। और हां, काफी मुश्किल से राय साहब को तुम्हारे मामले में मना पाया हूं। वे तुम्हारी वर्तमान सेलरी से दो हजार रुपये ज्यादा देने को तैयार हो गए हैं। तुम चाहो, तो आज से ज्वाइन कर सकते हो।' चतुर्भुज शर्मा ने झल्लाते हुए कहा।

सुप्रतिम जब डायरेक्टर चिंतामणि राय के पास पहुंचा, चतुर्भुज शर्मा और बलराम जा चुके थे। सुप्रतिम ने चिंतामणि राय के चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘सर! आपने मुझे बुलाया?'

चिंतामणि ने फाइल बंद करते हुए कहा, ‘हां...बैठो।'

सुप्रतिम ने सामने पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए चिंतामणि पर निगाह डाली।

‘दो हफ्ते बीत गए, अब तक बिजली का लोड कम नहीं हुआ। यह मामला कब तक सुलझेगा? एकाएक लोड बढ़ जाने से किसी दिन मशीन बैठ गई, तो तुम समझना। उस दिन एक भी अखबार नहीं छप पाएगा। तुम लोगों को इतनी मोटी—मोटी तनख्वाह देता हूं, कुछ तो काम करो। दो दिन पहले एक मामूली इंस्पेक्टर मुंह उठाए बंगले पर पहुंच गया। कहता था कि मेरे पड़ोसी रामबाबू दीक्षित ने कंप्लेंट लिखाई है। उसके जान—माल को मुझसे खतरा है। कितनी बार तुम लोगों से कहा है कि बिजली विभाग वालों से कहकर उस पर लाख—दो लाख बिजली का बिल भिजवा दो। हाउस टैक्स, वाटर टैक्स भी इतना भिजवा दो कि वह भाग खड़ा हो। उस पर जितना हो सके, उतना दबाव बनाओ। उसको किसी भी तरह कालोनी छोड़कर भागना चाहिए। तुम सब एक मामूली—सा काम नहीं कर पाए। उल्टे वह थाने में कंप्लेंट करके एक तरह से मुझे ही प्रताड़ित कर रहा है।' चिंतामणि राय रोष से भर उठे। अपने कलीग से चीख—चीखकर बातें करने वाला सुप्रतिम चुपचाप बैठा सुन रहा था।

‘सर, लोड कम करने वाले मामले में अधिशाषी अभियंता दीपक पांडेय से बात की थी। पांडेय का कहना है कि एक उपभोक्ता के लिए पूरे इलाके का लोड कम नहीं किया जा सकता है। यह अन्य उपभोक्ताओं से सरासर नाइंसाफी होगी। चिनहट में बीसियों फैक्ट्रियां हैं। उन्हें ग्यारह हजार केवी से कहीं अधिक लोड चाहिए।'

‘मैंने फालतू की दलील सुनने को तुम्हें नहीं बुलाया है। प्रिटिंग प्रेस को सप्लाई की जाने वाली बिजली का लोड कम होना है, तो होना है। मैं करोड़ों की प्रिंटिंग मशीन तुम्हारी थोथी दलीलों के चलते नहीं फुंकवा सकता। लोड कैसे कम कराना है, यह तुम जानो। और उस रिटायर्ड अध्यापक रामबाबू दीक्षित का क्या होगा? वह ऐसे ही छाती पर मूंग दलता रहेगा?' राय साहब का स्वर लगातार तल्ख होता जा रहा था।

‘सर आपका जैसा निर्देश है, वैसा किया जा सकता है। शायद इसके लिए संपादक जी और समाचार संपादक जी न मानें। वे अपने रिपोर्टरों को ऐसा करने की अनुमति शायद न दें।' सुप्रतिम ने मौके का फायदा उठाया। अर्जुन बनकर उसने संपादक शर्मा और समाचार संपादक तिवारी पर निशाना साधा।

‘क्यों नहीं मानेंगे? आखिर वे तनख्वाह किस बात की लेते हैं? संस्थान का जिसमें भला हो, वह काम उन्हें करना ही पड़ेगा। यह संपादक का ही नहीं, सबका दायित्व है कि वह संस्थान का भला सोचे। मैं उनसे बात कर लूंगा।'

‘सर, दीक्षित वाला काम हो जाता। मैंने शिवाकांत से कहा था कि वह दीक्षित के घर आए दिन एक कांस्टेबल भिजवा दिया करे। कांस्टेबल दरवाजे पर जाकर उसे दो—चार गालियां देगा, तो तबीयत हरी हो जाएगी। बुड्ढे को तीन—चार फर्जी मामलों में फंसवा दो, नाचता रहेगा। चार बार थाना—कचहरी के चक्कर लगाएगा, तो सारे कस बल ढीले हो जाएंगे। लेकिन क्या करूं...? मेरी कोई सुनता ही नहीं है। शिवाकांत को शर्मा जी और तिवारी जी ने सिर पर चढ़ा रखा है।' सुप्रतिम ने एक बार फिर शर संधान किया। इस बार लक्ष्य शिवाकांत भी था।

सुप्रतिम की बात सुनकर चिंतामणि राय चुप रहे। वह कुछ सोचते रहे। इस बीच सुप्रतिम ने एक बार फिर लक्ष्य संधान किया, ‘सर! कुछ दिन पहले पत्राकार प्रत्युष त्रिापाठी को शिवाकांत ने मजबूरी में भले ही गिरफ्तार करवा दिया हो। उसके छूटने के पीछे भी उसी का हाथ था। शिवाकांत के पुलिस अधिकारियों से बहुत अच्छे संबंध हैं। वह चाहे तो दीक्षित पर दो—चार फर्जी मुकदमे यों ही दर्ज करवा सकता है। यह सब कुछ उसके बायें हाथ का खेल है। वह इस मामले में किसी की सुने, तब न!'

‘तो फिर दिक्कत क्या है? शिवाकांत से कहकर देखो। अगर नहीं माने, तो फिर देखा जाएगा।' राय साहब कुर्सी पर अधलेटे हो गए थे।

‘कोशिश करता हूं। शायद न माने। उसकी छूटी खबरों और मनमानी को टार्गेट करके दबाव बनाने की कोशिश करता हूं।' सुप्रतिम ने खबरों के छूटने और मनमानी करने की बात उठाकर शिवाकांत की छवि धूमिल करने की एक और कोशिश की।

‘ऐसा करो...तुम इस मामले को छोड़ो। बस, लोड कम कराने का मामला देखो। शिवाकांत का जिम्मा शर्मा जी को सौंपता हूं।' इतना कहकर राय साहब ने इंटरकाम का बटन दबाकर चतुर्भुज शर्मा से बात कराने को कहा। सुप्रतिम को जाने का इशारा किया। सुप्रतिम बाहर आ गया।

लखनऊ विश्वविद्यालय से निकलकर शिवाकांत हनुमान सेतु के रास्ते पर बढ़ा ही था कि मोबाइल फोन बज उठा। उसने अपनी गाड़ी ‘हनुमान' मंदिर के पास रोक ली।

फोन पर सुप्रतिम पूछ रहा था, ‘शिवाकांत...इस समय तुम कहां हो?'

‘हाय हनुमान की बगल में...'

‘तुम्हारे साथ कौन है?'

‘कोई नहीं ...क्यों?'

‘तुम्हारे साथ किसी दूसरे अखबार की महिला रिपोर्टर भी है?'

सुप्रतिम की बात सुनकर शिवाकांत का मूड ऑफ हो गया। उसने तीखे स्वर में कहा, ‘आप जो पूछना चाहते हैं, वह साफ—साफ शब्दों में पूछिए। इस तरह आपको उतनी ही जानकारी मिल पाएगी, जो चुगली डाट काम ने दी होगी।'

‘नहीं...अक्सर तुम्हारे साथ कोई न कोई लड़की होती है, इसलिए पूछा। कई बार तुम्हारी एक्सक्लूसिव स्टोरियां लीक हो चुकी हैं। इससे शक होता है कि कहीं तुम उनसे डिस्कस तो नहीं करते हो? मेरी सलाह मानो, लड़कियों के साथ घूमना—फिरना बंद कर दो। मुझे मालूम है कि इस समय तुम्हारे साथ किस अखबार की महिला रिपोर्टर है। बाल—

बच्चेदार आदमी हो, अब तो कुछ लिहाज किया करो।' उधर से सुप्रतिम समझा रहा था।

‘मैं थोड़ी देर पहले किसके साथ था, अब किसके साथ हूं, किसके साथ खाता—सोता हूं। इससे आपको या संस्थान को कोई मतलब नहीं होना चाहिए। यह मेरा निजी मामला है। इसमें दखल देने का हक किसी को नहीं है। हां, अगर मैं अपने काम में किसी तरह की लापरवाही, कोताही बरतता हूं, खबरें छूटती हों, तो आप कहें।' शिवाकांत ने सड़क पर आ—जा रहे लोगों पर निगाह डाली।

‘अरे यार! कल तुम किसी कालगर्ल के साथ अय्याशी करो। कहो कि यह मेरा निजी मामला है, तो ऐसा थोड़े होता है। आप बदनाम होंगे, तो दैनिक प्रहरी की भी बदनामी होगी। आपके कार्यों से दैनिक प्रहरी की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगेगी। तुम्हारी पहचान दैनिक प्रहरी से है। तुम दैनिक प्रहरी के कर्मचारी हो।'

‘मिस्टर सुप्रतिम...आप पहले सोच लीजिए, आप बोल क्या रहे हैं और आपको बोलना क्या है? आप समझ नहीं रहे हैं कि क्या बोल रहे हैं। मेरे साथ जो भी होगी, वह कालगर्ल नहीं होगी। मेरे साथ होने वाली किसी भी लड़की को आप कालगर्ल कहकर बदनाम और अपमानित नहीं कर सकते।' इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

शिवाकांत ने एक बार बाबा नीम करौरी महाराज और फिर हनुमान मंदिर की ओर निगाह दौड़ाई। उसने मन ही मन सुप्रतिम अवस्थी को सद्‌बुद्धि देने की प्रार्थना की।

गोमती नदी के छोर पर पुराना लखनऊ बसा हुआ है। नए बसे दूसरे छोर पर बहुप्रतिष्ठित हनुमान मंदिर हिंदुओं की आस्था का केंद्र है। वैसे तो लखनऊ में हनुमान मंदिरों की एक अच्छी खासी संख्या है। इनमें से चार मंदिरों को विशेष महत्ता प्राप्त है। अलीगंज इलाके में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान के निकट स्थित हनुमान मंदिर काफी पुराना और ख्याति प्राप्त है। किंवदंती है कि सोलहवीं सदी में महाकवि तुलसीदास इस मार्ग से कहीं जा रहे थे। इन दिनों जहां मंदिर है, उसी स्थान पर उन्हें तेज प्यास लगी। वे प्यास से व्याकुल हो गए। उनकी प्राण रक्षा के लिए हनुमान जी पानी लेकर प्रकट हुए और उनकी प्यास बुझाई। इस घटना की याद में किसी मुसलमान ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया और उसे पूजा—अर्चना के लिए हिंदुओं को सौंप दिया। अब इसमें कितना सच है, कितना झूठ, नहीं कहा जा सकता। लोगों की आस्था है कि ऐसा हुआ था। पूरे हिंदुस्तान में शायद अलीगंज का एक मात्रा हनुमान मंदिर ऐसा है जिसके प्रवेश द्वार पर चांद बना हुआ है। सांप्रदायिक एकता का नायाब नमूना यह मंदिर सदियों से लोगों की श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। आजकल लोग इस मंदिर में विराजमान हनुमान जी को ‘सेकुलर' कहकर याद करते हैं।

इसके बाद नंबर आता है ‘हाय हनुमान' का जिनका मंदिर गोमती नदी के किनारे स्थित है। लखनऊ यूनिवर्सिटी की छात्रा—छात्रााएं वहां से गुजरते समय बाहर से ही ‘हाय हनुमान' कहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। एक हनुमान मंदिर हजरतगंज कोतवाली के सामने है। यहां विराजमान हनुमान जी प्रतिमा को वृद्ध और गृहस्थ के साथ—साथ युवा भी पूजते हैं। यहां के हनुमान जी को युवाओं के पूजने का तरीका थोड़ा अलग है। गंजिंग करने आए युवा श्रद्धानवत होकर बाहर से ही ‘हेल्लो हनुमान' कहते हुए निकल जाते हैं। समझ लेते हैं कि उनकी पूजा—अर्चना हो गई और उसे हनुमान जी ने स्वीकार भी कर लिया। यहां के हनुमान जी बड़े आदर और श्रद्धा के साथ ‘हेल्लो हनुमान' कहे जाते हैं। चौथे स्थान पर हैं अमीनाबाद में स्थापित हनुमान जी। इस हनुमान मंदिर में ज्यादातर गृहस्थ पूजा—अर्चना करने आते हैं जिसकी वजह से यहां के हनुमान जी का नाम पड़ा गृहस्थ हनुमान।

कितनी अजीब बात है कि जब छोटी—छोटी बातों को लेकर राजनीतिक दल, धार्मिक और जातीय संगठन देश का वातावरण विषाक्त बना रहे हों। वोटों की खातिर लोगों को लड़ा रहे हों। लाशों पर बैठकर सियासत कर रहे हों। ऐसे हालात में लखनऊ के हनुमान मंदिरों के इस नामकरण को लेकर कहीं कोई रोष नहीं है। ‘हाय हनुमान' या ‘हेल्लो हनुमान' कहने पर किसी की भावनाएं आहत नहीं होतीं। किसी को इस नामकरण पर किसी प्रकार की आपत्ति भी नहीं है। यह सब कुछ लखनऊवासियों के लिए एक मनोविनोद है, इससे इतर कुछ नहीं। यह नामकरण कब और किसने किया, यह कोई नहीं कह सकता है। यह बात लखनऊ में एकाध साल गुजार लेने वाला लगभग हर शख्स जानता है। इसे लखनऊ निवासियों की गंगा—जमुनी तहजीब का एक बेमिसाल नमूना ही कहेंगे कि वे यह सब कुछ जानते—बूझते हुए भी इसे गंभीरता से नहीं लेते। यही वजह है, आज तक कोई भी राजनीतिक दल या धार्मिक संगठन इसे मुद्दा नहीं बना पाया। लखनऊ में जेठ महीने के हर मंगलवार को जगह—जगह पानी और शरबत की छबीलें लगाई जाती हैं। इसमें बिना किसी जाति या धर्म का भेदभाव किए लोग उत्साह और श्रद्धा के साथ भाग लेते हैं। हर आने—जाने वाले को बड़ी तहजीब के साथ पानी या शरबत पेश किया जाता है।

शिवाकांत हजरतगंज स्थित कॉफी हाउस पहुंचा। उसने सोचा, क्यों न एक बार कॉफी हाउस में झांक लिया जाए। उसने सड़क के किनारे अपनी गाड़ी खड़ी की। चाबी को तर्जनी में नचाता हुआ आगे बढ़ा। तभी किसी ने पीछे से पुकारा, ‘भाई साहब! नमस्कार।'

उसने घूमकर देखा। कपिल यादव कॉफी हाउस से निकल रहा था। दैनिक प्रहरी में उप संपादक कपिल यादव दो साल से कानपुर से रोज अप—डाउन कर रहा था। रोज रात डेढ़—दो बजे पेज छोड़ने के बाद भागा—भागा चारबाग रेलवे स्टेशन पहुंचता है। कानपुर जाने वाली कोई भी ट्रेन पकड़कर कानपुर जाता है। दूसरे दिन दोपहर की ट्रेन पकड़कर लखनऊ आता है। पूरे ऑफिस में उसे लोग ‘अप—डाउन' कहकर चिढ़ाते हैं। वह मुस्कुरा देता है। उसकी मुस्कुराहट में कितनी बेबसी, हताशा, क्षोभ और गहरी वेदना है, इसको समझने—बूझने की जरूरत शायद किसी ने समझी हो। लोगों के पास अपने ही इतने गम होते हैं कि दूसरों के गम दिखाई नहीं देते। या जानबूझ कर लोग अनदेखी कर देते हैं।

निकट पहुंचकर शिवाकांत ने पूछा, ‘कल कानपुर नहीं गए थे क्या?'

‘गया था भाई साहब। अभी थोड़ी देर पहले ही तो लखनऊ पहुंचा हूं। मेरे एक मित्रा ने कॉफी हाउस में मिलने को कहा था, सो चला आया। निकल रहा था कि आप पर निगाह पड़ गई।' कपिल ने शिवाकांत से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘सर, इधर किसी खास काम से आए थे क्या?'

‘नहीं यार...बस यों ही चला आया। जानते हो, क्षुद्र ग्रहों की क्या प्रवृत्ति होती है? बिना किसी आधार, आकर्षण के अंतहीन अंतरिक्ष में भटकते रहते हैं। सामने कोई दूसरा क्षुद्र ग्रह आ गया, तो उससे टकरा गए। उस टक्कर में या तो नष्ट हो गए या फिर उनकी दिशा बदल गई। फिर निकल पड़े किसी एक और टक्कर की तलाश में। नहीं तो अंतहीन भटकाव तो उनके भाग्य में लिखा ही है। उद्देश्यहीन भटकता हुआ हजरतगंज आया था, तो सोचा कॉफी हॉउस की ओर ही झांक लूं। इधर आने पर कॉफी हॉउस में एक बार झांक लेना, पुरानी आदत है। यहां से क्या तुम ऑफिस जाओगे।' चाबी का गुच्छा अब भी शिवाकांत नचा रहा था।

‘हां...इसके अलावा और कहां जाउं+गा? मैं तो भाई साहब सांस भी लेता हूं, तो दैनिक प्रहरी के लिए। साप्ताहिक अवकाश को छोड़कर रोज सोकर उठने, जल्दी—जल्दी नहाने—धोने के बाद खाने को जो कुछ भी मिल जाता है, उसे भकोस लेता हूं। और फिर भागकर कानपुर सेंट्रल पहुंचता हूं। लखनऊ में आठ—दस घंटे की गुलामी के बाद फिर भागता हूं कानपुर की ओर। जानते हैं, यह सब कुछ पिछले दो साल से चल रहा है। भाई जी, अब तो शरीर ही नहीं, आत्मा तक थकने लगी है। उस पर सुप्रतिम अवस्थी की जली—कटी बातें आत्मा को छीलकर रख देती हैं। क्या करूं? दूसरी नौकरी नहीं मिलती कि आत्मा का क्लेष कटे।' कपिल की आवाज में दर्द था। लगा कि अभी रो देगा। वह रोया नहीं। रोने से उसकी समस्या सुलझने वाली तो थी नहीं।

‘तुम सोते कितनी देर हो? नौ—दस घंटे ऑफिस में बीतता है। मेरा ख्याल है कि आने—जाने में सात—आठ घंटे लग जाते होंगे। इतने ही घंटे बचते होंगे तुम्हारे पास। इसी में तुम्हारा खाना—पीना, सोना...सब कुछ होता होगा। कैसे कर पाते हो यार! वाकई तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी होगी। कई बार मित्राों के बीच तुम्हारी चर्चा चलती है, तो लोग ताज्जुब करते हैं। तुम यह सब कैसे कर लेते हो? तुम्हारे पास कोई अलौकिक शक्ति है क्या?' शिवाकांत का स्वर सामान्य नहीं था। उसे आश्चर्य था कपिल यादव की हिम्मत पर। उसकी पेट पालने की मजबूरी पर। उसकी पत्राकारीय निष्ठा पर। कपिल यादव की दशा देखकर उसे किसी का लिखा शेर याद आ गया, ‘मुझे रुकने नहीं देते ये मुसीबतों के पहाड़/मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते।' लेकिन कपिल तो बुढ़ा रहा है। असमय बुढ़ा रहा है। अभी उसके बुढ़ाने की कोई उम्र है, लेकिन बुढ़ा रहा है। उसकी भाग—दौड़, उसकी हफर—हफर काम करने की प्रवृत्ति उसे बुढ़ा रही है।

कपिल यादव ने शिवाकांत के साथ कदम मिलाते हुए कहा, ‘अब मैं आपसे क्या बताउं+? आते—जाते समय अगर ट्रेन में बैठने की जगह मिल जाए, तो थोड़ी देर झपकी ले लेता हूं। किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकती है, तो कुत्ते की तरह चौंक कर देखता हूं। कहीं आगे तो नहीं निकल गया। ट्रेन के टायलेट या वासवेशिन में आ रहे पानी से ही कई बार दाढ़ी बनाता हूं। कई दफा ट्रेन लेट हो जाती है, तो संपादक से लेकर सुप्रतिम अवस्थी तक चढ़ लेते हैं। मानो दुष्कर्म करके ही छोड़ेंगे। मुझे तो लगता है कि ये लोग या तो हृदयहीन हैं या फिर अंधे। तभी इन्हें मेरी दशा पर तरस नहीं आता है। कई बार अनुरोध कर चुका हूं कि मेरा तबादला कानपुर करा दो। कानपुर यूनिट में लोगों की जरूरत भी है। मैं यहां किराये पर कमरा लेकर रह पाने की स्थिति में नहीं हूं। हर बार ‘देखते हैं, कोई गुंजाइश बनती है, तो करते हैं' कहकर टाल दिया जाता है।'

‘यहां क्यों नहीं रह सकते? ऐसी मजबूरी है क्या?'

‘बात यह है, मेरी पत्नी भी कानपुर नगर पालिका में काम करती है। वह सुबह बच्चों के स्कूल जाने के बाद दफ्तर जाती है। दोपहर एक बजे बेटे—बेटी को उनके स्कूल से मुझे लाना पड़ता है। जानते हैं, भाई साहब...पिछले हफ्ते स्कूल जाने के बाद मेरी बेटी को बुखार चढ़ आया था। दोपहर में उसे लेने स्कूल गया, तो उसकी क्लास टीचर ने मुसे बुलाकर कर कहा, आप अपनी बेटी को प्यार नहीं करते हैं? इतनी तेज बुखार में स्कूल भेज दिया। टीचर की बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने सुप्रतिम को फोन करके छुट्टी मांगी, तो उन्होंने साथियों के अवकाश पर होने का बहाना बनाकर छुट्टी नहीं दी। उस दिन ऑफिस पहुंचा, तो देखा कि साप्ताहिक अवकाश वालों को छोड़कर सभी साथी ड्यूटी पर थे। मैंने यह बात सुप्रतिम को बताई, तो वह बेहयाई से हंस पड़ा था।'

‘कपिल बात यह है कि सुप्रतिम हों, प्रदीप तिवारी हों या फिर संपादक चतुर्भुज शर्मा, सभी अपने सीनियर की ‘पोतांबरी' करते हुए यहां तक पहुंचे हैं। संपादकों का अंडकोष थामते—थामते इतने हृदयहीन हो गए हैं कि ये सिर्फ इसी की भाषा समझते हैं। संघर्ष और प्रतिभा के बल पर आगे बढ़े होते, तो शायद ऐसा नहीं होता। तब ये दूसरों का दुख—दर्द समझते।' शिवाकांत का स्वर तिक्त हो उठा।

उसने कॉफी हाउस में खाली कुर्सियों पर कपिल को बैठने का इशारा किया और खुद एक खाली कुर्सी खींच ली, ‘पता नहीं, तुम जानते हो या नहीं। चतुर्भुज शर्मा से पहले दैनिक प्रहरी की लखनऊ यूनिट के स्थानीय संपादक थे अनिकेत वाजपेयी। बड़े भले मानुस और गुणग्राही। वे योग्य भी थे। न तो मैनेजमेंट से दबते थे और न ही मालिकों को इतना तवज्जो देते थे। मैंनेजमेंट और मालिक से लड़कर योग्य और पात्रा साथियों को इंक्रीमेंट या पदोन्नति दिलवाते थे। सुप्रतिम सबके सामने गाता फिरता था, ‘मैं तो वाजपेयी जी का सबसे खास चिंटू हूं। मैं संपादक जी का सबसे प्यारा चिंटू हूं।' वे इसकी बातें सुनते और हंसकर टाल जाते। जब सुप्रतिम की दाल नहीं गली, तो यह झट से मैनेजमेंट की गोद में जा बैठा। लगा मैनेजमेंट के सामने लगाने—बुझाने। छोटी से छोटी बातें मैंनेजमेंट तक पहुंचाई जाने लगीं। राय साहबों के कान भरे जाने लगे। एक दिन क्या हुआ कि चिंतामणि राय ने वाजपेयी जी से कुछ कहा, तो वे जवाब दे बैठे। राय साहब को यह सहन नहीं हुआ। उनके कान तो पहले से ही भरे जा चुके थे। कुछ दिन बाद वाजपेयी जी बेइज्जत करके दैनिक प्रहरी से निकाल दिए गए। वाजपेयी जी के बाद चतुर्भुज शर्मा स्थानीय संपादक बनाए गए। लोग कहते हैं कि वाजपेयी जी और शर्मा जी में कोई पुरानी लाग—डाट थी। यह बात जानते ही सुप्रतिम ने शर्मा जी का खास बनने के लिए कई लोगों के सामने वाजपेयी को ‘साला चिरकुट' कहा था। जाते समय सुप्रतिम अवस्थी के अमर्यादित व्यवहार पर अनिकेत जी ने पल भर अविश्वास भरी निगाहों से उसे देखा था। फिर चुपचाप कार्यालय से बाहर चले गए थे।'

पास से गुजर रहे वेटर को कॉफी लाने का आर्डर देने के बाद कपिल ने कहा, ‘यह बात मैंने किसी और के भी मुंह से सुनी है। उस घटना के बाद ही सुप्रतिम अवस्थी जनरल डेस्क के सेकेंड इंचार्ज बनाए गए थे। तीन—चार महीने बाद स्थानीय डेस्क के इंचार्ज लाल जी शुक्ल दूसरे अखबार में चले गए, तो सुप्रतिम को स्थानीय डेस्क की जिम्मेदारी अपमान करने के ईनाम स्वरूप सौंप दी गई।'

वेटर कॉफी लेकर आया। दोनों चुपचाप कॉफी पीने लगे। चार—पांच घूंट पीने के बाद शिवाकांत ने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘सुनो! एक मजेदार चुटकुला याद आया है। सुनाता हूं। एक शिकारी के पास चितकबरा कुत्ता था। शिकारी अपने कुत्ते के साथ जंगल जाता। एक पेड़ के नीचे आसन जमाता। उसका कुत्ता जंगल में घुसकर शिकार करता और उसे लाकर शिकारी के आगे डाल देता। एक दिन उधर से एक साधु महाराज गुजरे। उन्होंने शिकारी की काहिली और कुत्ते की कार्यकुशलता बड़े गौर से देखी, तो प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने शिकारी से कहा, भई, तुम्हारा कुत्ता तो बड़ा समझदार है। क्या नाम रखा है इसका?'

शिकारी ने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा, ‘महाराज, इसका नाम रिपोर्टर है।' साधु महाराज ने प्रसन्न होकर कहा, ‘तुम देखना, एक दिन यह कुत्ता काफी तरक्की करेगा।' इतना कहकर साधु महाराज चलते बने। संयोग से कई सालों बाद साधु महाराज फिर उधर से गुजरे। उन्होंने देखा, इस बार मामला बिल्कुल उलटा था। बूढ़ा शिकारी छोटे—मोटे जीवों का शिकार करने की कोशिश कर रहा है। चितकबरा कुत्ता बैठा सिर्फ ‘भुक्क—भुक्क' की आवाज करता हुआ भौंक रहा है। साधु महाराज को काफी आश्चर्य हुआ, ‘अरे, इसे क्या हुआ है?' शिकारी ने थके स्वर में साधु महाराज को प्रणाम करते हुए कहा, ‘महाराज! आपके आशीर्वाद से अब यह ‘संपादक' हो गया है।'

चुटकुला खत्म होते ही कपिल खिलखिलाकर हंस पड़ा। इस हंसी में शिवाकांत ने भी साथ दिया। दोनों काफी देर तक हंसते रहे। उनको हंसते देख आसपास बैठे लोगों ने उन्हें कुछ देर घूरा और फिर अपने में व्यस्त हो गए। इसके बाद दोनों चुपचाप कॉफी पीने लगे। कॉफी खत्म होने के बाद कपिल ने पूछा, ‘आप किधर जा रहे हैं?'

शिवाकांत मेज पर रखी गाड़ी की चाबी उठाता हुआ बोला, ‘मैं जा तो कहीं और रहा था। चलो तुम्हें ऑफिस के बाहर तक छोड़ देता हूं। एक स्पेशल स्टोरी सबमिट करनी थी। लेकिन सुप्रतिम की हरकत ने मन खट्टा कर दिया है। आज स्टोरी सबमिट नहीं करूंगा। भाड़ में जाए दैनिक प्रहरी और मां...सुप्रतिम अवस्थी।'

दोनों सिकंदराबाद चौराहे से वाईएमसीए की ओर मुड़े ही थे कि एक पत्थर आकर शिवाकांत के हेलमेट पर लगा। चौंक कर कपिल यादव ने अपने चेहरा शिवाकांत की पीठ से चिपका लिया। शिवाकांत ने गाड़ी रोक दी। सामने से एक सत्ताइस—अट्ठाइस वर्षीया युवती कुछ शरारती बच्चों को गालियां देती हुई उन पर पत्थर बरसा रही थी। आसपास पान की गुमटियों और चाय के ठेलों के इर्द—गिर्द खड़े लोग सिर्फ तमाशाई थे। बच्चे उसे मुंह चिढ़ाते हुए चिल्ला रहे थे, ‘पगली...पगली।' बच्चों में से चौदह साल का एक लड़का पगली का फटा—पुराना लहंगा पीछे से उठाकर भाग रहा था। पगली लड़कों को भद्दी—भद्दी गालियां दे रही थी। उसकी गालियां सुनकर बच्चे और तमाशबीन हंस रहे थे। शिवाकांत ने शरारती बच्चों को डपटा, तो वे भाग खडे़ हुए। राहत पाकर पगली बिजली के खंभे से टेक लेकर बैठ गई।

कपिल ने दया भाव से पगली पर निगाह डाली, ‘भाई साहब! ...इन पागलों की भी एक अजीब—सी दुनिया है। पागल होने या पागलों की दुनिया में खो जाने का अपना एक अलग ही आनंद है। मोहमाया से विरक्त। न परिवार की चिंता, न उसके पालन—पोषण की। एकदम विचारकों की तरह। शायद यही वजह है कि विचारक और पागल एक जैसे होते हैं। पागल बुद्धिमान होते हैं या बुद्धिमान ही पागल होते हैं, कह पाना बड़ा दुरूह है। बड़ी अजीब—सी गुत्थी है पागलपन और बुद्धिमानी को लेकर। सदियों से सुलझाने की कोशिश हो रही है। हजारों विचारकों, संतों और बुद्धिजीवियों ने अपना जीवन खपा दिया, लेकिन गुत्थी है कि वहीं की वहीं मौजूद। कई बार तो मुझे लगता है कि मैं भी एक पागल ही हूं। आपको क्या लगता है, शिवाकांत भाई?'

‘हां, दुनिया इन्हें पागल समझती है और ये पागल...अपने को छोड़कर पूरी दुनिया को पागल समझते हैं। अब सचमुच में पागल कौन है? यह कह पाना तो बड़ा मुश्किल है।' शिवाकांत हंस पड़ा, ‘इस पगली के बारे में सुनी—सुनाई बातें तुम्हें बताता हूं। पुलिस वाले कहते हैं, साली पागलपन का ढोंग करती है। दिनभर पगली बनी घूमती है। रात में धंधा करती है। कुछ लोग कहते हैं कि यह किसी अच्छे घर की...मेरा मतलब...किसी खाते—पीते घर की महिला है। शादी के बाद पति ने इसे इतना प्रताड़ित किया कि पागल हो गई। अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। बाद में पिता या पति कौन जाने, इसे यहां लाकर छोड़ गया। कोई इसे आईएसआई का जासूस बताता है, तो कोई सीबीआई का। सच क्या है? कोई नहीं जानता। इसके इर्द—गिर्द कुछ अफवाहें काफी दिनों से चक्रवात की तरह घूम रही हैं। कुछ कल्पनाएं हैं या फिर मनगढंत किस्से। पिछले चार—पांच साल में यह चार बार गर्भवती हो चुकी है, यह सच है। कोई भी अंधेरे—उजेरे में पकड़कर अपना मुंह काला कर लेता है। उसकी वासना का परिणाम यह नौ महीने तक ढोती है। इन्हीं सड़कों के किनारे किसी दिन बच्चे को जन्म देती है। इसके कुछ दिन बाद पता चलता है, उसके नवजात शिशु को कुत्ते नोच—नोचकर खा गए। आसपास की औरतें पगली से डरती हैं। कहती हैं, यह हर बार अपने बच्चे को खा जाती है। जब प्रसव वेदना से यह पगली छटपटाती है, तो बतकूचन करने वाली ये पढ़ी—लिखी औरतें इसके पास नहीं फटकती हैं। बस, अपने घर से निकल कर यह जरूर देख लेती हैं, पगली मर गई या जिंदा है। मुझे लगता है कि अपने नवजात शिशुओं को भूखे कुत्तों के आगे फेंककर अपने साथ बलात्कार करने वाले से प्रतिशोध लेती है। मुझे नोच खसोट कर अपनी हवस बुझाने वालों देखो...तुम्हारे अंश से उपजे इन नरपिंडों को तुम्हारी ही तरह कुत्ते नोच—नोच कर खा रहे हैं। रोक सकते हो, तो रोक लो।'

शिवाकांत बोलता चला जा रहा था, ‘एक मामले में मैं इस पगली का गुनाहगार हूं। आज से दो—तीन साल पहले की बात है। एक रात मैं करीब ग्यारह बजे डालीबाग से भैंसाकुंड की ओर जा रहा था। विधायक निवास से पहले पहुंचकर देखा, पगली किसी से गुत्थमगुत्था थी। उस आदमी की पैंट की जिप खुली हुई थी। वह पगली को सड़क के किनारे ही लिटाने की फिराक में था। गाड़ी की हेड लाइट पड़ते ही उस आदमी ने पगली को जोरदार धक्का दिया। अपनी पैंट संभालता हुआ बगलवाली गली में लापता हो गया। वह धक्का बर्दाश्त नहीं कर पाई। सड़क पर गिर पड़ी। पास जाकर देखा कि पगली के कपड़े अस्त—व्यस्त हैं। वह जमीन पर बैठी कराह रही है। मैंने उसे सहारा देकर उठाया। बैग में रखे बोतल से पानी पिलाया। गाड़ी की हेडलाइट के सामने लाने पर पता चला कि उसके होठ और गाल पर दांत से काटने के निशान हैं। मैं आगे कुछ करने की सोचता, तभी उसी गली से एक सिपाही निकला, जिधर वह बलात्कार की कोशिश करने वाला आदमी भागकर गया था। पास आने पर मैंने उससे सारी बातें बताकर पगली को किसी सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने का निवेदन किया।'

शिवाकांत सांस लेने के लिए पलभर रुका। कपिल बड़े मनोयोग से उसकी बातें सुन रहा था, ‘पुलिस वाले ने तपाक से कहा, भाई साहब...आप चिंता न करें। अब यह समझिए कि यह पगली बिल्कुल सुरक्षित हाथों में पहुंच गई है। सिपाही की आवाज सुनते ही पगली उठी और उसके मुंह पर थूकते हुए गुर्राई। सिपाही ने हंसते हुए कहा, भाई साहब...पागल की हरकतों का क्या बुरा मानना। मैं इसे बिल्कुल सही जगह पहुंचा दूंगा। सिपाही के आश्वासन पर मैं अपनी राह चला आया। लेकिन यह बात मेरे जेहन खटकती रही। आखिर पगली ने सिपाही के मुंह पर थूका क्यों? दो—चार दिन तक पगली मुझे नहीं दिखी। मैंने भी बाद में इस पर तवज्जो नहीं दिया। एक दिन जपलिंग रोड से गुजर रहा था, एक कंकड़ी मेरी पीठ से टकराई। मैंने पीछे मुड़कर देखा, पगली दूसरा कंकड़ या पत्थर उठाने को झुक रही है। मैंने तत्काल गाड़ी रोक दी। पगली को देखने लगा। मुझे अपनी ओर देखता पाकर पगली का आगे बढ़ा हुआ हाथ रुक गया। वह मुझे जलती हुई नजरों से देखती रही। मानो कह रही हो, तुम भी मेरे साथ हुए बलात्कार में बराबर के दोषी हो। बलात्कारी के हाथों सुरक्षा की कमान सौंपते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई। कपिल भाई...तब से एक बात मैंने महसूस की है। पगली मुझे जब भी देखती है, मेरी ओर पत्थर, कंकड़ या उसके हाथ में जो कुछ भी हो, फेंकती जरूर है। यह शायद उसके विरोध प्रकट करने का एक तरीका है। जब भी पगली ऐसा करती है, मुझे आत्मग्लानि होने लगती है। यदि किसी दिन पगली को रिवाल्वर मिल जाए और वह गोली चला दे, तो भी शायद मैं उसके सामने से न हटूं।' शिवाकांत के स्वर में पश्चाताप था।

शिवाकांत के पश्चाताप भरे स्वर का ताप कपिल यादव ने महसूस किया। उसे लगा, पगली को लेकर शिवाकांत का अनुताप जायज है। उसके दिल का बोझ कम करना भी जरूरी है। उसने शिवाकांत के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘उन परिस्थितियों में आप जितना कर सकते थे, किया। आप उसे अपने घर तो ले नहीं जा सकते थे। ज्यादा से ज्यादा सिपाही को न सौंपकर किसी दूसरे के हवाले करते। वह भी दुष्कर्म कर बैठता,

तो...? आप उसकी रक्षा हमेशा कर नहीं सकते थे। हां, पगली के मन में आपके प्रति गुस्सा, क्षोभ या कोई दूसरी भावना हो सकती है। ऐसे लोगों के मन में जो बात बैठ जाती है, वह आसानी से नहीं निकलती। एकदम पत्थर पर खींची गई लकीर की तरह हो जाती है।'

शिवाकांत बस गहरी सांस लेकर रह गया।

कपिल ने कहा, ‘सर...मैं आपको कानपुर के एक ऐसे ही पागल का किस्सा सुनाउं+? मैं जिस मोहल्ले में रहता हूं। उसी मोहल्ले में एक आदमी रहता था विजय। मां—बाप का इकलौता बेटा विजय काकादेव इलाके में फुटपाथ पर कपड़ों की दुकान लगाता था। तीस—बत्तीस साल की उम्र में उसकी शादी रोशनी से हुई। रोशनी थी भी अपने नाम के अनुरूप। लंबी, पतली, गोरी—चिट्टी रोशनी को पाकर विजय निहाल हो गया। बहुत प्यार करता था विजय अपनी रोशनी से। लेकिन रोशनी के मन को न भाया विजय। वह अपना मन उलझा बैठी विजय के दोस्त किशोरी लाल से। शादी की पहली वर्षगांठ के दिन ही वह किशोरी लाल के साथ भाग गई। विजय तो पागल हो गया। बाप का साया बहुत पहले ही उसके सिर से उठ गया था। बेटे का मानसिक संतुलन बिगड़ जाने से उसकी मां टूट गई। एक दिन इसी सदमे से उसकी मौत हो गई। विजय दिन भर इधर—उधर भटकता रहता। किसी ने कुछ दे दिया, तो खा लिया। कुछ पहनने को मिल गया, तो पहन लिया। नहीं तो उसका भी होश नहीं। पागलपन की दशा में भी वह अपनी पत्नी रोशनी को नहीं भूला। रोशनी जब किशोरी लाल के साथ भागी थी, उस समय वह आठ महीने की गर्भवती थी। उसका पेट निकला हुआ था। विजय के जेहन से यह बात नहीं निकली। वह कागज और पालिथीन बटोर कर अपनी बनियान, कमीज या जैकेट में आगे की ओर ठूंस लेता है। इन चीजों के भर जाने से उसका पेट गर्भवती महिलाओं की तरह निकल आता है। सामान्यतः शांत और अहिंसक विजय के सामने यदि कोई किशोरी लाल का नाम ले ले, तो उसकी आंखों में खून उतर आता है। बच्चे या शरारती लोग कभी किशोरी लाल का नाम लेकर उसे चिढ़ाते हैं, तो वह र्इंट पत्थर चलाने लगता है।'

शिवाकांत ने कहा, ‘आओ बैठो! बातों में काफी वक्त निकल गया। देर से पहुंचने पर सुप्रतिम बंदरों की तरह तुम पर खौंखियाएगा।'

कपिल हंस पड़ा, ‘भाई साहब, अब मैं भी इस मामले में चिकना घड़ा हो गया हूं। पहले जरूर बुरा लगता था, गुस्सा भी आता था। मन होता था, उठाउं+ सड़क पर पड़ी र्इंट और सामने वाले के मुंह पर जड़ दूं। तब सोचता था, कैसे निभेगी नौकरी? धीरे—धीरे मेरी खाल मोटी होती गई। अब तो सुप्रतिम गालियां देता रहता है, मैं हंसता रहता हूं। मानो कुछ कहा ही नहीं जा रहा है।'

कपिल यादव की बात पर शिवाकांत गंभीर हो गया। कुछ देर विचार करने के बाद उसने कहा, ‘एक बात बताउं+। तुम मेरी बात से सहमत हो, कोई जरूरी नहीं है। यह सच है, सुप्रतिम एक अच्छा पत्राकार है। इस संस्थान में उसके चलते सबसे ज्यादा प्रताड़ित दो लोग हैं...जानते हो कौन? एक मैं और दूसरा आशीष गुप्ता। इसके बाद भी हम दोनों ने सुप्रतिम की प्रतिभा पर कभी शक नहीं किया। सुप्रतिम हम दोनों को जलील करने का कोई मौका नहीं चूकता। उसका वश चले, तो वह हम दोनों को संस्थान से निकलवाकर छोड़े। कहीं दूसरी जगह नौकरी भी न करने दे। उसकी पता नहीं कौन—सी खुन्नस है हम दोनों के साथ। इन सब बातों और बुराइयों के बावजूद एक सच्चाई यह भी है कि वह काबिल है। जब वह डीएनई की भूमिका में होता है, तो वह खबरों को लेकर संवेदनशील हो जाता है। उसे खबरों की समझ है। वह शब्द की शक्ति से परिचित है। भूमिका बदलते ही यानी मैनेजमेंट का हिस्सा बनते ही वह बहुत बुरा हो जाता है। तब वह अपने कलीग को गालियां देता है, उन्हें प्रताड़ित करता है। नहीं कर पाता, तो वह अधिकारियों के कान भरता है, उनसे प्रताड़ित करवाता है। उसे अपने साथियों को तंग करने में मजा आता है। इस नजरिये से तुम कह सकते हो, वह सैडिस्ट है। मैं कई बार उससे भिड़ जाता हूं, वह मुझे जली कटी सुनाता है, मैं उसे। उसकी काबिलियत को मैं नकार नहीं सकता।'

शिवाकांत सांस लेने को पल भर रुका। उसने कपिल यादव पर नजर डाली, ‘सुप्रतिम जिस खबर की कापी राइटिंग करता है, वह कभी देखी है। देखो। अगर सीख सकते हो, तो सीखो। वह बहुत बेहतरीन कापी राइटर है। उसके जैसे दस कापी राइटर अगर पूरे संस्थान में हो जाएं, तो शायद मीडिया जगत के धुरंधर प्रतिष्ठानों को मात दी जा सकती है। उसका शब्द ज्ञान काबिलेतारीफ है। बस, उसका एक अवगुण उसके सारे व्यक्तित्व पर भारी पड़ता है। और वह है...मतलबपरस्ती। विडंबना यह है कि इसी अवगुण के सहारे वह अब तक सफलता की सीढ़ियां तय करता आया है। स्वार्थ सिद्धि के लिए मालिक हो या संपादक, किसी की पत्ते चाटी कर सकता है। संपादक के सामने उनकी बड़ाई करता है। मालिकों के सामने उसी संपादक की ऐसी तस्वीर उकेरता है, मानो संपादक इस पत्राकारिता जगत का सबसे बड़ा गधा है। ताज्जुब करोगे, उसकी इस प्रवृत्ति से वाकिफ हर कोई है। संपादक भी, मालिक भी। लेकिन विरोध कोई नहीं करता। कोई भी उसे झिड़कता नहीं है। आत्म प्रशंसा के भूखे लोगों की मानसिक तुष्टि के लिए वह खुराक उपलब्ध कराता है। मीडिया जगत में यह प्रवत्ति खूब फल—फूल रही है। अपने उच्चाधिकारियों की चमचागिरी करो, आगे बढ़ो।'

शिवाकांत ने अपनी बात पूरी करने के बाद गाड़ी स्टार्ट की और कपिल को बैठने का इशारा किया।

रात के ग्यारह बज चुके थे। दैनिक प्रहरी कार्यालय में जनरल डेस्क लगभग खाली हो चुका था। केवल एक डीटीपी ऑपरेटर कंप्यूटर पर पहले पेज की डमी से विज्ञापन मिला रहा था। जनरल डेस्क इंचार्ज हरिहर सिंह सभी डाक संस्करण छोड़ने के बाद चाय पीने कैंटीन गया, तो उसके अन्य साथी भी आधे घंटे के लिए किसी न किसी बहाने खिसक लिए। अब सिटी एडीशन के लिए सिर्फ एकाध खबरें ही पहले पेज पर बदली जानी थीं। काम का तनाव भी बर्फ की मानिंद बह चुका था। तनाव खत्म होते ही लोगों को चाय की तलब लग गई थी। चहल पहल थी, तो केवल लोकल डेस्क पर। सारे रिपोर्टर न्यूज फाइल करके जा चुके थे। लोकल डेस्क के सब एडीटर्स अपने काम में लगे हुए थे। पूरे कमरे में कंप्यूटर के ‘की बोर्ड' पर दौड़ती अंगुलियों की वजह से ‘खटर—पटर' की आवाज रात के सन्नाटे को भंग कर रही थी। चीफ क्राइम रिपोर्टर शिवाकांत त्रिापाठी और मर्चरी देखने वाला स्ट्रिंगर प्रभात महरोत्राा को लोकल एडीशन छूटने तक रहना पड़ता था। सो, ये दोनों भी अपनी बाकी बची एकाध खबरें लिख रहे थे। सुप्रतिम अवस्थी थोड़ी देर पहले ही संपादक से विचार—विमर्श करके लौटा था। आते ही उसने संपादित और असंपादित फाइलों पर एक नजर डाली। फिर गुनगुनाने लगा। काफी देर तक गुनगुनाता रहा। अचानक चीखकर बोला, ‘लखनऊ विश्वविद्यालय में हुए सेमिनार की खबर डॉ. दुर्गेश लिख गए हैं या नहीं? यार

...ये डॉ. दुर्गेश...किसी दिन मरवाएंगे हम सबको...।'

इतना कहकर उसने कंप्यूटर का माऊस जोर से पटक दिया, ‘क्या आशीष जी

...आप लोग किसी दिन अखबार की मां—बहन...करके रहेंगे। बारह बज गए, अब तक आपने न कोई प्लानिंग की, न ही पूरी खबरें एडिट कीं। सोलह—सोलह खबरें अभी तक ट्रैक पर अनएडिटेड पड़ी हुई हैं। पांच—पांच, छह—छह लोग हैं डेस्क पर, तब यह हाल है। और डॉ. दुर्गेश की तो अभी फाड़ता हूं...। बहुत हो गई हरामखोरी। ...अब यह सब नहीं चलेगा।' उसने टेलीफोन उठाकर पीबीएक्स पर मिलाया, ‘हेलो...सुबोध...डॉ. दुर्गेश का मोबाइल मिलाना जरा।'

फोन का रिसीवर रखकर वह इंतजार करने लगा। फोन की घंटी बजते ही उसने रिसीवर उठा लिया, ‘हेलो...डॉ. साहब, आपने सेमिनार की खबर लिखी थी?'

उधर से दुर्गेश का अलसाया स्वर गूंजा, ‘कौन...सुप्रतिम...हां, बोलो।'

‘डॉ. साहब! वो सेमिनार वाली खबर नहीं मिल रही है। आपने नहीं लिखी थी क्या?'

‘मैंने पहले ही बता दिया था, मुझे बुखार है। मैं आज जल्दी चला जाउं+गा? अरविंद को सारी डिटेल्स नोट करा दी थी। उसने कहा था, वह खबर लिख देगा। रुको...मैं पता करके बताता हूं।' इतना कहकर दुर्गेश ने फोन काट दिया।

रिसीवर रखकर सुप्रतिम फिर गुनगुनाने के साथ कंप्यूटर पर खबरें देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसने फिर फोन का रिसीवर उठाकर टेलीफोन आपरेटर को मिलाया, ‘सुबोध...फोटोग्राफर राणा से बात कराओ।'

फोन की घंटी बजी, तो सुप्रतिम ने रिसीवर इस तरह झपटकर उठाया, मानो फोन पर ही राणा को खा जाने का इरादा रखता हो।

‘हेलो...राणा! यह बताओ, तुम्हारा नौकरी से जी भर गया है क्या? नहीं ...इधर कुछ दिनों से देख रहा हूं, तुम्हारा काम में मन नहीं लग रहा है। लखनऊ यूनिवर्सिटी में हुए सेमिनार की फोटो कहां है? सोलह से इक्कीस नंबर की फोटो सेमिनार की हैं? रुको, एक मिनट देखता हूं। हां, पड़ी तो है...लेकिन कैप्शन क्या तुम्हारे ससुर आकर लिखेंगे। ...ज्यादा बातें मत बनाओ। नक्खास में हुए अग्निकांड की फोटो भी नहीं डाली। क्या तुम नहीं गए थे? ...ओह, यह बात तो मैं भूल ही गया था। ठीक है...मैं करमवीर से पूछता हूं।' सुप्रतिम ने रिसीवर रख दिया। तभी फिर टेलीफोन की घंटी बज उठी। ‘हेलो...कौन...डॉ. साहब, आपको बेकार परेशान किया। वह खबर मिल गई है। आप निश्चिंत होकर सो जाएं।'

‘अब क्या खाक सो जाउं+। रात बारह—एक बजे फोन करके जगाते हो। फिर जख्म पर नमक छिड़कते हो। अगर तुम्हें खबरें नहीं मिल रही थीं, पहले अपने यहां दरियाफ्त करते। उसके बाद भी नहीं मिलती, तो मुझे या अरविंद को फोन करते। मुझे मालूम है, मुझे फोन करने के बाद अरविंद को भी जगाया होगा।' डॉ. दुर्गेश के स्वर में नाराजगी थी।

सुप्रतिम अवस्थी ने फोटोग्राफर करमवीर को भी रात में जगाया। सुप्रतिम को ऐसा करने में क्या आनंद मिलता था, यह तो वही बता सकता था। यह कोई पहली घटना नहीं थी। वह ऐसा आए दिन करता रहता था। सनक सवार हो जाती, तो वह खबर या फोटोग्राफ की जांच किए बिना आधी—आधी रात में संवाददाताओं और छायाकारों को फोन करता। कोई आपत्ति जताता, तो बड़ी मासूमियत से कहता, ‘अरे यार! तुम मेरी माशूका नहीं हो कि तुम्हारी आवाज सुनने को मरा जा रहा हूं। अखबार का काम है, तो फोन कर लिया। कल खबर या फोटो छूट गई, तो जवाब मुझे ही तो देना होगा। तुम तो चूतड़ झाड़ते हुए चल दोगे।'

फिर कहता, ‘हां, ठीक है। खबर या फोटोग्राफ मिल गई है। अब तुम चैन से सो जाओ।'

आधी रात में सोते से जगाया गया व्यक्ति तिलमिलाकर रह जाता। विरोध करने पर सुप्रतिम उसे खूब जली कटी सुनाता।

काफी देर से कसमसा रहा सीनियर सब एडिटर संजय शुक्ल बोल पड़ा, ‘भाई साहब! आप यह चिरकुटई कब बंद करेंगे? मुझे लगता है, इस मामले में आपका फ्रस्टेशन यह है कि मैं रात दो—तीन बजे तक यहां दफ्तर में झख मार रहा हूं। अमुक रिपोर्टर या फोटोग्राफर साला...बीवी या प्रेमिका की बाहों में इस समय मीठी नींद सो रहा है। दरअसल यही फ्रस्टेशन आपको चैन से बैठने नहीं देता है। आप बेचैन हो उठते हैं। दिसंबर—जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली ठंड या जुलाई—अगस्त की मूसलाधार बारिश के दौरान रात में किसी समय हादसा होने पर जब यही रिपोर्टर और फोटोग्राफर बिस्तर और बीवी की नर्म बाहों को छोड़कर गोली की तरह घटनास्थल की ओर दौड़ पड़ता है, तब आपको उनसे तनिक भी सहानुभूति नहीं होती। आप कहते हैं, ऐसा करना उनकी ड्यूटी है। चलिए, मान लिया। रात दो या तीन बजे तक जागकर पेज छुड़वाना भी तो आपकी ड्यूटी है। फिर काहे का फ्रस्टेशन! अभी दो महीने पहले उतरठिया के पास सुबह चार बजे रेल हादसा हुआ था, तो आपने पत्राकारिता की दुहाई देते हुए बड़ी बेहियाई से फोटोग्राफर विनय राणा, शिवाकांत और आदित्य सोनकर को घटनास्थल पर पहुंचने का निर्देश दिया था। विनय राणा जाना नहीं चाहता था, लेकिन वह गया। आप अच्छी तरह से जानते थे, उसी शाम उसकी बीवी का पीजीआई में किडनी का आपरेशन हुआ था। उस आपरेशन की सफलता—विफलता पर एक भरे पूरे परिवार की जिंदगी दांव पर लगी हुई थी। फिर भी आपकी जिद थी, सो राणा गया। भाई साहब! यह बचकानी हरकतें बंद कीजिए।'

सुप्रतिम चुप बैठा संजय की बातें सुनता रहा। यह सुप्रतिम के स्वभाव में था। वह ऐसे मौकों पर या तो चुप रह जाता था या फिर वहां से खिसक लिया करता था। हां, यदि उसने पहले से ही भिड़ने का मन न बना लिया हो, तो।

‘अच्छा यार! हो गया...अब बस करो। मान लिया बाबा, गलती हो गई। अब ऐसा नहीं करूंगा। अब काम तो करो। क्या अखबार को समय पर नहीं छोड़ना है? अगर अखबार विलंब से छूटा, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।'

‘भाई साहब...आप यह गलती तो बार—बार करेंगे' कहकर संजय अपने काम में जुट गया।

दैनिक प्रहरी में नियुक्ति के बाद सबसे पहले बलिराम श्रीवास्तव ने शक्ति केंद्रों की पहचान की, जिनसे या तो बचकर रहना है या निकट भविष्य में उनके खिलाफ मोर्चा खोलना है। जल्दी ही उसने यह भी समझ लिया, प्रादेशिक डेस्क इंचार्ज इंद्रजीत कटियार से उसे न तो अभी कोई खतरा है, न ही भविष्य में। उसने सबसे पहले इंद्रजीत कटियार से दोस्ती गांठी, उनका विश्वास जीता। जनरल डेस्क का सेकेंड इंचार्ज नियुक्त किए जाने के बाद उसने आज्ञाकारी और कार्यशील व्यक्ति बनकर जनरल डेस्क पर अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। उसके दिमाग में कहीं न कहीं सुप्रतिम की बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स तक पहुंच खटक रही थी। उसने कई दिनों तक सभी परिस्थितियों पर गहन मंथन के बाद पाया, जब तक वह सुप्रतिम की तरह मालिकों का विश्वास नहीं जीत लेता, तब तक वह कुछ भी कर ले, सुप्रतिम जैसी हैसियत नहीं हासिल कर सकता।

संस्थान के संबंध में सूचनाएं हासिल करने का सबसे बेहतरीन जरिया नजर आई उर्वशी...। रिसेप्शनिस्ट उर्वशी सक्सेना। कब, कौन ऑफिस में आता है? कब किसने और किससे बात की? उर्वशी उसे जानकारियां देने लगी। बलिराम ने उससे कहा, वह होने वाली बातों को यदि सूंघ सकती है, तो सूंघे। कैसे? यह उसकी प्रतिभा पर निर्भर है। बलिराम के कहने पर वह चौकन्नी होकर बातों को सूंघने लगी। बातों को सूंघने की एक सीमा थी। वह थी तो एक मामूली रिसेप्शनिस्ट। उधर बलिराम मौके की तलाश में रहने लगा। एक दिन मौका मिल ही गया। दैनिक प्रहरी के डायरेक्टर और ग्रुप एडीटर चिंतामणि राय गैलरी से होकर अपने कक्ष की ओर जा रहे थे। संयोग से उसी समय बलिराम सेंट्रल डेस्क को खबरों की सूची भेजकर घर जा रहा था।

राय साहब को देखते ही लपककर उसने चरण स्पर्श किए। राय साहब ने कहा, ‘तुम्हारा नाम बलिराम है न! कुछ ही महीने पहले तुम्हारी भर्ती हुई है?'

‘यस सर' विनम्र स्वर में बलिराम ने उत्तर दिया।

‘तुम्हें अपने पुराने और नए संस्थान में क्या फर्क नजर आया?'

‘इस संस्थान में जिस तरह पैसे और संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है। वैसा कम से कम उस संस्थान में नहीं होता था।'

यह सुनते ही राय साहब की भृकुटी तन गई। वे चलते—चलते ठिठक गए, ‘क्या मतलब...?'

‘मतलब तो सर...इस तरह गैलरी में खड़े होकर नहीं समझाया जा सकता। आपको कहीं बैठकर मेरी बात धैर्य से सुननी होगी। यहां बताकर मैं किसी से वैर भी मोल नहीं लेना चाहता। आखिर मुझे काम उनके बीच ही करना है।'

‘तुम बेवकूफ हो। कम से कम मुझसे बात करने में कैसा भय और किसका? अभी तो मैं कहीं जा रहा हूं। शाम को चार बजे मुझसे मिलो। समझाओ कि किस तरह धन और साधनों का अपव्यय हो रहा है।'

इतना कहकर राय साहब आगे बढ़ गए। बलिराम खड़ा उन्हें जाता हुआ देखता रहा। फिर किसी मृग शावक की तरह कुलांचे भरता रिसेप्शन की ओर दौड़ पड़ा। वह सीधा उर्वशी के सामने जा खड़ा हुआ। उर्वशी ने नजरें उठाकर उसके चमकते चेहरे की ओर देखा। बलिराम ने लपककर उसके दोनों गालों को अपनी हथेलियों में समेटा। होंठ पर होंठ जमा दिए। उर्वशी अचकचा उठी। बलिराम ने पलभर बाद ही उसे मुक्त किया और ऑफिस परिसर से बाहर निकल गया।

उर्वशी के अधर स्पर्श से पहले पल भर थरथराए, फिर चेहरा भय से पीला पड़ गया। यह क्या बेहूदगी है? ऑफिस में ऐसी हरकत? कोई देख लेता तो? भला हो भगवान का? उस समय न वहां कोई मौजूद था, न कोई आया—गया। अगर कोई आ जाता तो? वह तो शर्म से मर ही जाती? क्या सोचकर बलिराम ने ऐसा किया? वह उसे समझता क्या है? प्रेमिका या रंडी? रंडी या प्रेमिका? क्या है वह बलिराम के लिए? वह इतनी सस्ती है कि उसे जब चाहो, चूम लो? इतना हल्का, इतना छिछोरा है बलिराम! क्रोध और शर्म से शरीर कांप उठा। वह असहज हो उठी।

तभी टेलीफोन की घंटी बजी। उससे किसी का नंबर मिलाने को कहा गया। ‘की बोर्ड' पर उसकी अंगुलियां स्वाभाविक चपलता से गतिमान नहीं रह सकीं। उसने किसी तरह नंबर मिलाया। कुछ ही देर बाद फिर घंटी बजी। रिसीवर उठाकर कान में लगाया। उधर से चतुर्भुज शर्मा का झल्लाया स्वर उभरा, ‘मैंने तुमसे वाराणसी ऑफिस में आनंद स्वरूप से बात कराने को कहा था, तुमने पता नहीं कहां का नंबर मिला दिया? भांग खाकर तो नहीं आई हो?'

‘यस सर...सॉरी सर... मैं आनंद स्वरूप जी से बात करा देती हूं। सर, मेरी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है, इसलिए गलती हो गई।' उर्वशी का स्वर विनम्र था।

‘अगर तबीयत ठीक नहीं है, तो छुट्टी लेकर घर जाओ।' चतुर्भुज शर्मा का स्वर पहले की अपेक्षा नरम हुआ।

‘जी सर...' उर्वशी ने नंबर मिलाया। थोड़ी देर काष्ठ प्रतिमा की तरह सामने लगी गणेश प्रतिमा को निहारा। वह विचार मृग शावक की तरह कुलांचे भरने लगे। बलिराम ने यह बचकानी हरकत क्यों की? उससे हंस बोल लेती है, उसके छोटे—मोटे काम कर देती है, इसका मतलब...वह कहीं भी उसे चूम सकता है? शहर की भौगोलिक स्थिति से अनभिज्ञ होने का बहाना बना बलिराम अकसर उससे कुछ न कुछ मंगाता रहता है। कई बार तो इन चीजों के दाम भी नहीं लेती है। घर से बड़ा लंच बाक्स अब वह लाने लगी है। दोपहर को अगर बलिराम दफ्तर में मौजूद हुआ, तो वह भी लंच शेयर कर लेता है। मन के किसी कोने में बलिराम के प्रति एक नरम कोना है, इससे उसे कतई इन्कार नहीं है। वह उसे अच्छा लगता है। इसका यह मतलब तो नहीं कि...। यहीं आकर उसकी सोच को विराम लग जाता है। उर्वशी समझ नहीं पा रही थी कि इस घटना पर वह कैसे रिएक्ट करे? बलिराम उसको लेकर गंभीर भी है? कहीं सिर्फ टाइम पास तो नहीं कर रहा है? वह नहीं समझ पा रही थी। एकाएक झटके से उठ खड़ी हुई और मैनेजर लता कांबरी की केबिन में पहुंच गई। उसके चेहरे का रंग अब भी पीला था। यह पीलापन भय स्वरूप था या जीवन के पहले चुंबन की अनुभूति का? वह नहीं समझ पाई। उसके शरीर में अब भी थरथराहट थी, कोई देख लेता, तो?

लता कांबरी ने उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा, ‘यस उर्वशी।'

‘मैम, मेरी तबीयत एकाएक खराब हो गई है। मैं घर जाना चाहती हूं।'

‘ठीक है, तुम दस मिनट रुको। अजीत को भेजती हूं। अगर कोई प्रॉब्लम हो, तो बताओ।' लता कांबरी ने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए कहा, ‘तुम्हें अगर ज्यादा प्राब्लम हो, तो किसी बेहतर डॉक्टर को दिखा लो। हां, मेरी जरूरत हो, तो बताना। संकोच मत करना। समझी।'

‘यस मैम' कहकर उर्वशी लौट आई।

शाम चार बजे बलिराम ऑफिस पहुंचा। वह डरता—डरता रिसेप्शन की ओर गया। मन के किसी कोने में लगातार विस्तार पा रहे भय और अपराध बोध के कारण दोपहर से ही वह ‘किंतु...परंतु' में उलझा हुआ था। कभी उसे लगता, उसने अक्षम्य अपराध किया है। इस अपराध की जो भी सजा उर्वशी दे, कम है। दूसरे क्षण उसे लगता कि उर्वशी मॉड लड़की है। उसके जीवन में ऐसे क्षण कई बार आए होंगे। जब उसने स्वयं अपने प्रेमी का चुंबन लिया होगा या उसके प्रेमी ने उसके अधरों को चूमा होगा। साली...गहरे रंग का लिपिस्टिक लगा और लो कट का ब्लाउज पहनकर रिसेप्शन पर बैठती है, तो एकदम छिनाल लगती है। वह तो पहले ही दिन जान गया था, एकदम चालू माल है। भीतर ही भीतर एक डर भी बना हुआ था। उर्वशी ने कहीं शिकायत कर दी, तो? अपना बचाव वह कैसे कर पाएगा? साली सरकार भी न...एकदम चूतिया है। सरकार ने ऐसे—ऐसे नियम बना रखा है, जब चाहे लड़की या औरत किसी भी शरीफ को बलात्कारी बताकर उसका जीवन बर्बाद कर सकती है। बलिराम का विचार प्रवाह बार—बार गड़बड़ा रहा था। कभी वह अपने किए पर शर्मिंदा होता, डर जाता और कभी रह—रहकर गुस्सा आने लगता। कभी उसे सब कुछ उल्टा—पुल्टा लगने लगता।

उर्वशी को रिसेप्शन पर न पाकर बलिराम सन्न रह गया। कहीं उर्वशी ने...? उसने अजीत से पूछा, ‘आज उर्वशी नहीं आई क्या?'

‘नहीं सर, आई तो थी, लेकिन तबीयत खराब होने से छुट्टी लेकर घर चली गई।'

‘क्या हुआ था उसे? कोई खास बात...?' उसने टोह लेने की मंशा से पूछा।

‘मुझे बस इतना मालूम है कि उसकी तबीयत खराब थी। वह घर चली गई है।' अजीत ने बाहर देखते हुए कहा।

‘होगी कोई बात' कहता हुआ बलिराम राय साहब के ऑफिस की ओर बढ़ गया।

केबिन के बाहर स्टूल पर बैठे चंद्रमोहन से उसने पूछा, ‘सर हैं? शाम को चार बजे सर जी ने मुझे बुलाया था।'

चंद्रमोहन ने ‘हां' में सिर हिलाते हुए अंदर जाकर बलिराम के आने की सूचना दी। राय साहब ने उसे तुरंत तलब किया। बलिराम ने राय साहब के चरण स्पर्श किए। आदेश के इंतजार में एक ओर खड़ा हो गया।

राय साहब ने उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘हां बताओ...तुम कहना क्या चाहते हो? किस तरह धन का अपव्यय किया जा रहा है जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूं।'

‘सर, अगर आप मेरी बात को अन्यथा न लें, तो मैं कहूं। मैं यह कहना चाहता हूं, डेस्कों पर कुछ नाकाबिल लोगों की भर्ती कुछ जरूरत से ज्यादा की गई है। यदि ज्यादातर डेस्कों पर योग्य इंचार्ज बिठा दिए जाएं, तो वे एक तिहाई कम कर्मचारियों से अच्छा अखबार निकाल सकते हैं। मुझे ताज्जुब है सर, इतनी मोटी—मोटी सेलरी पाने वाले लोग सिर्फ टाइम पास करते हैं और चले जाते हैं।'

‘जैसे...?' राय साहब ने नथुने से सांस छोड़ी हो। मानो, पहली बार ऐसी गूढ़ बातें प्रकाश में आई हों।

‘सर, मैं किसी का नाम लेना नहीं चाहता। सच यही है, ज्यादातर लोग कामचोर और काहिल हैं। सर, सुनने में आया है कि विज्ञापन और सरकुलेशन का पैसा वसूलने डेस्क के लोग जाते हैं। ऐसा किसी भी मीडिया संस्थान में नहीं होता। बकाया वसूली के नाम पर डेस्क वाले जमकर टीए—डीए बनाते हैं। आखिर विज्ञापन और सरकुलेशन वाले क्या करते हैं? विज्ञापन लाना, उसकी वसूली करना उनका काम है। ऐसी उल्टी गंगा तो सिर्फ मैंने यहीं बहती देखी है।' उसने शब्दों का चयन बड़ी सतर्कता से किया। वह कोई चूक नहीं करना चाहता था।

‘देखो, एक ऐसा आदमी बता दो, जो फालतू हो। डेस्क या रिर्पोटिंग में किसी काम का नहीं है। ऐसा नहीं करते हो, तो मैं समझूंगा, तुमने मेरा समय खराब किया। जहां तक डेस्क वालों को जिलों में पैसा वसूलने भेजने का सवाल है, यह व्यवस्था मैंने है।'

‘यह काम तो सरकुलेशन और विज्ञापन वालों का है। वे फिर क्या करते हैं?' बलिराम ने पूछ ही लिया, ‘फिर उनको किस बात की तनख्वाह मिलती है। संस्थान को जरूरत ही क्या है उनकी?'

सिगरेट सुलगाते—सुलगाते राय साहब रुक गए। उनके हाथ में थमा लाइटर नीली लौ फेंक रहा था। गैस लाइटर बुझाकर उन्होंने मुंह से सिगरेट निकालकर हाथ में ले लिया, ‘यह व्यवस्था इसलिए करनी पड़ी, ताकि वसूली ठीक ढंग से हो सके। तुम तो जानते ही हो कि डेस्क वाले जिले के संवाददाताओं, स्ट्रिंगरों और विज्ञापनदाताओं के संपर्क में रहते हैं। सरकुलेशन और ऐड का पैसा आसानी से वसूल हो जाता है।'

‘कितना वसूल लाते हैं? लाख—सवा लाख! यह वसूली टीए—डीए लेने वाले तो करते नहीं। वसूली तो जिले में बैठा प्रतिनिधि या ब्यूरो चीफ, मार्केटिंग और सरकुलेशन के ही लोग करते हैं। ये तो बस पोस्टमैन का काम करते हैं। जिले में बैठे लोग चाहें, तो कूरियर या स्पीड पोस्ट से चेक भेज सकते हैं। एकाउंट में पैसा जमा करा सकते हैं। यहां से जाकर वसूली करने की यह व्यवस्था मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जानकारी के मुताबिक, ऐसा कोई भी संस्थान नहीं करता।' बलिराम विष उगल रहा था।

‘हां, यह बात है। जिले में बैठे लोग ऐसा कर सकते हैं, लेकिन करते नहीं हैं।' अब राय साहब सिगरेट सुलगाने के बाद कश खींच रहे थे।

‘वे ऐसा करते नहीं, तो उन्हें दफा कर दीजिए। ऐसे लोगों के होने न होने का फायदा क्या है? डेस्क वालों को जिले के लोग आने—जाने, रहने—खाने का पैसा देते हैं। वापस आते समय जरूरी बिल मुहैया कराते हैं, जो फर्जी होते हैं। साथ ही ‘भाभी जी' और ‘बच्चों' के लिए किलो—दो किलो घी, मिठाई, कपड़े या उस जिले की प्रसिद्ध वस्तु भी ये ‘मान्यवर' लाते हैं।' बलिराम का लहजा थोड़ा व्यंग्यात्मक हो उठा था।

व्यंग्यात्मक लहजे के पीछे उसकी सोच थी कि इससे उसकी बात का असर होगा। दरअसल, वह राय साहब की तल्लीनता से उत्साहित था। उसे लगा कि अब लोहा गर्म है, चोट की जा सकती है। अभी तक वह हलकी चोट कर रहा था। मन ही मन शब्दों का चयन करने लगा। वह जान रहा था कि यदि राय साहब का वह विश्वास जीतने का यह मौका हाथ से निकल गया, तो फिर उसे ऐसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा। राय साहब की नजरों में गिर जाएगा, सो अलग।

चिंतामणि राय न तो अर्थशास्त्राी थे, न ही मैनेजमेंट में माहिर। उन्हें बस इसमें रुचि थी कि दैनिक प्रहरी हर साल उन्हें एक मोटी रकम कमा कर देता रहे। हो भी ऐसा ही रहा था। दैनिक प्रहरी की एकाध यूनिटों को छोड़कर सभी फायदे में चल रही थीं। संस्करणों का लगातार विस्तार हो रहा था।

कुछ देर तक चुपचाप सिगरेट पीते रहने के बाद धुआं उगलते हुए चिंतामणि राय ने कहा, ‘तुम्हें और कुछ कहना है?'

बलिराम ने कहा, ‘सर जी...।'

‘ठीक है...कहो...' इतना कहकर चिंतामणि राय ने आंखें मूंद ली और विचारमग्न हो गए।

‘जिला प्रतिनिधि या ब्यूरो चीफ यहां से जाने वालों की इतनी आवभगत क्यों करते हैं? उन्हें इससे क्या लाभ होता है?' राय साहब ने थोड़ी देर विचार करने के बाद बलिराम से पूछा था। बलिराम की बातें कुछ—कुछ समझ में आने लगी थीं। उन्हें अफसोस हो रहा था, इस पहलू से भी सोचना उन्हें क्यों नहीं सूझा?

‘सर! इसमें उन्हें लाभ ही लाभ है। एक तो वे डेस्कवालों को थोड़ा—सा उपहार देकर उन्हें अपने दबाव में ले लेते हैं। इसके बाद शुरू होता है इनका असली खेल। जिले वाले स्याह करें या सफेद, कौन पूछने वाला है? थोड़ा—सा सुराग मिलने पर अधिकारियों के खिलाफ पहले खबरें छापी जाती हैं, उन्हें भ्रष्ट बताकर जनता के सामने बेनकाब किया जाता है। फिर अभी और खुलासे बाकी हैं, कहकर अधिकारियों से वसूली करते हैं जिले में बैठे अखबार के मुलाजिम। यदि रिपोर्टर से सेटिंग हो गई, मनचाहा पैसा या कोई उपकार अधिकारी ने कर दिया, तो वही अधिकारी अगले दिन ईमानदार, न्यायप्रिय और कर्मठ हो जाता है। उसकी प्रशंसा में पन्ने पर पन्ने रंगे जाते हैं।' बलिराम जैसे उस समय लंका दहन पर ऊतारू था। जैसे—जैसे आग भड़कती जा रही थी, वह अपने उद्देश्य में सफल होता जा रहा था। उसने अपने तरकश से अंतिम ब्रह्मास्त्रा निकाला और चला दिया।

‘सर...इतना ही नहीं, अखबार में बहुत सारी खबरें ऐसी होती हैं। जो होती तो विज्ञापन हैं, लेकिन वे छपती हैं खबरों के रूप में। इन विज्ञापन रूपी खबरों को छापने पर मिला पूरा पैसा जिला प्रतिनिधि या ब्यूरो चीफ की जेब में जाता है और इसी पैसे से डेस्क वालों की आवभगत होती है।'

‘और कुछ...' अब तक धैर्य से बलिराम की बातें सुन रहे राय साहब ने सवाल दागा।

‘और कुछ नहीं ...सर'

‘तुम्हारी इतनी बातों के बाद एक बात मैं कहूं। तुम गौर से सुनो।' पिछले बीस मिनट से बेवकूफों की तरह सवाल कर रहे चिंतामणि राय के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आई। वे बोले, ‘तुमने यह कैसे समझ लिया, जो बातें तुमने बताई हैं, वह मैं नहीं जानता था। मैं तुम्हें इतना मूर्ख नजर आता हूं। जिन बातों को तुम तीन या चार महीने में जान गए, वह मैं बीस सालों में नहीं जान पाया? तुमने कोई ऐसी नई बात नहीं बताई, जो मैं न जानता होउं+। तुम...जितनी रकम के अपव्यय की बात कर रहे हो, उतनी रकम तो हर महीने मेरे घर की रखवाली करने वाले लैब्राडोर प्रजाति के दो कुत्तों पर खर्च होती है। मैं सब कुछ जानता हूं। हर अखबार का मालिक जानता है, उसके अखबार में कहां क्या हो रहा है?'

बलिराम का चेहरा फक्क पड़ गया। उसने राय साहब को सीधी गाय समझा था, लेकिन वे तो चालाक लोमड़ी निकले जिन्हें अपने शिकार को पस्त करने में मजा आता है। वह समझ गया। अब उसका खेल खत्म हो चुका है। उसने मरी—सी आवाज में कहा, ‘सर, मैं चलूं?'

‘हां, जाओ। लेकिन मेरी कुछ बातें सुनते जाओ। भले ही तुमने किसी उद्देश्य विशेष को लेकर यह सब बताया हो, लेकिन तुम्हारी कुछ बातें पसंद आर्इं। ऐसा नहीं है, मैं इसे रोकना नहीं चाहता। मेरे पास किसी के खिलाफ कार्रवाई करने का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। जिस दिन मेरे हाथ कोई पुख्ता प्रमाण लग गया। मैं लूट—खसोट करने वालों को निकाल बाहर करूंगा।' इतना कहकर चिंतामणि राय ने उसे जाने का इशारा किया।

‘प्रणाम' कहकर बलिराम बाहर आ गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, वह शिकार था या शिकारी? वह शिकार करने आया था या फिर राय साहब ने हाका लगाकर उसका शिकार किया है? यह सोचते—सोचते उसके सिर में दर्द होने लगा। बाहर निकलते ही एक चिंता और सवार हो गई। उर्वशी की। वह अचानक चली क्यों गई? कहीं उसने शिकायत तो नहीं कर दी? वह उर्वशी के बारे में भूल जाए क्या? उसने सिर झटक दिया, ‘उं+ह...जो होगा देखा जाएगा। अभी से सिर दुखाने का क्या मतलब है? अब अगर शिकायत कर दी होगी, तो बेड़ागर्क ही समझो।'

अमेरिका से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके लौटे चिंतामणि राय हरियाणा में उद्योग लगाना चाहते थे। उनके पिता पंचानन राय को यह कतई मंजूर नहीं था। वे चाहते थे, उनका बेटा दैनिक प्रहरी का संपादक बनकर इसे उन्नति के शिखर तक ले जाए। चिंतामणि राय ने काफी अनुनय विनय की, अखबार के प्रति अपनी इच्छा—अनिच्छा बताई, कई तर्क और दलील दिए, लेकिन पंचानन राय अपने पुत्रा की बात मानने को तैयार नहीं हुए। पुत्रा ने जब ज्यादा जिद की, तो उन्होंने ब्रह्मास्त्रा चलाया, ‘ठीक है। तुम अपनी फैक्ट्री लगा लो, मैं अखबार बंद करने की घोषणा कर देता हूं। तुम्हारे फैक्ट्री लगा लेने के बाद कितने दिन चलेगा अखबार? जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक न? उसके बाद? इसे बंद ही होना है। जो कल होना है, वह आज ही हो जाए, तो अच्छा है। जिस पौधे को मैंने और तुम्हारी मां ने अपने खून—पसीने से सींचा था, उसे बुढ़ापे में सूखता हुआ देख लूं। इसके बाद कम से कम चैन से मर सकूंगा।'

पिता की बात सुनकर चिंतामणि राय अवाक रह गए। पिता की इच्छा के आगे पुत्रा को झुकना पड़ा।

ढाका (अब बांग्लादेश में) में सन्‌ 1922 को जन्मे पंचानन राय मूलतः बंगाली जमींदार के इकलौते चिराग थे। वर्ष 1905 में गठित अनुशीलन समिति के संपर्क में वे सोलह साल की उम्र में ही आ गए थे। क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद जैसे उनकी दुनिया ही बदल गई। उन्हें अपने पिता द्वारा गरीब किसान और मजदूरों पर किया जाने वाला अत्याचार अखरने लगा। वे भीतर ही भीतर अपने पिता के खिलाफ लोगों को भड़काने लगे। वे पढ़ाई—लिखाई छोड़कर सशस्त्रा क्रांति में कूद पड़ना चाहते थे। लेकिन उनके शिक्षक और अनुशीलन समिति के सक्रिय कार्यकर्ता मास्टर नरेंद्र नाथ मजूमदार ने पढ़ाई जारी रखते हुए क्रांतिकारियों की मदद करने और विद्यार्थियों में क्रांतिकारी भावना का बीजारोपण करने की सलाह दी। मजूमदार ने यह भी समझाया, मजदूरों और किसानों को संगठित करके उनकी शक्ति का उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ करो। यदि तुम इसमें सफल हो गए, तो यह क्रांतिकारियों की बहुत बड़ी सहायता होगी। विद्यार्थियों को क्रांतिकारी दल के पक्ष में करने के लिए आवश्यक है, उनके बीच का ही कोई उन्हें प्रेरित करे। इसके लिए पंचानन राय का पढ़ना जरूरी है। यह बम—पिस्तौल लेकर सशस्त्रा क्रांति में कूद पड़ने से ज्यादा गुरुतर और दायित्वपूर्ण है।

पंचानन राय ने अपने शिक्षक मजूमदार की इच्छाओं का सम्मान किया। उन्होंने ढाका विश्वविद्यालय में बीएससी में दाखिला लिया। यहां उनका संपर्क देश के अन्य भागों के क्रांतिकारियों से हुआ। अब वे ढाका विश्वविद्यालय में क्रांतिकारियों की होने वाली गुप्त बैठकों में शामिल होने लगे। कई बार उन्हें क्रांतिकारियों का ‘कूरियर' बनना पड़ा। बम, पिस्तौल और रुपये लेकर ढाका से कलकत्ता और दिल्ली तक आए। कई बार खुफिया पुलिस के हाथों में पड़ने से बचे, लेकिन इससे उनका उत्साह कम नहीं हुआ। जीवन में उनकी सिर्फ एक बार नेता जी सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात हुई। नेता जी ने पंचानन राय की पीठ पर हाथ रखते हुए सिर्फ इतना कहा, ‘क्रांति का मार्ग सहज नहीं है। स्वाधीनता बलिदान मांगती है। यदि सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हो, तो आगे बढ़ो।' और सचमुच पंचानन राय आगे बढ़ गए।

विद्यार्थियों में क्रांतिकारी चेतना पैदा करने के लिए उन्होंने हस्तलिखित समाचार पत्रा ‘प्रहरी' निकाला। इसमें क्रांतिकारियों की वीरतापूर्ण शहादत का ओजस्वी चित्राण, अंग्रेजों की बर्बर कार्रवाइयों का उल्लेख होता था। क्रांतिकारियों के लक्ष्य और उद्देश्य के साथ युवाओं से क्रांति में भाग लेने की अपील प्रकाशित की जाती थी। छात्राावास के कुछ छात्रा रात—दिन मेहनत करके इसकी प्रतियां तैयार करते। क्रांतिकारी संगठनों में इसकी मांग बढ़ने लगी। इसकी भनक अंग्रेजों को लगी। प्रहरी की मांग और खतरा समानुपात में बढ़ने लगा। उन्हीं दिनों ढाका और कलकत्ता के कुछ क्रांतिकारी अपने ही साथियों के विश्वासघात के चलते गिरफ्तार कर लिए गए। उनके पास से प्रहरी की प्रतियां बरामद हुर्इं। विश्वासघातियों ने पुलिस अधिकारियों के सामने पंचानन राय का नाम लिया। नतीजा यह हुआ कि पंचानन राय ब्रिटिश हुकूमत की निगाहों में आ गए। उन पर खुफिया पुलिस नजर रखने लगी।

एक दिन ढाका विश्वविद्यालय के छात्राावास पर पुलिस ने छापा मारा। छात्राावास में रहने वाले कई क्रांतिकारी छात्रा गिरफ्तार कर लिए गए। पंचानन राय उस समय छात्राावास में नहीं थे। उस समय वे बड़े पैमाने पर प्रहरी निकालने के लिए सस्ते में बिक रहा छापाखाना खरीदने कलकत्ता गए थे। उन्होंने अपने पिता के घर में क्रांतिकारी छात्राों से डकैती डलवा दी थी। उसी पैसे से छापाखाना खरीदना तय हुआ था। कलकत्ता में ऐन मौके पर छापाखाने का मालिक ज्यादा पैसा मांग बैठा, तो बाकी पैसे का बंदोबस्त करने के लिए पंचानन राय ढाका लौटे। जब वे ढाका रेलवे स्टेशन पर उतरे, तो स्टेशन पर पुलिस टुकड़ी को तैनात देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। वे स्टेशन से बाहर निकलने की सोच ही रहे थे, एक भिखारी उनकी बगल से गुजरा। उसने पंचानन राय से भिक्षा मांगी। सबकी नजर बचाकर एक पर्चा मुट्ठी में थमाया और भिखारी आगे बढ़ गया। पंचानन राय उस भिखारी के हाथों की नरमी पर आश्चर्यचकित रह गए। उन्हें विश्वास नहीं हुआ, किसी भिखारी के हाथ इतने नरम हो सकते हैं? वे कुछ देर तक भिखारी के हाथों की गर्माहट के साथ—साथ नर्मी को अपने हाथ पर महसूस करते रहे। भीड़ से हटकर पर्चे को पढ़ा। बांग्ला भाषा में लिखा था, ‘छात्राावास जाने की गलती मत करना। पुलिस कई साथियों को गिरफ्तार कर चुकी है। स्टेशन के बाहर तुम्हारे लिए जाल बिछा हुआ है। बाहर निकलने की बजाय पटरी पकड़कर पूरब दिशा में बढ़ते रहो। लगभग एक किलोमीटर आगे चलकर पटरी के दायीं तरफ पीपल का एक पेड़ है। वहां पहुंच कर प्रतीक्षा करना।' पर्चे पर किसी का नाम नहीं था।

पंचानन राय उस पुर्जे को चबा गए। तभी गाड़ी ‘छुक—छुक' करती धुआं उड़ाती चल दी। उसके चलने के साथ ही मुंह में चबाया गया कागज उन्होंने थूक दिया। अब उस पर लिखी इबारत को पढ़ पाना, किसी के लिए भी संभव नहीं रहा। ऐसा उन्होंने सावधानी के चलते किया था। पंचानन राय ने अपना बैग उठाया और पूर्व दिशा में बढ़ गए।

पीपल के पास वही भिखारी उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। भिखारी ने उन्हें अनुसरण करने का इशारा किया और आगे बढ़ चला। तकरीबन डेढ़ कोस चलने के बाद भिखारी ने उनसे कहा, ‘आज तो आप बाल—बाल बच गए।'

‘हां...आपकी कृपा से। आपका परिचय?' भिखारी का महिलाओं जैसा स्वर उन्हें अटपटा लग रहा था।

‘क्रांतिपथ का एक मामूली पथिक। आप सामने जो गांव देख रहे हैं, वहां जाकर मास्टर साहब का घर पूछ लें। लोग बता देंगे। मास्टर साहब...कई दिनों से आपका इंतजार कर रहे हैं।' इतना कहकर भिखारी आगे बढ़ गया।

पंचानन राय का मास्टर नरेंद्र नाथ मजूमदार बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा कर रहे थे। पंचानन राय को देखते ही भाव विह्वल होकर गले लगा लिया। अवरुद्ध कंठ से बोले, ‘पंचानन...तुम्हें मालूम नहीं। पुलिस ने छात्राावास से दीपेंद्र, अवनि दास, बैकुंठ नाथ, कामता प्रसाद और सरदार प्रीतम सिंह के साथ कई निर्दोष छात्राों को भी गिरफ्तार किया है। हिरासत में ही कामता प्रसाद और अवनि दास शहीद हो चुके हैं। क्रांतिकारियों के बारे में जानने को पुलिस ने इन बच्चों पर इतना जुल्म ढाया कि कामता प्रसाद और अवनि सह नहीं सके। शहीद हो गए। लेकिन उनकी बहादुरी तो देखो। जान दे दी, लेकिन संगठन से गद्दारी नहीं की। पुलिस मेरे बाकी बचे बच्चों को या तो मार देगी या वे मुंह खोलने पर मजबूर हो जाएंगे।'

यह सुनकर पंचानन राय फफक कर रो पड़े। काफी देर तक आंखों से अश्रु झरते रहे। मजूमदार उनका कंधा थपथपाते रहे। काफी देर बाद जब वे सामान्य हुए, तो मास्टर मजूमदार ने उनसे कहा, ‘तुम आराम करो, थके हुए होगे। कल प्रहरी का नया अंक तैयार करो। इसको यहीं छपवाने की व्यवस्था मैंने कर ली है। इसकी एक प्रति लेकर तुम्हें दिल्ली जाना है। दिल्ली, संयुक्त प्रांत, पंजाब आदि प्रांतों में भी छपवाकर जनता में इसे वितरित किया जाना है। वैसे इन प्रांतों में भी क्रांतिकारी और उनके संगठन सराहनीय कार्य कर रहे हैं। वे भी कई गुप्त पर्चे निकाल रहे हैं, जरूरत विचारों के आदान—प्रदान की है। कुछ क्रांतिकारी संगठन मेरे संपर्क में हैं, जो बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर लड़ना चाहते हैं। दिल्ली के एक क्रांतिकारी दल ने तो मेरठ में एक गुप्त छापाखाना भी खोल रखा है, जहां क्रांतिकारी साहित्य छापा जाता है। महाराज त्रिालोक्य नाथ चक्रवर्ती का निर्देश है, अब तुम वहीं रहकर क्रांतिकारियों की मदद करो। ‘प्रहरी' के माध्यम से क्रांतिकारी चेतना का प्रचार—प्रसार करो। बंगाल से कहीं ज्यादा जरूरत तुम्हारी दिल्ली और संयुक्त प्रांत में है।'

‘कहीं आप मुझे यहां से भगाने के लिए तो नहीं कह रहे हैं? मैं अपने साथियों को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाला हूं। जिन साथियों ने अपने लहू से क्रांति की मशाल जलाई है, उसमें अपने लहू की गर्मी पैदा करके ब्रिटिश हुकूमत को जलाकर खाक कर दूंगा। बस, आप मुझे अपने साथियों की नजर में कायर मत बनाइए। मैं भागूंगा नहीं, यहीं रहकर संगठन का काम करूंगा।' पंचानन राय कहते—कहते भावुक हो गए।

मास्टर मजूमदार ने आर्द्र स्वर में कहा, ‘बेटा! क्रांति के दौरान व्यक्ति की महत्ता नहीं होती। महत्ता होती है, संगठन की। संगठन जो चाहता है, वह करना पड़ता है। संगठन व्यक्ति के मुताबिक नहीं चलता, संगठन के मुताबिक व्यक्ति को चलना पड़ता है। जाओ, कर्म क्षेत्रा तुम्हारा इंतजार कर रहा है। यहां रहे, तो पकड़े जाओगे। कारागार में बंदी क्रांतिकारी से कहीं ज्यादा बेहतर है आजाद क्रांतिकारी। जाओ...तुम यशस्वी बनो, क्रांति मार्ग पर सर्वस्व बलिदान करके अपनी मातृभूमि का कर्ज चुका पाओ, तो जीवन सार्थक होगा।'

पंचानन राय विरोध में कुछ कहना ही चाहते थे, तभी कमरे में एक युवती ने प्रवेश किया। युवती के आने से बातचीत रुक गई। मास्टर मजूमदार ने युवती से कहा, ‘आओ बेटी! इन्हें तो तुम जानती ही हो। पंचानन... यह मेरी बेटी है...मिताली।'

पंचानन ने गौर से मिताली को देखा। सांवली, औसत कद काठी की मिताली की आंखों में चमक थी। पंचानन राय को लगा, उन्होंने इन आंखों को कहीं देखा है, कहां यह स्मरण नहीं कर सके।

मिताली ने मजूमदार से कहा, ‘आप बातचीत करें। तब तक मैं रसोई तैयार करती हूं। पंचानन जी भूखे होंगे। इतनी दूर से यात्राा करके आए हैं।'

इतना कहकर वह बाहर चली गई। मिताली की आवाज सुनकर पंचानन राय चौंके, ‘अरे यह आवाज तो उस भिखारी की है, जो उसे पुलिस की गिरफ्त में आने से बचाकर स्टेशन से यहां तक लाया था।' यह बात वे संकोचवश मास्टर साहब से नहीं कह सके। मास्टर मजूमदार ने उनके चेहरे पर उभरे संकोच और आश्चर्य को पढ़ लिया। पता नहीं क्या सोचकर वे चुप ही रहे।

खाना खाते समय कई बातों के दौरान स्टेशन से बचाकर लाने वाले भिखारी की चर्चा चली। मास्टर मजूमदार ने कहा, ‘पंचानन! यही तो है वह भिखारी।'

उन्होंने मिताली की ओर इशारा किया। बोले, ‘यह बचपन से ही वेश बदलने में माहिर है। छात्राावास में हुई गिरफ्तारी के बाद से ही खुफिया पुलिस कुत्ते की तरह क्रांतिकारियों को सूंघती फिर रही है। शक के आधार पर ही काफी निर्दोष लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं। मुझे आशंका थी, कहीं तुम पुलिस के हत्थे न चढ़ जाओ। मैं पुलिस की नजरों में आना नहीं चाहता था। पुलिस के जुल्म या किसी दूसरे प्रकार के भय से नहीं, क्रांति की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए। तुम्हें सावधान करना भी जरूरी था। मजबूरन मिताली को भेजना पड़ा। मिताली ने साफ तो नहीं कहा, लेकिन उसकी इच्छा थी तुम्हें सचेत करने के लिए जाने की। पिछले चार दिन से मिताली स्टेशन जाकर निराश लौट रही थी।'

उस रात पंचानन राय सो नहीं पाए। दो साथियों का बलिदान और अन्य साथियों की गिरफ्तारी ने उन्हें व्यथित रखा था। उन्होंने क्रांतिकारी छात्राों की शहादत की एक रिपोर्ट के साथ प्रहरी का नया अंक तैयार किया। तीसरे दिन मास्टर मजूमदार प्रहरी का अंक पता नहीं कहां से छपवा लाए। मास्टर मजूमदार ने पंचानन राय को दिल्ली के एक क्रांतिकारी का पता देकर रवाना कर दिया।

ढाका से आने के बाद पंचानन राय दिल्ली और संयुक्त प्रांत के क्रांतिकारियों से मिले और उनके साथ सक्रिय हो गए। दो बार पकड़े भी गए। दोनों मामलों में आरोप सिद्ध नहीं हो पाया। ब्रिटिश हुकूमत ने न्याय का भरपूर नाटक किया। उन्हें साढ़े तीन साल जेल में बिताने पड़े। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत से पूर्व 27 फरवरी को चंद्र शेखर आजाद के शहीद हो जाने से क्रांतिकारी आंदोलन शिथिल हो गया। इन क्रांतिकारियों की शहादत ने जैसे क्रांतिकारी आंदोलन की रीढ़ ही तोड़ दी थी। कांग्रेसी और वामपंथी दल के कार्यकर्ता अंग्रेजों की खुफिया पुलिस का काम करने लगे। संयुक्त प्रांत और बंगाल के कई क्रांतिकारी कांग्रेसियों की मुखबिरी के चलते पकड़े गए। क्रांतिकारियों को कठोर सजाएं हुर्इं।

देश के युवाओं की तरह पंचानन राय भी इन स्थितियों से निराश होने लगे। कांग्रेस और महात्मा गांधी की अहिंसा के नाम पर अंग्रेजों से समझौते के आधार पर आजादी पाने की नीति पंचानन राय को सफल होती दिख रही थी। इसी बीच एक दिन पंचानन की दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में मिताली से मुलाकात हो गई। पंचानन को देखते ही वह दौड़ी और पास आकर ठिठक कर रुक गई। काफी देर तक दोनों मौन एक दूसरे को निहारते रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था, ऐसे मौके पर उन्हें क्या करना चाहिए। वे बात करें भी तो क्या? पंचानन राय ने देखा, मिताली की काया में चमक पहले से भी ज्यादा थी, लेकिन शरीर जरूर कमजोर हो गया था।

थोड़ी देर बाद पंचानन राय को होश आया। उन्होंने पूछा, ‘कैसी हो मिताली? तुम दिल्ली कब आर्इं?'

‘बारह दिन पहले...तब से आपको खोजने का प्रयास कर रही हूं।'

‘मास्टर साहब कैसे हैं? उनकी बड़ी याद आती है।' मास्टर मजूमदार को याद कर पंचानन राय भावुक हो गए। ढाका से विदा होते समय मास्टर साहब कितने विह्वल और बेचैन लग रहे थे? इस दृश्य को पंचानन राय नहीं भूल पाए थे। मास्टर साहब की ही वजह से वे अपने जीवन की एक दिशा तय कर पाए थे। पंचानन राय को अगर मास्टर साहब ने जबरदस्ती दिल्ली नहीं भेजा होता, तो वे किसी दिन पुलिस की गोली खाकर शहीद हो गए होते या फिर अन्य क्रांतिकारियों की तरह जेल में सड़ रहे होते। दिल्ली में भी वे कोई सुरक्षित नहीं थे। ब्रिटिश जासूस और पुलिस कुत्ते की तरह उनके बारे में सूंघती फिर रही थी। अब तो उन्हें पुलिस और ब्रिटिश एजेंटों से साथ चूहे—बिल्ली का खेल खेलने में मजा आने लगा था। यहां आकर वे कम से कम स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान तो दे सके।

पिता की बात चलते ही मिताली रोने लगी। पंचानन राय ने उसका हाथ पकड़ा, सड़क के किनारे पीपल पेड़ के नीचे बिठा दिया। बोले, ‘रोओ नहीं। बताओ, मास्टर साहब कैसे हैं? तुम यहां क्यों आई हो? मास्टर साहब भी आए हैं?'

मिताली काफी देर तक रोती रही। जब संयमित हुई, तो बताया, ‘आपके चले आने के बाद ब्रिटिश हुकूमत का जुल्म क्रांतिकारियों पर बढ़ता गया। जब क्रांतिकारियों से भेद नहीं पा सकी ब्रितानी हुकूमत, तो उसने भोले—भाले ग्रामीणों और शहरियों को लालच देना शुरू किया। कुछ क्रांतिकारी पकड़े भी गए। एक दिन अचानक पुलिस गांव में आई। पिता जी को पकड़ ले गई। दूसरे दिन उनकी लाश घने जंगल में पाई गई। लोग कहते हैं, उनके ही एक छात्रा ने ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी पाने की लालच में पिता जी का भेद खोल दिया था। पुलिस पिता जी को जंगल में ले गई। संगठन और साथियों का नाम न बताने पर कठोर यातनाएं दीं। जब कुछ नहीं उगलवा पाई ब्रिटिश पुलिस, तो उन्हें गोली मार दी। पिता जी की लाश पर पुलिसिया जुल्म के निशान थे। हाथ—पैर के नाखून प्लॉस या किसी दूसरी वस्तु से पकड़कर उखाड़ लिए गए थे।'

मास्टर मजूमदार की शहादत की खबर सुनकर अवाक रह गए पंचानन राय। उनकी आंखों से आंसू निकल आए। थोड़ी देर तक चुपचाप रोते रहे, फिर उनमें चेतना का संचार हुआ।

‘तुम्हें यहां आने की कैसे सूझी?' पंचानन राय गंभीर और भाव विह्वल हो गए।

‘आपके चले आने के बाद पिता जी काफी दिनों तक चुप से रहे। आपको बहुत याद करते थे। शायद उन्हें अपनी मौत का आभास हो गया था। या फिर उन्हें लगने लगा था, कोई उनसे विश्वासघात करेगा। अकसर कहा करते थे, अगर मुझे कुछ हो जाए, तो तुम पंचानन के पास चली जाना। आपकी तारीफ भी करते थे।' कहते—कहते उसकी आवाज थरथराने लगी। ‘पिता जी ने यहां के एक कांग्रेसी नेता के नाम पत्रा दिया था, जो कभी उनका शिष्य रहा था। बारह दिन पहले यहां आई, तो पता चला कि वे गांधी जी के साथ लाहौर गए हैं। महीने भर बाद लौटेंगे। उनके घर वालों ने मुझे रहने की जगह दे दी थी। कई दिनों से मन बेचैन हो रहा था, तो आज घूमने निकली थी। जब तक वे नहीं लौटते, तब तक वहां रहने की मजबूरी थी। संयोग अच्छा था कि आज आपसे मुलाकात हो गई।'

पंचानन राय काफी देर तक गमगीन बैठे रहे। वह क्या करें, क्या न करें, इसी ऊहापोह में थे। मिताली उनकी मनःस्थिति समझ रही थी, ‘अगर कोई संकोच हो, तो रहने दीजिए। आपसे मुलाकात हो गई, यही बहुत है। अब मैं कल या परसों कलकत्ता चली जाउं+गी। वहां मेरी मौसी रहती हैं। विधवा हैं। उनके कोई आगे—पीछे भी नहीं है। वे मुझे बेटी की तरह मानती हैं। उनके यहां जब तक संभव होगा, अपने दिन काट लूंगी। फिर देखा जाएगा।'

पंचानन राय अकबका उठे। उनके मुंह से निकला, ‘नहीं...नहीं...ऐसा कैसे होगा? तुम कहीं नहीं जाओगी। मास्टर साहब का विश्वास भंग नहीं होगा। तुम निश्चिंत रहो।'

मिताली को लेकर पंचानन राय चौराहे पर आए। उन्होंने एक हलवाई की दुकान से दो आने की पूड़ी—सब्जी ली। सड़क के किनारे बैठककर दोनों ने खाया। उसके बाद मिताली को लेकर वे कांग्रेसी नेता के घर गए। उन्होंने कांग्रेसी के घरवालों से अपने क्रांतिकारी होने की बात छिपा ली। उन्होंने बताया, वही वह शख्स है जिसे खोजने मिताली ढाका से दिल्ली आई है। यह भी बताया कि उनकी और मिताली की शादी बचपन में ही मास्टर साहब ने तय कर दी थी। अब उन दोनों के माता—पिता नहीं रहे। वह मिताली से शादी करना चाहते हैं। उन लोगों ने पंचानन की बात सुनकर प्रसन्नता जाहिर की। कांग्रेसी नेता की मां ने मिताली को पकड़कर अपने पास बिठा लिया। वे बोलीं, ‘अरे! तुम दोनों के मां—बाप नहीं हैं तो क्या हुआ? हम लोग तो हैं। बेटे को घर लौट आने दो, फिर हमारे घर से ही मिताली की डोली उठेगी। यह सुनते ही मिताली शर्मा गई। उसका चेहरा आरक्त हो उठा।

डेढ़ महीने बाद पंचानन राय मिताली को ब्याह लाए। तब तक मिताली उस कांग्रेसी के घर ही बेटी की तरह रही। अभी तक पंचानन राय अकेले थे, कहीं भी रह लेते थे। कभी दल के गुप्त ठिकाने पर, तो कभी किसी क्रांतिकारी के घर दोस्त बनकर। अब वे मिताली को इस तरह नहीं रख सकते थे। काफी सोच विचार के बाद वे पत्नी सहित लखनऊ चले आए। रकाबगंज में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगे। आजीविका और पुलिस से बचने के लिए अमीनाबाद स्थित एक प्रकाशन गृह में प्रूफ रीडर की नौकरी कर ली। लखनऊ आने के लगभग डेढ़ वर्ष बाद पंचानन राय पिता भी बन गए। पुत्रा चिंतामणि राय के जन्म के बाद प्रूफ रीडिंग से होने वाली आय से परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो रहा था। प्रकाशन गृह का मालिक भी आर्थिक तंगी का रोना रोता। कई बार मांगने पर बड़ी मुश्किल से पंद्रह रुपये निकल पाते। दो—दो महीने तक मजदूरी नहीं मिलती थी। सन्‌ सैंतालिस में जब कांग्रेस से समझौता कर सत्ता का हस्तांतरण हुआ और कथित रूप से भारत आजाद हुआ, उस समय चिंतामणि राय एक साल का हो चुका था।

एक दिन मिताली राय ने पति से कहा, ‘क्यों न आप प्रहरी का प्रकाशन शुरू कर दें? इससे पहले प्रहरी क्रांति का आह्वान करता था, अब लोगों में नई चेतना का संचार करेगा। क्रांतिकारी होने के नाते सरकार भी आपकी मदद करेगी। सुना है, सरकार क्रांतिकारियों को पेंशन भी देने जा रही है। आप भी अपना नाम लिखवा दें। सरकारी पेंशन से मैं किसी तरह गुजारा कर लूंगी। मैंने सत्तर—बहत्तर रुपये बचा रखे हैं। इससे प्रहरी की शुरुआत की जा सकती है।'

पत्नी का सुझाव पंचानन राय को अच्छा लगा। कई दिनों तक वे विचार करते रहे। एक दिन उन्होंने प्रहरी को साप्ताहिक निकालने का फैसला कर लिया। पत्नी के कई बार कहने के बावजूद क्रांतिकारियों को मिलने वाली पेंशन लेने नहीं गए। पत्नी कहती, तो उनका जवाब होता, क्रांति का रास्ता मैंने किसी स्वार्थ या लाभ—हानि को ध्यान में रखकर नहीं अपनाया था। वह अपनी मातृभूमि को स्वतंत्रा कराना चाहते थे। सो, वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए थे। यह समय की मांग भी थी और मेरा अपना जोश भी। जब तक हो सका, राष्ट्र की सेवा की। अब उस सेवा का कोई मूल्य उन्हें स्वीकार नहीं।

मिताली कहती, ‘दूसरे लोग भी तो ले रहे हैं? अपना नाम तो क्रांतिकारियों में उन लोगों ने भी लिखा लिया है, जो किसी चोरी—चकारी में जेल गए थे। वे भी पेंशन पा रहे हैं। उनके नाम बंगले और मकान एलॉट हो रहे हैं। आपने तो अपना जीवन ही होम कर दिया था, आप क्यों न लें? वाह...भाई...वाह...चोर उचक्के क्रांतिकारी बने फिरें और आप यहां संकट झेलें।'

पंचानन राय झल्ला जाते, ‘जो मुझसे नहीं हो सकता...मतलब...नहीं हो सकता। आज के बाद इस मुद्दे पर कोई बात नहीं होगी, समझी तुम।'

शुरुआत में उन्हें कई तरह की कठिनाइयां उठानी पड़ीं। पत्नी की मितव्ययता और उनके लगन की बदौलत धीरे—धीरे साप्ताहिक प्रहरी लोकप्रिय होने लगा। उसकी मांग बढ़ने लगी। दस साल की कठिन मेहनत, लगन और धैर्य रंग लाया। खर्चों में कटौती करके और कुछ मित्राों से उधार—बाढ़ी लेकर उन्होंने एक पुराना छापाखाना खरीद लिया था। और एक दिन...पंचानन राय ने साप्ताहिक प्रहरी को दैनिक कर दिया। इसके बाद तो पंचानन राय ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आजादी से पहले ढाका में यदा—कदा निकलने वाले अनियतकालीन प्रहरी ने लखनऊ में दैनिक के रूप में विशाल वटवृक्ष का रूप धारण करना शुरू किया। इस वटवृक्ष की शाखाएं निकलने लगीं। पत्राकारिता जगत में पंचानन राय एक बड़ी हस्ती हो गए। उनके क्रांतिकारी विचार और स्वभाव भी धीरे—धीरे तिरोहित होते चले गए। अब वे सिर्फ और सिर्फ उद्योगपति थे, मीडियाकर्मी थे। क्रांतिकारियों से उनका संपर्क भी लगभग टूट चुका था।

अब पंचानन राय बूढ़े हो चले थे। अखबार के कामों में थकान महसूस करने लगे। जब उनके बेटे ने हरियाणा में फैक्ट्री लगाने की जिद की, तो उन्हें लगा, जिस वटवृक्ष को उन्होंने अपने खून—पसीने से सींचा है, वह सूख जाएगा। उन्होंने जिद करके चिंतामणि राय को अखबार की जिम्मेदारी सौंपी। अब तो पंचानन राय कोई बहुत महत्व पूर्ण मामला हो, तभी उसे देखते हैं। बाकी मामले चिंतामणि राय ही देखते हैं। चिंतामणि राय ने दैनिक प्रहरी के उच्चाधिकारियों से कह रखा है, आप लोग अखबार चाहे जैसे चलाएं, बस टका (रुपया) आना चाहिए। रुपये बचाने के नाम पर मैनेजर, संपादक और प्रहरी के कुछ प्रभावशाली लोग कोई न कोई सुझाव पेश करते। अपना भला करने के साथ—साथ खर्चों में बढ़ोतरी करके चले जाते। विज्ञापन और सरकुलेशन के पैसे वसूलने के लिए डेस्क के साथियों को भेजने का विचार भी उनके एक मुंहलगे कर्मचारी ने ही दिया था।

प्रहरी कार्यालय परिसर की दूसरी मंजिल पर बना कॉन्फ्रेंस हाल भर चुका था। कॉन्फ्रेंस हाल में उपस्थित लोग एक दूसरे को उत्सुकता और संशय भरी निगाहों से देख रहे थे। लोगों को यह नहीं बताया गया था, आखिर उन्हें यहां क्यों बुलाया गया है? वैसे प्रत्येक सोमवार को संपादक के साथ संपादकीय टीम की बैठक होती थी। सप्ताह भर में अखबार में हुई त्राुटियों या उपलब्धियों पर चर्चा की जाती थी। मीटिंग खत्म होने से पहले ही जनरल, लोकल या डाक एडीशन के किसी मुलाजिम को यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि अगली मीटिंग में उसे साप्ताहिक समीक्षा रिपोर्ट पेश करनी है। शिवाकांत अभी पहुंचा था। बलिराम और सुप्रतिम अगल—बगल बैठे किसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे। दूसरी तरफ डाक एडीशन के इंचार्ज इंद्रजीत कटियार और जनरल डेस्क इंचार्ज मलखान सिंह अगल—बगल बैठे होने के बावजूद चुप थे। तभी हड़बड़ाए से प्रदीप तिवारी ने कॉन्फ्रेंस हाल में प्रवेश किया। उन्हें देखकर सीतापुर प्रतिनिधि राजेश कश्यप ने अपनी सीट छोड़कर उनसे बैठने का आग्रह किया। वह पिछली कतार में खाली कुर्सी पर जा बैठा।

शिवाकांत की नजरें पूरे हॉल में कैमरे की तरह फ्रेम दर फ्रेम पैन होती हुई घूमीं। तीसरी पंक्ति में खाली एक कुर्सी पर जम गई उसकी निगाह। उसने उस कुर्सी की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। शिवाकांत ने बगल में बैठे हरिहर झा से पूछा, ‘यह इमरजेंसी मीटिंग क्यों बुलाई गई है?'

हरिहर ने जमुहाई ली, ‘वैसे तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन थोड़ी देर रुकिए। पता चल जाएगा, माजरा क्या है?'

कुछ देर बाद ही चतुर्भुज शर्मा के साथ चिंतामणि राय ने हॉल में प्रवेश किया। बैठने के बाद उन्होंने शर्मा से कार्रवाई शुरू करने का इशारा किया। शर्मा ने थोड़ी देर तक पत्राकारों की नैतिकता और अखबारों की महत्ता पर भावनात्मक भाषण झाड़ा। लोग उनकी बात ऊबे हुए से अंदाज में सुन रहे थे। थोड़ी देर बाद वे सीधे मुद्दे पर आ गए। उन्होंने सभी लोगों पर नजर डाली। कहने लगे, ‘पिछले एक सप्ताह में अपने अखबार में कुछ ऐसी गलतियां हुई हैं, जो अक्षम्य हैं। ये ऐसी कोई नई किस्म की गलतियां नहीं हैं। इनके लिए आप लोगों को कई बार समझाया जा चुका है, वार्निंग दी जा चुकी है, लेकिन नतीजा...वही ‘ढाक के तीन पात' वाला निकला। आप लोगों से कहते—कहते मैं थक गया। सुनते—सुनते आप नहीं थके। कई बार तो भाई साहब के सामने आप लोगों के चलते शर्मिंदा भी होना पड़ा। लेकिन...जैसा कि आप लोगों को न सुधरना था, न सुधरे। मजबूर होकर मैनेजमेंट को यह मीटिंग बुलानी पड़ी, ताकि मिल बैठकर गलतियों और परेशानियों पर चर्चा की जा सके, कोई हल निकाला जा सके।'

संपादक शर्मा सांस लेने को रुके। फिर बोले, ‘अब तक जो गलतियां होती थीं, उससे तो हम सब परेशान थे ही। कुछ लोगों ने दूसरे अखबारों के लिए अपने ही संस्थान की मुखबिरी भी शुरू कर दी है। यह हम सबके लिए शर्म की बात है। यह पत्राकारिता के एथिक्स के खिलाफ है। एक बात मैं आप लोगों को बता दूं। कोई भी अखबार अपने यहां ‘विभीषण' नहीं रखना चाहता है। जो लोग यहां की खबरें और गोपनीय फैसले प्रतिस्पर्धी अखबारों तक पहुंचाते हैं, वे जरा उन अखबारों में नौकरी मांग कर देखें। प्रतिस्पर्धी अखबार उन्हें रखने को तैयार हैं? सारी सच्चाई सामने आ जाएगी।'

‘कल इंदिरा नगर के एक प्रतिष्ठित नर्सिंग होम में हुए बवाल की खबर अपने यहां नहीं है। शर्मा जी, पता कीजिए, ऐसा क्यों हुआ?' राय साहब ने हस्तक्षेप किया।

शर्मा जी ने सुप्रतिम की ओर देखते हुए कहा, ‘भाई साहब! सुबह की मीटिंग में इस संबंध में चर्चा हो चुकी है। दरअसल, इस खबर की जानकारी हमारे रिपोर्टर को नहीं हो पाई थी। इसके लिए रिपोर्टर को मैंने डांटा भी है।'

‘कि पैसा मिल गया? तो रिपोर्टर ने खबर ही नहीं लिखी?' राय साहब ने पूरे कमरे में परमाणु बम फोड़ दिया। राय साहब के मुंह से बात क्या निकली, पूरे कॉन्फ्रेंस हॉल में सन्नाटा छा गया। एक बार तो लगा कि सबको सांप सूंघ गया है। बलिराम मुस्कुराया। वह समझ गया, उसका बोया विषवृक्ष बड़ा हो गया है। उसमें बस फल लगने की देर है। राय साहब की बात से संपादक शर्मा भी तिलमिला उठे। मेडिकल बीट देख रहे अरविंद चौधरी का चेहरा तो मानो अपमान से काला पड़ गया। लगा, उसे किसी ने भरे बाजार नंगा कर दिया हो।

उसने आवाज को भरसक नम्र रखते हुए कहा, ‘चंद रुपये के बदले ईमान बेचने वाले कोई और होंगे। मैं नहीं ...सर जी! नर्सिंग होम वाली खबर मुझे पता नहीं चल पाई थी। इसकी माफी मैं सुबह मीटिंग में मांग चुका हूं। अगर इसके लिए आप कोई सजा देना चाहते हैं, तो मुझे मंजूर है। ये अपमानजनक बातें मुझे मंजूर नहीं हैं। बेशक मैं आपके संस्थान में नौकरी करता हूं, लेकिन मेरी भी इज्जत है। मेरे पूरे करियर में ऐसी बात किसी ने नहीं कही है, जो आज आपने कह दी है।'

‘चलो, मान लिया। तुमने पैसा नहीं खाया। खबर वाकई तुमसे छूट गई थी। पिकनिक स्पॉट के पास बने अलका रिसॉर्ट वाले मामले में क्या हुआ था? पिछले रविवार को प्रहरी के सिटी एडीशन में सिंगल कॉलम एक खबर छपी है। अलका रिसॉर्ट में पुलिस ने छापा मारकर चार छात्रा—छात्रााओं को रंगरलियां मनाते पकड़ा। बाद में पुलिस ने अभिभावकों के अनुरोध और छात्रा—छात्रााओं के भविष्य को देखते हुए बिना रिपोर्ट दर्ज किए मामले को रफा—दफा कर दिया। खबर में जो अन्य ब्यौरे दिए गए थे, वे रिसॉर्ट मालिक को बिल्कुल धमकाने वाले अंदाज में और सच्चाई से परे थे। सच तो यह है, उस रिसॉर्ट में छात्रा—छात्रााओं की गेट—टू—गेदर पार्टी चल रही थी। इसमें स्कूल टीचर्स और छात्रा—छात्रााओं के अभिभावक भी शामिल थे। पुलिस छात्राों को शोर मचाने से मना करने गई थी। इससे रिसॉर्ट में मौजूद दूसरे लोगों को दिक्कत हो रही थी। रिसॉर्ट की बगल में ही एक नर्सिंग होम है। शोर के चलते वहां भर्ती मरीजों को परेशानी हो रही थी जिसकी शिकायत किसी मरीज के परिजन ने पुलिस से की थी। इस छोटी—सी घटना को हमारे महान रिपोर्टर ने रिसॉर्ट मालिक से पैसा न मिलने पर सेक्स पार्टी में तब्दील कर दिया। रिसॉर्ट मालिक को अखबार के नाम पर ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई।'

‘आप ऐसा कैसे कह सकते हैं, सर! आपके पास इस आरोप का आधार क्या है?' अरविंद चौधरी ने राय साहब से सवाल किया।

‘अरविंद...तुम बैठ जाओ। अगर नेतागीरी करनी है, तो कहीं और जाओ। यहां तुम्हारी नेतागीरी नहीं चलेगी।' सुप्रतिम अवस्थी ने मौके का फायदा उठाया। राय साहब ने प्रशंसात्मक निगाहों से उसे देखा।

‘सर जी! आपके पास अपनी बात का कोई प्रमाण है? आप किसी रिपोर्टर का करियर दांव पर लगा दें। उसे अपना अपराध पूछने की इजाजत भी न दें, यह तो कोई बात नहीं हुई।' मोहनलाल गंज के संवाददाता राम हरख यादव ने नाक पर सरक आए चश्मे को दुरुस्त करते हुए कहा।

‘यह आरोप लगाने का पुख्ता आधार है मेरे पास। रिसॉर्ट मालिक राज कुमार सिन्हा ने मुझसे यह बात खुद कही है। वह मेरे ऑफिस में बैठे हुए हैं। संयोग से वे मेरे पुराने मित्रा हैं। सिन्हा जी ने दो महीने पहले भी शिकायत की थी। प्रहरी का एक रिपोर्टर अपने निजी कार्यक्रम के लिए रिसॉर्ट का वीआईपी हॉल फ्री चाहता था। जब रिसॉर्ट मालिक ने ऐसा करने में असमर्थता जताई, तो उस रिपोर्टर ने देख लेने की धमकी देते हुए पेमेंट कर दिया था। इस घटना के बाद ही अलका रिसॉार्ट को बदनाम करने की साजिश रची गई।' राय साहब ने सख्त लहजे में कहा, ‘अफसोस की बात तो यह है, इस साजिश में प्रहरी के कुछ सीनियर जर्नलिस्ट भी शामिल हैं।'

अपमान से तिलमिलाया अरविंद अब भी मोर्चे पर डटा हुआ था, ‘आप उन जर्नलिस्टों का नाम बताएंगे, सर! जिन्होंने सिन्हा जी के खिलाफ साजिश रची है।' अरविंद के समर्थन में चार—पांच लोग उठकर खड़े हो गए। वे भी नाम का खुलासा करने की मांग करने लगे। कॉन्फ्रेंस हॉल में शोर शराबा होने लगा।

‘हां, अभी बता सकता हूं मैं। सोचता हूं, यदि सिन्हा जी खुद बताएं, तो ज्यादा अच्छा होगा।'

उन्होंने सुप्रतिम से कहा कि वह जाकर सिन्हा जी को कॉन्फ्रेंस हॉल में बुला लाए। पांच मिनट में ही सिन्हा जी कॉन्फ्रेंस हाल में पहुंच गए। राय साहब ने पूछा, ‘सिन्हा जी, बताइए क्या यहां वह व्यक्ति बैठा है जिसने आपको ब्लैकमेल करने की कोशिश की थी।'

सिन्हा ने चारों तरफ निगाह दौड़ाई और उन्होंने सकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया।

‘तो बताइए किसने आपको ब्लैकमेल किया था?' राय साहब गरज उठे।

सिन्हा जी बुदबुदाए, जिसे कॉन्फ्रेंस हाल में आगे बैठे कुछ लोगों ने सुना, ‘अरविंद चौधरी और शिवाकांत।'

इतना कहकर सिन्हा जी रुके नहीं, बाहर चले गए। उनकी बात सुनते ही अरविंद चौधरी चिल्लाया, ‘यह मुझे फंसाने की साजिश रची गई है। मैं तो जीवन में कभी सिन्हा जी से मिला ही नहीं हूं। मैं उन्हें क्यों ब्लैकमेल करूंगा? और अगर सिन्हा जी से मिला भी, तो मेरा नाम क्यों लिया? यह साजिश है। उन्होंने हम दोनों की शिनाख्त क्यों नहीं की?'

राज कुमार सिन्हा ने दोनों का नाम लेकर कॉन्फ्रेंस हॉल में भूचाल पैदा कर दिया था। यह सुनते ही ज्यादातर लोगों में रोष की लहर दौड़ गई। कुछ तो खड़े होकर जोर—जोर से बोलने लगे। और शिवाकांत को तो जैसे काठ मार गया। दिमाग कठुआ गया। सोचने—समझने की शक्ति क्षीण हो गई। कनपटी के पास गूंजती ‘सांय...सांय' की आवाज सिर्फ उसे सुनाई दे रही थी। हाथ—पैर एकदम सुन्न से हो गए। उसने हाथ उठाकर सिन्हा की बात का विरोध करना चाहा। लेकिन यह क्या? हाथ तो एकदम बेजान हो चुके थे। उसने पूरी ताकत लगाकर उठना चाहा, ताकि वह अपने ऊपर उछाले जा रहे कीचड़ से बच सके। उसका प्रतिवाद कर सके। लेकिन... इसमें भी वह सफल नहीं हो सका। कुर्सी उससे चिपक गई थी, कम से कम उस वक्त उसे ऐसा ही लगा। उसने चीखकर प्रतिरोध करने के लिए फेफड़े में खूब हवा भरी। उसे लगा कि शब्द उसके गले में आकर अटक गए हैं। गला पूरी तरह से चोक हो गया है। शब्द दिल से निकलते हैं, लेकिन गले तक आने के बाद अटक जाते हैं। निकल नहीं पाते। जुबान ही नहीं, पूरा शरीर मानो लकवाग्रस्त हो चुका था।

उसे बचपन में देखी गई रामलीला का एक प्रसंग याद आया। सीता परित्याग प्रसंग में सीता का अभिनय कर रही कलाकार भी अयोध्या से निकाले जाने का आदेश सुनकर ऐसे ही कठुआ गई थी। उसके इस अभिनय की सबने प्रशंसा की थी। वह तो उस तरह कठुआने के पैसे लेती थी, कलाकार थी। वह तो कलाकार नहीं था। उसे तो कोई पैसे नहीं मिले थे। न ही उसने आज तक कोई ऐसी बात ही की थी। फिर वह क्यों कठुआ गया ऐन मौके पर? जब भी वह सीता परित्याग के प्रसंग पर विचार करता था। तो उसे लगा था, उस कलाकार की ही तरह सीता भी कठुआ गई होंगी, जब राम का आदेश उन्होंने सुना होगा। वह बार—बार विचार करता। हर बार वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा था, लंका में रावण पर विजय प्राप्त करने पर सीता की एक बार अग्नि परीक्षा लेने के बाद भी राम के मन का अविश्वास खत्म नहीं हो पाया था। वह अयोध्या आने के बाद भी सीता के सतीत्व को लेकर सशंकित थे। धोबी तो एक बहाना था। यह भी संभव है, सतीत्व को लेकर आशंकित राम सीता से मुक्ति पा लेना चाहते रहे हों। और निष्कासन का आदेश सुनने के बाद जब तक कठुआई सीता का मस्तिष्क वाह्य जगत से तादात्म स्थापित कर पाता, लक्ष्मण ज्येष्ठ भ्राता के आदेश के पालनार्थ सीता को रथ पर बिठाकर वनगमन के लिए ले उड़े होंगे। कितना कुछ भोगा होगा उस सीता ने, जो निष्कासन के वक्त गर्भिणी थीं। कई वर्षों तक देवराज इंद्र के बलात्कार और समाज की दोहरी मानसिकता के दंश से कठुआई अहिल्या के दर्द को तो राम ने समझा, लेकिन सीता की पीड़ा को वे भुला बैठे? और अहिल्या...? उसके साथ तो बलात्कार हुआ था। बलात्कार की असहनीय पीड़ा को सहने के बाद जब उसने तत्वज्ञानी ऋषि गौतम की दृष्टि में भी शंका की तरंगें उठती देखी होगी, तो उसे यकीनन काठ मार गया होगा। यह पीड़ा तो राम के तारने के बाद भी आंतरिक रूप से उसे आजीवन सहनी पड़ी होगी।

और अब...? सीता और अहिल्या जैसी ही पीड़ा शिवाकांत भी भोग रहा था। उसके कठुआए मस्तिष्क में सिर्फ एक ही बात गूंजी। बलात्कार तो आज उसके साथ भी हो रहा है...यह भले ही दैहिक न हो। उसकी कर्मठता, निष्ठा और निष्कलुषता के साथ दुष्कर्म तो हो ही रहा है। युग और पात्रा भले ही बदल गए हों, लेकिन आज भी निष्कलुष और निर्दोष व्यक्तियों को सीता और अहिल्या के समान यह त्राासदी तो भोगनी ही पड़ रही है। त्रोता युग की बजाय कलियुग में चिंतामणि राय, चतुर्भुज शर्मा और सुप्रतिम अवस्थी जैसे न जाने कितने देवराज इंद्र सच्चाई के साथ बलात्कार कर रहे हैं। लोग सिर्फ पनियाई आंखों से देखने को विवश हैं। कलियुग के लक्ष्मण बिना कोई प्रतिरोध किए देखने और साथ देने को मजबूर हैं। लक्ष्मण भी कहां विरोध कर पाए थे राम का! सीता की अग्नि परीक्षा के समय या सीता परित्याग के अवसर पर। वे तो उस मनोवृत्ति के वाहक बन गए थे। यानी सीता के प्रति राम ही नहीं, लक्ष्मण भी सशंकित थे।

पूरे शरीर में एकमात्रा चैतन्य आंखों ने देखा, चिंतामणि राय और संपादक चतुर्भुज शर्मा अपनी सीट से उठ खड़े हुए हैं। उसके अर्ध चैतन्य मस्तिष्क ने बस यही कहा, अपने ऊपर लगाए गए आरोपों के प्रतिकार का यह आखिरी मौका भी उसके हाथ से निकलने वाला है।

वह गला फाड़कर चिल्लाया, ‘आप मुझ पर ब्लैकमेलर होने का आरोप लगाकर इस तरह नहीं जा सकते। आपको सिद्ध करना होगा या फिर मेरी बात सुननी होगी।'

अपनी सीट से दो कदम आगे बढ़ चुके राय साहब के साथ—साथ हाल में मौजूद अन्य लोग चौंक पड़े। राय साहब ने लगभग अर्धविक्षिप्त हो चुके शिवाकांत को प्रताड़ना भरी नजरों से घूरते हुए सिर्फ इतना कहा, ‘तुम अपनी सफाई में कुछ कहने का मौका खो चुके हो। अब तुम्हें जो कहना है, वह कल दोपहर मुझसे मेरे चैंबर में आकर कहना। इस समय मेरे पास तुम्हारे लिए कोई समय नहीं है।'

यह सुनते ही शिवाकांत ने कॉन्फ्रेंस हॉल के सफेद मार्बल से बने चमचमाते फर्श पर घृणापूर्वक थूक दिया। वह सिर्फ एक नपुंसक विरोध ही दर्ज करा पाया। नपुंसक विरोध

...सिर्फ एक मामूली—सा नपुंसक विरोध। वह कसमसाया तो बहुत, लेकिन उसका तीर निशाने से चूक गया था। वह किसी हारे हुए तीरंदाज की तरह सिर पकड़कर बैठ सकता था, कुछ करने की हिम्मत शायद उसमें नहीं थी।

थूकने की दिशा में खड़े लोग इधर—उधर हो गए। राय साहब और शर्मा के बाहर निकलते ही एक—एक कर लोग निकलने लगे। सुप्रतिम अवस्थी ने शिवाकांत पर दृष्टिपात करते हुए सिटी रिपोर्टरों से कहा, ‘चलो तुम लोग भी जल्दी—जल्दी खबरें लिखो।'

इतना कहकर वह चला गया। कॉन्फ्रेंस हॉल में खड़ी मंजरी अग्रवाल, शिवानी भटनागर, अरविंद चौधरी और आशीष गुप्त शिवाकांत की ओर बढ़े।

मंजरी ने शिवाकांत को अकबकाया—सा देखकर कहा, ‘मेरी समझ में नहीं आता, ऐन मौके पर आप ‘इंपोटेंट' की तरह चुप्पी क्यों मार जाते हैं? अगर आपने रिसॉर्ट मालिक से कोई डील नहीं की थी, तो आपको मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए था। आपकी इस चुप्पी का क्या अर्थ है? क्या राय साहब सही कह रहे थे?'

अरविंद चौधरी ने कुपित होकर कहा, ‘भाई साहब! मुंह में दही जमाने से आप निर्दोष नहीं साबित हो जाएंगे। कॉन्फ्रेंस हॉल से निकलने वाला हर शख्स मीडिया जगत में इस खबर को ब्राडकॉस्ट कर रहा होगा। दूसरे अखबारों के दफ्तर में आपको लेकर बतकूचन शुरू हो चुकी होगी। एक ही बात को दसियों बार दोहराया जा रहा होगा। प्याज के छिलके की तरह परत—दर—परत घटना की मीमांसा की जा रही होगी। यदि जल्दी आपने अपने माथे पर ब्लैकमेलर का लगा दाग नहीं छुड़ाया, तो दूसरे अखबारों में आपको चपरासी की नौकरी भी नहीं मिलेगी।'

अरविंद की आखिरी बात सुनकर मंजरी हंस पड़ी। उसने उपहासात्मक लहजे में कहा, ‘छोड़ो यार! हम सब लोग कहां मगजमारी कर रहे हैं। मुझे लगता है कि शिवाकांत सर अर्धनारीश्वर हैं। वैसे तो ट्‌वंटी फोर ऑवर्स उनके भीतर निवास करने वाला पुरुष जागता रहता है। तब ये क्रांति की बड़ी—बड़ी बातें करते हैं। मीडिया और समाज को सुधारने का नुस्खा सोचते रहते हैं। लोगों से बात—बात पर झगड़ पड़ते हैं। लेकिन जब जीवन में कोई निर्णायक पल आता है, इनके मन के किसी कोने अतरे में छिपी बैठी नारी जाग जाती है। बस, यहीं गड़बड़ हो जाती है। और तब...शिवाकांत सर भोले भंडारी हो जाते हैं। भांग धतूरे के नशे में मस्त मौनी बाबा...।'

शिवाकांत ने एक कदम पीछे हटकर कुर्सी की बांह थाम ली। उस पर बैठ गया। पूरा शरीर पसीने से तर—ब—तर हो चुका था। उसे लग रहा था, शरीर का सारा रक्त कनपटी के पास आकर एकत्रा हो गया है। और उस रक्त के दबाव से उसके दिमाग की नसें मानो फट जाएंगी। उसके मस्तिष्क में बस एक ही बात गूंज रही थी। कौन है इस घटना—

परिघटना का सूत्राधार? राय साहब खुद...संपादक चतुर्भुज शर्मा, एनई प्रदीप तिवारी, सुप्रतिम अवस्थी या कोई अन्य...? उसे फंसाने के लिए किस मकड़ी ने इतना घना जाल बुना? जिसमें फंसा वह किसी कीड़े की तरह छटपटा तो रहा है। लेकिन निकल पाना उसके बूते की बात नहीं है। सबसे अहम सवाल तो यह है, उस पर ऐसा घिनौना आरोप लगाया क्यों गया?

उसके मस्तिष्क में ही छिपे बैठे प्रति मस्तिष्क ने जवाब दिया, ‘बच्चू! यह निजाम है। इस निजाम के साथ बहो, तो बहुत कुछ पा सकते हो। सुख—सुविधा, रुपये—पैसे, पद, मान—सम्मान और भोगने को लड़कियां...सब कुछ। पा ही रहे हैं लोग। गधों के सिर पर ताज सजाए जा रहे हैं। ताज पहनकर गधे खुशी से नाच रहे हैं। ताज पहनाने वालों को कोर्निश बजा रहे हैं। उनकी विरुदावलियां गाई जा रही हैं। उनके जायज—नाजायज फैसलों को न केवल सिर झुकाकर स्वीकार किया जा रहा है, बल्कि दूसरों को भी ऐसा करने को मजबूर किया जा रहा है। तुम भी सुबह—शाम फोन पर ही सही संपादक शर्मा को सलाम ठोंकते, राय साहब की जी हुजूरी करते। तो क्या आज जैसी नौबत आती? क्या राय साहब नहीं जानते, सुप्रतिम शहर भर में अखबार की धौंस दिखाकर वसूली करता है। सरकुलेशन वाले वसूली में घपला करते हैं? अनसोल्ड अखबार का मास्ट हेड काटकर बाकी अखबार रद्दी में बेचकर पैसे खा जाते हैं। ऐडवरटाइजमेंट डिपार्टमेंट के लगभग कर्मचारियों और रिपोर्टरों ने अपनी बीवी के नाम पर ऐड एजेंसियां खोल रखी हैं। अखबार को मिलने वाले नब्बे फीसदी विज्ञापन इन्हीं फर्जी एजेंसियों से आते हैं। कमीशन जाते हैं इन लोगों की जेब में। विज्ञापन लाना ही इनकी नौकरी का हिस्सा है। और फिर राय साहब...? कहां दूध के धुले हैं? धाकड़ रिपोर्टरों की बदौलत सत्ता के गलियारे में दलाली करते हैं। पैसे लेकर ट्रांसफर—पोस्टिंग का धंधा चलाते हैं। शिवाकांत! इस निजाम का दस्तूर है, खुद छककर खाओ, दूसरों को भी खाने का भरपूर मौका दो। अकेले खाने वाला या न खाने वाला यहां सरवाइव नहीं कर सकता। तुम्हारी सबसे बड़ी गलती यही है, तुम न खुद खाते हो, न किसी को खाने देते हो। उस पर अकड़ यह कि किसी के आगे झुकना नहीं है। अरे, दर—दर की ठोकर खाने से अच्छा है, एक जगह शरणागत हो जाओ। उसके सामने झुके रहो, बाकी दुनिया के सामने अकड़ते रहो। लेकिन नहीं ...न जाने कौन—सा खब्त तुम पर हमेशा सवार रहता है। पाठकों के हितों के नाम पर चौबीस घंटे लाठियां भांजते रहते हो। तुम्हारी बीवी माधवी ठीक कहती है, पाठकों ने तुम्हारे गले में अपने हितों की सुरक्षा के नाम पर पट्टा डाल रखा है। बदले में पाठकों के आगे दुम हिलाना, तुम्हारी विवशता है।'

तिलमिलाया मस्तिष्क फुंफकार उठा, ‘अंतरात्मा भी तो कोई चीज होती है? उसे कहां ले जाकर दफना दूं।'

प्रति मस्तिष्क कुटिलता से मुस्कुराया। उसने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘कौन पूछता है तुम जैसों की अंतरात्मा को। कौड़ियों के मोल नक्खास बाजार में बिकती हैं ऐसी आत्माएं। मैं थूकता हूं तुम्हारी अंतरात्मा पर।' इतना कहकर प्रति मस्तिष्क ने जोर से शिवाकांत के चेहरे पर थूक दिया।

शिवाकांत ने झट से आंखें खोल दी। उसने अपने चेहरे पर हड़बड़ाकर दाहिने हाथ की हथेली इस तरह फिराई, मानो किसी ने सचमुच उसके चेहरे पर थूक दिया हो। उसे साकित बैठा देखकर उसके सामने खड़े लोग घबरा गए।

शिवानी ने उसके माथे को छुआ। आशीष ने दाएं कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘शिवाकांत! मैं तुम्हारी मनोदशा समझ सकता हूं। राय साहब द्वारा लगाए गए घिनौने आरोप का प्रतिकार तुमने तत्काल क्यों नहीं किया, इसका भी अनुमान लगा सकता हूं। होता क्या है, जब किसी निष्कलुष व्यक्ति पर ऐसा कोई गंदा आरोप लगाता है, तो उसका मस्तिष्क किसी लकवाग्रस्त रोगी के अंग जैसा हो जाता है। चेतना सुन्न हो जाती है। आदमी अपने आसपास के परिवेश से जुड़ा तो रहता है, लेकिन कुछ बोल नहीं पाता। बोलना चाहकर भी नहीं बोल पाता। कुछ लोग क्षण मात्रा में ही चैतन्य हो जाते हैं, कुछ को समय लगता है। यह समय दो मिनट का हो सकता है, दो दिन का भी, महीनों और वर्षों का भी।'

‘लेकिन...उस कीचड़ का क्या होगा, जो भरी मीटिंग में शिवाकांत सर के चेहरे पर मली गई है। लोग तो यही समझेंगे, इन्होंने रिसॉर्ट मालिक को ब्लैकमेल किया होगा। यह कलंक तो अब जिंदगी भर इनका पीछा करेगा। किस—किसको समझाने जाएंगे, मैंने कुछ नहीं किया...मैंने कुछ नहीं किया...मैं निर्दोष हूं। और लोग...इनकी बात पर विश्वास क्यों करेंगे।' मंजरी ने उत्तेजना दबाने की कोशिश की। उसे राय साहब और संपादक शर्मा पर क्रोध आ रहा था।

‘देखो...जिसे विश्वास नहीं करना है, वह पूरे शहर में ढिंढोरा पीटने या आरोपों की असत्यता सिद्ध हो जाने के बाद भी नहीं करेगा। अब मुझे ही लो, कोई गंगाजल हाथ में लेकर भी कहे, शिवाकांत ने ऐसा किया है, तो भी मैं किंचित विश्वास नहीं करूंगा। यहां तक कि यदि शिवाकांत खुद स्वीकार करें, तो भी मैं यही मानूंगा, इनकी स्वीकारोक्ति किसी दबाव का परिणाम है।' आशीष ने आत्म विश्वास भरे लहजे में कहा।

उसकी बात सुनकर अरविंद चौधरी और शिवानी ने सिर हिलाकर समर्थन किया, लेकिन बोले कुछ नहीं। शिवाकांत ने क्षण भर आशीष को निहारा, फिर नजरें नीची कर ली।

‘यह सब हरामी सुप्रतिम का किया धरा है। उसकी आंखों में हम लोग खटकते रहते हैं। उसी ने राय साहब और संपादक जी के कान भरे हैं। बहुत दिन से हम लोग उसके राडार पर थे। मौका लगा, तो एक को निबटा दिया हरामी ने।' शिवानी ने पहली बार मुंह खोला।

‘अरे नहीं! सुप्रतिम की यह मजाल नहीं है कि वह खुलकर ऐसी गंदी हरकत कर सके। इसके पीछे कुछ लोगों का हाथ है। और फिर...राय साहब या संपादक जी कोई दूध पीते बच्चे हैं, जो उन्हें बहलाया—फुसलाया जा सकता है?' आशीष कह रहा था।

‘भाई साहब! आपको अंदाजा नहीं है, सुप्रतिम कितना हरामी और कांइया है। बास्टर्ड...वैसे तो दूध का धुला बनता है। लेकिन है एक नंबर का बदमाश। लड़कियों के मामले में तो हरामीपन की कोई सीमा नहीं है। आप शायद एक किस्सा नहीं जानते हैं! प्रादेशिक डेस्क के करमपाल यादव ने डेढ़ साल पहले एक कॉल के लिए एक दिन उसका मोबाइल फोन मांगा। सुप्रतिम ने पता नहीं क्या सोचकर दे दिया। पांच—सात मिनट बाद वह मोबाइल फोन सुप्रतिम को वापस कर गया। थोड़ी देर बाद सुप्रतिम के मोबाइल फोन पर एक लड़की का फोन आया। सुप्रतिम ने लड़की से बात की। उसने पूछा, तो उस लड़की ने बताया, अभी थोड़ी देर पहले इस मोबाइल फोन से उसको कॉल आई थी। वह लॉन में थी, सो अटेंड नहीं कर पाई।'

सुप्रतिम ने कहा, ‘मैंने तो कॉल नहीं की थी। मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं, फिर क्यों कॉल करूंगा भला।'

लड़की ने जिद भरे स्वर में कहा, ‘नहीं, अभी सात—आठ मिनट पहले मेरे मोबाइल पर कॉल इसी मोबाइल फोन से आई थी।'

शिवानी ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘लड़की की बात पर सुप्रतिम को याद आया, उसका मोबाइल फोन तो थोड़ी देर पहले करमपाल मांग कर ले गया था। उसने पूछा, तुम करमपाल को जानती हो?'

लड़की ने करमपाल से अपना परिचय स्वीकार कर लिया। बस फिर क्या था? उस लड़की से सुप्रतिम ने नाम, पता, उम्र और पढ़ाई—लिखाई आदि के बारे में पूछ डाला। लालबाग स्थित एक गर्ल्स डिग्री कॉलेज की उस छात्राा को सुप्रतिम समझाने लगा, ‘करमपाल बहुत खराब करैक्टर का लड़का है। तुम भोंदू करमपाल के चक्कर में कहां से फंस गई। पत्राकारिता में उसका कोई भविष्य नहीं है। अब अगर वह तुम्हें फोन करे, तो उसे डांट देना और मुझे भी बताना। मैं भी उसे डांट दूंगा। दैनिक प्रहरी का समाचार संपादक हूं।'

अब तक शिवाकांत भी नार्मल हो चुका था। उसके चेहरे और आंखों की लालिमा लौटने लगी थी। मंजरी अग्रवाल बड़ी तन्मयता से शिवानी का बात सुन रही थी, मानो शिवानी का बात पूरी होते ही वह भी कुछ कहना चाहती हो। शिवानी ने पल भर रुककर सांस खीची और बोली, ‘इसके बाद जनाब ने उस लड़की से अगले दिन हजरतगंज में मिलने का वायदा करा लिया। अगले दिन सुप्रतिम उससे मिला भी। रेस्टोरेंट में बिठाकर कॉफी पिलाई, बर्गर खिलाया।'

‘सही कह रही हो। कुछ दिन पहले करमपाल टाइम ऑफिस के सामने अवरुद्ध कंठ से सबको बता रहा था, सुप्रतिम ने उसकी ‘लवर' को हथिया लिया है। सुप्रतिम से मुलाकात न होने से पहले वह मेरे साथ जीने, मरने की कसमें खाती थी। मैरिज के सपने देखती थी। लेकिन अब उसके सिर पर सुप्रतिम के इश्क का भूत सवार है। करमपाल का वह चेहरा तक देखना नहीं चाहती है। करमपाल कह रहा था, उसके मोबाइल फोन में उस दिन बैलेंस न होना और सुप्रतिम का मोबाइल फोन यूज करना, उसके लिए अभिशाप हो गया।' मंजरी ने आगे का खुलासा करते हुए कहा।

‘बात यहीं तक होती तो कोई बात नहीं थी। सुना है, वह लड़की साल भर में दो बार एबार्शन करवा चुकी है। पता नहीं किसका पाप था। सुप्रतिम का या उसके किसी दूसरे यार का?' शिवानी व्यंग्यात्मक लहजे में मुस्कुराई।

मंजरी और अरविंद ने संकोचवश चेहरा घुमा लिया। हमेशा शांत और शालीन रहने वाली शिवानी के मुख से ऐसी बातें सुनने की अपेक्षा किसी को नहीं थी। वे लोग सकुचाकर एक दूसरे से नजरें मिलाने से बचने लगे।

‘चुप रहो। स्त्राी लाख पढ़—लिख जाए, अपने को मॉडर्न कहने लगे, लेकिन उसका स्त्राीपना कभी नहीं जाता। प्रपंच तो तुम औरतें जैसे घुट्टी में पीकर आती हो। शर्म आनी चाहिए ऐसी भद्दी और वाहियात बातें करते हुए।' आशीष ने डांटा। हालांकि इस डांट के पीछे कोई गुस्सा नहीं था। दरअसल, वह इस मुद्दे पर कुछ और सुनना नहीं चाहता था। उसने शिवाकांत को उठने का इशारा किया। शिवानी भटनागर ने बालों से क्लिप निकालकर होंठों से दबा ली। खुले बालों का जूड़ा बनाने के बाद क्लिप लगाते हुए कहा, ‘देखिए आशीष सर! स्त्राीत्व पर कोई कमेंट न करें। मेरी बातें अश्लील और अनुपयुक्त अवसर पर कही गई हो सकती हैं, लेकिन इसमें गलत बात कोई नहीं है। अगर हो, तो बताइए। मैं माफी मांग लूंगी।'

आशीष ने शिवाकांत की बांह पकड़कर हिलाया। शिवाकांत उठकर खड़ा हो गया, ‘अब आप लोग काम कीजिए। मैं घर जा रहा हूं। राय साहब ने क्या दंड निर्धारित किया है, यह मैं ठीक से सुन नहीं पाया। आप लोग बता सकते हों, तो बताएं।'

‘अरविंद चौधरी को चेतावनी दी गई है, वह अपने काम में लापरवाही न बरते। भविष्य में अगर लापरवाही पाई गई, तो उसे टर्मिनेट कर दिया जाएगा। आपके खिलाफ जांच बिठा दी गई है। जनरल डेस्क इंचार्ज मलखान सिंह, सरकुलेशन डिपार्टमेंट की नंदिनी वर्मा और एचआर हेड प्रवीण कठेरिया दो हफ्ते में जांच करके राय साहब को रिपोर्ट देंगे। रिपोर्ट आने के बाद ही आपके संबंध में कोई फैसला लिया जाएगा। सुप्रतिम अवस्थी इन लोगों को को—आर्डिनेट करेगा।' यह सिटी डेस्क के कपिल यादव की आवाज थी।

आशीष गुप्ता को खोजने आए कपिल ने शिवाकांत का सवाल सुन लिया था। उसने शिवाकांत और आशीष पर उड़ती—सी नजर डालते हुए कहा, ‘भाई साहब! आपको सुप्रतिम बुला रहे हैं।'

आशीष ने शिवाकांत पर नजर डालते हुए कहा, ‘कपिल! तुम चलो। मैं अभी आता हूं। शिवाकांत! मेरी मानो, तो इस समय तुम सीधे घर जाओ। चिंता मत करो, कहीं कुछ नहीं होगा। जांच होने दो, दूध का दूध—पानी का पानी हो जाएगा। मैं जाता हूं। कल दोपहर को कॉफी हाउस में मिलते हैं।'

बिना किसी से कुछ कहे शिवाकांत हताश कदमों से कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल आया। आशीष सिटी डेस्क के रूम में पहुंचा, तो पाया, सुप्रतिम उं+चे स्वर में किसी से कह रहा था, ‘देखा, इसे कहते हैं, प्यादा पिटवाकर बादशाह को शिकस्त देना। अब पता चलेगा शिवाकांत को।' तब तक उसकी नजर आशीष पर पड़ी और वह चुप हो गया।

ऑफिस से निकल कर शिवाकांत सोचने लगा, कहां जाए? उसको पता नहीं क्यों, पूरी दुनिया ही नीरस और रंगहीन लगने लगी थी। कभी—कभी तो सड़क पर आते—जाते लोगों पर एक अजीब—सा गुस्सा, एक न जाने कैसी खीझ उभरने लगती। वह सोचने लगता, अगर वह किसी देश का तानाशाह होता, तो वह देश में उन्हीं लोगों को रहने की इजाजत देता, जिसके चेहरे पसंद आते। जिसको देखकर जरा—सी भी खीझ उसके मन में पैदा होती, उसे वह तत्काल मौत की नींद सुला देता। यह शायद उसके मन के कहीं किसी कोने में दबे, बैठे निरीह और बेबस इंसान की अदम्य इच्छा थी। जब कमजोर और आत्म बलहीन व्यक्ति सत्य के पक्ष में खड़ा होने के बावजूद हार जाता है, तो उसके मन में ऐसी ही अदम्य भावनाएं जन्म लेती हैं। वह क्रूर हो जाता है। वह हर उस शख्स से बदला लेने पर उतारू हो जाता है, जिससे कभी वह अपमानित हुआ हो या फिर चोट खाया हो। फिर उसका मन होने लगता, वह किसी के कंधे पर सिर रखकर फूट—फूट कर रोए। इतना रोए कि उसकी पलकों में आंसुओं का एक भी कतरा शेष न बचे। पहले तो सोचा, घर चला जाए और खूब जमकर सोए। फिर खयाल आया, घर पहुंचते ही माधवी सौ सवाल पूछेगी। मास्टरनी जो ठहरी। इतनी जल्दी क्यों लौट आए? कभी मैं कहती हूं जल्दी आने को, तो आपके पास बहानों की कमी नहीं होती है। आज क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है न? किसी से झगड़ा हुआ है क्या? मैं बार—बार कहती हूं, किसी से झगड़ा करना ठीक नहीं है। अब झगड़ा बाहर करोगे और गुस्सा बच्चों या मुझ पर निकालोगे। कई बार तो वह उसके सवालों से ऊब जाता। सवाल पूछना उसका पेशा भी है और शगल भी। ऐसे—ऐसे सवाल करती है कि दिमाग पक जाए। एकदम दिमाग का दही बना देती है। एक बार वह उसके सवालों से आजिज आकर बोल पड़ा था, ‘यार तुमने तो मेरे दिमाग का दही बना दिया।'

माधवी ने तुरंत बात पकड़ ली, ‘दिमाग का दही बनाना कोई नया मुहावरा गढ़ा है क्या? तुम पत्राकारों ने भाषा को जितना भ्रष्ट किया है, उतना भाषा को किसी और ने नुकसान नहीं पहुंचाया है। उस पर आए दिन लेखों और खबरों के माध्यम से भाषा की पवित्राता और गरिमा को लेकर कटाजुज्झ मचाए रहते हो।'

बाप रे! कैसे सूझते हैं उसे इतने सारे सवाल? लगता है, उसके दिमाग के एक हिस्से में सवालों की फैक्ट्री लगी हुई है जिसमें सिर्फ सवालों का ही उत्पादन होता रहता है। उसके विद्यार्थी कैसे झेलते होंगे चार—पांच घंटे। बेचारों का भेजा फ्राई हो जाता होगा। बेचारे...उसे अपने बजाय विद्यार्थियों पर दया आती।

सड़क के किनारे खड़ा वह सोच ही रहा था कि उसे एक शे'र याद आ गया। ‘इस वक्त अगर जाउं+गा सब चौंक पड़ेंगे, मुद्दत हुई दिन में कभी घर नहीं देखा।' नहीं ...इस वक्त वह घर नहीं जा सकता। माधवी की उपहासात्मक मुस्कान और सवालों का सामना करने की हिम्मत उसमें नहीं है। वह रात में जाएगा...चुपके से...बिल्कुल चोरों की तरह, दबे पांव। कुछ साल पहले तक गांव में जब दोस्तों के साथ घूमते—फिरते रात ज्यादा हो जाती थी, तो वह घर में घुसते समय चप्पल या जूते हाथ में लेकर दबे पांव घुसता था। लाख सावधानी के बावजूद उसकी मां उसे पकड़ ही लेती थीं।

सुबह जल्दी उठने की मजबूरी के चलते नींद में अलसाई माधवी थोड़ा बहुत बोलकर चुप हो जाएगी, सवाल नहीं करेगी। दरवाजा खोलने के बाद शायद सिर्फ इतना कहेगी, ‘आज काफी विलंब हो गया? काम ज्यादा था क्या?' और फिर चुपचाप सो जाएगी। मैं भी उसके सवालों के जवाब देने से बच जाउं+गा।

‘लेकिन कब तक?' उसके जेहन में सवाल उभरा।

उं+ह...देखा जाएगा। अब तो राय साहब से जो उखाड़ते बने, उखाड़ लें। माधवी से जो करते बने, कर ले। उसे किसी की परवाह नहीं है। जब उसने कुछ किया ही नहीं, तो फिर कोई क्या साबित करेगा? ...लेकिन माधवी तो कहती है, कुछ एक्स्ट्रा करो। सारे कमा—खा रहे हैं। दलाली कर रहे हैं। खबरें छापकर ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं। तुम्हीं क्यों वीतरागी होने का दंभ पाले हुए हो? उसके और माधवी के सोचने में यही तो फर्क है। वह सिर्फ पैसे को पकड़ती है, शिवाकांत के हाथ से यही सिरा हमेशा छूटता रहा है। वह पत्राकारिता के एथिक्स को पकड़े घड़ी के पेंडुलम की तरह लटकता, झूलता और चोटिल होता रहता है। माधवी अपनी खोटी किस्मत पर रोती है। वह पत्राकारिता जगत में बनैले सुअर की तरह घुस आए दलाल और मैनेजर टाइप संपादकों और पत्राकारों की करतूत पर रोता है।

सड़क पर मोटरसाइकिल के सहारे खड़े—खड़े उसके दिमाग का एक हिस्सा बागी हो रहा था। बागी दिमाग में उठ रहे सवाल उसे हिलाए दे रहे थे। अचानक उसकी मोटर साइकिल को एक धक्का लगा। साइड में खड़ी मोटर साइकिल को रगड़ती हुई एक अमीरजादे की कार तेज रफ्तार में निकल गई। शिवाकांत मोटर मोटर साइकिल सहित गिरते—गिरते बचा। उसने कार चालक को एक भद्दी—सी गाली दी। मां—बहन के साथ अंतरंग होने वाली। इस पर भी संतोष नहीं हुआ, तो जमीन पर थूक दिया। ढेर सारा थूक। काफी दिनों से इकट्ठा किए गए असंतोष और घुटन की तरह। मोटर साइकिल खींचकर साइड में खड़ी कर दी। अब उसके सामने अहम समस्या थी, वह जाए कहां? पता नहीं क्यों, आज उसका मन शराब पीने को कर रहा था। इतना पीना चाहता था कि बेसुध हो जाए। उसे न राय साहब याद रहें, न उस पर लगाए गए लांछन। बेसुध आदमी से कोई क्या पूछेगा और वह कहेगा भी क्या?

तो फिर कहां जाए? प्रेस क्लब...? वहां जाना बेकार होगा। लखनऊ के ज्यादातर ‘कंटेनर' गिद्ध की तरह वहां बैठे ताक रहे होंगे, कब कोई फंसे और पूरी बोतल गटकने का मौका मिले। सालों को एकाध पैग में नशा ही नहीं चढ़ता। प्रेस क्लब में जैसे ही कोई नया ‘मुर्गा' आता है, सब उसके इर्द—गिर्द मंडराने लगते हैं। प्रेस क्लब खुलते ही डग्गामार पत्राकार कटिया डालकर बैठ जाते हैं। ‘मछली' फंसते ही शुरू हो जाता है कंटेनर को भरने का सिलसिला। देर रात तक चलता रहता है यह सिलसिला। सुरेंद्र, ताहिर, दयाराम तो खींसे निपोरते हुए गोंद की तरह चिपक जाते हैं। आप उन्हें दुत्कारें, गालियां दें, बेइज्जत करें, कोई फर्क नहीं पड़ता। बस, आप उन्हें पैग—दो पैग पीने को दे दें। कई बार तो प्रेस क्लब का मैनेजर इन पत्राकारों को क्लब बंद होने के समय लगभग धक्के मार कर निकालता है। मैनेजर को नौकरी से निकलवाने और देख लेने की धमकी देकर ये कंटेनर गिरते—पड़ते घर चले जाते हैं। शिवाकांत इन्हें देखकर घिन्ना जाता है। कई बार तो दूर से ही डपट देता है, ‘खबरदार! जो पास आए। सालों! तुम लोगों के मुंह और कपड़ों से जो बास आती है, उससे मेरा मूड साला तीन दिन तक भन्नाया रहता है। साले, तुम लोग कुल्ला—मंजन करते और नहाते—धोते भी हो या यों ही उठकर चले आते हो? राम जाने! तुम सबकी बीवी तुम्हें कैसे बर्दाश्त करती है? सुबह उठते ही तुम्हारी गांड पर लात मारकर घर से निकाल देती होगी बीवी। और तुम साले लतखोर चले आते हो यहां मरने।'

नासिर तो गंजा सिर खुजाते हुए हंस पड़ता, ‘अमां यार! यह बताओ। तुम कोई जिन्न—विन्न तो नहीं पूजते हो? तुमको यह सब कैसे पता चल जाता है? सचमुच, सुबह उठते ही बेगम इतनी हाय—तौबा मचाती हैं कि घर से निकलना ही पड़ता है। अपने मरहूम वालिद का नाम ले—लेकर कोसती है। कहती है, अल्लाह तुझे दोजख दे। नासपीटे! खुद तो दिन—रात शराब में गर्क रहता है। घर में आठ बच्चों की फौज मेरा कलेजा नोच—नोचकर खाती है। इन नासपीटों का पेट भरते—भरते जवानी बीत गई। अब बुढ़ापे में जनाजा भी सुकून से नहीं उठने देंगे। सच पूछो तो शिवा भाई! बेगम की चिख—चिख से ऊबकर सुबह घर से निकलना, गांड पर लात पड़ने जैसा ही है।'

नासिर की बात सोचकर शिवाकांत हंस पड़ा। उसने मन ही मन मुंह बिचकाया, ‘प्रेस क्लब जाने से कोई फायदा नहीं।' फिर कहां जाए? एकाएक उसे याद आया, सहकारिता विभाग का सचिव एसआर चौधरी। चौधरी ने कभी उसके साथ बैठकर पीने की इच्छा जाहिर की थी। उसने सोचा, क्यों न आज उसकी बकाया दावत स्वीकार कर ली जाए। उसने एसआर चौधरी को फोन लगाया, ‘चौधरी साहब...मैं शिवाकांत...इस समय कहां हैं आप?'

उधर से चहकता स्वर सुनाई पड़ा, ‘इस समय और कहां होउं+गा। अपने ऑफिस में हूं। बस थोड़ी देर में निकलने वाला हूं।'

‘उसके बाद क्या प्रोग्राम है?'

‘उसके बाद तो तुम जानते हो। आधी रात तक मैं होता हूं और मेरी गंगाजली। वो मुझे तृप्त करती है, मैं उसे तृप्त करता हूं। पिछले सोलह साल से यही सिलसिला चला आ रहा है। बाकी तुम कहो...क्या इरादा है?' चौधरी शराब को गंगाजली कहता है। कई बार वह साथ बैठकर पीने का ऑफर दे चुका है।

हर बार शिवाकांत ने उससे यही कहा, ‘मैंने आज तक शराब चखी नहीं है। मुझे पीने वालों से कोई परहेज नहीं है। मेरे कई दोस्त साथ बैठकर पीते हैं। मैं बैठा नमकीन, काजू टूंगता रहता हूं। हां, जिस दिन पीने का मन हुआ, सबसे पहले तुम्हें याद करूंगा। वायदा रहा।'

‘कुछ नहीं, बस...सोचा आज वायदा पूरा ही कर दूं। तुम्हारे पीने का ऑफर स्वीकार कर लूं। पता नहीं क्यों, आज भरपूर पीने का मन हो रहा है। सोचा पता कर लूं, तुम शहर में हो भी या नहीं।'

‘तो वाइज ने रिंद बनने का फैसला कर ही लिया। तुम पीकर तो देखो...बड़ी कुत्ती चीज है। एक बार मुंह से लगने के बाद जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ती है। यही तो मरते दम तक साथ निभाती है। आ जाओ...आज हम दोनों यार बैठकर अपनी जिंदगी के गम गलत करेंगे।'

‘मैं आउं+ कहां? सचिवालय या निशातगंज वाले तुम्हारे बंगले पर।'

‘मरवाओगे निशातगंज जाकर। वहां मेरी सास, फुफिया सास, उनकी दो बेटियां और इन बेटियों के एक दर्जन बच्चे धमा चौकड़ी मचा रहे होंगे। ऐसे में वहां क्या पीने का मूड बनेगा? तुम ऐसा करो, लीला टाकीज तिराहे पर पहुंचो। अपनी गाड़ी चाहो, तो कहीं ऐसी जगह खड़ी कर दो, जहां से तुम जब चाहो उठा सको। मैं लीला टॉकीज के सामने से तुम्हें पिक कर लूंगा। पीने—वीने के बाद तुम जहां चाहोगे, ड्राप कर दूंगा।'

शिवाकांत ने मोटर साइकिल जवाहर भवन के कैंपस में खड़ी कर दी। पहले भी वह कई बार अपनी गाड़ी जवाहर भवन की पार्किंग में खड़ी कर चुका था। वहां से उसने रिक्शा किया और लीला टाकीज पहुंच गया। एसआर चौधरी पहले से ही उसकी बाट जोह रहा था। उसे रिक्शे से उतरता देखकर चौधरी ने ड्राइवर को हॉर्न बजाने का इशारा किया। उसके निकट पहुंचते ही चौधरी ने गाड़ी से बाहर निकलकर गर्मजोशी से स्वागत किया, ‘गुरु, आज तुमने सेवा का मौका देकर मुझे बेमोल खरीद लिया। मैंने कभी सोचा नहीं था, तुम्हारे साथ पीने का मौका मिलेगा। चलो, आज हम दोनों होश खोने तक पिएंगे। गंगाजली की चिंता मत करना, स्टॉक फुल है।' चौधरी इतना खुश था कि वह क्या बोल रहा है, इस पर उसका ध्यान ही नहीं था। वह बस बोले जा रहा था।

शिवाकांत ने आगे बढ़कर गाड़ी का दरवाजा खोल लिया। बिना कोई अभिवादन किए या गर्मजोशी दिखाए गाड़ी में बैठने लगा, तो चौधरी चौंका। उसने दार्इं ओर का दरवाजा खोलकर बैठते हुए कहा, ‘यार क्या बात है? आज इतना सीरियस क्यों हो? पहली बार पीने जा रहे हो, इसलिए? डर लग रहा है? इसमें डरने की क्या बात है। पहली बार पीने पर मुझे तो कड़वी लगी थी गंगाजली, थोड़ी उबकाई भी आई थी। फिर सब ठीक हो गया था। तेरे साथ भी लगभग ऐसा ही होगा। डोंट वरी यार! मैं हूं न। सब संभाल लूंगा।'

शिवाकांत की जुबान पर अब भी ताला जड़ा हुआ था। उसे चौधरी का बक—बक करना, सुहा नहीं रहा था। वह चाहता था, चौधरी उसे जहां ले जाना चाहता है, ले जाए। पर वह उसे बोलने पर विवश न करे। पता नहीं क्यों, उसका बोलने को मन नहीं कर रहा था। हां, वह चाहता था, चौधरी के ठीये पर पहुंचकर दो—चार पैग...जितना उसे पीना है, पिए और चलता बने। चौधरी उससे यह न पूछे, वह पीना क्यों चाहता है? वह बोलकर अपने जख्म किसी के सामने दिखाना नहीं चाहता था। वह जानता था, सुनि अठिलइहैं लोग सब, बांटि न लइहैं कोय। वह मजाक नहीं बनना चाहता था। उधर चौधरी को उसकी चुप्पी खल रही थी। ऐसी क्या बात है जिसने उसके मुंह में दही जमा दी है। चौधरी कुछ पूछने की बजाय ड्राइवर से बोला, ‘अलीगंज चलो।'

गाड़ी जब दस—पंद्रह मिनट बाद अलीगंज सेक्टर छह पहुंची, तो गुमसुम शिवाकांत ने पूछा, ‘कहां चल रहे हैं हम लोग?'

‘बस, देखते रहो। मंजिल नजदीक ही है।' चौधरी ने शिवाकांत का हाथ दबाते हुए कहा।

शिवाकांत मौन हो गया। चंद मिनट बाद सेक्टर छह के एचआईवी फ्लैट के सामने गाड़ी रुकी। ड्राइवर ने फुर्ती से उतरकर चौधरी की ओर का दरवाजा खोला। चौधरी को उतरता देख शिवाकांत भी गाड़ी से बाहर आ गया। ड्राइवर ने आगे बढ़कर कॉलबेल पर अंगुली रख दी। शिवाकांत को ड्राइंग रूम में बिठाकर चौधरी अंदर चला गया। शिवाकांत ने चारों ओर नजर दौड़ाई। कमरे में जगह—जगह राजा रवि वर्मा और मंजीत बावा की पेंटिंग्स लगी थीं। इन पेंटिंग्स को खरीद पाना, अच्छे—अच्छे अमीरों के वश की बात नहीं थी। कलात्मक चित्रा, महंगा सोफा, दीवान वगैरह चौधरी की अमीरी का एक बहुरंगी और लुभावना कोलाज रच रहे थे। जाहिर—सी बात थी, उसकी आय घोषित से ज्यादा अघोषित थी। कमरे में लगी पेंटिंग्स और कीमती वस्तुएं अतिरिक्त आय की ओर इशारा करते थे।

शिवाकांत सोचने लगा, ‘चौधरी, दोनों हाथों से रुपये बटोर रहा है। ऐसे ही अफसर विकास के नाम पर आए सरकारी पैसे को डकार जाते हैं। साले...विकास अपना करते हैं, आंकड़ों में गरीब का नाम चढ़ाते हैं। दुनिया में सिर्फ दो ही वर्ग हैं, शोषक और शोषित। जाति कोई भी हो, लेकिन कुर्सी पर बैठा अधिकारी सिर्फ अपना हित देखता है। चौधरी साला...पिछले पंद्रह—सोलह साल से दूसरों का टुकड़ा—टुकड़ा हक मारकर नवाबी शानोशौकत से रह रहा है।'

वह अभी कुछ और सोचता कि ड्राइंग रूम में चौधरी ने प्रवेश किया। शिवाकांत के सामने सोफे पर पसरते हुए उससे पूछा, ‘शिवा...नॉनवेज तो चलता है न! फिलहाल, काजू, नमकीन और सलाद आ रहा है। मैं तो गंगाजली के साथ दो पीस मटन खाता हूं। तुम अपनी बताओ।'

‘मेरे सामने तो नॉनवेज बिल्कुल नहीं चलेगा। नॉनवेज देखकर मुझे उबकाई आ जाती है। बड़ी मुश्किल से मन पीने को ही तैयार हुआ है।' शिवाकांत ने झिझकते हुए कहा।

‘गंगाजली तो पी लोगे न! ऐन मौके पर तुम्हारा मन डोल तो नहीं जाएगा?'

‘पी लूंगा...कम से कम आज तो पी लूंगा। कल की नहीं कह सकता। क्या पता कल से रोज पीने लगूं। संभव है, आज के बाद जिंदगी भर इसे हाथ ही न लगाउं+।'

‘अगर तुम नाक बंद करके पहला पैग गटागट पी गए, तो फिर न केवल आज जमकर पियोगे, बल्कि कल भी पियोगे। इसकी गारंटी लेता हूं। कहो तो लिखकर देने को तैयार हूं।' शिवाकांत ने जवाब देना उचित नहीं समझा।

चौधरी ने बैठे—बैठे हांक लगाई, ‘भई जल्दी करो। सलाद और सोडा के साथ बॉटल दे जाओ। बाकी सब बाद में लाती रहना।'

‘जी लाई' अंदर किसी कमरे में मानो कोयल कूक उठी। पल भर बाद ही एक युवती को कमरे में प्रवेश करते देख शिवाकांत चौंक उठा। वह अकबका कर उसे अपलक निहारने लगा। उसने ऐसा यौवन अब तक नहीं देखा था। अगर उसकी सांसें न चल रही होतीं, तो वह उसे किसी कुशल संगतराश की अप्रतिम रचना मानता। खूब लंबे और घने बाल नागपाश की तरह पीठ पर लहरा रहे थे। नागपाश ही तो थे, शिवाकांत की नजरें तो बंधकर ही रह गई थीं। वह तो पलक झपकाना ही भूल गया था। कहीं ऐसा न हो, इधर पलक झपके और उधर सौंदर्य की प्रतिमूर्ति गायब हो जाए। हालांकि, वह जानता था, ऐसे किसी महिला या युवकी को घूरना, तहजीब के खिलाफ है। सांचे में ढला शरीर, रंग इतना गोरा मानो मक्खन में चुटकी भर लाल सिंदूर मिला दिया गया हो।

‘देखो, फ्रिज में पनीर रखा होगा। उसे लेती आओ।' चौधरी ने हुक्म दिया। उसने ट्रे को सेंट्रल टेबल पर रखते हुए बड़ी विनम्रता से दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘नमस्ते...'

शिवाकांत सिर्फ सिर हिलाकर रह गया। उसने एक बारगी चौधरी की ओर सवालिया नजरों से देखा। शिवाकांत के मनोभाव समझकर चौधरी हंस पड़ा, ‘यह मानसी शुक्ला है। तुम्हारी नई भाभी...आधी चौधराइन, आधी शुक्लाइन। और मानसी...यह शिवाकांत है। बहुत बड़ा पत्राकार...कलम का धनी। स्वाभिमान और लिखने—पढ़ने के नाम पर कुछ—कुछ अकड़ू, कुछ ऐंठा—ऐंठा सा। आज पहली बार गंगाजली पीने जा रहा है। देखो, कैसा घबराया हुआ है। जैसे तुम घबराई हुई थी पहली बार...।'

इतना कहकर चौधरी ने अपनी बार्इं आंख दबाई। मानसी चौधरी के फूहड़पन पर लजा गई। शिवाकांत मंजीत बावा की पेंटिंग्स देखने लगा। चौधरी के स्वर की लड़खड़ाहट से उसने महसूस किया, थोड़ी देर पहले जब चौधरी दूसरे कमरे में था, तो वह एकाध पैग वहीं सूत आया था। क्यों? शायद मानसी को लेकर वह किसी अपराधबोध से ग्रसित था, या कि शिवाकांत के सामने बेपर्दा होने की विवशता और शर्मिंदगी से बचने के लिए उसने शराब का सहारा लिया था। उसने सुना था, शराब पीकर अकसर लोग बहकने लगते हैं। तो क्या वह भी थोड़ी देर बाद चौधरी की तरह बहकेगा? निर्लज्ज हो जाएगा? घर—परिवार की सारी पोल—पट्टी खोलकर रख देगा? नहीं, वह इतनी पिएगा ही नहीं ...। अगर आज राय साहब ने उस पर घिनौना और बेबुनियाद आरोप लगाया न होता, तो वह शायद शराब की ओर देखता ही नहीं। आज की घटना ने न सिर्फ उसे हिलाकर रख दिया था, बल्कि सच पर उसकी दृढ़ आस्था, विश्वास और बाल्यकाल से पोषित उसके संस्कारों को झकझोर दिया था। वह बचपन से पढ़ता और सुनता आया है, झूठ के पांव नहीं होते। लेकिन आज उसने देख लिया कि झूठ के न केवल पांव होते हैं, बल्कि राय साहब, चतुर्भुज शर्मा, रिसॉर्ट मालिक राज कुमार सिन्हा का रूप भी धारण कर लेते हैं। ये लोग सच के मुंह पर थूक कर चले जाते हैं और सच टुकुर—टुकुर देखने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता है।

‘अरे! क्या कोई खबर लिखने लगे? इस समय तुम न्यूज रूम में नहीं, मेरे गरीबखाने में गंगाजली पीने बैठे हो। पैमाना उठाओ, बेचारा कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा है।' चौधरी ‘आप' से ‘तुम' पर आ गया था।

‘आं...' शिवाकांत चौंक पड़ा था। शिवाकांत ने उसके संबोधन और लहजे में आए परिवर्तन को महसूस किया। वैसे चौधरी इससे पहले भी मौज में उसे ‘तुम' से संबोधित करता था, लेकिन इससे पहले पता नहीं क्यों... उसे बुरा नहीं लगता था। शायद उसने कभी माइंड ही नहीं किया। फिर आज ऐसा क्यों लगा उसे?

उसके मस्तिष्क में एक आंधी—सी उठी, ‘क्या...? यह दो कौड़ी की शराब उसके मान—सम्मान से ज्यादा कीमती हो गई? कल तक जो चौधरी हाथ बांधे खड़ा रहकर जी—हुजूरी किया करता था, वह आज उसे तुम संबोधित कर रहा है।' उसका मन हुआ कि वह हाथ मारकर शराब की बोतल, गिलास और सलाद आदि कालीन पर गिरा दे। और कहे, ‘मिस्टर सखाराम चौधरी, तुम अपनी औकात भूल गए हो। जिस नौकरी के बलबूते पर तुम अकूत संपदा पैदा कर रहे हो, लड़कियों को फांस कर अय्याशी कर रहे हो, उस नौकरी को कई बार मैंने बचाया है। अगर तुम्हारे खिलाफ इकट्ठा किए गए सुबूत आज भी दुनिया के सामने आ जाएं, तो तुम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगे। नौकरी तो जाएगी ही, जेल में चक्की पीसते अलग नजर आओगे।'

चौधरी के झिंझोड़ने पर उसका विचार प्रवाह रुक गया। उसने चुपचाप गिलास उठा लिया। वह सिप करने ही जा रहा था कि चौधरी ने इशारे से रोक दिया।

‘जनाब! हम रिंदों का गंगाजली पीने का एक सलीका है, एक रवायत है। पहला घूंट तब भरते हैं, जब पैमाने से पैमाना टकराकर चियर्स नहीं कह लिया जाता। आज तो इसलिए भी जरूरी है कि तुम पहली बार पीने जा रहे हो।' चौधरी ने अपना गिलास उठाकर उसकी ओर बढ़ाया।

शिवाकांत ने पैमाना इतनी जोर से टकरा दिया कि थोड़ी—सी शराब छलककर गिर पड़ी। चौधरी ने जोर का नारा लगाया, ‘चियर्स! आज की शाम...नहीं, रात तुम्हारे पहली बार पीने के नाम।' इतना कहकर चौधरी ने अपनी अनामिका शराब में डुबोकर एक—दो बूंद इधर—उधर छिड़का। ऊपर की ओर देखकर कुछ बुदबुदाने लगा, मानो कोई मंत्रा पढ़ रहा हो।

शिवाकांत ने तंज कसा, ‘गुनाहों की माफी मांग रहे हो?'

‘किन—किन गुनाहों को बख्शवाउं+गा। मेरे कुछ गुनाहों की माफी नहीं है।'

शिवाकांत ने एक घूंट भरा, तो लगा, शराब आंतों समेत बाहर आ जाएगी।

‘ओफ...इतनी कड़वी...इसी को पीने के लिए लोग जान देते फिरते हैं।'

उसने गिलास रख दिया। तब तक चौधरी पूरा गिलास सूत चुका था। चौधरी ने उसके चेहरे पर आ—जा रहे भावों को पढ़ा और मूली का टुकड़ा उसकी ओर बढ़ाया, ‘बस

...दो मिनट रुको। इसके बाद गंगाजली कड़वी नहीं, मीठी लगेगी। लो सलाद खाओ।'

शिवाकांत ने बेमन से मूली का टुकड़ा दांतों के बीच फंसाया और चबाने लगा। शिवाकांत ने डरते—डरते दूसरा घूंट भरा। इस बार पहले की अपेक्षा शराब कम कड़वी लगी। कुछ देर में ही उसने पूरा गिलास खाली कर दिया। दोनों खामोशी से पीते रहे। शिवाकांत को अपना शरीर काफी हलका लगने लगा। इर्द—गिर्द की चीजें बड़ी मनमोहक लगने लगी थीं।

चौधरी ने झूमते हुए कहा, ‘आज बात क्या थी? तुमने एकाएक वाइज से रिंद बनने का फैसला कैसे कर लिया? ऑफिस में किन्हीं परेशानियों के चलते...? जब तुम्हारा फोन आया था, उससे पहले एक उड़ती—सी खबर मेरे पास आई थी। कोई आरोप—वारोप लगाया गया है तुम पर...?'

‘हां...कुछ जंगली कुत्ते शेर का शिकार करना चाहते हैं।'

‘और शेर अपने को जंगल का राजा समझने की फेर में मात खा गया होगा?

...किस मुगालते में जीते हो तुम? यह निजाम है प्यारे...निजाम। यहां प्यादे से वजीर पिटवाया जाता है। बादशाह को पैदल से शिकस्त दी जाती है। मौका मिलने पर शेर को मेमने फाड़कर खा जाते हैं।'

‘छोड़ो यार! घिसे—पिटे डायलॉग मत मारो। निजाम नहीं, घंटा है। बड़े फिलॉस्फर बने घूम रहे हो। इन्हीं बातों से बचने के लिए आज दारू पी रहा हूं। और तुम हो, उन्हीं बातों को कुरेद रहे हो। कोई और बात करो...या रहने दो। मैं घर ही जाता हूं। काफी देर हो गई।'

चौधरी ने खाली पैमाना भरते हुए कहा, ‘अभी समय ही कितना हुआ है? और फिर तुमने पिया भी कितना है? ...सिर्फ तीन पैग? इतने में कहीं नशा चढ़ता है?' चौधरी ने आवाज लगाई, ‘मानसी...आइस क्यूब्स दे जाओ।'

पल भर बाद ही मानसी आइस क्यूब्स लेकर हाजिर हो गई। इस बार शिवाकांत ने उसे भरपूर निगाहों से देखा। बीस—बाइस साल की लंबी छरहरी—सी काया, क्षीण कटि, अल्हड़ बरसाती नदी सा तट बंध तोड़ने को आतुर यौवन, जंगली हिं पशुओं से बचकर आई हिरनी—सी घबराई, पथराई आंखों में अवसाद की छाया लिए मानसी ने आइस क्यूब्स से भरा बाउल रखा और मुड़ गई। शिवाकांत को लगा, मानसी ने दूसरे कमरे में जरूरत की सभी संभावित वस्तुओं को निकाल कर रख लिया है। आदेश मिलते ही तुरंत पहुंचाने को तत्पर मानसी की आंखों में बेबसी का भाव काफी गहरा था। उसे मानसी पर दया आई। वह समझ गया, चौधरी उसका शोषण कर रहा है, पर क्यों समझ से परे था। वह सीधा पूछ भी नहीं सकता था। मामला ही इतना नाजुक था कि उसका पूछना, उनके व्यक्तिगत मामलों में दखल होता।

शिवाकांत ने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘तुमने दूसरी शादी कब की?'

‘दूसरी शादी...क्या कह रहे हो? ऐसा करके मरना था क्या? जब घर में एक औरत छाती पर मूंग दलने को बैठी हुई हो, तो दूसरा विवाह कैसे कर सकता हूं। भई, सरकारी नौकर हूं। बस, पसंद आ गई, रख ली किसी जिद्दी बच्चे की तरह।'

‘थोड़ी देर पहले तो तुमने कहा था, ये तुम्हारी नई भाभी? यह कौन—सी बात हुई? पसंद आ जाने का क्या मतलब है? कोई भी पसंद आ जाएगी और तुम उसे रखैल बना लोगे? जानते हो, हमारे यहां जिद्दी बच्चे के कान के नीचे एक कंटाप जमाने की परंपरा बहुत पुरानी रही है। बच्चा अगर गू खाने की जिद करे, तो क्या उसकी जिद पूरी की जा सकती है?' शिवाकांत का स्वर काफी कड़वा हो गया था। चौधरी ने उसके स्वर का कड़वापन और लक्ष्य दोनों महसूस किया।

‘एक पंडिताइन मेरी रखैल है। सखाराम चौधरी की रखैल है। इसलिए तुम्हें मिर्ची लग रही है। तुम लोग चार—चार, पांच—पांच रखैलें रखो, उसका कुछ नहीं। मैंने एक रख ली, तो मनु महाराज की आत्मा रोने लगी। सारा ब्रह्मांड कांपने लगा। देवलोक में सिंहासन हिलने लगा। कितनी सफाई से तुम लोगों ने अपने लिए चार पत्नियों का प्रावधान कर लिया। हमने भूल से भी सवर्णों की लड़की देख भर ली, तो आंखें ही फोड़ दी। बर्तन छू लिया, तो अपवित्रा हो गया। वेद का एक भी शब्द कान में क्या पड़ा, पिघला सीसा तैयार है कान के पर्दे फाड़ने के लिए। जरा सी गलती हुई, तो कोड़ों से खाल खींच ली। इस पर भी संतोष नहीं हुआ, तो पूरे परिवार को सजा दी।' चौधरी का लहजा भी तल्ख हो गया। उसने झटके से गिलास उठाकर एक ही सांस में पूरी शराब पी ली।

शिवाकांत ठहाका लगाकर हंस पड़ा। नशे की अधिकता के चलते ठहाके का स्वर कुछ ज्यादा ही बुलंद था। उसने सोफे की पुश्त से पीठ टिका ली। बंद होती आंखों को खोलने की कोशिश करते हुए उसने कहा, ‘तो तुम इस ग्रंथि के शिकार हो?'

‘हां, तुम तो ऐसा कहोगे ही। लेकिन सच बताउं+। मानसी को जब पहली बार भोगा था, तो लगा कि वर्षों से सीने पर रखा एक बोझ उतर गया हो। कि जैसे सदियों से हमारे पुरखों के साथ किए गए अत्याचार का प्रतिशोध ले लिया हो। कि जैसे हमारी स्त्रिायों के साथ किए गए बलात्कार का प्रतिकार हो गया। कि हमारे पुरखों के शरीर पर पड़े कोड़ों से छिली खाल पर कोई मरहम लग गया हो। कि कानों में पिघला कर सीसा डालने के बावजूद सुनाई देने लगा हो। कि हमने पुरातन परंपरा और इतिहास के मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया हो। न जाने कितनी महिलाओं को तुम्हारे पूर्वजों ने इसी तरह बलात्‌ भोगा होगा। वे और उनके परिजन विरोध तक नहीं कर पाए होंगे। खून के आंसू पीकर रह गए होंगे। अपमान, तिरस्कार, बलात्कार का दुख क्या होता है? यह तुम आज महसूस कर रहे होगे, पंडित जी।'

‘अब यह राग अलापने का क्या अर्थ है? पिछले पचास वर्षों से तो बराबरी का सुख भोग रहे हो। सरकार के दामाद कहे जाते हो। सच पूछो तो, सरकारी ब्राह्मण का रुतबा तुम्हीं लोगों को ही हासिल है। सरकार सारी सुविधाएं भी तुम्हीं लोगों को मुहैया करा रही है। अब काहे का असंतोष, कैसा विरोध? माना कि इतिहास में कुछ गलतियां हुई थीं। तो क्या फिर उसे दोहराने का इरादा है? तुम भी वैसा ही करोगे, जो कथित रूप से ब्राह्मण करते आए हैं? तुम भी बलात्कार करोगे? कानों में सीसा डालोगे? कोड़ों से खाल खींचोगे?'

‘पीठ पीछे मानसी का बाप भी मुझे सरकारी ब्राह्मण ही कहता था। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में सीनियर क्लर्क था मानसी का बाप। चार साल पहले मैं सहारनपुर से ट्रांसफर होकर आया था। उन्हीं दिनों मेरा प्रमोशन हुआ था। मैंने ऑफिस में पार्टी दी थी। पहले तो पार्टी में शामिल न होने के लिए बहाने बनाता रहा। काफी अनुरोध करने पर पार्टी में आने के बाद भी व्रत का बहाना बनाकर बैठ गया। खाने से इनकार कर दिया। मैं उसके लिए फलाहार लेकर गया, चलो व्रत है। फलाहार ही कर लें। बाद में मैंने देखा, फलाहार को भी डस्टबिन में फेंक दिया। फलाहार फेंकते समय मैं उसके ठीक सामने जा पहुंचा था।' चौधरी कानाफूसी के अंदाज में बता रहा था। उसकी आवाज में ठहरा हुआ ठंडापन था। कुछ—कुछ कसैला भी। दूसरे कमरे में बैठी मानसी सारा वार्तालाप सुन रही थी।

‘और तुम्हें मिर्ची लग गई होगी?' शिवाकांत ने व्यंग्य कसा।

‘तुम कहते हो मिर्ची! ...मैं तो अपमान से काला पड़ गया था। तभी सोच लिया, एक दिन बुढ़ऊ को मजा अवश्य चखाउं+गा। और एक दिन मचा चखवा भी दिया। अपने चेले से लंच टाइम में बुढ़ऊ के ड्रॉअर में सिर्फ पच्चीस हजार की गड्डी रखवा दी। लंच के बाद बुढ़ऊ ने गड्डी उठाकर उलटा—पुलटा और पता नहीं क्या सोचकर गड्डी फिर ड्रॉअर में रख दी। शायद लालच आ गया हो...। एक दिन पहले ही विजिलेंस विभाग में शिकायत करा दी थी फाइल पर दस्तखत कराने को रिश्वत मांगने की। चेले के इशारे पर विजिलेंस टीम ने बुढ़ऊ की ड्रॉअर से गड्डी बरामद कर ली। बुढ़ऊ बलदेव शुक्ला लाख चिल्लाते रहे, रुपये उनके नहीं हैं। उन्हें नहीं मालूम, ड्रॉअर में रुपये कहां से आए? किसने रखे? विजिलेंस टीम नहीं मानी, उन्हें गिरफ्तार कर लिया।'

चौधरी बता रहा था। इसी बीच अंदर किसी कमरे से सिसकी गूंजी। शिवाकांत समझ गया, अंदर मानसी रुलाई रोकने की भरपूर कोशिश कर रही है। उस एक सिसकी ने शिवाकांत को बेचैन कर दिया। उसे लगा, उसका सारा नशा एक ही झटके में उतर गया है।

‘फिर क्या हुआ?'

‘होना क्या था? मेरी इतनी तगड़ी सेटिंग थी। बलदेव शुक्ला जेल जाने से नहीं बच सका। मानसी ने अपने पिता की जमानत कराने की बहुत कोशिश की, सफल नहीं हो पाई। थक—हारकर मेरी शरण में आ गई। बुढ़ऊ जेल से तो नहीं, इस दुनिया से जरूर मुक्त हो गए, लेकिन बेटी को शरीर और आत्मा से मेरी गुलाम बनाने के बाद। एक की रिहाई दूसरे के बंधन का कारण बनी। जमानत पर रिहा होने के दिन ही घर में पंखे से लटककर जान दे दी। जीवन भर ईमानदारी का तमगा सीने पर लगाए घूमने वाले बलदेव शुक्ला को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई उसे शक भरी निगाहों से देखे। उसे रिश्वतखोर समझे। जीवन से मुक्ति आसान लगी। सो, बुढ़ऊ लटक गए।'

‘किरन भाभी को मालूम है यह सब कुछ?' शिवाकांत ने जवाब जानते हुए भी पूछ लिया।

‘अगर बताना ही होता, तो पैंतीस लाख रुपये का मकान चोरी—छिपे खरीदता।'

‘अगर कोई बता दे, तो...? तुम जब यहां मौजूद रहो, किरन भाभी को कोई लाकर दरवाजे पर खड़ा कर दे?' चौधरी के चेहरे पर घबराहट देखने की प्रत्याशा में शिवाकांत ने सवाल दागा।

चौधरी नशे में होने के बावजूद शातिराना अंदाज में मुस्कुराया, ‘किसको इतनी फुरसत है कि दूसरे के फटे पायजामे में अपनी टांग घुसेड़े। यू तो, महानगरीय कल्चर में ताक—झांक सबसे बड़ी अशिष्टता मानी जाती है। मुझे दो साल हो गए मकान लिए, लेकिन पड़ोसियों से आज तक दुआ—सलाम नहीं है। मैं उनके बारे में नहीं जानता और वे मेरे बारे में। सब अपने में ही मस्त हैं।'

‘अगर मैं ही भाभी को लाकर यहां खड़ा कर दूं...?' शिवाकांत ने चुनौती दी।

शिवाकांत की बात सुनकर चौधरी गंभीर हो गया। उसने गिलास में बची शराब हलक में उतारने के बाद अपनी बायीं बांह से मुंह पोंछते हुए कहा, ‘हां, तुम ऐसा कर सकते हो। लेकिन तुम ‘यारमारी' नहीं करोगे। अगर इतना विश्वास न होता, तो तुम इस चौखट में घुसने न पाते, मिस्टर शिवाकांत। तुम विश्वासघात नहीं कर सकते। तुम्हारे खून में ही नहीं है यह। मुझमें बेईमान, भ्रष्ट, ईमानदार, अच्छे—बुरे की पहचान का हुनर खूब है।' पता नहीं क्यों, चौधरी भावुक होने लगा। उसकी भावुकता दिखावा थी या सच्चाई। इसका अंदाजा शिवाकांत नहीं लगा सका। पता नहीं क्यों उसका मन यही मान रहा था कि एसआर चौधरी भावुकता का नाटक कर रहा है।

शिवाकांत उसकी भावुकता को नाटक मानकर रस लेने लगा। चौधरी अपनी जगह से उठकर उसकी बगल में आ बैठा। उसने शिवाकांत का दाहिना हाथ अपने दोनों हाथों में लेते हुए कहा, ‘शिवाकांत...मेरे भाई! मुझे इस जीवन में जो भी मिला, बेईमान मिला, भ्रष्ट मिला। मुझसे घृणा करने वाला मिला। मुझे बात—बात पर इतने जहरीले इंजेक्शन लगाए गए कि मैं सिर से पांव तक जहरीला हो गया हूं। जहरीला आदमी हो गया हूं मैं। मैंने तो अब तक यही देखा है, हर आदमी दूसरे के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ना चाहता है। जैसे दूसरे को जीने का कोई हक ही नहीं है। अब मेरी बात लो। नौकरी ज्वाइन करने के कुछ ही दिन बाद मेरे विभाग के संयुक्त निदेशक सतगुरु प्रसाद मौर्य ने बुलाकर समझाते हुए कहा था, तुम नए—नए भर्ती हुए हो। ट्रेनिंग के दौरान तुम्हें भी निश्चित तौर पर ईमानदारी, कर्तव्य परायणता, जनसेवा, न्याय और लोकहित की घुट्टी पिलाई गई होगी। मुझे भी कभी पिलाई गई थी। नए फौजी रंगरूटों में जैसे देशभक्ति की भावना कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती है। वही हाल शुरुआती दिनों में हम सबका का होता है। धीरे—धीरे हम सब नपुंसक होने लगते हैं। यह व्यवस्था ही बंध्याकरण कर देती है हमारा। अगर कभी कुछ गलत होता देखकर आता भी है, तो सिर्फ पुंसत्वहीन क्रोध। मैं आपबीती बताउं+। जब मैंने नौकरी ज्वॉइन की थी, तो मुझ पर भी ईमानदारी का भूत सवार था। एक दिन फर्जी बिल पास करने के मामले में भिड़ गया अपने सीनियर से। वह लोगों में तो बहुत ईमानदार बनता था, लेकिन था बहुत भ्रष्ट। मैं पूरी शिद्दत से लड़ने के बावजूद उसका रोयां भी उखाड़ नहीं पाया। मैं उसकी शिकायत लेकर जिस—जिस वरिष्ठ अधिकारी के पास गया, तो पता चला, वे लोग तो उसके भी ताऊ हैं। सब एक ही थैली के चट्टे—बट्टे थे। कुएं में ही भांग पड़ी थी। और फिर वह दिन भी आया, जब मुझे टूट जाना पड़ा। जब पूरा निजाम ही सड़ा हुआ हो, तो उस सड़े निजाम में सुधार करके काम नहीं चलाया जा सकता। और नया निजाम खड़ा करना...हमारे अधिकार में नहीं है। वैसे सच कहूं, तो हम में से ज्यादातर निजाम बदलना ही नहीं चाहते। मैं चाहते हुए भी निजाम बदल सका, न ही खुद ईमानदार रह सका। अपनी कान्फिडेंसियल रिपोर्ट अलग से खराब करवा ली।' चौधरी ने उदास नजरों से शिवाकांत को देखा। शिवाकांत मुंह मोड़कर दूसरी ओर देखने लगा।

चौधरी उठकर कमरे में चहलकदमी करने लगा। कुछ देर तक उसके मन में अंतर्द्वंद्व जारी रहा, वह आगे कुछ कहे या न कहे।

‘जानते हो! उस बातचीत के बाद संयुक्त निदेशक ने ही मेरी पहली डील एक पार्टी से कराई। उस पार्टी को नियम विरुद्ध कुछ रियायतें देने के बदले मिले एक लाख पैंतीस हजार रुपये। अपने हिस्से में आए कुल अढ़तीस हजार। बाकी विभाग में ऊपर से नीचे तक बंट गए। एक बार हराम का पैसा हाथ क्या लगा, मानो शेर के मुंह को मानव रक्त लग गया। एक बार डूबा, तो डूबता ही चला गया। लहर इतनी तेज थी। अगर तिनके का सहारा भी मिला होता, तो बच जाता। तिनका भी तो नहीं मिला था।'

मानसी ने कमरे में आकर पूछा, ‘खाना लगा दूं?' शिवाकांत ने देखा, वह मुंह धोकर आई थी। पानी की नमी साफ झलक रही थी उसके चेहरे पर। वह अपना रोना छिपाना चाहती थी। चौधरी से भी, शिवाकांत से भी।

शिवाकांत ने रिस्टवॉच पर नजर डाली, ‘बाप रे...पौने एक बज गए।' वह उठ खड़ा हुआ। नशा अपना रंग दिखा रहा था। वह लड़खड़ाते कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ा, ‘अब मैं चलूंगा, बहुत देर हो गई।'

चौधरी ने उसकी बांह थामने की कोशिश की, लेकिन वह आगे बढ़ चुका था। चौधरी अपने स्थान पर खड़ा झूम रहा था, ‘रुको, खाना खाकर जाओ।'

‘नहीं...अब एक पल भी नहीं रुकूंगा। बहुत देर हो गई है।' आगे बढ़कर उसने कमरे का दरवाजा पकड़ लिया।

‘तो फिर मैं तुम्हें घर छोड़ आता हूं। खाना लौटकर खा लूंगा।'

‘नहीं, मैं चला जाउं+गा। इतनी भी नहीं पी है कि घर न जा सकूं। चौराहे से कोई न कोई साधन मिल जाएगा। लखनऊ की यही तो खूबी है। चिंता मत करो...।'

‘दस मिनट लगेगा। मैं तुम्हें घर छोड़कर चला आउं+गा।'

लड़खड़ाता शिवाकांत अब गेट तक पहुंच चुका था। उसने गेट खोलने की कोशिश की, खुला नहीं। चौधरी ने आगे बढ़कर गेट खोल दिया। सड़क पर खड़े दोनों झूमते रहे। शिवाकांत ने बंद होती पलकों को सायास खोला और चौधरी का दायां हाथ थाम लिया।

‘अच्छा तो मैं चलता हूं' कहकर आगे बढ़ा। कुछ कदम चलकर वह वापस घूमा, ‘एक बात कहूं मिस्टर सखाराम चौधरी। कुछ भी हो, तुम साले हो बहुत हरामी...कमीने भी।'

चौधरी हंस पड़ा, मानो उसने कोई कांप्लीमेंट दी हो।

घर के सामने पहुंचने पर शिवाकांत ने रिक्शे वाले के कंधे पर हाथ रखा, ‘यहीं रोक दो।'

उसके घर की सारी ट्यूब लाइट्‌स जल रही थीं। आवाज सुनकर अंकिता ने अंदर से झांका। खुशी से चिल्ला उठी, ‘मम्मी...मम्मी...पापा आ गए।'

शिवाकांत चौंक उठा, ‘अरे...अभी तक बच्चे भी जाग रहे हैं?'

उसने नशे पर काबू पाने की कोशिश की। कदमों में लड़खड़ाहट बरकरार थी। उसने घर की ओर कदम बढ़ाए। दरवाजे पर पहुंचा ही था कि पड़ोस में रहने वाली मिसेज विमला प्रजापति और सामने रहने वाली स्कूल टीचर कल्याणी वर्मा निकलीं। कल्याणी ने उलाहना दी, ‘क्या भाई साहब...आप भी बस...अगर आपको देर से ही आना था, तो कम से कम भाभी जी को फोन कर देते। भाभी जी और बच्चे शाम से ही परेशान हैं। मोबाइल का स्विच तक ऑफ कर रखा है आपने। भाभी जी आपके ऑफिस और मित्राों को फोन करके थक चुकी हैं। कहां थे अब तक आप? जाइए, बच्चे परेशान हैं, उन्हें संभालिए।'

मिसेज प्रजापति को शराब की गंध लग चुकी थी। वह मीठी झिड़की देने से नहीं चूकीं, ‘बेटा! ...लगता है, पीकर आए हो। राम...राम...बच्चे यहां परेशान हैं। तुम्हें शराब पीने की सूझ रही थी। कभी सुना तो नहीं कि तुम शराब पीते हो? फिर यह क्या किया? नालायक...किसी नाली में पीकर पड़ा रहा होगा। शराब उतरी, तो घर की सुधि आई।'

शिवाकांत चुपचाप लज्जित खड़ा रहा। उसके कदम मानो जमीन से चिपक गए थे। लगा कि सारा इलाका दलदल में तब्दील हो गया है। दलदल धीरे—धीरे उसे अपने में समाहित करता जा रहा है, वह बेबस चिल्ला रहा है। कोई नहीं पहुंच पा रहा है उस तक। वह छटपटा रहा है, बाहर निकलने को। लेकिन कोई शक्ति है, जो भीतर ही भीतर खींच रही है...अपनी ओर। अंदर से अभिनव आकर पैरों से लिपट गया, तो लगा कि दलदल डर गया उसके बेटे से।

‘पापा...आप कहां रह गए थे? मम्मी और दीदी रो रही थीं। मैं भी रोया था, पापा।'

शिवाकांत का मन हुआ, अभिनव को उठाकर सीने से लगा ले। उसके होंठ चूम ले। लेकिन हिम्मत नहीं हुई। शराबी हिम्मत खो देते हैं क्या? शायद खो देते हों, शायद न भी खोते हों। पहली बार में कुछ समझ में आता है क्या? कभी तो उसे ऐसा महसूस होता था, पूरा शरीर बहुत हल्का हो गया है। बिल्कुल तिनके की तरह। कोई भी हवा चले, तो वह उड़ सकता है। फिर पल में ही पांव और मन इतना भारी हो जाता कि दोनों बोझ लगने लगते। पांव उठते नहीं, मन विशालकाय पहाड़ जैसा हो जाता। स्थिर, संवेदनहीन, वीतरागी गिरिराज हिमालय जैसा। अभी उसकी दशा भारीपन वाली ही थी। पांव उठाकर जमीन पर रखता, तो लगता, मानो जमीन को ही रौंद रहा है। दिमाग कह रहा था, अभिनव को गोद में उठा ले, लेकिन...? शराब ने उसे इस काबिल छोड़ा ही नहीं था। उसने अभिनव की बांह पकड़ी। घर में प्रवेश कर गया। अंदर अंकिता अपनी मां के पास खड़ी दरवाजे की ओर देख रही थी। कमरे में प्रवेश करते ही अंकिता पापा की ओर बढ़ी। शिवाकांत ने झट से उसे पेट से चिपका लिया।

माधवी उठ खड़ी हुई। उसकी आंखें नम थीं। कुछ घंटे रोते रहने से उसकी आंखों का अश्रुजल शायद रीत चुका था। चक्षुकोटर सूख चुके थे, लेकिन गाल पर अश्रुओं के प्रवाह मार्ग स्पष्ट थे, किसी विलुप्त नदी के अवशेष की तरह। शिवाकांत को देखकर उसकी आंखों से एक नई नदी फिर बह निकली। किसी बरसाती नदी की तरह, जो अपने तटबंधों को तोड़कर सब कुछ बहा ले जाने को आतुर हो। वह झटके से आगे बढ़ी। शिवाकांत के सीने से आ लगी। शिवाकांत ने उसका सिर अपने कंधे से टिका लिया। वह काफी देर तक सीने से लगी सिसकती रही। अंकिता और अभिनव पैरों से लिपटे रहे। वह दोनों हाथों से बच्चों के सिर सहलाता रहा। भावाद्रेक कम होने पर माधवी आंचल से अपने आंसुओं को पोछती हुई बोली, ‘बेटा...अभी और अंकी! तुम्हारे पापा थके हुए हैं। वे आराम करेंगे। रात बहुत हो चुकी है। तुम लोग भी जाकर सो जाओ। सुबह स्कूल तो नहीं जा पाओगे। मैं तुम्हारे स्कूल टीचर को फोन करके बता दूंगी। अब तुम लोग जाकर सो जाओ। ...पापा को गुडनाइट बोलो।'

दोनों बच्चे गुडनाइट कहकर सोने चले गए। शिवाकांत लज्जित—सा चुप खड़ा रहा। उसे कतई उम्मीद नहीं थी, बच्चे भी उसका इंतजार करते हुए जाग रहे होंगे। मन उसका पहले से ही भारी था। बच्चों को जागता देख उसे अपने पर ही क्षोभ हुआ। अपनी लापरवाही पर क्रोध भी आया। उसके अंतःकरण ने कहा, ‘शिवाकांत, न तुम अच्छे पति साबित हुए, न अच्छे पिता। तुम्हें देखकर ये बच्चे बड़े होकर क्या बनेंगे? लापरवाह बाप और लापरवाह मां। शर्म आनी चाहिए तुम्हें इसके लिए।'

माधवी फिर उसके सीने से लग गई। उसने गर्दन पर चुंबन जड़ते हुए पूछा, ‘आप ऑफिस से निकलकर कहां चले गए थे? हम लोग कितना परेशान हुए? कहां—कहां नहीं फोन किया। सबने बताया, आप ऑफिस से तीन—सवा तीन बजे ही निकल गए थे। कहां रहे इतनी देर? और आपने शराब भी पी?'

माधवी सवाल—दर—सवाल पूछे जा रही थी। शिवाकांत हताश, लज्जित, भकुआया सा खड़ा रहा।

‘मैं तो घबरा गई थी। आपके क्रोध को मैं जानती हूं। डर था, कहीं क्रोध में कोई गलत कदम न उठा लें आप। क्रोध आपका, मुक्ति आपकी, जीवन भर की सजा मुझे और बच्चों को। पिछले छह—सात घंटे में सारे देवी—देवता मना डाले। हनुमान जी, गणेश जी, भोले बाबा और खंभनपीर बाबा से लेकर गांव के डियुहार बाबा तक को प्रसाद चढ़ाने की मनौती मान ली। कोई भी देवी—देवता नहीं बचे होंगे, जिनकी मनौती न मानी हो।'

‘बस मूड अपसेट हो गया था। सो, एक मित्रा के घर चला गया था। वहीं थोड़ी सी...।' शिवाकांत ने सफाई दी। माधवी ने गहरी सांस ली, मानो कुछ फेफड़े में अटका हुआ था। कि जिसे बाहर निकालना बहुत जरूरी था। कि जिसको निकाले बिना वह रात भर सो नहीं पाती।

‘मूड अपसेट था, तो घर आते। बच्चों को देखकर मूड ठीक हो जाता। फिर मैं थी न...आपका मूड ठीक करने के लिए।' माधवी ने प्यार भरा उलाहना दिया। शिवाकांत को लगा, यह उलाहना नहीं, औरत की मजबूरी है शायद। उसे एक छत और एक साथ चाहिए। वह साथ पिता का हो, पति का हो, पुत्रा का हो या भाई का। स्त्राी को उलाहना भी प्यार की चाशनी में लपेटकर क्यों देनी पड़ती है? माधवी उसे डांटती क्यों नहीं? अगर माधवी आधी रात को आई होती, तो क्या वह भी उसकी तरह प्यार भरा उलाहना देता? फिर यह दोयम व्यवहार क्यों? माधवी को कमी क्या है? बढ़िया कमाती है। खूब पढ़ी—लिखी है। सुंदर है। समाज में उसकी एक पोजीशन है। फिर यह प्यार भरा उलाहना क्यों? सिर दुखने लगा शिवाकांत का।

माधवी ने उसका हाथ पकड़कर सोफे पर बिठा लिया। नीचे फर्श पर बैठकर जूतों के फीते खोले। शिवाकांत को लगा, आज माधवी के चेहरे पर हमेशा विराजमान रहने वाली मास्टरनी गायब थी। अपनी इच्छा पर ही समर्पण करने वाली गर्विणी नारी की छाया मात्रा भी उस समय नहीं थी। जूते और मोजे निकालने के बाद माधवी उसकी पहलू में बैठ गई। वह शिवाकांत का सिर अपने सीने पर रखकर बालों में अंगुलियां फेरने लगी। शिवाकांत को अब उसकी धड़कन सुनाई दे रही थी। वह कुछ क्षण उसके वक्ष में मुंह छिपाए रहा। फिर उसने सिर उठाकर पत्नी को बाहुपाश में भर लिया। माधवी उससे लता की तरह चिपटी रही, मानो पति की बाहों में आकर वह सुरक्षित हो गई हो।

‘तुम्हें कैसे पता चला, आज ऑफिस में कुछ हुआ है?' सांसें थमने के बाद शिवाकांत ने उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा।

‘दुर्गेश दादा का फोन आया था। बता रहे थे, तुम्हें नौकरी से निकाल दिया गया है। तुमने किसी रिसॉर्ट मालिक को ब्लैक मेल किया है। पचास हजार रुपये वसूले हैं। राय साहब तुमसे बहुत नाराज हैं। शायद पुलिस में रिपोर्ट भी करें।' माधवी ने हलके से उसकी बाहों को छुआ। जो इस बात का संकेत था, वह उसकी बगल में बैठना चाहती है। शिवाकांत ने उसे बाहुपाश से मुक्त कर दिया।

‘ये साले चिरकुट...शिखंडी की औलाद...मुझ पर वश नहीं चला, तो पीठ पीछे वार करते हैं। माधवी, तुम इनकी बात पर कतई विश्वास न करना। साले...सबके सब दोगलों की औलादें हैं। ये ऐसे विषधर हैं, जो पीछे से दंश मारते हैं।' शिवाकांत को डॉ. दुर्गेश पर अतिशय क्रोध आ रहा था। वह खुलकर डॉ. दुर्गेश और सुप्रतिम को गालियां देना चाहता था, लेकिन पत्नी के सामने बड़ी मुश्किल से अपने क्रोध को जब्त कर पाया।

उसने गु्‌स्से से कहा, ‘राय साहब ने रिसॉर्ट मालिक को ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया है। उन्होंने एक जांच कमेटी बनाई है, जो मामले की जांच करेगी। जांच क्या करेगी? यह तुम समझ सकती हो। सब साले हिजड़े हैं, कोई भी विरोध में उठकर खड़ा नहीं हुआ। मुंह ताकते रहे।'

‘एक बात कहूं...बुरा तो नहीं मानेंगे? जब इतना बड़ा लांछन लगा दिया गया है, तो आप यह नौकरी छोड़ दीजिए। किसी दूसरे अखबार में नौकरी ढूंढ लीजिए। अब वहां मत जाइए। अपमान सहकर नौकरी करने से बेहतर है, घर पर बेरोजगार बैठना।'

माधवी आहत हो उठी थी। उसने शिवाकांत की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘आप घर की चिंता कतई मत कीजिए। महीने—दो महीने बेरोजगार रहेंगे, यही होगा न। कोई चिंता नहीं। तब तक कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी। नहीं लखनऊ में मिलती है, दूसरे शहर में जाइए। मुझे विश्वास है, आपको किसी बेहतर मीडिया ग्रुप में अच्छे पैसे और पद पर काम मिल ही जाएगा। या यह भी हो सकता है, कहीं चार पैसे ज्यादा मिलें या फिर चार पैसे कम। लेकिन नौकरी तो पक्का मिल जाएगी।'

शिवाकांत को आज महसूस हुआ, वह अब तक माधवी को कितना गलत समझता रहा। उसे पैसे की भूखी, रूप गर्विता और न जाने क्या...क्या... समझकर उसकी अवहेलना करता रहा। ऑफिस से निकलते समय उसके अंतर्मन मन में यह डर समाया हुआ था। मामले की जानकारी मिलते ही वह ताना मारेगी। उपहास उड़ाएगी। उसके पेशे को कमतर बताने की कोशिश करेगी। व्यंग्यबाणों से उसके शरीर ही नहीं, आत्मा तक को छलनी कर देगी। यही वजह थी कि घर की ओर बढ़ते उसके कदम ठिठक गए थे। वह अश्रय खोजने गया था चौधरी के पास। भ्रष्ट और अय्याश नौकरशाह के पास। कि जिसकी आत्मा पता नहीं कितनी गिरी हुई है। कितने दूषित हैं उसके विचार और सोच। घटिया मानसिकता। लेकिन फिर भी समाज में इज्जत। सरकार का नुमाइंदा। लोग क्या दिखते हैं और वास्तव में होते क्या हैं? माधवी तो उसकी अपेक्षा के विपरीत निकली। उसका अपराधबोध जाग्रत हुआ।

उसने अनुराग पूर्ण नेत्राों से माधवी को देखा और बोला, ‘माधवी! सच बताउं+? ऑफिस से सीधा घर क्यों नहीं आया? मैं समझता था, तुम मेरा उपहास उड़ाओगी। तंज कसोगी। इसलिए घर से भाग खड़ा हुआ था। कृत्रिाम साहस हासिल करने के लिए मदिरा का सहारा लिया, ताकि तुम्हारे तंज और उलाहने का तुर्की—बतुर्की जवाब दे सकूं।'

माधवी उदास हो गई। वह अवरुद्ध कंठ से बोली, ‘अगर आप ऑफिस से सीधा घर आते, तो शायद ऐसा ही होता। आपकी बात सच भी हो सकती थी। जब दुर्गेश दादा का फोन आया था, तो आपके प्रति क्रोध उपजा था। कितनी बार समझाया है, लेकिन आप सुनते कहां हैं? अपनी सुनी बात भी अनसुनी करने पर मुझे क्रोध आता है, यह सच है। सोचा था, आने दो। खूब खरी—खोटी सुनाउं+गी। और बांधो...गले में नैतिकता और ईमानदारी का पट्टा। तुम बड़े गर्व से अपने लिए ‘वॉच डॉग ऑफ द पीपुल्स' कहते हो न! क्या मिला तुम्हें...किंतु जैसे—जैसे समय बीतता गया। मेरी बेचैनी बढ़ती गई। एक आशंका मन में घर कर गई। कहीं उत्तेजना और निराशा में तुमने कोई गलत कदम न उठा लिया हो। एक पल के लिए...बस एक पल के लिए मैंने अपने वैधव्य की कल्पना की। पूरा शरीर थरथरा उठा। दुनिया बेमतलब की लगने लगी। भरी भीड़ में भी अकेली, असहाय। हर ओर से चुभती कामुक निगाहें। अगर ऐसा हुआ, तो कैसे जी पाउं+गी? यह समाज तो नोच खाएगा। अकेली औरत तो सबकी निगाहों में खटकती है। सब बित्ते भर की जुबान से लार टपकाते हुए खा जाएंगे। मैं कुछ भी नहीं कर सकूंगी।'

माधवी यह कहते—कहते रो पड़ी। शिवाकांत बस चुपचाप उसे रोती हुई देखता रहा।

आंसुओं को पोंछते हुए माधवी बोली, ‘आपसे मेरा रुपये—पैसे के मामले में हमेशा ‘मतभेद' रहा, ‘मनभेद' नहीं। मैंने आपसे कभी घृणा किया हो, ऐसा नहीं है। कॉलेज में गंभीरता का अभिनय करते—करते, छात्रा—छात्रााओं की विनम्र आवाज सुनते—सुनते मेरे व्यक्तित्व पर यह गंभीरता हावी होती चली गई। पत्नी के निस्वार्थ प्रेम, राग—अनुराग और सेवा भावना पर अध्यापिका ने अपना वर्चस्व कब कायम कर लिया, पता ही नहीं चला। मुझमें काम भावना हिलोरें नहीं मारती, ऐसा भी नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों...? मेरी हमेशा यही इच्छा होती थी, पहल तुम करो। तुम्हारी पहल, तुम्हारी काम याचना मेरी अध्यापिका को तुष्ट करती थी। जैसे मेरे स्टूडेंट हर बात में याचना करके तोष देते हैं। मैंने आपको अपने निकट आने का अवसर स्वेच्छा से तभी दिया, जब मेरी अध्यापिका वाले व्यक्तित्व पर मेरी जरूरतें हावी हो गर्इं। यह भी सही है, वैवाहिक जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम आए। हां, तुमने जब कभी काम याचना की, तो मैंने निराश कभी नहीं किया। मेरी निगोड़ी आदतें ही मेरी दुश्मन बन जाएगी, इसकी तनिक भी कल्पना नहीं की थी।'

‘तुम्हारे अंतःकरण की यह औरत कितने समय तक विजय का जश्न मनाएगी। कहीं अध्यापिका फिर इस औरत पर हावी तो नहीं हो जाएगी?'

‘आपके आधी रात तक न आने पर जिस पल की कल्पना क्षण मात्रा में मैंने की थी, उसी क्षण उस व्यक्तित्व को मन के किसी कोने में गहरे दफन कर दिया है। विश्वास कीजिए, मेरा यह औरतपन हमेशा जिंदा रहेगा। कॉलेज में मेरी छात्रा—छात्रााएं मुझे खड़ूस कहते हैं। दूसरे लोग मुझे अकसर बताते रहते हैं। आज आपको विद्यार्थी यह कह रहे थे, तो आज यह। ज्यादातर मुझे खड़ूस ही कहते हैं। अब शायद ऐसा न हो। मैं भी उनसे शालीन व्यवहार करके साबित कर दूंगी, मैं खडूस नहीं हूं।'

‘तो फिर ब्लैकमेलिंग का आरोप मेरे लिए शुभ साबित हुआ। मुझे लग रहा है, आज मैं अपनी पत्नी को संपूर्ण रूप से हासिल कर रहा हूं। तन से भी। मन से भी। चलो जरा देखूं, तुम्हारे औरतपने में कितना आनंद मिलता है।' शिवाकांत हंसता हुआ माधवी को पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा।

‘छोड़िए भी। चलिए पहले हाथ—मुंह धोकर खाना खाइए। फिर सो जाइए। सुबह हो रही है। आपके मुंह से आ रही शराब की बदबू मुझसे सहन नहीं हो रही है। एक बार किसी तरह सहन किया है। अब और सहन नहीं होता। पहले इससे छुटकारा पाइए, तब कोई बात होगी।' इतना कहकर माधवी उठ खड़ी हुई।

शिवाकांत चौंक उठा। सामने की बर्थ पर बैठा अधेड़ यात्राी अपनी पत्नी को झिंझोड़कर जगा रहा था, ‘उठो! जल्दी करो। नई दिल्ली आने वाली है। सारा सामान गेट पर रख लो। यहां चढ़ने वालों की इतनी भीड़ होती है कि उतरना मुश्किल हो जाएगा। बाद में उतरने के चक्कर पड़े, तो गाड़ी चल देगी। तुम उतर भी नहीं पाओगी।'

उतरने वाले यात्रिायों की तत्परता देखने लायक थी। पिछले दस—बारह घंटे से शांत बैठा हर यात्राी सबसे पहले उतरने का इच्छुक था। मानो सबसे पहले उतरने पर कोई ईनाम मिलने वाला हो। यात्रिायों की यह मनोवृत्ति शिवाकांत को हमेशा अजीब—सी लगती रही है। ट्रेन या बस जब लक्ष्य पर पहुंचने वाली हो, किसी अनापेक्षित बाधा आ खड़ी होने पर गंतव्य से पहले गाड़ी रोकनी पड़े, तो यात्राी बड़बड़ाने लगते हैं। हालांकि खुद वह ऐसी ही मानसिकता से कई बार गुजरा है। शिवाकांत ऐसे यात्रिायों की तरह ही झुंझला पड़ता। जब सिग्नल न मिलने या किसी अन्य कारण से गाड़ी को आउटर पर रोकनी पड़ी है। उसका मन होता है, वह ट्रेन ड्राइवर या सिग्नल मैन के पास जाकर एक कंटाप रसीद करे, ‘बेवकूफ! अगर ट्रेन प्लेटफार्म पर ही रुकती, तो कौन—सी आफत आ जाती।'

अकसर वह अपनी इस बचकानी सोच पर हंस भी पड़ता। मन ही मन कहता, ‘मिस्टर शिवाकांत त्रिापाठी, अगर तुम्हीं अपने गंतव्य पर पच्चीस—तीस मिनट बाद पहुंचोगे, तो कौन—सी प्रलय आ जाएगी। तुम्हें दस—पंद्रह मिनट पहले पहुंचाने के लिए हजारों यात्रिायों के जीवन से खिलवाड़ किया जाए। यही चाहते हो तुम?'

शिवाकांत ने झटपट अपना सामान बटोरा। धक्का—मुक्की करता हुआ गेट पर आकर खड़ा हो गया। सूटकेस का धक्का लगने से तिलमिलाई एक वृद्धा गालियां दे रही थी। गालियों को अनसुना कर उसने बाहर की ओर झांका। चढ़ने वालों की भीड़ ट्रेन के रुकने से पहले ही अंदर आ जाना चाहती थी। वह लोगों को धकियाता हुआ प्लेटफार्म पर आ खड़ा हुआ। स्टेशन से बाहर आने पर टैक्सी और ऑटो रिक्शा वालों ने घेर लिया। उनसे पिंड छुड़ाकर किसी तरह मुख्य सड़क तक आया। एक टैक्सी लाजपत नगर के लिए तय की।

उसने रघुनाथ वर्मा को फोन किया, ‘रघुनाथ! मैं दस—पंद्रह मिनट में लाजपत नगर पहुंच रहा हूं। तुम घर पर ही हो न! हां...हां ठीक है। लाजपत नगर पहुंचते ही फोन करता हूं।' वह टैक्सी की पिछली सीट से पीठ लगाकर विचारमग्न हो गया।

दैनिक प्रहरी की जांच समिति ने अभी अपना काम शुरू भी नहीं किया था कि एक दिन मंजरी का फोन आया, ‘सर...बधाई हो। रिसॉर्ट मालिक को ब्लैकमेल किसने किया था? इसका पता चल गया है। यह भी मालूम हो गया, रिसॉर्ट मालिक ने किसके कहने पर आप पर तोहमत लगाया था? सर, आपने अवधी की एक कहावत तो सुनी ही होगी, पानी में हग्गा एक दिन उतराता जरूर है।'

मंजरी की बात सुनकर उसे हंसी आ गई थी। उसने विनोदपूर्ण लहजे में कहा, ‘आज बहुत चहक रही हो! अवधी भाषी श्याम जी भटनागर ने सिर्फ कहावतें ही याद कराई हैं या और भी कुछ सिखाया है? अवधी भाषा की गालियां बड़ी मधुर होती हैं। कभी सुनकर या देकर देखो, उसका लालित्य समझ में आ जाएगा।'

‘हम्मै कौन दहिजरा सिखाई, हम पहिलहि से पढ़े पास हन' कहकर मंजरी काफी देर तक हंसती रही। शिवाकांत ने भी हंसी में साथ दिया। फिर बोली, ‘भाई साहब, प्लीज अभी शिवानी को मत बताइएगा। उसका भाई भी अभी चर्चा में आने से बच रहा है। हम दोनों भी मिलते समय काफी सावधानी बरतते हैं। प्लीज सर...मेरे उसके टाईअप की बात किसी से भी मत बताइएगा। शिवानी से तो बिल्कुल नहीं। बाद में सबको पता ही चल जाना है। अभी से चर्चा में आना ठीक नहीं है।'

‘अच्छा ठीक है' कहकर शिवाकांत ने पूछा, ‘तुम कुछ कह रही थी?'

श्याम जी भटनागर लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रा विभाग में इसी साल प्रोफेसर नियुक्त हुआ था। शिवानी ने ही मंजरी का परिचय अपने भाई से कराया था। एकाध बार दोनों बाजार में खरीदारी करते मिले। दोनों में बातचीत हुई। मिलने—जुलने का सिलसिला शुरू हुआ, तो हजरतगंज का लवलेन, कुकरैल पिकनिक स्पॉट और अन्य जगहें गुलजार होने लगीं। दोनों सारी दुनिया से छिपकर गोमती नदी के किनारे मिलने लगे। दोनों संबंधों का खुलासा न हो, इसके प्रति कुछ अतिरिक्त ही सतर्क थे। कई बार शिवाकांत ने उन्हें एक साथ देखा था। उसने उन दोनों के बातचीत की भावभंगिमा से कुछ अनुमान लगाया। लेकिन मंजरी से पूछना उचित नहीं समझा। यह उसका निजी मामला था। एक दिन फोन पर मंजरी ने इस ताकीद के साथ यह बात स्वीकार की कि वह किसी से इसकी चर्चा नहीं करेगा। इसके बाद तो मिलने पर वह मंजरी से श्याम जी का हाल—चाल पूछ लेता। मूड में होता, तो फिर श्याम जी को लेकर शिष्ट परिहास भी कर लेता था।

‘सर...मैं यह कह रही थी। रिसॉर्ट मालिक को किसने आपका नाम लेकर ब्लैकमेल किया था, इसका पता चल गया है। सर, यह सुप्रतिम तो बड़ा खिलाड़ी निकला। छात्रा—छात्रााओं के पकड़े जाने वाली घटना आपको याद है न! उस दिन सचमुच कुछ छात्रा—छात्रााएं अय्याशी करते पकड़े गए थे। उस समय अपने मित्राों के साथ रिसॉर्ट गए सुप्रतिम ने मौके का फायदा उठाया और अपना नाम शिवाकांत बताकर पैसा मांगा। वह जानता था, रिसॉर्ट मालिक सिन्हा जी राय साहब को भलीभांति जानते हैं। यह बात राय साहब तक जरूर पहुंचेगी। उसका उद्देश्य आपको बदनाम करना था। उसे जरा भी अंदाजा नहीं था कि मामला इतना तूल पकड़ेगा। सुप्रतिम को उसकी चाल उल्टी पड़ गई।' उत्तेजित स्वर में मंजरी कहती जा रही थी।

‘लेकिन दादी अम्मा...तुम कुछ बताओगी या यों ही हवा में उड़ती रहोगी।' शिवाकांत की उत्सुकता चरम पर पहुंच गई थी। वह तत्काल मामला जानना चाहता था।

उसके परिहास से झेंपी मंजरी ने बताया, ‘सर...आपको एक बात याद है? राय साहब ने सुप्रतिम से ही कहा था, वह सिन्हा जी को बुला लाए। सिन्हा जी को बुलाने के लिए सुप्रतिम हॉल से बाहर भी निकला था। लेकिन उसने चालाकी यह खेली कि बाहर निकलते ही चपरासी सुरेश पाठक को सिन्हा जी को बुलाने भेज दिया। खुद टॉयलेट चला गया। वह टॉयलेट के दरवाजे से खड़ा देखता रहा, सिन्हा जी कॉन्फ्रेंस हॉल से निकले या नहीं। इधर जैसे ही सिन्हा जी आपका नाम लेकर बाहर निकले, उधर झट से सुप्रतिम फिर हाल में दाखिल हो गया। सुप्रतिम के पकडे़ जाने की कहानी भी मजेदार है। सर, बात यह है कि आज सिन्हा जी किसी काम से दैनिक प्रहरी आए थे। जब से आप पर आरोप लगाने का मामला हुआ है, सिन्हा जी का दैनिक प्रहरी आना कुछ बढ़ गया है। शाम चार बजे सिन्हा जी राय साहब के चैंबर की ओर बढ़ रहे थे, तभी दूसरे गेट से सुप्रतिम अंदर प्रवेश कर रहा था। संयोग से सुप्रतिम की नजर सिन्हा जी पर नहीं पड़ी, लेकिन सिन्हा जी ने देख लिया।'

‘फिर क्या हुआ?'

‘होना क्या था? सिन्हा जी ने जाकर राय साहब से कहा, आप कहते हैं, शिवाकांत और अरविंद को जांच पूरी होने तक फोर्स लीव पर भेज दिया गया है। शिवाकांत तो आज भी ऑफिस आया हुआ है। मैंने उसे अपना कार्ड पंच करते देखा है। सच्ची, झूठ नहीं बोल रहा हूं।'

‘क्या कह रहे हो? पिछले दो हफ्ते से शिवाकांत दैनिक प्रहरी परिसर में घुसा ही नहीं। फिर आज वह क्या करने आया है? रुको, पता करता हूं। उन्होंने टाइम और सिक्योरिटी ऑफिस से पता किया। लोगों ने आपके आने की बात से इनकार किया। सर

...उधर सिन्हा जी अपनी जिद पर अड़े हुए थे। उन्होंने आपको कार्ड पंच करते देखा है। इस पर राय साहब का माथा ठनका।' मंजरी बता रही थी। वह बात को लंबा खींच रही थी। शिवाकांत की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, आगे क्या हुआ? वह चाहता था, मंजरी कम से कम शब्दों में पूरी बात बता दे।

‘आगे...?' शिवाकांत झुंझला उठा, ‘तुम एक ही बार में सारी बातें नहीं बता सकती? सामने होती, तो तुम्हारा झोंटा नोचकर हाथ में थमा देता।'

‘सर...आगे...आगे मैं आपको एक भी शब्द नहीं बताउं+गी। एक तो मैं आपको बता रही हूं। और आप हैं कि नाराज हो रहे हैं। भाभी जी से आपकी शिकायत करूं?' अब मंजरी चुहुल के मूड में आ चुकी थी। उसे शिवाकांत की उत्सुकता पर मजा आ रहा था।

‘शिकायत की बच्ची...अगर तू मेरे सामने होती, तो तेरे चेहरे का भूगोल बदल देता। जल्दी से बताती है या रखूं फोन?'

‘ऐसा गजब मत कीजिएगा...सर। बताती हूं। इसके बाद राय साहब अपने साथ सिन्हा जी को लेकर संपादकीय विभाग में घूमने लगे। सुप्रतिम को देखकर सिन्हा जी ने इशारा किया, देखो शिवाकांत बैठा है। इस पर राय साहब ने सिन्हा जी से पूछा, उस दिन आपने शिवाकांत और अरविंद की पहचान क्यों नहीं की थी। सिन्हा ने कहा, आपने उनके नाम पूछे थे? सो, मैंने बता दिया। पहचानने को कहां कहा था? इसके बाद राय साहब ने शर्मा जी, तिवारी जी और सुप्रतिम को आपने चैंबर में बुलाकर लताड़ लगाई। पूरे ऑफिस में हड़कंप मचा हुआ है। सुप्रतिम के खिलाफ कोई कार्रवाई भी हो सकती है। यह बात लीक होकर मीडिया संस्थानों में पहुंच चुकी है, सुप्रतिम ने आपको फंसाने के लिए ही यह प्रपंच रचा था। कल तक जो लोग आपको ब्लैकमेलर, धूर्त और बेईमान कहकर बदनाम कर रहे थे, वही अब आपकी विरुदावलि गाते फिर रहे हैं, सर जी। उस दिन तो आप मीडिया जगत के विलेन बताए जा रहे थे, आज आप हीरो बन गए हैं।' मंजरी के शब्द शिवाकांत के कानों से प्रवेश कर दिल को सुकून पहुंचा रहे थे। उसके शरीर का रोयां—रोयां ठंडक से सिहर रहा था। यह सिहरन उसे भली लग रही थी। उसने अपनी आंखों को बंद कर लिया। दोनों कोर बंद होने से पहले दो अश्रुबिंद बाहर निकाल चुके थे। उसे लगा, यह शिवाकांत की नहीं, सच्चाई की जीत है। असत्य लाख जाल रचे, आवरण ओढ़े, लेकिन एक दिन सच लौह कवच को भी फाड़कर बाहर आ ही जाता है। सच्चाई उजागर होने में समय भले ही लग सकता है, परास्त लग सकती है सच्चाई, सच्चा व्यक्ति परेशान हो सकता है, लेकिन अंततः विजय सच की ही होती है। मुखौटा ओढ़कर सच को झुठलाया नहीं जा सकता।

बाद में संपादक शर्मा और सुप्रतिम अवस्थी ने मामले को कैसे संभाला? यह कोई नहीं जानता। लोगों के बीच सुप्रतिम यही कहता फिरता रहा है, शिवाकांत को बचाने के लिए उसने क्या नहीं किया। यहां तक कि उसने रिसॉर्ट मालिक राज कुमार सिन्हा के पांव तक पकड़ लिए, तब कहीं जाकर मामला रफा—दफा हुआ। लोग उसकी थेथरई पर मुस्कुराकर रह जाते हैं। बाद में चतुर्भुज शर्मा, प्रदीप तिवारी और सुप्रतिम ने कई बार शिवाकांत को फोन किया। लगाए गए आरोप को सम्मान सहित वापस ले लेने की बात कही। सुप्रतिम ने तो फोन करके चिरौरी की। वह शिवाकांत के सामने नाक रगड़ने को भी तैयार था। राय साहब ने उसे इसी शर्त पर माफ किया था, शिवाकांत को वह किसी तरह मनाकर लाए। शिवाकांत दोबारा दैनिक प्रहरी के ऑफिस में नहीं गया। सेलरी उसके एकाउंट में डाल दी गई थी। मंजरी ने एक बार फोन किया, तो बताया था कि राय साहब, उसके नौकरी छोड़ देने से काफी आहत हैं। वे आपके साथ हुए अन्याय से भी दुखी हैं। राय साहब के पिता पंचानन राय ने सुना, तो सुप्रतिम को ही बर्खास्त करने को चतुर्भुज शर्मा से कह दिया। किस तरह चिंतामणि राय और पंचानन राय को इन लोगों ने मनाया, यह बात सामने नहीं आ सकी।

‘भाई साहब! आपको उतरना कहां है? लाजपत नगर आ गया।' टैक्सी ड्राइवर पीछे मुड़कर पूछ रहा था।

‘आं... ऽऽऽ...लाजपत नगर के मेन चौराहे की दायीं ओर गली में हनुमान मंदिर के पास उतार दो।' शिवाकांत टैक्सी ड्राइवर की आवाज सुनकर चौंक उठा। उसने माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछ लिया।

हनुमान मंदिर के सामने खड़ा रघुनाथ इंतजार कर रहा था। दोनों मित्रा गर्मजोशी से गले मिले। रघुनाथ ने ब्रीफकेस उठाते हुए पूछा, ‘कोई परेशानी तो नहीं हुई?'

‘नहीं, परेशानी कैसी।' शिवाकांत का जवाब संक्षिप्त था।

घर पहुंचकर रघुनाथ ने चाय पिलाई। चाय अच्छी बनी थी। थोड़ी देर तक हालचाल पूछता रहा। फिर बाथरूम की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘शिवा...तुम नहा—धोकर फ्रेश हो जाओ। तब तक मैं खाना लगाता हूं। खाना खाकर मैं दफ्तर चला जाउं+गा, तुम सो जाना। शाम को मिलते हैं, तब बाकी बातें होंगी। शाम छह बजे तक शालिनी भी आ जाएगी। हां, दो बजे मेरा बेटा स्कूल से आएगा। उसे तुम्हारे बारे में बता दिया गया है।' रघुनाथ हमेशा उसे शिवा कहकर पुकारता था। वह मजाक में कहता था, तुम हमारे छत्रापति शिवाजी महाराज हो।

अकस्मात शिवाकांत की नींद टूट गई। उसे लगा, कोई बच्चा उसे पुकार रहा है, ‘अंकल...प्लीज मुझे उतार दीजिए...प्लीज अंकल।'

वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने चारों ओर नजर दौड़ाई। मेज पर रखी कुर्सी के हत्थे पर चढ़ा सात वर्षीय बच्चा उसे कातर स्वर में पुकार रहा था। थोड़ा—सा भी संतुलन बिगड़ने पर बच्चा गिर सकता था। उसने लपक कर बच्चे को कुर्सी से उतार लिया।

‘छोटे उस्ताद! आप कुर्सी पर कैसे चढ़ गए थे? क्या करने का इरादा था?' शिवाकांत ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा।

‘अंकल, अल्मारी में मेरे कुछ खिलौने रखे हुए हैं। मम्मी, उन खिलौनों से खेलने नहीं देती हैं। कहती हैं, टूट जाएंगे। उन्हीं खिलौनों को निकालने की कोशिश कर रहा था।' बच्चा अपनी असफलता पर मायूस हो उठा था। उसे खिलौनों से न खेले पाने का अफसोस हो रहा था।

‘छोटे उस्ताद, आपका नाम क्या है?'

‘उत्सव तिवारी...' बच्चा अब बेड पर बार—बार उछलने लगा था। शिवाकांत ने खिलौने उठाकर दे दिए थे।

‘तुम्हारे पापा का नाम...?' शिवाकांत समझ नहीं पा रहा था, रघुनाथ वर्मा के बेटे का नाम ‘उत्सव तिवारी' कैसे हो सकता है? उसने मन ही मन दोहराया, यह क्या झमेला है? उसके इलाके में बात—बात पर बड़े बूढ़े मजाक करते हुए कह देते हैं, जा...जा...बाप धोबी, पूत उपाध्याय। ऐसी कहावतें अक्सर उच्च जातियों के लोग निम्न जातियों के बेटे—बेटियों को सुनाते हुए कहते हैं। यहां तो वह कहावत ही चरितार्थ हो रही थी।

‘रघुनाथ वर्मा...मम्मी का शालिनी तिवारी।'

उत्सव का स्वर उकताया हुआ था। शिवाकांत को लगा, उससे ऐसे सवाल अक्सर किए जाते होंगे। जवाब देते—देते ऐसे सवालात के प्रति उकताहट या विरक्ति स्वाभाविक थी। शिवाकांत ही ऐसी स्थिति में होता, तो उकता जाता। उत्सव की उकताहट का उसने बुरा भी नहीं माना। और मानता भी क्यों? उसके बुरा मानने से होने वाला भी क्या था? उसे अपने से जूझता छोड़कर उत्सव कमरे के बाहर खेलने लगा था।

शिवाकांत चुप ही रहा। उत्सव की झल्लाहट या उकताहट समाज के मनोविज्ञान का एक आईना भर है। लोग पहले भले ही उत्सुकतावश उसका नाम पूछते हों, लेकिन रघुनाथ वर्मा के बेटे का नाम ‘उत्सव तिवारी' सुनकर अवश्य चौंकते होंगे। जैसे वह चौंका था। जाति—धर्म के खांचों में बांटकर समाज को देखने के आदी लोगों को यह बात खटकती जरूर होगी। पिता—पुत्रा की जाति में विभेद का कोई उदाहरण अब तक उसकी नजरों से नहीं गुजरा था। पुरानी कहानियों में जरूर उसने पढ़ा था कि कोई बाह्मण ऋषि थे जिनका पुत्रा क्षत्रिाय था। उनकी पत्नी दासी का काम करती थी। या इससे उलट बात थी। शिवाकांत तय नहीं कर पा रहा था, ऋषि ब्राह्मण थे या पुत्रा ब्राह्मण था। तब शायद जातिगत कट्टरता समाज में इतनी नहीं आ पाई थी। आधुनिक समाज ने जब भी पिता—पुत्रा के संबंधों की विवेचना की है, दोनों की जाति और धर्म एक ही पलड़े पर खड़े दिखाई दिए हैं। दूसरे पलड़े पर खड़ी स्त्राी हमेशा कमतर ही नजर आई है। सर्दी, गर्मी और वर्षा के साथ—साथ जीवन के तमाम झंझावात से बचाते हुए नौ माह तक गर्भ में पालने वाली स्त्राी अपने ही पुत्रा से बाजी जन्म देते ही हार जाती है। ‘मेरा बेटा है' कहकर पिता विजेता के भाव से नवजात शिशु के माथे पर चुंबन के रूप में अपना जातीय चिद्द चिपका देता है जिसे आजीवन ढोने को पुत्रा बाध्य रहता है। जाति—धर्म के इन चिद्दों को पुत्रा चाहकर मिटा भी नहीं पाता है। प्रतिरोध, अरुचि या अन्य सामाजिक दबावों के बावजूद।

और स्त्राी...लुटी—पिटी—सी उस मांस के लोथड़े को तब तक पालने—पोसने को बाध्य कर दी जाती है, जब तक वह मांस का लोथड़ा बड़ा होकर एक अन्य शिशु के माथे पर जाति और धर्म का चिद्द न चिपका दे। इन विजय चिद्दों को लगाने का हक स्त्राी को तो समाज ने दिया ही नहीं। स्त्राी ने कभी मांगा ही न हो, ऐसा शिवाकांत विश्वास नहीं कर पाता। उसने इसके खिलाफ विद्रोह तो जरूर किया होगा, भले ही विजय न मिली हो। सामाजिक अदालत में उसकी याचिका तो कभी स्वीकार ही नहीं की गई। शिवाकांत खुद अपने नाम के साथ सरनेम नहीं लगाता। अपने पुत्रा के नाम के साथ सरनेम हटाने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाया। उसके संस्कार सामने आ खड़े हुए। वह अपने ही संस्कारों के खिलाफ लड़ता भी कैसे? पिता नाराज होते, मां नाराज होती, गांव—समाज नाराज होता। अकेले पूरे समाज से जूझने का साहस शिवाकांत नहीं जुटा पाया। बड़े होने पर उसके बाल—बच्चों का विवाह जो नहीं हो पाता।

शिवाकांत कमरे से निकलकर बरामदे में खड़ा हो गया। उत्सव मेनगेट की झिर्रियों से बाहर खेलते बच्चों को देख रहा था। वह उत्सव की खेलने को ललचाई नजरों को देख द्रवित हो गया। उसके मन ने कहा, खोल दो गेट। खेलने दो उत्सव को इन बच्चों के साथ। या फिर इन बच्चों को ही बुला लो अंदर। वह ऐसा नहीं कर सका। चाहते हुए भी नहीं कर सका। रघुनाथ और शालिनी कहीं बुरा न मान जाएं? क्या पता, उसका ऐसा करना, उनके पारिवारिक मामलों में दखल देना न माना जाए। उसको किसी के व्यक्तिगत मामलों में दखल देने का अधिकार भी क्या है? वह सिर्फ मित्रा है। मित्रा को तो क्या मां—बाप को भी किसी के व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का अधिकार नहीं होता। उसने उत्सव से पूछा, ‘क्यों इन बच्चों के साथ खेलोगे?'

‘नो अंकल, दे आर डर्टी...दे आल आर डिस्गास्टिंग।' उत्सव के चेहरे पर चिपका घृणा का भाव उसे आतंकित कर गया। इसके बावजूद आंखों में खेलने की ललक विराजमान थी।

‘तो तुम खेलते किसके साथ हो? अकेले...?'

‘सिर्फ स्कूल में खेलता हूं दोस्तों के साथ। घर पर अकेले...मम्मी यहां किसी के साथ खेलने नहीं देती हैं।'

शिवाकांत उठकर अंदर चला आया। उसे लगा, उत्सव की आंखों में बच्चों को निर्द्वंद्व खेलता देख उसके साथ खेलने की भीतर दबी—दबी इच्छा उसका यहां तक पीछा करती हुई आ गई है। बच्चे को खेलने से रोकना, उसके बचपन के साथ खिलवाड़ नहीं है? शालिनी ने सरनेम देने के बदले उसके बचपन को अपने घेरे में तो नहीं ले लिया है? बचपन ही तो नहीं खरीद लिया है? जैसे मर्द चुटकी भर सिंदूर और एक मंगलसूत्रा के बदले स्त्राी के संपूर्ण जीवन को घेर लेता है? स्त्राी सारी जिंदगी मंगलसूत्रा और सिंदूर रेखा के इर्द—गिर्द कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर ढकनी लगाए घूमती रहती है। शालिनी अपने ही बच्चे से बदला तो नहीं ले रही है? इसमें रघुनाथ की भी सहमति होगी? हो सकता है, हो। संभव है, न भी हो। कोई अपने ही बच्चे के जीवन से खिलवाड़ कैसे कर सकता है?

शाम को शालिनी और रघुनाथ आ गए। शालिनी आते ही घर के कामों में व्यस्त हो गई। रघुनाथ उत्सव के स्कूल का होमवर्क पूरा कराने में जुट गया। दूसरे कमरे में बैठा शिवाकांत या तो पत्रिाकाएं पढ़ता रहा या फिर अपने परिवार को याद करता रहा। रसोईघर से बर्तनों के खड़कने की आवाज बार—बार आती रही।

देर रात खा—पीकर रघुनाथ और शिवाकांत बतियाने लगे। बातों का पिटारा खुला, तो बचपन और जवानी की घटनाएं एक—एक कर याद आती चली गर्इं। बचपन की शरारतें, जवानी के हुड़दंग, न जाने कितनी बातों को याद करके दोनों कभी गमगीन हो जाते, तो कभी ठहाका लगाकर हंस पड़ते। रघुनाथ बाराबंकी छोड़ने से पहले के किस्से सुना रहा था। दोनों ठहाका लगा रहे थे। तभी शालिनी घर के कामकाज निपटाकर कमरे में आई। उसने कहा, ‘आप लोग सारे ठहाके आज ही खर्च कर देंगे? या कल के लिए भी कुछ बचाकर रखेंगे?'

शिवाकांत ने तपाक से जवाब दिया, ‘सारे खर्च हो गए, तो भी कोई चिंता नहीं। आप हैं न ठहाके उधार देने को।'

रघुनाथ ने नकारात्मक सिर हिलाते हुए कहा, ‘न...भाई...मेरी शालिनी से ऐसी उम्मीद मत रखना। वह न तो उधार लेती है, न देती है।'

रघुनाथ को ‘मेरी शालिनी' कहकर संबोधित करने पर उत्सव के सरनेम की याद उसे फिर आ गई। उसने तय किया, इस बारे में वह इन दोनों से कतई बात नहीं करेगा। उसने सिर्फ इतना पूछा, ‘तुम दोनों ने शादी कब की? मुझे बताया तक नहीं?'

रघुनाथ अकबका गया। जवाब दिया शालिनी ने, वह भी प्रश्न के रूप में, ‘क्या शादी इतनी महत्वपूर्ण है कि दो बालिगों को एक साथ रहने के लिए इसका आसरा लेना पड़े?'

‘वैसे तो कतई जरूरी नहीं है...। समाज जरूर चाहता है, उसके नियम, कानून, बंधन या परंपराओं को माना जाए। अगर समाज में रहना है तो? समाज में नहीं रह सकने की ताकत हो, तो कोई जरूरी नहीं है। सामाजिक स्वीकृति भी तो कोई चीज है? इसके बिना तो शायद...।' शिवाकांत ने बात अधूरी छोड़ दी।

‘क्या सामाजिक स्वीकृति के बिना काम नहीं चल सकता?' रघुनाथ अब भी चुप था।

‘हां...शायद। समाज चाहे कितना भी उदारवादी हो, उसकी उदारता की भी एक सीमा तो होगी ही। क्या नहीं होगी? सामाजिक छूट की निश्चित सीमा के बाद वह भी अपनी डोर कस देता है व्यवस्था भंग करने वालों की गर्दन पर। इसमें फंसा व्यक्ति तड़प तो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता। क्या तुम लोग मुक्त हो गए हो?'

‘लेकिन मेरे गले में तो कोई फंदा नहीं है। मैं इस डोर को कब का काट चुकी हूं।'

‘शालिनी जी, यह आपका भ्रम है। कठपुतली क्या कभी स्वतंत्रा होती है? भले ही कठपुतली को यह गुमान हो कि वह स्वतंत्रा है। क्या होता है ऐसा? अपनी मर्जी के मुताबिक नाच सकती है? नहीं न...। सच्चाई क्या है? इस बात को पर्दे के पीछे छिपे बैठे व्यक्ति की अंगुलियां बताती हैं। अंगुलियों में फंसी डोर हकीकत बयां करती हैं। आपने बेटे को अपना सरनेम दिया है। इस संबंध में बच्चे को सिखाया भी खूब होगा। जरा प्यार से उस बच्चे से पूछिए, क्या वह स्कूल में उत्सव तिवारी के नाम से ही पुकारा जाता है? बच्चे को बुलाते समय अध्यापिकाएं, बच्चे और समाज के लोग व्यंग्यात्मक लहजे में मुस्कुरा नहीं पड़ते होंगे? मैं बात उनकी कर रहा हूं, जो आप दोनों को जानते हैं। ऐसे लोग अकेले या कभी—कभी सामने भी उत्सव वर्मा नहीं कहते होंगे? मैं तो कहता हूं, वे मानते भी यही होंगे।'

‘आपको सरनेम वाली बात कैसे पता चली? रघुनाथ ने कभी आपसे शिकायत की है?' रघुनाथ को सवालिया निगाहों से देखते हुए शालिनी ने पूछा।

‘नहीं...दोपहर में बच्चे से उसका नाम पूछा था। आप समझती हैं, इस तरह वर्ण व्यवस्था को चोट पहुंचा सकती हैं? तो यह आपकी भूल है। कभी ऐसा होता था, पिता क्षत्रिाय, पुत्रा ब्राह्मण और मां शूद्र हुआ करती थी। तब वर्ण व्यवस्था इतनी जड़ नहीं हुई थी। आज हालात आपकी सोच से कहीं ज्यादा बदतर हैं, शालिनी जी।'

‘वर्ण व्यवस्था को खरोंच तो लगा ही सकती हूं? और लगा भी रही हूं। क्या सच नहीं है, मेरी बात?'

‘सिर्फ छोटे—मोटे खरोंचों से वर्ण व्यवस्था को कोई नुकसान पहुंचने वाला नहीं है। हां, ऐसा करने से आपके नाखून अवश्य टूट सकते हैं। खरोंचों के निशान कुछ दिन तक वर्ण व्यवस्था पर जरूर बने रह सकते हैं, लेकिन एक दिन वे निशान मिट जाएंगे। कोई गहरे निशान तो छोड़ नहीं रही हो? इससे फायदा क्या होगा? तुम्हारी ऊर्जा का अपव्यय ही तो होगा...। ऊर्जा का कुछ रचनात्मक उपयोग कर सको, तो बेहतर है। फैशन में नारी मुक्ति या जाति तोड़ो आंदोलन चलाने से कुछ नहीं होने वाला।' शालिनी से शिवाकांत ने समझाने वाले लहजे में कहा।

‘अरे यार! आप लोग कहां की बातें ले बैठे। अच्छा...मैं तो चलता हूं। मुझे नींद आ रही है। आप लोग बहस कीजिए, खूब कीजिए। जब थक या किसी फैसले पर पहुंच जाइएगा, तो कल सुबह मुझे भी बताइएगा। मैं तो फालोवर हूं, फालो ही करूंगा।' रघुनाथ ने जमुहाई ली।

शालिनी की नींद गायब थी। उसने नाइट बल्ब की मद्धिम नीली रोशनी में रघुनाथ के चेहरे को देखा। गौर से देखा। वह मुस्कुरा रहा था। शायद नींद में सपना देख रहा था। कई बार शालिनी को भ्रम हो जाता था, वह जाग रहा है और उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रहा है। मुस्कुराहट व्यंग्यात्मक तो नहीं है? कई बार शालिनी विचार करती। अकसर ऐसा होने पर वह रघुनाथ को जगा देती। जागने पर पूछ भी लेती, ‘आप मुझ पर हंस तो नहीं रहे थे?'

‘पागल हो गई हो?' कहकर रघुनाथ आंखें मूंद लेता, ‘सो जाओ! तुमने सपना

देखा होगा।'

वह सोचने लगी, सपने...वह आज तक सपने ही तो देखती आई है। ... कितने मोहक होते हैं सपने! इसीलिए कि सच नहीं होते। अवचेतन मन की उपज होते हैं। फ्रायड सपनों का संबंध ‘काम' से जोड़ता है। उसकी हर व्याख्या शरीर और सेक्स पर ही आकर ठहर जाती है। ...लेकिन उसने जो सपने देखे थे, उसमें तो सेक्स कहीं नहीं था। भले ही कैशोर्य मन ने इन सतरंगी सपनों की आधारशिला रखी थी। पवित्राता और मोहकता में वे कम नहीं थे। लेकिन...वह दुनिया की नजरों पर चढे़ फ्रायडीय चश्मे का क्या करे? उसे तो जो भी मिला, उसके शरीर का भूगोल नापने को आतुर दिखा। कहीं पर्वतों की तलाश, तो कहीं घाटियां। कहीं उन्हें समतल की तलाश थी, तो कहीं नदियों की। मर्दों की तो बस एक ही तमन्ना...जांघों में घुसने को बेचैन। मर्द जन्म लेते ही फ्रायड मार्का घुट्टी पी लेते हैं? बस एक ही तमन्ना, एक ही ख्वाहिश, एक ही चाहत। शरीर का भूगोल नापना। मर्द यह क्यों नहीं सोचते, इसी शरीर में एक मन भी होता है। शरीर तो सबको चाहिए, लेकिन मन का तलबगार कोई नहीं? कहां ले जाए वह मन को? कहां फेंक दे? मन न हुआ दुरदुराया कुत्ता हो गया?

उसे याद आ गया मुरादाबाद से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिाका का संपादक विजय सक्सेना। पैंसठ साल का सक्सेना भी उसे ‘बेटी...बेटी' कहकर बिस्तर तक खींच ले जाना चाहता था। एक दिन सबके जाने के बाद वह शालिनी पर झपट ही तो पड़ा था। शालिनी का एक धक्का नहीं सह सका। भरभरा कर गिर पड़ा। गिरते समय मेज की नोक उसके नाजुक अंग को चोटिल कर गई। किस तरह बिलबिला उठा था सक्सेना? सक्सेना कातर स्वर में गिड़गिड़ाया था, ‘बेटी...मुझे माफ कर दो। मुझे माफ कर दो...मैं वासना में अंधा हो गया था। भूल गया था, तुमसे पांच साल बड़ी मेरी बेटी है। मुझे इस हालत में छोड़कर मत जाओ। मुझे किसी तरह अस्पताल पहुंचा दो या डॉक्टर बुला दो।'

क्रोधित शालिनी पिघल गई थी। आज भी जब सक्सेना की सूरत उसकी आंखों के सामने आती है, तो एक लिजलिजा—सा एहसास पूरे शरीर में दौड़ जाता है। लगता है, कोई बड़ा—सा केंचुआ उसके पूरे शरीर पर रेंग रहा है। गंदा—सा और लिजलिजा भी। एक अजीब सी घृणा उसके मन में भर जाती है। लिजलिजे पन का एहसास होते ही वह चीख उठती है, लेकिन आवाज गले में घुटकर रह जाती है। खून से लथपथ सक्सेना के अस्पताल पहुंचते ही तुरंत ऑपरेशन करना पड़ा था। अंडकोष की थैली भीतर कहीं फट गई थी, थैली में खून भरता जा रहा था। थोड़ी देर हो जाती, तो उसका बचना नामुमकिन था। लोगों ने शालिनी से पूछा, कई बार पूछा। क्या कहती शालिनी। बुड्ढा बलात्कार करने जा रहा था? कई तरह के सवाल खड़े होते। पहली बार था या इससे पहले भी हो चुका था? पहली बार किया था, तो हल्ला क्यों नहीं मचाया? पुलिस में क्यों नहीं गई? मजा आया था कि नहीं? किसका—किसका मुंह पकड़ती? जितने मुंह, उतनी बातें। बातों को वह कैसे रोक सकती थी? सभी सवालों का सिर्फ यही जवाब था उसके पास। घर जाने की तैयारी कर रही थी, केबिन से सर के चीखने की आवाज आई। भागकर मैं उनकी केबिन में पहुंची, तो वे फर्श पर गिरे छटपटा रहे थे। शायद ठोकर खाकर या किसी दूसरी वजह से गिर पड़े और मेज से टकराकर चोटिल हो गए।

ऑपरेशन के बाद होश आने पर सक्सेना ने चक्कर खाकर गिर जाने की बात कहकर अपनी इज्जत बचा ली थी। वह सक्सेना के अस्पताल में रहने तक ऑफिस जाती रही, लेकिन सक्सेना की अस्पताल से छुट्टी होने के अगले दिन उसने नौकरी छोड़ दी। वह महीने का बकाया वेतन भी लेने नहीं गई। उसने नौकरी ही नहीं, मुरादाबाद भी छोड़ दिया। पानीपत, कानपुर, आगरा और दिल्ली जैसे शहरों में वह आजीविका तलाशती रही। जहां कहीं भी नौकरी की थोड़ी गुंजाइश दिखती, पहुंच जाती अपना रेज्यूमे लेकर। नौकरी मिलने में उसे कठिनाई नहीं थी, उससे जो कीमत मांगी जा रही थी, वह ज्यादा थी। ज्यादातर नियोक्ता या संस्थान के वरिष्ठ—कनिष्ठ अधिकारी नौकरी देने से पहले या बाद में उसके साथ सोना चाहते थे। कुछ ने अपनी इच्छा पहले जाहिर कर दी, तो कुछ बहन—बेटी जैसे रिश्तों के दाने बिखेरकर अपने—अपने जाल लेकर बैठ गए। गिद्ध जैसी आंखों वाले बहेलिये इंतजार करते कि शिकार रिश्तों का दाना चुगता है या नहीं। उसने ऐसे दानों को चुगा तो जरूर, लेकिन दानों के साथ लिपटे जाल को नहीं देख पाई। वह सक्सेना वाली घटना के बाद से सतर्क हो उठी थी। असगर फारुखी, रोहित मलहोत्राा, संजय सिंह, त्रिाभुवन शुक्ला, छंगू राम...न जाने कितने नाम...न जाने कितनी शक्लें...लेकिन दृष्टि सबकी एक जैसी...कुत्ते की तरह लार चुआती जुबानें...सेक्स की भूख से भैंसे की तरह हांफते मर्द। कई बार तो उसे अपने ही शरीर से घृणा हो जाती। सोचती, वह खुद ही अपने चेहरे और शरीर पर तेजाब मल ले। एक बाल्टी तेजाब से नहा ले जी भरकर। काटकर फेंक दे अपनी सुडौल काया। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी। कि वह ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। कि ऐसा करके वह कौन—सा परमवीर चक्र हासिल कर लेती? कि उसे अपने शरीर से मोह भी कम नहीं था। उसे अगर कोई मनमाफिक मिला, तो वह उसे क्या अर्पित करेगी? तेजाब से नहाया हुआ घृणित शरीर? किस काम की रह जाएगी वह अपने उस पुरुष के लिए?

और फिर...एक दिन उसकी मुलाकात हुई अनन्य से। उन दिनों वह डीटीसी बसों से पटपड़गंज से आईटीओ जाया करती थी। एक मल्टी एडीशन न्यूजपेपर में सीनियर आर्टिस्ट था अनन्य। वह पटपड़गंज से ऑटो पकड़कर नोएडा स्थित ऑफिस जाया करता था। वह भी एक मासिक पत्रिाका में कॉपी एडीटर की नौकरी बजा रही थी। अनन्य की शालीनता और साफगोई ही तो उसे भा गई थी। पटपड़गंज चौराहे पर खड़ी शालिनी ने उसे देखा, तो वह उस पर से नजरें नहीं हटा सकी थी। धीरे—धीरे उसकी पटपड़गंज चौराहे पर अनन्य से रोज मुलाकात होने लगी। दोनों एक दूसरे को देखते और अपने—अपने रास्ते चले जाते। बातचीत की पहल करने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। शालिनी सोचती, कहीं बात करने पर वह गलत अर्थ न लगा ले। अनन्य सोचता, बोलने के चक्कर में कहीं पिट पिटा न जाए? बात बिगड़ गई, तो चौराहे पर तमाशा खड़ा हो जाएगा। मामला पुलिस तक पहुंच जाए, तो ताज्जुब नहीं। वह मन ही मन कहता, ‘छोड़ यार! अभी दिल के हाथों इतना मजबूर नहीं हुआ हूं। ‘सौ—सौ जूते खाओ, तमाशा घुस कर देखो' वाली गति को प्राप्त होने में शायद अभी लंबा समय है।'

एक दिन शालिनी पटपड़गंज चौराहे पर थोड़ा विलंब से पहुंची। उसकी बस जा चुकी थी। अनन्य साहस करके उसके पास आया, ‘आपकी बस अभी—अभी निकली है। मुश्किल से पांच—सात मिनट पहले। आज आप थोड़ा—सा लेट हो गर्इं। अब कम से कम आधा घंटा रुकना पड़ेगा।'

अनन्य का बात करना, उसे अच्छा लगा। भूरी आंखों वाले गोरे—चिट्टे अनन्य की मासूमियत सबसे ज्यादा आकर्षक थी। वैसे भी पिछले कई सालों से शरीर और मन बचाने की जंग लड़ते—लड़ते तंग आ गई थी। 26 बसंत देख चुकी शालिनी अपनी मांग में किसी के नाम का सिंदूर सजाकर और उसे तन—मन समर्पित कर निश्चिंत हो जाना चाहती थी। वह सोचती थी, विवाह हो जाने पर उसे नश्तर सरीखी चुभती निगाहों, कुत्ते जैसी लोलुप जीभ, मादा शरीर के लिए हमेशा भुखाए पुरुषों के लिजलिजे हाथों के घृणित स्पर्श से निजात मिल जाएगी। अनन्य तो उसकी नजरों में थोड़ा—सा अपनापन पाकर निहाल हो गया। उसने मित्राों के बीच घोषणा कर रखी थी, जिस दिन ‘लाल टी शर्ट' वाली लड़की से उसकी बात हो जाएगी, वह सभी दोस्तों को कनॉट प्लेस में बियर पिलाएगा। उसने शालिनी का नाम ‘लाल टी शर्ट' वाली रख छोड़ा था। उसे नाम की जानकारी होती भी, तो कैसे? ये सब बातें तो बहुत बाद में शालिनी को अनन्य ने बताई थी। शालिनी अक्सर लाल टी शर्ट जो पहनती थी। यह टी शर्ट उसे पसंद भी बहुत थी। उसकी बड़ी बहन कामिनी ने उसे अपनी ससुराल से पहली बार मायके आने पर गिफ्ट दिया था।

धीरे—धीरे पटपड़गंज चौराहे पर होने वाली मुलाकात पार्कों और रेस्टोरेंट तक जा पहुंची। अब उसे घर आने में देर भी होने लगी। धीरे—धीरे चार महीने बीत गए।

एक दिन अनन्य ने शालिनी से कहा, ‘आज मेरा बर्थ डे है। कुछ दोस्तों के साथ घर पर शाम को एक छोटी—सी पार्टी रखी है। सभी दोस्त आएंगे, तुम्हें भी आना होगा।'

शालिनी ने उसे विश किया और शिकायत की, यदि तुमने पहले बताया होता, तो वह कोई छोटा—मोटा गिफ्ट लाती।

अनन्य ने हंसते हुए कहा, ‘वह तो तुम शाम को भी दे सकती हो।'

तय हुआ, शाम छह बजे शालिनी इसी जगह मिलेगी। अनन्य उसे साथ ले लेगा। शालिनी समय पर पहुंचकर उसका इंतजार करने लगी। उसे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। मोटरसाइकिल लिए अनन्य दूसरी साइड में उसे हाथ हिलाकर बुला रहा था। शालिनी उसके पास गई। वह मुस्कुराया और बोला, ‘आज बर्थ डे है न! इसलिए प्रवीण ने आज के लिए अपनी मोटरसाइकिल दे दी है।'

अनन्य ने शालिनी को बैठने का इशारा किया। वह थोड़ी दूरी बनाकर पीछे बैठ गई। मोटर साइकिल ने रफ्तार पकड़ ली। अचानक ब्रेक लगने पर वह अनन्य की पीठ से सट जाती। संकोच में उसकी देह सिकुड़ती जाती थी। मोटरसाइकिल की रफ्तार के साथ ही साथ उसका मन भाग रहा था। देह ने पहली बार पुरुष का स्पर्श होने पर सिहरना जाना। हर सिहरन पर एक मीठी कसक मन में उभरती, तो वह बेचैन हो जाती। लगता, उसे हलका—हलका बुखार चढ़ अया है। वह संभलकर बैठ गई।

घर पहुंचकर अनन्य ने कमरा खोला। शालिनी को पहली बार पता चला, अनन्य दिल्ली में अकेला रहता है। उसे अभी तक अनन्य के परिवार के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी। सात—साढ़े सात बजे तक अनन्य के मित्रा भी आ गए। नितिन आहूजा, प्रणय वाजपेयी, रोहित शर्मा, प्रदीप ठाकुर, प्रवीण बत्राा के साथ—साथ शिल्पी गावस्कर, अर्चना शर्मा और मनप्रीत कौर भी आई थीं। हल्दीराम से मनप्रीत कौर बर्थडे केक लाई थी, तो प्रणय वाजपेयी व्हिस्की की बोतलें लाया था। केक कटने के बाद जब बोतलें खुलीं, तो हर शख्स उसमें डूबता चला गया। पहली बार शिवानी ने दिल्ली कल्चर को देखा, देखकर गुना, गुनकर भोगा। भोगने के परिणाम पर भी उसने एक बार विचार किया, लेकिन बुद्धि को चंचल मन ने दुत्कार दिया। मनप्रीत पैग पर पैग चढ़ाए जा रही थी, मानो पानी पी रही हो। शालिनी ने शराब पीने से मना कर दिया। शिल्पी गावस्कर ने तंज कसते हुए कहा, ‘तुम मिडिल क्लास के लोग शराब को टैबू बनाकर क्यों जीते हो। शराब पीने का मतलब खराब हो जाना नहीं है। शराब और चरित्राहीनता में कोई संबंध है क्या भला? तुम मिडिल क्लास के लोग शराब को सेक्स से जोड़कर क्यों देखते हो? मेरे घर में तो सभी पीते हैं। मम्मी, पापा, भइया और मैं। हां, सामने नहीं पीते। लेकिन एक दूसरे के बारे में जानते सभी हैं।'

अनन्य के दबाव डालने पर शालिनी ने एक पैग लिया। फिर थोड़ी—सी और...थोड़ी—सी और...। नतीजा यह हुआ, थोड़ी—सी, थोड़ी—सी के चक्कर में चार पैग पी गई। आंखों और दिमाग में रंग—बिरंगी रोशनियों के पटाखे फूट रहे थे। लगता था, सितारे आकाश छोड़कर उसके इर्द—गिर्द मंडरा रहे हैं। शरीर तिनका हो गया है, जरा—सी हवा चली नहीं कि उड़ जाएगी। उड़ेगी तो जाएगी कहां? दूर बादलों के पार...? क्या पता...बादलों तक पहुंच भी न पाए? कि बीच में ही किसी नाली, कूड़े के ढेर, समुद्र, नदी में जा गिरे। कि पेड़—पौधों या किसी मकान की मुंडेर पर अटक कर रह जाए? क्या मालूम, तब उसका भाग्य क्या होगा? किस गति या दुर्गति को प्राप्त होगी?

फिर शुरू हुआ धीमी आवाज पर बजते पॉप म्यूजिक की धुन पर नाचने—गाने का दौर। शालिनी की पलकें मुंदी जा रही थीं। थोड़ी देर हो—हल्ले के बाद उसे लगा, दो लोग आपस में गुत्थम गुत्था हैं। उसने काफी प्रयास करके आंखें खोलीं। नितिन का गला प्रणय ने दबा रखा था। नितिन नीचे गिरा छटपटा रहा था। रोहित, प्रवीण और अनन्य ने बड़ी मुश्किल से दोनों को अलग किया। अनन्य ने अपनी दोस्ती और जन्मदिन का वास्ता देकर दोनों को चुप कराया। फिर दोनों को एक—एक पैग देकर दोस्ती के नाम पर चियर्स करने का अनुरोध किया। थोड़ी—सी ना—नुकुर के बाद दोनों पीने लगे। डेढ़ बजे पार्टी समाप्ति की ओर बढ़ी। दोस्त जाने लगे। अंत में मनप्रीत और नितिन गए। रोहित ने शालिनी से कहा, वह उसे पटपड़गंज ड्रॉप कर देगा। शालिनी उसके साथ जाने को तैयार नहीं हुई। सभी चले गए, तो शालिनी ने भी जाने की इच्छा जताई। अनन्य ने उससे रुकने का अनुरोध किया, ‘डेढ़—पौने दो बज रहे हैं। घर पहुंचते—पहुंचते ढाई—तीन बज जाएंगे। घर जाकर सोना ही तो है, यहीं सो जाओ।'

शालिनी ने कई तर्क दिए। मकान—मालकिन के कड़क होने का वास्ता दिया। लेकिन वह नहीं माना। प्यार का वास्ता देने पर आखिरकार शालिनी रुकने को तैयार हो गई। तय हुआ, शालिनी बेड पर सो जाएगी और अनन्य सोफे पर।

लेटते ही उसे नींद आ गई। नींद में ही उसे लगा, किसी के पंजे उसके शरीर का जायजा ले रहे हैं। सांसें अनियंत्रिात होती जा रही थीं। उसने करवट बदली। बाहें पसारकर उसने शरीर को सहलाने वाले के गले में डाल दी। मीठी—मीठी मादक तरंगें उसके शरीर को रोमांचित करने लगीं। यह मदहोशी उस पर कोई घंटा भर छाई रही। फिर उसे होश आया, लेकिन तब तक ज्वार—भाटा थम चुका था। उसे लगा, अब तक उसके शरीर को छू पाने में नाकाम रहे लिजलिजे केंचुए अपने मकसद में कामयाब हो गए। उसे विश्वास हो गया, हर पुरुष लिजलिजे केंचुए जैसा होता है। ये लिजलिजे केंचुए किसी का भी विश्वास शरीर की चाह में तोड़ सकते हैं। वह उस भरोसे का क्या करे, जो अब तक अनन्य पर था। उसे लगता था, अनन्य उन केचुओं जैसा नहीं है। वह उसे दगा नहीं देगा। वह सारी रात जागती और रोती रही। अपने को कोसती रही, सारी गलती तो तुम्हारी है शालिनी। क्या सोचकर इसके साथ आई थी? आखिर तुम क्या जानती हो इसके बारे में? तुमने खुद ही न्यौता दिया? तुम्हारा मन न होता, तो शराब पीती? माना कि दोस्त है तुम्हारा। पार्टी दी थी तो आना पड़ा। लेकिन जब सभी चले गए थे, तो तुम किस लिए रुक गई थी? कहीं न कहीं तुम्हारी भी इच्छा थी। सुख की चाहत, देह भोगने की चाहत, वर्जित फल का स्वाद चखने की चाहत। चख लिया न! अब बिसूरती क्यों हो? खुशियां मनाओ, तुम्हारा कौमार्य भंग हो गया? तुम्हारी सबसे बड़ी परेशानी तो कौमार्य ही थी न! वह अपने आपको कोसती हुई बिसूरती रही।

सुबह उसकी आंखें जागने और रोने से सूजी हुई थीं। वह आईना देखने से बच रही थी। उसकी हालत देखकर अनन्य हंस ही तो पड़ा था, ‘रिलेक्स यार! दिल्ली में यह सब कुछ चलता है। इतने साल दिल्ली में रहने के बाद भी मिडिल क्लास मेंटालिटी से मुक्त नहीं हो पाई हो। इट्‌स जस्ट फन, यार!'

‘अनन्य...यह अच्छा नहीं हुआ। मैं दिल्ली की उन लड़कियों जैसी नहीं हूं, जो सिर्फ टेस्ट बदलने के लिए ब्वॉयफ्रेंड या पति छोड़ देती हैं। शादी से पहले मेरे लिए यह सब वर्जित था। अब मैं क्या करूं?'

फफक ही तो पड़ी थी शालिनी। सक्सेना पर शेरनी की तरह झपट पड़ने वाली शालिनी जैसे इस वक्त कहीं बिला गई थी। दैन्यता की प्रतिमूर्ति बनी वह अनन्य के सामने गिड़गिड़ा रही थी, ‘अब मैं कहां मुंह दिखाउं+गी अनन्य...तुमने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।'

‘रिलैक्स डॉर्लिंग...रिलैक्स। कुछ नहीं होगा। दो हफ्ते बाद मैं घर जा रहा हूं। पिताजी को तुम्हारे घर भेजूंगा शादी की बात करने को। फिर हम शादी रचाकर पति—पत्नी हो जाएंगे।'

अनन्य का आश्वासन उसे राहत नहीं पहुंचा सका। वह घटना के बारे में जितना सोचती, उतना ही उलझती जाती। वह यह सोचकर कांप उठी, अगर अनन्य बाद में मुकर गया तो? वह उसका क्या बिगाड़ लेगी? लोग तो यही कहेंगे, दोनों की मर्जी थी। सब कुछ सहमति से ही हुआ था। सहमति की बात पर उसके हाथ पांव फूल गए। फिर भी उसके पास अनन्य पर विश्वास करने के सिवा चारा भी क्या था? इस भंवर से अनन्य ही उसे निकाल सकता है। कोई दूसरा नहीं।

अनन्य ने परिहास में कहा, ‘तुम गांव—देहात या छोटे शहरों की लड़कियां सेक्स को इतना गंदा क्यों बना देती हो। कल तुमने मनप्रीत, शिल्पी और अर्चना को देखा है न! उन जैसी दिल्ली की तमाम लड़कियां जितनी बेबाकी से धर्म, अध्यात्म, विज्ञान, प्रौद्योगिकी पर बातें करती हैं, उतनी ही दमदारी से ब्वायफ्रेंड और सेक्स पर चर्चा करती हैं। उन्हें तो झिझक नहीं महसूस होती है। जिस तरह प्यास लगने पर वे पानी पीती हैं, उसी तरह जरूरत महसूस होने पर वाइन, सिगरेट और सेक्स का आनंद उठाती हैं। कितनी स्वतंत्रा हैं दिल्ली की लड़कियां। नारी मुक्ति का वास्तविक अर्थ मनप्रीत, शिल्पी जैसी लड़कियां ही जानती हैं। मनप्रीत को तो नॉनवेज चुटकुले सुनाने में इतना मजा आता है कि अब क्या बताउं+ तुम्हें। पूरी पंजाबण मुटियार है।'

इतना कहकर वह शालिनी के चेहरे पर आ रहे उतार—चढ़ाव को परखता रहा। शालिनी सिर झुकाए आंखों में उतर आई नमी को रुमाल से पोछ रही थी। अनन्य ने उसे बाहों में समेटते हुए कहा, ‘तुमने सआदत हसन मंटो की कहानी ‘ठंडा गोश्त' पढ़ी है। उसकी एक महिला पात्रा है कुलवंत कौर। जब वह तेज आंच पर चढ़ी हुई हांडी की तरह उबलने लगती है, तो कहती है, ‘ईशर सियां, काफी फैंट चुका है, अब पत्ता फेंक।' मनप्रीत बताती है, वह भी जब जोश में आती है, तो कुलवंत कौर की तरह चिल्लाती है, पत्ता फेंक, तुरुप दी चाल चल। उसे यह सब बताने में कतई संकोच नहीं होता। और एक तुम हो कि बस...।'

होटल कांटिनेंटल में पत्राकारों की अच्छी खासी भीड़ जमा थी। इस भीड़ में शिवाकांत भी था, भीड़ में होते हुए भी कुछ अलग थलग सा। वह प्लेट में खाना लिए बेमन से खा रहा था। मक्खियों की तरह मंडराते पत्राकारों को वह बड़े कौतूहल से देख रहा था। उत्तर प्रदेश की एक दबंग कही जाने वाली पार्टी ने पत्राकारों को तुष्ट करने के लिए रात्रिाभोज आयोजित किया था। प्रेस कॉन्फ्रेंस कवर करने सुबह जब वह पार्टी दफ्तर पहुंचा था, तो पार्टी प्रवक्ता कृपा शंकर ने चलते वक्त एक कूपन देते हुए अनुरोध किया था, ‘भाई साहब! शाम को आठ बजे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी आपके साथ स्वल्पाहार करना चाहते हैं। शाम को कांटिनेंटल में तशरीफ लाएं।'

लखनवी अंदाज में कही गई बात उसे प्रभावित कर गई। उसने शाम को तमाशे के लिए ही सही, पार्टी में भाग लेने का फैसला किया।

करीब बहत्तर—पचहत्तर पत्राकारों में हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू अखबारों की लगभग डेढ़ दर्जन महिला पत्राकार मौजूद थीं। शिवाकांत ने देखा, बरखा दत्त की सी हेयर स्टाइल में एक महिला रिपोर्टर एक हाथ में खाने की प्लेट और दूसरे हाथ में व्हिस्की का पैग पकड़े लड़खड़ाती हुई चली आ रही है। देखते ही शिवाकांत ने जान लिया, वह नशे में धुत है। शिवाकांत के सामने पहुंचते ही पता नहीं क्या हुआ, उस रिपोर्टर के हाथ की प्लेट उछली। प्लेट में रखी चीजें शिवाकांत की पैंट पर आ गिरीं। वह हड़बड़ा कर पीछे हटा, तो पीछे खड़ी एक अधेड़ रिपोर्टर से टकरा गया। पीछे खड़ी महिला एक उर्दू अखबार की चीफ कारस्पांडेंट थी। शिवाकांत के टकराने से उसके हाथ का गिलास छलका और उसकी ड्रेस को भिगोता चला गया।

वह महिला चीखी, ‘नामाकूल...! नासपीटे! जब पीना नहीं आता, तो क्यों चले

आते हो पार्टियों में अपनी अम्मी की मैय्यत उठवाने। कमब्खत ने सारी ड्रेस खराब कर दी।'

शिवाकांत ने शर्मिंदगी भरे स्वर में कहा, ‘सॉरी...मैम! गलती से टकरा गया था। इन मोहतरमा की वजह से। देखिए, मेरी भी ड्रेस खराब हो गई है।'

उधर बरखा दत्त मार्का हेयर स्टाइल वाली रिपोर्टर उससे बार—बार सॉरी कहती हुई पैंट पर पड़ी चीजों को इस तरह साफ कर रही थी, कि वह साफ कम, गंदा ज्यादा हो रहा था। एक अजीब—सा माहौल पैदा हो गया था। शिवाकांत बार—बार अधेड़ रिपोर्टर से ‘सॉरी...मैम...' कहकर माफी मांग रहा था और उसकी पैंट खराब करने वाली रिपोर्टर उससे माफी मांग रही थी। उर्दू वाली मोहतरमा हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में फुल वॉल्यूम में गरज रही थीं। गालियां तो ऐसे निकल रही थीं, मानो कहीं किसी सीवर का मुंह खुल गया हो जिससे मल, कचड़ा, प्लास्टिक की थैलियां और सड़े—गले कपड़ों के टुकड़े निकल रहे हों। हॉल में मौजूद सभी लोग हंस रहे थे। उसने माफी मांगना छोड़कर माफी मांगने वाली रिपोर्टर से कहा, ‘देखिए, मेरा तमाशा मत बनाइए। आप जहां जा रही थीं, जाइए।'

नशे की अधिकता में मुंद रही आंखों को खोलने की कोशिश करती उस रिपोर्टर ने कहा, ‘पहले कहिए, आपने मुझे माफ किया। सॉरी...मैंने आपकी ड्रेस खराब कर दी।'

पीछा छुड़ाने की गरज से शिवाकांत ने कहा, ‘जाइए, आपको माफ किया।'

उस रिपोर्टर ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया, ‘नहीं...ऐसे नहीं। पहले मुस्कुराइए, फिर कहिए कि जाओ अवंतिका, तुम्हें माफ किया। तब जाकर आपका पीछा छोड़ूंगी। मैं भी कम जिद्दी नहीं हूं, हां।' उसने उन दिनों टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे एक सीरियल के महिला पात्रा की नकल उतारी।

उसने देखा, भीड़ उसके इर्द—गिर्द सिमट आई है। लोग पीने के साथ—साथ मुफ्त का तमाशा देख रहे हैं। उसने पीछा छुड़ाने की गरज से अवंतिका की बात दोहरा दी। अवंतिका ने हाथ में पकड़ा पैग एक सांस में पिया और जिधर से आई थी, उधर ही कूल्हे मटकाती चली गई। कुछ दूर जाने के बाद शिवाकांत ने महसूस किया, उसकी लड़खड़ाहट कुछ कम हो गई है। वह समझ गया, उसे ‘पप्पू' बनाया गया है। उसने प्लेट डस्टबिन में डाली। धीरे—धीरे उस ओर बढ़ने लगा जिस तरफ अवंतिका गई थी। अवंतिका कुछ लोगों के बीच खड़ी ठहाके लगा रही थी।

फ्रेंचकट दाढ़ी वाला एक व्यक्ति कह रहा था, ‘गजब...गजब की एक्टिंग की तुमने मोनिका। मान गए भई। तुम्हारा भी जवाब नहीं है।'

‘डिसूजा...मानने से नहीं होगा। पांच सौ की पत्ती निकालो...। तुम शर्त हार चुके हो। तुम समझते थे, मैं नहीं कर पाउं+गी। अरे...तुम्हें याद है वो कलकत्ता वाला बंगाली। उसका भी एक बार तमाशा बना चुकी हूं। आज वाला बेचारा तो शक्ल से ही देहाती लगता है। यहां सारे लोग पैग पर पैग चढ़ाए जा रहे हैं। वह बेवकूफ कांटिनेंटल में आया है नीबू—पानी पीने।'

अवंतिका उर्फ मोनिका ने सिगरेट सुलगा ली, ‘अच्छा...ये हिंदी वाले इतने दीन—हीन क्यों दिखते हैं?'

लंबा कश खींचने के बाद मोनिका ने बात आगे बढ़ाई, ‘तुमने देखा, पैंट पर सालन गिरते ही वह किस तरह अकबका गया था। उस पर वह मोटी...यास्मीन... अलग से बेचारे पर चढ़ दौड़ी। बेचारा ‘भइया'! आज रात भर सो नहीं पाएगा।'

डिसूजा ने पांच सौ का नोट देते हुए कहा, ‘मोनी...नहीं...अवंतिका...योर नेम इज जस्ट लाइक ए हिस्टोरिकल। तुम भी कहां—कहां से नाम ढूंढ लाती हो। तुम्हें कैसे सूझ जाता है यह सब?'

‘तुम इन हिंदी वालों की मेंटालिटी नहीं जानते। इन्हें अपनी संस्कृति से बड़ा लगाव होता है। इस तरह के नामों पर इन्हें कहीं भी, कभी भी बेवकूफ बनाया जा सकता है। खैर...छोड़ो। मिस्टर डिसूजा, एक पैग और मंगाना तो।'

डिसूजा ने वेटर को इशारा किया, ‘मोनी, अब मत पियो। चढ़ जाएगी। तुम दोपहर में भी काफी पी चुकी हो।'

‘नहीं चढ़ेगी। वाइन पीने का मजा तब है, जब जमकर चढ़े। उस ‘भइये' की तरह नीबू—पानी ही पीना था, तो यहां आने की जरूरत ही क्या थी। फुटपाथ पर दो रुपये खर्च करके नीबू—पानी पिया जा सकता था।' मोनिका पानी की तरह एक ही सांस में पूरा पैग पी गई।

शिवाकांत मोनिका के सामने जा खड़ा हुआ। वह नशे में बंद होती आंखों को सायास खोलकर शिवाकांत को देखने लगी। पल भर को वह घबरा गई। उसे उम्मीद नहीं थी, वह जिन्न की तरह सामने आ खड़ा होगा। फिर उससे चेहरे पर ठीढता उभर आई, ‘लगता है, आपने मुझे माफ नहीं किया। ...रियली आई एम वेरी सॉरी, मिस्टर...।'

‘शटअप...' शिवाकांत हलक फाड़कर चिल्लाया। इतना कहकर वह रुका नहीं। अपनी पुरानी जगह पर वापस आकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर वह खड़ा सोचता रहा, क्या करे? घर जाए या ऑफिस ही चला जाए? कुछ सोचने के बाद वह पार्टी प्रवक्ता कृपा शंकर को खोजने लगा। हॉल के बाहर पत्राकारों पर कृपा बरसाते कृपा शंकर मिल गए। उसने कहा, ‘आपने इस पार्टी में अध्यक्ष जी के भी उपस्थित होने की बात कही थी। पार्टी अध्यक्ष जी तो नजर नहीं आए?'

.पा शंकर कुटिलता से मुस्कुराया, ‘वो क्या है भाई साहब! अध्यक्ष जी को अचानक बंगाल जाना पड़ा। अभी—अभी उनसे मोबाइल पर बात हुई है। वहां कुछ पार्टी वर्कर्स प्रॉब्लम क्रिएट कर रहे हैं। उसी मुद्दे पर लोगों से बातचीत करने गए हैं। बंगाल से लौटते ही वह आप लोगों से रू—ब—रू होंगे। तब तक संतोष कीजिए। सर जी, आपने कुछ खाया—पिया नहीं।' कृपा शंकर ने ‘पिया' शब्द पर काफी जोर दिया।

‘खाने—पीने को तो लोग यहां कम नहीं हैं। मुझे जितनी जरूरत थी, उतना मैंने खा लिया है। थैंक्स। ...' कहकर शिवाकांत आगे बढ़ गया। अब उसका मन उचट गया था। उधर कृपा शंकर दूसरे पत्राकारों को अटेंड करने लगा। पार्टी लगभग खत्म हो चुकी थी। पत्राकारों का झुंड अपने को कृपा शंकर के प्रति भविष्य में फिर कृपाकांक्षी होने का भाव दर्शाकर निकलने लगा।

शिवाकांत लखनऊ में पत्राकारों के ‘डग्गा' प्रेम का उपहास उड़ाता था। शिवाकांत ने अखबारों में और बहस—मुबाहिसे के दौरान कलम की ताकत, नैतिकता और बिकाऊ न होने की डींगे हांकने वाले तुर्रम खां पत्राकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंसों और ऐसे ही आयोजनों में डग्गा मांगते देखा था। उनकी पत्राकारीय नैतिकता, निष्पक्षता और थोथे आदर्शों की कीमत हजार—पांच सौ रुपये का डग्गा था। कई बार तो उसने कुछ ठेलुए टाइप पत्राकारों को डग्गे के लिए आयोजकों के सामने बड़ी बेशर्मी से खींसे निपोरते देखा था। ये लोग ऐसे पत्राकार होते थे, जो उत्तर प्रदेश या दूसरे प्रदेशों से निकलने वाले ‘बंदूक एक्सप्रेस', ‘जमुनिया बहार' या साप्ताहिक ‘डूबती नैया' जैसी पत्रा—पत्रिाकाओं के स्वनाम धन्य ब्यूरो चीफ या रिपोर्टर हुआ करते थे। उन्हें अपने अखबार या पत्रिाका से वेतन नहीं मिलता था। ऐसे लोग हमेशा शिकार की तलाश में रहते थे। विभिन्न पार्टियों के दफ्तरों, सेमिनारों, गोष्ठियों के दौरान कोई छपास रोगी मिला नहीं कि उसे सब्जबाग दिखाकर विज्ञापन या खबर छपवाने के नाम पर हजार—पांच सौ रुपये झटक लेते थे। हालांकि ऐसा अवसर भी महीने में एकाध बार ही मिलता था। इन लोगों की आजीविका का एक साधन डग्गा भी था। ऐसे पत्राकारों का मुख्य व्यवसाय थाने की दलाली थी। हमपेशा पत्राकारों के बीच उपहास और घृणा के पात्रा समझे जाने वाले ये कथित महान पत्राकार हमेशा भुखाए रहते थे। कुछ—कुछ कुपोषण के शिकार बच्चों जैसे। डग्गा लेते समय इनकी आंखों में एक अजीब—सी कृतज्ञता का भाव रहता था। उसे ऐसे पत्राकारों से घिन आती थी। जिस डग्गे को ठेलुए टाइप पत्राकार कृतज्ञता के भाव से स्वीकार करते थे, वहीं बड़े अखबारों के रिपोर्टर और फोटोग्राफर हनक से डग्गा वसूलते थे। ज्यादातर बड़े अखबारों के रिपोर्टर—फोटोग्राफर अपनी गाड़ियों की चाबियां आयोजकों को पकड़ा देते थे। आयोजक या उनका कोई आदमी उनकी गाड़ियों में डग्गा रखकर चाबी उन्हें लौटा देता। इससे ये पत्राकार दूसरों में डग्गा न लेने की डींग हांकते और दूसरों को हिकारत भरी नजरों से देखते। कुछ शिवाकांत जैसे भी थे, जो कृपा शंकर जैसों को ठेंगे पर रखते थे। इनकी संख्या होती बहुत कम थी।

शिवाकांत ने बाहर निकल कर चारों ओर नजर दौड़ाई। उसे अपने अखबार के फोटोग्राफर अलंकार वर्मा की तलाश थी। करीब डेढ़ घंटे पहले चिल्ड्रेन विद फन स्कूल के फंक्शन को कवर करने की बात कहकर वह निकला था। जाते समय अलंकार ने कहा था, ‘सर, आप निश्चिंत होकर खाइए—पीजिए। काम खत्म होते ही यहीं आउं+गा। यहीं से आपको पिक कर लूंगा।'

उसे अंदर के माहौल में घुटन—सी महसूस होने लगी थी। वह तो पार्टी में आना ही नहीं चाहता था, लेकिन पहचान और संपर्क बढ़ाने के नाम पर संपादक मनोज कोठारी ने जबरदस्ती भेज दिया था। वह होटल से बाहर आया। रात के बारह बज चुके थे। खड़ा सोच रहा था, अलंकार का इंतजार करे या टैक्सी पकड़कर घर चला जाए? उसके पास आज कोई खबर लिखने को तो थी नहीं। वह ऑफिस जाकर भी क्या करेगा? संपादक कोठारी ने कहा था, अगर जरूरत समझो, तो आना। नहीं आने की जरूरत नहीं है। तभी उसे लगा, कोई उसे पुकार रहा है।

‘सुनिए...हेलो मिस्टर...क्या नाम है आपका? आप मेरी मदद कीजिए। जरा मेरी स्कूटी स्टार्ट कर दीजिए। मुझसे स्टार्ट नहीं हो पा रही है।'

पार्किंग के अंधेरे कोने में खड़ी महिला उसे आवाज दे रही थी। उसने गौर से देखा। निकट गया। मोनिका स्कूटर की गद्दी पर हाथ रखे खड़ी झूम रही थी। उसने मोनिका को पीछे हटने का इशारा किया। एक दो बार प्रयास किया। वह स्कूटी स्टार्ट करने में सफल हो गया। उसने स्कूटी मोनिका को पकड़ाई। मोनिका ने जैसे ही बैठने का प्रयास किया, भरभरा कर गिर पड़ी। गिरते ही स्कूटी ने जोर की आवाज की और बंद हो गई। मोनिका के गिरते ही शिवाकांत घबरा गया, ‘कहीं चोट—वोट लग गई, तो आफत हो जाएगी।'

बांह पकड़कर मोनिका को उठाते हुए उसने कहा, ‘ऐसी हालत में आप घर कैसे जाएंगी? आप कोई टैक्सी पकड़कर चली जाएं। कल आकर स्कूटी ले जाइएगा।' शिवाकांत ने स्कूटी खड़ी कर दी।

मोनिका को देखते ही थोड़ी देर पहले हुए अपमान का दंश उसे टीसने लगा। उसके भीतर कोई हिंसक सर्प फुफकार उठा, ‘अगर दारू पचती नहीं, तो पीना जरूरी है? मेरी तरह नीबू—पानी नहीं पी सकती थीं? आप जिस हालत में हैं, उस हालत में आपके साथ कुछ भी हो सकता है। ऐसी हालत में गाड़ी चलाते समय दुर्घटना हो सकती है, छेड़छाड़ हो सकती है। दिल्ली में बलात्कार की घटनाएं कितनी होती हैं? पता है आपको? कि मुझे बताना होगा?'

‘वो साला डिसूजा...हरामी ने कुछ ज्यादा ही पिला दी। खड़ूस, घर भी नहीं छोड़ने गया। प्लीज मिस्टर...कैन यू लीव मी होम? सरटेनली...यू कैन।'

मोनिका की लाचारी देखने लायक थी। चंद मिनटों पहले हिंदी पट्टी के पत्राकारों को ‘भइया' कहकर उपहास उड़ाने वाली मोनिका उर्फ अवंतिका ने लाचारी में हाथ जोड़ लिए। उसके स्वर के साथ—साथ नशे में मुंदी जा रही आंखों में भी याचना थी। मोनिका आगे बढ़कर शिवाकांत के कंधे पर हाथ रखकर सहारे से खड़ी हो गई। उसका झूमना, अब भी बरकरार था। शिवाकांत को लगा, अगर मजबूती से उसको थामा नहीं, तो गिर पड़ेगी। उसने दायीं बांह पकड़कर आगे बढ़ने का इशारा किया। मोनिका आगे बढ़ी। वह उसे लेकर कांटिनेंटल के मेन गेट पर पहुंचा। उसने मोनिका को सीढ़ियों पर बिठा दिया। उसकी हालत देखकर आने—जाने वाले पल भर को ठिठकते, उचटती—सी निगाह डालकर आगे बढ़ जाते।

अंग्रेजी अखबार की पत्राकार मोनिका की हालत देखकर उसे दुख हुआ। सीढ़ियों पर बैठी मोनिका अंग्रेजी में डिसूजा को गालियां दे रही थी। अगर अंग्रेजी के पत्राकार हिंदी पट्टी के पत्राकारों को चिढ़ाएं नहीं, तो उसे यह मानने में कतई संकोच नहीं है कि जर्नलिज्म तो वाकई अंग्रेजी वाले ही करते हैं। जिन खबरों को हिंदी अखबारों के रिपोर्टर लिखने और संपादक छापने से डरते, हिचकते हैं, उसे अंग्रेजी वाले बिंदास छापते हैं। वह मानता है, हिंदी पत्राकारिता कभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई। उसने शुरुआती दौर से ही अंग्रेजी की बैसाखी के सहारे चलना सीखा है। अंग्रेजी अखबारों में छपने वाली रिपोट्‌र्स और एक्सक्लूसिव खबरों का फालोअप छापकर हिंदी वाले इतराते फिरते हैं। द हिंदू, टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों के संपादक जैसी हिम्मत और निजाम से टकराने का माद्दा इन हिंदी अखबारों के संपादक क्यों नहीं जुटा पाते? हिंदी पत्राकार नेतृत्व करने की बजाय नेतृत्व स्वीकार करने की मानसिकता में क्यों रहते हैं? अंग्रेजी अखबार में एक ही दिन पहले भर्ती किया गया ट्रेनी रिपोर्टर अपने संपादक की आंखों में आंखें डालकर कहता है, ‘मिस्टर सिन्हा...आज मैं अपनी रिपोर्ट फाइल नहीं कर सकूंगा। आज के लिए कोई बंदोबस्त कर लें।' हिंदी वाले...बीसियों साल तक पत्राकारिता करने के बाद भी लिजलिजे से रहते हैं। अखबार में बीस—पच्चीस साल से काम कर रहा रिपोर्टर या सब एडीटर जब तक संपादक को नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुए झुककर तीन बार कोर्निश न बजाए या हाथ जोड़कर विनीत स्वर में प्रणाम न करे, तब तक उसकी उपस्थिति स्वीकार ही नहीं की जाती। हिंदी अखबार का मुलाजिम अगर नाम से पहले ‘आदरणीय श्री' और बाद में ‘जी' न लगाए, तो संपादक का मुंह फूल जाता है। संपादक को लगता है, अमुक ने उसका अपमान किया है। जिस व्यक्ति की मानसिकता ही गुलामी वाली हो, वह सिर उठाकर खबर लिखने या सच छपाने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है?

उसे याद आया। अभी कुछ दिन पहले ही ‘द हिंदुत्व' के मैनेजमेंट ने संपादक की सहमति या अनुमति के बिना एक सप्लीमेंट निकाला था। सप्लीमेंट निकलने के दूसरे दिन ‘द हिंदुत्व' के संपादक एन. श्याम ने अपने ही अखबार में बाकायदा यह घोषणा की कि कल जो सप्लीमेंट प्रकाशित किया गया था, उसके कंटेंट पर न तो मेरी सहमति थी और न ही संपादकीय विभाग उससे सहमत है। हम आपने पाठकों को यह आश्वासन देते हैं, भविष्य में ऐसी सामग्री प्रकाशित नहीं की जाएगी। हिंदी अखबार का संपादक अपने मैनेजमेंट या मालिक के खिलाफ ऐसा कुछ लिखने की हिम्मत कर सकता है? शिवाकांत को अपनी पत्राकारिता पर कोफ्त होने लगी। उसे क्या पड़ी थी अपने जी का जंजाल पालने की? दूसरों की तरह वह भी ‘हेल्प मी...हेल्प मी' की आवाज को अनसुनी कर सकता था। कोई उसका क्या बिगाड़ लेता? और भी लोग तो इस रास्ते से निकले होंगे? हिंदी वाले भी, अंग्रेजी वाले भी। उन्होंने क्यों नहीं सुनी अंग्रेजी मानसिकता के मद में चूर बददिमाग और पियक्कड़ लड़की की आवाज? अंग्रेजी अखबारों और पत्रिाकाओं से जुड़े लोग अपने आपको समझते क्या हैं? शराब न पीने वालों को नीबू—पानी पीने वाला कहकर उपहास उड़ाने का हक इन्हें किसने दिया? अंग्रेजी भाषा इन्हें यह अधिकार सिर्फ इसलिए देती है कि हम ऐसी भाषा बोलने वालों के दो सौ साल तक गुलाम रहे हैं? शासकों की भाषा बोलने वाला व्यक्ति महफिल, बाजार या कार्यालय में हिंदी और क्षेत्राीय भाषा भाषियों की हंसी उड़ा सकता है? हिंदी, बांग्ला, उड़िया, मराठी, गुरुमुखी जैसी भाषाएं शासितों की भाषाएं हैं? ऐसी भाषा बोलने वाले हेय हैं? शिवाकांत के मन में प्रतिहिंसा—सी जाग्रत होती जा रही थी अंग्रेजी वालाें के खिलाफ।

उसने सीढ़ियों पर बेसुध मोनिका पर निगाह डाली। सीढ़ियों पर उल्टी करने के बाद थोड़ा—सा हटकर वह पसर गई थी। शिवाकांत भूल नहीं पा रहा था, ‘हेल्प मी...हेल्प मी

...मिस्टर...' कहकर याचना करने वाली इसी लड़की ने कुछ देर पहले अपमान किया था। वह भी सिर्फ पांच सौ रुपये की शर्त जीतने के लिए। ऐसा करने के पीछे उसकी मानसिकता और अंग्रेजी भाषी होने का दंभ था? पांच सौ रुपये जीतने की अंधी ललक थी? या फिर दूसरों का उपहास उड़ाकर खुश होने की घृणित प्रवृत्ति...? शिवाकांत यह नहीं समझ पाया। वह समझना भी नहीं चाहता था। उसका आहत मन फुफकार रहा था। ऐसी स्थितियों में वह कई बार अपने आप से सवाल भी करता था, लोग कैसे पचा लेते हैं अपना अपमान? क्यों चुप रह जाते हैं लोग? कोई विवशता या फिर आदत?

शिवाकांत का मन हुआ, मोनिका की पीठ पर दो लात जमाकर कहे, ‘आई हेट योर मेंटालिटी...आई हेट योर इंगलिश लैंगुएज...अंडर स्टुड।'

वह अपनी सोच को कार्य रूप में परिणत नहीं कर सका। खड़ा टुकुर—टुकुर मोनिका को निहारता रहा। सीढ़ियों पर बेसुध मोनिका की कमर में हाथ डालकर उठाया। बड़ी मुश्किल से उसका मन किसी अनजान लड़की की कमर में हाथ डालने और उसे घसीटते हुए सड़क की ओर बढ़ने को राजी हुआ। संकोचवश वह कोशिश कर रहा था, मोनिका का स्पर्श जितना कम हो, उतना ही अच्छा है। अभी तक फोटोग्राफर वर्मा नहीं आया था। हो सकता है, आकर चला भी गया हो? किसी खबर के सिलसिले में अचानक उसे कहीं जाना पड़ा हो? क्या हुआ होगा, इस पर शिवाकांत ने ज्यादा माथापच्ची करने का विचार ही त्याग दिया। जिस मुसीबत को वह कमर पकड़कर घसीटता जा रहा था, वह क्या कम थी परेशानी में डालने के लिए? कि वह अलंकार वर्मा के बारे में सोचकर हलाकान हो?

सड़क पर उसने मोनिका का गाल थपथपाया, ‘तुम्हें जाना कहां है? तुम अपने घर का पता बताओगी?'

मोनिका कुनमुनाकर रह गई, तो उसने फिर उसका गाल थपथपाया। इस बार थपथपाहट थोड़ी जोर की थी। मोनिका ने तुरंत आंखें खोल दीं, ‘एल्डिको कालोनी, एन्ड्रयूजगंज...।'

उसने शिवाकांत के कंधे पर सिर रख आंखें मूंद ली। उसके ऐसा करते ही शिवाकांत सशंकित हो उठा। उसका सिक्स सेंस चीख—चीख कर कह रहा था, कोई नई मुसीबत आने वाली है। वह किसी नई मुसीबत में फंसने जा रहा है। उसके मन में एक बात कौंधी, उसे एक बार फिर अपमानित करने को कोई जाल तो नहीं बुना जा रहा है? मकड़ी के जाले की तरह महीन किंतु खूबसूरत? पार्टी में वह कम अपमानित किया गया था? कि जिसकी कसर पूरी करने को नया खेल रचा जा रहा है?

‘उं+ह...होगा। इसे ऐसी अवस्था में छोड़कर चला जाना, मानवीय आचरण के खिलाफ है। अपमान का क्या है? एक बार कर ही चुकी है, दूसरी बार कर लेगी? किसी नये झमेले में फंसा देगी? फिर इतना आसान है क्या, किसी को बेसिर—पैर के झमेले में फंसा देना? लेकिन कल पता चले कि इसके साथ कुछ अप्रिय घटा है, तो...? किसको समझाता फिरेगा, अपमान या साजिश के भय से उसने मुसीबतजदा लड़की की मदद नहीं की? कितनी ही बिंदास और मॉड हो, आखिर है, तो एक स्त्राी ही। उसके अपमान से कहीं ज्यादा कीमत इसके सम्मान और इज्जत की है! क्या पता, अपमान या साजिश वाली बात उसकी आशंका ही हो? और आशंका के चलते वह इसे ऐसी हालत में छोड़कर चला गया, तो वह अपनी अंतरात्मा को क्या जवाब देगा।'

शिवाकांत ने मोनिका को कुछ ऐसे संभाल रखा था, मानो आटे की बोरी हो। मोनिका की अवस्था फिलवक्त तो बोरी जैसी ही थी। उसने एक टैक्सी को रुकने का इशारा किया। मोनिका को लाश की तरह खींचकर टैक्सी की पिछली सीट पर डाला। पिछली सीट पर बैठते हुए कहा, ‘एंड्रूयजगंज, एल्डिको कालोनी।'

ड्राइवर ने टैक्सी बढ़ा दी। मूलचंद चौराहे से आगे आने पर ड्राइवर ने पूछा, ‘सर, कहां उतरेंगे? एल्डिको कालोनी सामने ही है।'

शिवाकांत चौंक पड़ा। उसने मोनिका को झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘कहां है तुम्हारा घर? एल्डिको कालोनी आ गई।'

मोनिका चौंककर बाहर झांकने लगी। चीख उठी, ‘रोको...रोको।'

ड्राइवर ने टैक्सी को रोक दिया। मोनिका भरभराकर शिवाकांत की गोद में गिर पड़ी। शिवाकांत की कनपटी सुलगने लगी। उसके शरीर से स्पर्श कर रहा हिस्सा सुन्न होने लगा। बाकी पूरे शरीर में एक हरारत सी जाग उठी। उसने बड़ी मुश्किल से अपने पर काबू किया। मोनिका को उसने सायास अलग किया। टैक्सी से मोनिका को खींचकर बाहर निकाला। टैक्सी ड्राइवर से पूछा, ‘कितने रुपये दूं?'

‘ढाई सौ रुपये।'

‘यह तो बहुत है।' शिवाकांत ने पर्स से रुपये निकालते हुए कहा।

‘भाई साहब! रात भी तो बहुत हो गई है। कमाई का समय तो यही होता है। लेट नाइट चलने वालों से दो—चार पैसे की कमाई हो जाती है, तो बच्चे पल जाते हैं।' टैक्सी ड्राइवर पूरी राम कहानी सुनाने लगा। दिल्ली में वह शायद नया आया था। दिल्लीवासियों की तरह अभी उसने सिर्फ मतलब की बात करना नहीं सीखा था। शिवाकांत ने रुपये दिए, तो वह नमस्कार करके चला गया। वह मोनिका की ओर घूमा, तो पाया, मोनिका फुटपाथ पर बैठी हुई है। उसने मोनिका की बांह पकड़ी, ‘उठो, तुम्हारा घर कहां है?'

मोनिका ने बांह छुड़ा ली, ‘यहीं बैठते हैं। घर जाकर करूंगी क्या?' इतना कहकर वह सुदर्शन फाकिर का गीत ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो...' गाने लगी।

शिवाकांत को गुस्सा आने लगा। उसके मस्तिष्क में एक अजीब—सा द्वंद्व चल रहा था। सोचने लगा, हातिमताई बनने से क्या फायदा हुआ? ढाई सौ रुपये की चपत अलग से लगी। एक बात मन हुआ, इस मगरूर लड़की के पर्स से पांच सौ रुपये निकाल ले और चलता बने। उसे यह विचार जमा नहीं। अपनी घटिया सोच पर शर्मिंदगी भी हुई। उसने झुंझलाते हुए कहा, ‘तो फिर आप यहीं बैठकर राग अलापो। मैं चला।'

‘सुनो...मिस्टर...क्या नाम है तुम्हारा। खैर, छोड़ो, तुम्हारा जो भी नाम है। नाम में क्या रखा है। तुम्हें यह पसंद नहीं आ रहा है, तो मैं कोई गजल सुनाती हूं। बोलो...किसकी गजल सुनोगे? बशीर बद्र, मुनव्वर राणा, गुलजार, नीरज...?' शिवाकांत को लगा, अब नशा कुछ कम होने लगा है। टैक्सी में तो वह बेसुध ही थी।

‘देखिए, अगर आप यहीं बैठकर रामधुन गाना चाहती हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आपकी दशा को देखते हुए मैं चाहता हूं, आप सुरक्षित घर पहुंच जाएं। मैं दिल्ली का नहीं हूं। दिल्लीवासियों के बारे में आम धारणा यही है कि किसी भी किस्म का हादसा होने पर लोग देखते तो हैं, कई बार तो मजे लेकर देखते हैं, लेकिन मदद नहीं करते। कुछ दिन रहने के बाद शायद मैं भी दिल्लीवालों जैसा हो जाउं+। शायद न भी हो पाऊं। संस्कार बदलते—बदलते ही बदलते हैं। शायद न भी बदलें।'

शिवाकांत का गुस्सा अंगीठी पर चढ़ी दाल की तरह ऊबाल खाने लगा था, ‘आप मेरी कोई माशूका या रिश्तेदार तो हैं नहीं कि आपके नखरे उठाउं+। आपके आगे—पीछे घूमता फिरूं। आपको आज ही देखा है। आपने मेरे साथ कोई अच्छा बरताव भी नहीं किया है। फिर भी आपको लिए दर—ब—दर भटक रहा हूं, तो सिर्फ इसलिए कि आप सुरक्षित घर पहुंच जाएं। और आप हैं, नखरे दिखा रही हैं।'

शिवाकांत ने अंधेरे में उसके चेहरे की ओर देखा। उसके चेहरे पर कोई भाव उमड़ा भी या नहीं? यह नहीं देख सका। उसने कहा, ‘मैंने सुना था और पढ़ा भी कि दिल्ली की लड़कियां बोल्ड होती हैं। वे बड़ी दिलेरी के साथ हर क्षेत्रा में आगे बढ़ रही हैं। लेकिन तीन—चार महीने के दौरान मैंने यही पाया, दिल्लीवासी लड़कियां टूटी—फूटी अंग्रेजी बोल लेने की काबिलियत के मद में चूर रहती हैं। ब्यायफ्रेंड बनाने, पार्कों और सूनसान जगहों के अंधेरे में ब्यायफ्रेंड से लिपटने—चिपटने, क्लबों और पार्टियों में शराब पीकर धुत हो जाने को ही बोल्डनेस समझती हैं। मुझे तो इन कथित बोल्ड और मॉडर्न लड़कियों की बुद्धि पर तरस आता है। इनका कथित ब्यायफ्रेंड अगर राह चलती किसी लड़की से पता भी पूछ ले, तो मुंह फुलाकर घंटों बिसूरती रहती हैं। यही हाल लड़कों का है। लड़कियों की तरह कानों में छल्ले लटकाए, पोनी टेल पर रिबन बांधे, शराब में अपनी जवानी और भविष्य दोनों गर्क कर रहे हैं। यह बीमारी तो अब छोटे—छोटे कस्बों और शहरों में भी बड़ी तेजी से फैल रही है।' जैसे शिवाकांत भाषण देने की मुद्रा में आ गया था।

यह कहते—कहते शिवाकांत हांफ गया। उसकी सांस उखड़ गई। मानो, मीलों भागकर आया हो किसी चोर की तरह, जो पकड़े जाने के भय से बेतहाशा भागता है। वह मोनिका से इतनी सारी बातें बड़ी तेजी में कह गया, मानो उसे दोबारा मौका मिलने वाला नहीं हो। इसके लिए उसे काफी साहस भी जुटाना पड़ा। सच तो यह था, इस समय उसके अंतर के किसी कोने में छिपा बैठा हिंदी पट्टी का वह पत्राकार जा उठा था जिसकी हीन भावना अंग्रेजी अखबार वालों के सामने जाते ही जाग जाती है। पता नहीं क्यों, मोनिका को खरी—खोटी सुनाने के बाद उसे लगा, हिंदी पत्राकारों को हेय समझने वाले अंग्रेजी पत्राकारों से उसने बदला ले लिया है। वैसे एक बात सच है, हिंदी वाले हैं ही इसी काबिल, एकदम लतखोर। अंग्रेजी की जूठन चाटते—चाटते उनमें इतना आत्म गौरव बचा ही नहीं है कि सीना तानकर खड़े हो सकें। अंग्रेजी वालों से कह सकें कि आज से कितनी ही एक्सक्लूसिव या अच्छी खबर तुम छापो, उसका अनुवाद या फॉलोअप हम नहीं छापेंगे। तुम्हारा कूड़ा—कचरा, सोना—चांदी, हीरा—मोती तुम्हें मुबारक। हम भले ही सूखी रोटी खाएंगे, लेकिन तुम्हारे एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग न्यूज की जूठन नहीं चाटेंगे। हम अपने व्याकरण, अपनी शैली, अपनी भाषा खुद गढ़ेंगे। लेकिन ऐसी हिम्मत जुटा पाएंगे हिंदी के पत्राकार? उसे तो लगता है, कतई नहीं।

शिवाकांत की बातें सुनकर मोनिका ने एकाएक आंखें खोल दीं। उसने अपने अस्त व्यस्त कपड़ों को दुरुस्त करते हुए कहा, ‘चलिए...थोड़ा पैदल चलना पड़ेगा। बहुत ज्यादा दूर नहीं है घर।' मोनिका एल्डिको कालोनी की ओर चल दी। उसकी चाल में लड़खड़ाहट अब भी कायम थी।

कई बार अंधेरे की वजह से गड्ढे में पैर पड़ने से लड़खड़ाई। गिरते—गिरते बची, लेकिन उसने शिवाकांत का सहारा लेने की कोशिश नहीं की। तीन मंजिली इमारत की सीढ़ियां भी वह गिरते—पड़ते तय करने लगी। कई बार उसने पीछे मुड़कर देखा, शिवाकांत पीछे आ रहा है या नहीं। सेकेंड फ्लोर पर पहुंचकर उसने अंधेरे में ही खोजकर स्विच ऑन किया। सीढ़ियां ट्यूबलाइट की दूधिया रोशनी से नहा उठीं। मोनिका ने हिप पॉकेट से चाबी निकालकर ताला खोला।

‘अंदर आ जाइए...' ट्यूब लाइट जलाती हुई मोनिका ने कहा।

‘नहीं...मैं अब जाउं+गा। आप डोर लॉक करके सो जाइए।' शिवाकांत ने कमरे में प्रवेश करने का उपक्रम नहीं किया।

‘आइए न, थोड़ी देर बाद चले जाइएगा। साढ़े तीन बज रहे हैं। थोड़ी देर बाद सुबह हो जाएगी। बस, थोड़ी देर रुकिए। फिर मैं आपको रोकूंगी नहीं।' मोनका के स्वर में आदेश था या याचना, यह शिवाकांत तय नहीं कर पाया। हां, शराब का असर कुछ कम जरूर हो गया था। इसे शिवाकांत ने बखूबी महसूस किया।

शिवाकांत ने कमरे में प्रवेश किया। कमरा छोटा, किंतु सुरुचि पूर्ण ढंग से सजा हुआ था। उसकी आंखें कैमरे के लेंस की तरह पैन होती हुई चारों ओर घूमी और फिर मोनिका पर फिक्स हो गर्इं। मोनिका ने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। शिवाकांत पल भर दुविधा में रहा, रुके या चला जाए? वैसे वह तुरंत चला जाना चाहता था। घर पहुंचकर एक नींद लेना चाहता था। उसने कहा, ‘अब मैं घर जाना चाहता हूं। फिर किसी दिन मुलाकात हुई और आप होश में रहीं, तो एक कप कॉफी पीने आपके घर अवश्य आउं+गा।'

इतना कहकर वह बाहर जाने को मुड़ा। मोनिका ने आवाज दी, ‘सुनिए...अपना नाम तो बताते जाइए।' इतना कहकर उसने पॉकेट से पर्स निकाला और पांच सौ का नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘अगर आप बुरा न मानें, तो इसे रख लें। मुझे खुशी होगी। आपसे टैक्सी वाले ने पता नहीं कितना वसूला होगा? और आपको वापस भी टैक्सी पकड़कर घर जाना होगा। दिल्ली में कोई किसी अजनबी के लिए इतना नहीं करता। आपने किया, यह आपकी मानसिकता को जाहिर करता है। आप अभी इंसान बने हुए हैं, सबसे बड़ी बात यही है।'

कमरे से बाहर निकलता शिवाकांत ठिठक गया। उसने मुस्कुराते हुए कहा, ‘रुपये तो आप अपने पास ही रखिए। नशे में आप कई बार मेरा नाम पूछ चुकी हैं। अब बताए देता हूं। नाम शिवाकांत है और दिल्ली मेल टाइम्स में चीफ रिपोर्टर हूं।' उसने मोनिका को बॉय कहा और कमरे से बाहर आ गया। मोनिका ने भड़ाक से दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर गिर पड़ी।

उस दिन शालिनी ऑफिस देर से पहुंची। विलंब से आने वाले मुखर्जी सर की झिड़की से बच जाएं, ऐसा शायद ही कभी होता हो। शालिनी जैसे ही ऑफिस में घुसी, संजय मुखर्जी बाहर आते मिल गए। गाड़ी में बैठने से पहले उन्होंने देर से आने के लिए मीठा उलाहना दिया और चले गए। उस दिन शालिनी का मन किसी काम में नहीं लगा। दोपहर में लंच भी नहीं किया, बस चाय मंगाकर पी ली। शाम को पटपड़गंज चौराहे पर अनन्य खड़ा इंतजार करता मिला। अनन्य ने चंचल मुस्कान से उसका स्वागत किया, ‘शालिनी...आज कहां घूमने चलें?'

‘मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है। मैं आज कहीं नहीं जा पाउं+गी। मैं कमरे पर जाना चाहती हूं। रूम पार्टनर अनामिका को घर जाना है। टाइम पर पहुंचकर उससे कमरे की चाबी लेनी है।' शालिनी अन्यमनस्क थी। उसने बहाना बनाया।

‘चलो आज मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देता हूं।'

दोनों रिक्शे पर बैठकर लक्ष्मी नगर आए। उन दिनों शालिनी लक्ष्मी नगर के एक मोहल्ले में किराये पर सिंगल रूम लेकर रहती थी। साथ ही एक दैनिक में काम करने वाली अनामिका उसकी रूम पार्टनर थी। अनामिका उन दिनों जिस दैनिक अखबार में काम करती थी, उसमें वह शालिनी को भी नौकरी दिलाने की फिराक में थी। अनामिका सामान पैककर शालिनी का इंतजार कर रही थी। उसके पहुंचते ही अनामिका चार—पांच दिन के लिए अपने गांव चली गई। शालिनी हाथ मुंह धोकर चाय बना लाई। दोनों काफी देर तक भावी योजनाएं बनाते रहे। रात आठ बजे अनन्य जाने लगा, तो उसने खाना खाकर जाने का अनुरोध किया। मानो अनन्य ऐसे ही किसी प्रस्ताव के इंतजार में था। अनामिका जाने से पहले खाना बनाकर रख गई थी। दोनों ने एक ही थाली में खाना खाया। पलंग पर बैठकर बतियाने लगे। उस रात भी शालिनी के शरीर का ताप चढ़ा, तो ज्वार—भाटा आने के बाद ही उतरा। फिर तो शालिनी का संकोच और अपराधबोध भी दिनोंदिन कम होने लगा। कभी किसी पार्क का अंधेरा हिस्सा, अनन्य या उसका ही कमरा गुलजार होने लगा। देह का ताप अकसर मापा जाने लगा। चार—पांच महीने बाद तो शालिनी अभ्यस्त हो गई। जिस दिन अनन्य से मुलाकात नहीं होती, वह बेचैन होने लगी। एक दिन अनन्य मिला, तो उसने खुशी से शालिनी को गले लगाते हुए बताया, वह अपने गांव जा रहा है। उसके पिता ने उसे तुरंत बुलाया है। तुम चिंता मत करो। यों गया और यों आया। बस, पापा से बातें करनी हैं। और फिर चट मंगनी, पट विवाह। इतना कहकर उसने चुटकी बजाई। और एक बार फिर देह का ताप नापा गया, कई बार ज्वार—भाटे आए। सांसों ने शरीर के तार पर कई बार संगीतमय रास रचे। आज शालिनी अनन्य घर पर थी। अनामिका से सहेली के यहां जाने की बात कहकर आई थी। अनामिका कोई बच्ची तो थी नहीं, वह भी सब जानती—समझती थी। उसने कई बार उसे चेताया भी, लेकिन देह को देह की ऐसी लत लगी थी कि वह अनन्य के बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहती थी। और फिर जल्दी लौट आने का आश्वासन देकर अनन्य देहरादून चला गया।

शालिनी की आंखें इंतजार करते—करते पथरा गर्इं। दिन, हफ्ते और महीने बीत गए। उसने अनन्य के घर के कई चक्कर लगाए। मकान मालिक से लेकर पड़ोसियों तक से पूछताछ की। अनन्य को शायद न लौटना था, न लौटा। बाद में अनन्य के ही दोस्त प्रवीण से उसे पता चला, उसने घरवालों की पसंद की लड़की से शादी कर ली है। देहरादून में अपने पिता का कारोबार संभाल रहा है। तीन दिन पहले ही तो अपने ऑफिस में त्यागपत्रा देने और बकाया हिसाब लेने आया था। वह अपने सभी दोस्तों से मिला, इस बात की ताकीद करते हुए कि कोई भी शालिनी को उसके पैतृक निवास का पता नहीं बताएगा। शालिनी ने प्रवीण से उसके घर का पता पूछा, तो उसने बता दिया। वह पता लेकर अपने कमरे में आई और फूट—फूट कर रो उठी। पहले तो मन हुआ, अनन्य को उसकी करनी का मजा चखा दे। पहुंच जाए, उसके घर अपना बदला लेने। लगा दे उसकी गृहस्थी में आग। फिर सोचा, वह किस मुंह से वहां जाएगी? वह कोई दूध पीती बच्ची तो नहीं थी कि अनन्य ने बहला—फुसला लिया था। जो कुछ भी हुआ, कहीं न कहीं उसकी भी सहमति थी। और फिर अनन्य ने उससे बलात्कार तो किया नहीं था?

शालिनी के पेट में बच्चा होने की खबर पाकर छोटा भाई अजय और मां दिल्ली आई थीं। मां उसे देखते ही छाती पीटने लगीं, ‘अरी निगोड़ी! इतनी ही आग लगी थी, तो जलता लुआठ खोंस लेती। कम से कम यह दिन तो न देखना पड़ता। वहां तुम्हारे बप्पा की एड़ियां तुम्हारे लिए लड़का खोजते—खोजते खिया रही हैं। और तू कमीनी यहां गुलछर्रे उड़ा रही है।'

भाई ने उसे गुस्से में जी भरकर पीटा। वह न रोई, न चिल्लाई, न ही प्रतिरोध किया। एकदम काठ बनी बैठी रही। दो दिन मार—कुटाई और हाय—तौबा के बाद मां और भाई यह कहते हुए गांव लौट गए कि आज से तू हम सबके लिए मर गई। करमजली पहले ही मर जाती, तो अच्छा था।

एकाध महीने तक शालिनी उद्‌भ्रांत और विक्षिप्त रही। उसने ऑफिस से अवैतनिक अवकाश ले लिया। वह तय नहीं कर पा रही थी, कोख में पलने वाले बच्चे को जन्म दे या नहीं। कभी सोचती, पाप के भ्रूण को निकाल फेंके अपनी कोख से। कई बार विचार आता, पाप तो उसने किया था। इस बेचारे अजन्मे का क्या दोष है? गलती उसने की और सजा इस निरीह और निर्दोष प्राणी को मिले, यह कहां का न्याय है? इसी ऊहापोह में एबार्शन का समय भी बीता जा रहा था।

एक रात वह सोते—सोते अचानक चौंक पड़ी। उसे लगा, किसी ने पुकारा है,

‘मां...!'

और वह रात भर बैठी अपनी किस्मत पर रोती रही। रोने के साथ ही साथ मन में एक फैसला आकार लेने लगा। दोपहर में उसने फैसला किया, वह इस बच्चे को जन्म देगी। उसी शाम उसने एक नर्सिंग होम में अपना पूरा चेकअप कराया। डॉक्टर ने चार महीने बाद सितंबर के दूसरे सप्ताह में बच्चे के जन्म की संभावना जताई। उसने पेट का उभार बढ़ने पर लोगों की बातों से बचने के लिए अखबार को अपनी कुछ व्यक्तिगत लाचारियां बताकर नौकरी से त्यागपत्रा भिजवा दिया। हालांकि दिल्ली के मीडिया जगत में उसके कुंवारी मां बनने के फैसले की खबर आम हो चुकी थी। कुछ ने उसके साहस की प्रशंसा की, तो किसी ने थोथा आदर्शवाद बताकर मुंह बिचका दिया। कुछ लोगों ने तो भावुकता में बहने से बचने की सलाह देते हुए बच्चे से येन—केन प्रकारेण छुटकारा पा लेने की सलाह भी दी। शालिनी अपने फैसले पर दृढ़ रही। पिछले पांच—छह सालों में उसने थोड़ी—थोड़ी करके कुछ रकम जोड़ी थी। उसी रकम से गुजारा करने का फैसला किया। हालांकि, अनामिका ने कहा भी, वह रहने—खाने की चिंता न करे। बच्चे की पैदाइश और उसके बाद नौकरी मिलने तक होने वाला खर्च वह उठाएगी। कुछ लोगों ने अनामिका को उल्टी—सीधी पट्टी पढ़ाने और शालिनी का साथ छोड़ने की सीख देने की कोशिश की।

सितंबर के पहले हफ्ते में अनामिका को अपने पैतृक निवास जाना था। वह उधेड़बुन में थी, जाए कि न जाए। उसके असमंजस को शालिनी ताड़ गई। उसने अनामिका को गांव हो आने को कहा, ‘अभी मौका है, तुम दो—चार दिनों के लिए घर हो आओ। मेरी चिंता मत करो। अगर कोई जरूरत पड़ ही गई, तो वह आस पड़ोस से किसी को बुला लेगी।'

काफी मजबूर करने पर अनामिका घर जाने को तैयार हुई, ‘शालिनी तुम चिंता मत करना। मैं दो—तीन दिन में वापस लौट आउं+गी। कोशिश करूंगी कि वहां से किसी औरत को साथ ला सकूं। प्रसव के समय कैसी और क्या—क्या जरूरतें होती हैं, मैं भी नहीं जानती हूं। तुम्हारा भी यह पहला मौका है।' इतना कहकर पीठ पर एक धौल जमाया था अनामिका ने। दोनों काफी देर तक इस बात पर हंसती रहीं। हंसते—हंसते शालिनी की आंखों में नमी आ गई।

अनामिका को गए पांच दिन हो गए थे। वह अभी लौटी नहीं थी। हालांकि, वह किसी भी समय आ सकती थी। कई दिनों से घर में कैद शालिनी ने सोचा, आज मार्केट जाकर सब्जी खरीद लाए। अनामिका अगर देर से भी आए, तो उसे परेशानी न हो। सब्जी मार्केट थोड़ी ही दूरी पर था। घर से निकलते समय पेट में हलका—हलका दर्द हो रहा था। उसने दर्द को तवज्जो नहीं दी। सब्जी मार्केट पहुंची, तो महसूस हुआ कि दर्द बढ़ता जा रहा है। वह सब्जियों का थैला लेकर मार्केट से बाहर आई ही थी कि दर्द असहनीय हो उठा। थैला हाथ से छूटकर गिर पड़ा। सब्जियां सड़क पर ही बिखर गर्इं। वह किसी तरह फुटपाथ के किनारे पैर फैलाकर बैठ गई। उसके मुंह से कराह निकल रही थी। किसी से मदद मांगने में उसे शर्म आ रही थी। दूसरी तरफ लग रहा था, वह जल्दी ही अस्पताल न पहुंची, तो स्थिति और हास्यास्पद हो जाएगी। उधर से गुजर रहे रघुनाथ वर्मा की नजर पड़ी, तो वह उसके पास पहुंचा। सब्जियां बटोरने के बाद कहा, ‘मैडम...आपको तो तत्काल अस्पताल पहुंचाने की जरूरत है। आपके साथ कोई है नहीं क्या?'

शालिनी ने कराहते हुए कहा, ‘अगर आप मुझे जल्दी से गीतांजलि हास्पिटल पहुंचा दें, तो बहुत मेहरबानी होगी। वहां मैंने रजिस्ट्रेशन करा रखा है।'

रघुनाथ दौड़कर चौराहे से एक ऑटो रिक्शा बुला लाया। हास्पिटल पहुंचते—पहुंचते शालिनी चीखने लगी। ऑटो रिक्शे का पेमेंट देने के बाद सब्जियों भरा थैला उठाकर जब रघुनाथ मुड़ा, तो पाया, शालिनी तब तक लेबर रूम में पहुंचाई जा चुकी है। अस्पताल पहुंचने के दो घंटे बाद शालिनी ने पुत्रा को जन्म दिया। यह खबर लेकर जब नर्स आई, तो पता नहीं किस भावना के वशीभूत होकर रघुनाथ ने उसे सौ रुपये की बख्शीश दी। तीन—चार घंटे अस्पताल के विजिटर्स चेयर पर गुजारने के बाद वह लौट आया। उस दिन ऑफिस नहीं जा सका। काफी लेट हो गया था।

दो दिन बाद मन में आया, जिस महिला को उसने अस्पताल पहुंचाया था, उसकी खोज खबर लेना, उसका नैतिक दायित्व है। पता नहीं, उस बेचारी के घरवालों को खबर मिली भी या नहीं? मुलाकात के वक्त अस्पताल में पहुंचकर बड़े संकोच से वह शालिनी को महिला वार्ड में खोजता रहा। नाम तो जानता ही नहीं था? फिर किसी से पूछे कैसे? लोग पागल ही समझते? मन में बस एक उम्मीद थी। शायद वह अब भी वहीं हो। एक बेड पर उसे शालिनी की झलक मिली, तो वह लपककर उसके पास पहुंचा। वह शालिनी ही थी। अपने नवजात शिशु को निहार रही थी। रघुनाथ को देखते ही शालिनी के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव उभरे। उसने सकुचाते हुए कहा, ‘परसों आपने बड़ी मदद की। उस समय मदद न मिलती, तो पता नहीं क्या होता?' इतना कहकर उसने हाथ जोड़ दिए।

उसके हाथ जोड़ने से रघुनाथ शर्मिंदा हो उठा, ‘अरे! इसमें कौन—सी मेहरबानी वाली बात है। कोई दूसरा भी होता, तो वही करता जो मैंने किया है। आपको वाकई उस समय तत्काल मदद की जरूरत थी। मेरी जगह कोई महिला होती, तो शायद आपके ज्यादा काम आती।'

उसने चारों ओर नजर दौड़ाते हुए पूछा, ‘आपके घर वालों को सूचना मिल गई थी या नहीं?'

सवाल पर शालिनी खामोश रही। रघुनाथ का प्रश्न पूरे वार्ड में अनुत्तरित डोलता रहा। अनुत्तरित प्रश्न आखिरकार शालिनी के ही सीने से आ टकराया। शालिनी ने कंपित स्वर में अनुत्तरित प्रश्न का एक सिरा कसकर पकड़ लिया, ‘किसको सूचना देती? उसे, जो भोगकर स्वीकारने का साहस नहीं कर सका? या उन्हें, जो कालिख से बचने के लिए काजल की डिबिया ही कूड़ेदान में फेंककर चले गए थे? अभी तो इस नवजात शिशु के अलावा कोई मेरा नहीं है।'

रघुनाथ की समझ में आधी बात आई। वह सोचता रहा, अब क्या बात करे? उसे शालिनी के निजी जीवन के बारे में कौन कहे, उसका नाम ही पूछने में संकोच हो रहा था।

‘आपने खाना खा लिया?' एकदम असंगत—सा प्रश्न पूछा रघुनाथ ने।

‘हां, मेरी रूम मेट खाना खिलाकर थोड़ी देर पहले ही गई है। शायद आपके जाने के बाद ही मेरी रूममेट अपने गांव से लौट आई थी। घर पर मुझे न पाकर वह सीधे यहीं आई थी। उसे पहले से ही मालूम था, यदि कोई विशेष दिक्कत न हुई, तो प्रसव के लिए मुझे यहीं आना है। सो, वह सबसे पहले यहीं आई थी।' शालिनी उसके असंगत सवाल पर हंस पड़ी। हंसते समय उसके गालों पर गड्ढे पड़ जाया करते हैं। उसकी मां उन गड्ढों को देखकर कहा करती थीं, ‘मेरी शालू बेटी बड़ी भाग्यवान है। हंसते वक्त भाग्यशाली लोगों के ही गालों पर गड्ढे बनते हैं।' यह सुनकर वह शर्मा जाती थी।

शालिनी रघुनाथ की द्विविधा समझ गई, ‘आपको पूछने में संकोच हो रहा है। मैं ही बता देती हूं। सामाजिक रूप से मैं अविवाहित हूं। कुंवारी नहीं हूं, यह बताने की भी जरूरत नहीं है। ऐसी स्थिति के लिए अकेली मैं ही दोषी हूं। हालांकि, दिल्ली में यह फैशन है। लेकिन अभी मन से शायद ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाई हूं, इसलिए बताने में संकोच होता है। मां—बाप ने अपने घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर लिए हैं। इतना ही जानना है या कुछ और बताउं+?' शालिनी बोलते—बोलते हांफने लगी। थोड़ी देर उखड़ी सांसों को नियंत्रिात करती रही। फिर उदास हो गई। बाहर शायद बारिश होने लगी थी। वार्ड के बाहर टीनशेड पर पड़ती पानी की बूंदों का शोर गूंज रहा था।

‘अगर कभी आपसे मिलना हो, तो...?' प्रश्न अधूरा रह गया। संकोचवश रघुनाथ अपना सवाल पूरा नहीं कर पाया।

‘अब मिलने से कोई फायदा नहीं, मिस्टर...।' शालिनी तीखे स्वर में बोल उठी। रघुनाथ के व्यवहार और शालीनता को देखते हुए उसे तीखा बोलना खुद ही बुरा लगा।

‘रघुनाथ...रघुनाथ वर्मा'

‘रघुनाथ जी, आप अपना वक्त बरबाद कर रहे हैं। कोई फायदा नहीं है। आपने मेरी ऐसे समय में मदद की, जब मुझे वाकई बहुत जरूरत थी। इसके लिए मैं दिल से आभारी हूं। बस, अब आप कृपा करके चले जाइए। दोबारा मिलने की कोशिश करना, जलते दीपक की लौ को पकड़ने जैसा होगा। जलने से बना फफोला समय बीतने पर भले ही ठीक हो जाए, लेकिन हाथ में जो निशान बनेगा, उससे आप जीवन भर छुटकारा नहीं पा सकेंगे।'

‘आप मेरे जलने की चिंता क्यों करती हैं? अगर आप खुद नहीं मिलना चाहतीं, तो कोई बात नहीं। मुझे लगता है, मिलने में कोई बुराई नहीं है।' इतना कहकर रघुनाथ उठा और बोला, ‘अच्छा चलता हूं। नमस्ते...।'

शालिनी उसे जाता हुआ देखती रही। रघुनाथ बारिश में भीगता हुआ घर आया था। उसे बारिश में भीगना बचपन से ही पसंद था। यद्यपि, सितंबर में होने वाली बारिश बहुत कम होती है, लेकिन पड़ती फुहार ने उसे भीगने पर मजबूर कर दिया था। छोटा था, तो बारिश होने पर वह स्कूल बैग लिए भीगता हुआ घर आता था। कापी—किताबें भीग जाने पर माता जी पीट देती थीं। उसने शालिनी से दोबारा मिलने की कोशिश न करने का फैसला किया। वह आखिर मिले भी तो क्यों? वह उस समय मुसीबतजदा थी। उसे मदद की दरकार थी, उसने कर दी। अब उससे मिलने या बात करने की इच्छा क्यों है? कोई और बात तो नहीं है? रघुनाथ ने अपने दिल को टटोला। कोई बात या भावना का अंश मात्रा भी नहीं मिला। दूसरे दिन उसके कदम खुद—ब—खुद अस्पताल की ओर बढ़ चले। उसे लगा, कोई चुंबकीय शक्ति उसे अस्पताल की ओर खींचती चली जा रही है। अस्पताल पहुंचने पर पता चला, वह थोड़ी देर पहले ही डिस्चार्ज कर दी गई थी? नर्स से जब उसका नाम पूछा, तो वह अकबका गई। वह सोचने लगी, बताना ठीक होगा या नहीं? वह अस्पताल के नियमों का उल्लंघन तो नहीं कर रही है। अंततः उसने बता ही दिया, मरीज का नाम शालिनी है। वह लौट आया। इस बार उसने अपने दिल में रिक्तता का भाव महसूस किया, लेकिन क्यों? वह नहीं समझ पाया।

और एक दिन...उसकी शालिनी से फिर मुलाकात हो ही गई। वह भी मेडिकल स्टोर के सामने। वह मंडावली इलाके से बाइक से गुजर रहा था, बिना हेलमेट लगाए। पिछली रात वह अपने एक मित्रा से मिलने गया, तो हेलमेट उसके घर भूल आया था। मेडिकल स्टोर पर खड़ी शालिनी उसे दिखाई दी। उसने मुंह घुमा लिया। शालिनी की भी निगाह उस पर पड़ चुकी थी। वह जल्दी से सड़क पर आई, ‘सुनिए...रघुनाथ जी, मेरी बात सुनिये।'

रघुनाथ ने बाइक रोक दी। उसे रुकता देख शालिनी पलटी। काउंटर पर रखी दवाएं समेटीं और लपककर रघुनाथ के पास पहुंच गई, ‘क्या आप मुझे घर तक छोड़ देंगे? घर से जितने पैसे लेकर निकली थी, वे दवाइयां खरीदने में खर्च हो गए। अब रिक्शे का किराया भी नहीं बचा है। आप न मिलते तो घर तक पैदल जाना पड़ता। दरअसल, उत्सव को दो दिन से बुखार है। डॉक्टर को दिखाने के बाद उत्सव को रूम पार्टनर के पास छोड़ आई हूं। कुछ दवाएं मिल नहीं रही थीं। सो, यहां आना पड़ा। ऐसी हालत में उसे लेकर भटकना मुझे ठीक नहीं लगा। आज ठंड भी बहुत है। उसकी तबीयत पहले से ही खराब थी, सो...।' शालिनी एक ही सांस में बोलती जा रही थी। मानो, अगर उसने पूरी बात नहीं बताई, तो रघुनाथ उसे छोड़कर चल देगा।

रघुनाथ ने कुछ कहने की बजाय उसे बैठने का इशारा किया। वह उसे लेकर चल पड़ा। शालिनी रास्ता बताती जा रही थी। कमरे में घुसते ही शालिनी ने लपककर बेटे का शरीर छुआ। उसे तेज बुखार था। वह शायद बेहोश भी था। कम से कम उस समय रघुनाथ को तो ऐसा ही लगा। शालिनी ने डॉक्टर के कहने के अनुसार बूंद—बूंद दवा चटाई। रघुनाथ दरवाजे से थोड़ा अलग हटकर रखी कुर्सी पर बिना इजाजत लिए बैठ गया। चुपचाप बैठा शालिनी और उसके बच्चे को निहारता रहा। अनामिका ने किचन से एक बार कमरे में झांका और चाय बना लाई। उसने चाय पी और शालिनी को सांत्वना देता रहा। इस बीच शालिनी ने माफी मांगते हुए रघुनाथ का परिचय अनामिका से करवाया। वह रात ग्यारह बजे तब लौटा, जब बच्चे का बुखार उतर गया। इस घटना के बाद दोनों की कई बार मुलाकात हुई। कभी सेमिनारों में, कभी गोष्ठियों में। अब दोनों आपस में बातचीत भी करने लगे थे। एकाध बार उसने रघुनाथ को चाय या भोजन पर आमंत्रिात भी किया। इतना ध्यान जरूर रखा, उस समय अनामिका घर में जरूर मौजूद रहे। उत्सव जब एक साल का हुआ, तो शालिनी ने दौड़भाग करके अनामिका के ही दैनिक अखबार में सीनियर सब एडीटर की नौकरी कर ली। अनामिका की इस काम में बड़ी भूमिका रही।

फीचर एडीटर दमयंती प्रजापति उसकी जरूरतों को समझती थीं। वह कोशिश करतीं कि शालिनी को जल्दी ही काम से छुट्टी मिल जाए। कई बार काम ज्यादा होने पर भी वह उसे घर भेज देतीं। बचा काम डेस्क के दूसरे साथियों से करवा लेती थीं। शालिनी को उतने समय तक ही ऑफिस में रोकतीं, जितनी जरूरत होती। फील्ड में भी वह बहुत जरूरी होने पर ही जाती थी। उत्सव अब डेढ़ साल का हो चुका था। वह तोतली आवाज में अनामिका को मौसी और रघुनाथ को अंकल कहना सीख गया था।

एक दिन अनामिका की उपस्थिति में रघुनाथ ने शालिनी को प्रपोज किया। अनामिका को शायद इस दिन का शिद्दत से इंतजार था। वह चाहती थी, दोनों विवाह कर लें। कई बार शालिनी को समझा भी चुकी थी। अगर वह पहल करे, तो रघुनाथ मान जाएगा। रघुनाथ के मन की उधेड़बुन और द्वंद्व अनामिका समझ रही थी। उसने रघुनाथ की आंखों में शालिनी के लिए चाहत देखी थी। शालिनी हर बार उसकी बात अनसुनी कर जाती। रघुनाथ के आने पर वह अक्सर उत्सव को लेकर उसे बहलाने या कुछ खरीदने के बहाने घर से निकल जाती। वह जानती थी, शालिनी अब वह गलती कतई नहीं करेगी, जो अपने जीवन में पहले कर चुकी थी। वापस आने पर पाती, रघुनाथ सामने की दीवार पर लगी सीनरी देख रहा है या फिर सेंटर टेबल पर रखा पेपरवेट नचा रहा है। शालिनी पाषाण प्रतिमा की तरह बैठी नीचे देख रही है। उसे शालिनी पर क्रोध आता। रघुनाथ के जाने के बाद उससे झगड़ पड़ती। उसे भला बुरा कहती, लेकिन उसकी चुप्पी नहीं टूटती, तो नहीं टूटती। रघुनाथ का प्रस्ताव सुनकर अनामिका जब बाहर जाने लगी, तो शालिनी ने उसे रोक लिया।

‘रघुनाथ! आज जब तुमने दिल की बात कह ही दिया है, तो साफ बता दूं। मैं तुमसे विवाह नहीं कर सकती। सच पूछो, तो सात फेरों, मंगलसूत्रा जैसी चीजों पर अब मेरा विश्वास रहा ही नहीं। आग के इर्द—गिर्द सात बार दोनों के घूम लेने से न सात जन्मों का बंधन पक्का होता है, न ही प्रेम प्रगाढ़ होता है। और फिर...मैं शादी को अपनी स्वतंत्राता के लिए बाधक मानती हूं। शादी करके अपनी स्वतंत्राता नहीं गंवाना चाहती।' शालिनी की आवाज किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हो रही थी, ‘रघुनाथ...मैं जानती हूं, तुम क्या सोच रहे हो? तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो, इससे मेरा कोई लेना—देना नहीं है। मैं अपनी जिंदगी के बारे में क्या सोचती हूं, मेरे लिए यही महत्वपूर्ण है।'

‘बेवकूफ...किस्मत तेरे द्वार पर दस्तक दे रही है और तू उसे ठुकरा रही है।' अनामिका चीख ही तो पड़ी थी।

‘अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे साथ सहजीवन जी सकती हूं। बिना फेरे लिए, बिना कोई वायदा किए। अगर हम दोनों में से किसी को कभी लगे, जुड़कर कोई भूल की है, तो वह बिना एक दूसरे पर चीखे—चिल्लाए अपने रास्ते पर जाने को स्वतंत्रा होगा। न किसी को अदालत में तलाक का मुकदमा दायर करने की जरूरत होगी, न किसी ग्लानि या अपराध बोध के साथ जीवन भर साथ निभाने की बाध्यता। दिल्ली में हजारों लोग किसी सामाजिक या न्यायिक बंधन में बंधे बिना अपनी शारीरिक और मानसिक जरूरतों के लिए सालों से एकसाथ रह रहे हैं। उनकी तरह हम भी रह लेंगे।' शालिनी दीवार की ओर देखती हुई बस बोलती जा रही थी।

उसे देखकर रघुनाथ को लगा, जैसे कोई बच्चा स्कूल में अध्यापक के सामने घर से रटकर आया हुआ पाठ दोहरा रहा है। बच्चे को डर हो कि अगर कहीं सोचने के लिए रुका, तो घर से रटा हुआ पाठ बिसर जाएगा। शालिनी भी तो पिछले कई दिनों से मन ही मन इस बात को दुहरा रही थी। उसे लग रह था, ऐसी स्थिति जल्द ही आने वाली है। संस्कार उसे ‘लिव इन रिलेशनशिप' के तहत रघुनाथ के साथ रहने को मना कर रहे थे। एक बार प्रेम और विवाह की प्रत्याशा में छली जाने के बाद अब वह दूसरी चोट खाने को तैयार नहीं थी। हालांकि, इसके लिए उसे कितनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है, यह वही जानती थी। रघुनाथ और अनामिका से उसका आंखें चुराना, इसी बात द्योतक था।

‘ठीक है' कहकर रघुनाथ ने हथियार डाल दिए, ‘लेकिन तुम मेरे परिजनों के समक्ष विवाह कर लेने की बात तो स्वीकार कर लोगी?'

‘हां, इतना झूठ बोल सकूंगी। एक बात और। रघुनाथ! हम दोनों खर्चे आपस में शेयर करेंगे। बराबर—बराबर। एक पैसा कम, न एक पैसा ज्यादा। सबसे अहम बात यह है। उत्सव पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होगा। मेरा मतलब है, स्कूल जाने लायक होने पर कॉलम में सिर्फ तुम्हारा नाम ही भरा जाएगा, लेकिन उसका नाम उत्सव वर्मा नहीं, उत्सव तिवारी रहेगा। अनामिका! आज होने वाले इस फैसले की तुम गवाह रहोगी। यह एक ऐसा समझौता होगा, जो कागज पर नहीं, हृदय पटल पर लिखा जाएगा।' भावुक हो उठी थी शालिनी।

अनामिका उसके चेहरे के बार—बार बदलते भावों को देख दंग थी। कटुता, दृढ़ता, भावुकता जैसे न जाने कितने भाव उसके चेहरे पर आए और चले गए। शालिनी की लाख दलीलों के बावजूद उसका मन इस फैसले को स्वीकार न कर सका। वह काफी देर तक दोनों को निहारती रही।

‘शालिनी, तुम एक बार बेवकूफी कर चुकी हो। दूसरी बार करने जा रही हो। लिव इन रिलेशन के बहाने यौन उच्छृंखलता की ओर बढ़ रही हो तुम? ऐसे मामले में सामाजिक या धार्मिक बंधन इसलिए जरूरी होता है, ताकि दोनों लोगों के चित्त भटके नहीं। किसी तरह का बंधन न होने का यह भी मतलब निकलता है कि तुम किसी के साथ भी सोने के लिए स्वतंत्रा रहना चाहती हो। कि तुम्हारी जब मर्जी हो, तुम किसी से भी शारीरिक संबंध बना सको। कि तुम हर पुरुष के लिए सहज उपलब्ध हो, हर पुरुष तुम्हारे लिए। तुम्हीं सोचो। ऐसा हुआ, तो तुममें और एक रंडी में सिर्फ इतना फर्क रह जाएगा कि तुम भोग के बदले पैसा नहीं लोगी, वह इसके बदले भरपूर दाम वसूलती है। बेसिकली तुम दोनों ही रंडियां कही जाओगी समाज में।'

अनामिका आवेश में कड़वी बात तो कह गई। बाद में उसे अफसोस ने घेर लिया। सहेलियों से झगड़ा होने पर भी कड़वी बात कहने से संकोच करने वाली अनामिका इतना तीखा शालिनी से कैसे बोल गई? यही सोचकर वह चकित थी। उसकी आंखें भर आर्इं। वह वहीं बैठकर रोने लगी। रघुनाथ ने अपनी कुर्सी खींची और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। मानो कोई बड़ा भाई किसी बात पर दुखी बहन को सांत्वना दे रहा हो। काफी देर तक वह उसके सिर पर हाथ फेरता रहा।

शालिनी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘पागल हो गई है क्या? मैं स्वतंत्रा रहना चाहती हूं, बस। उत्सव को मैं पालूंगी। वह केवल और केवल मेरा बेटा है। अपनी मम्मा का बेटा।'

तीन दिन बाद रघुनाथ उसे अपने घर ले आया। शालिनी के जाते समय वह फूट—फूटकर रोई। मानो सगी बहन को ससुराल के लिए विदा कर रही हो। उत्सव को उठाकर बार—बार सीने से भींचती, तो वह अकुलाकर रो पड़ता। उसके गाल, कपाल और नन्हें हाथों को बार—बार चूमती रही। उस दिन उससे खाना भी नहीं खाया गया। सामानों की पैकिंग के दौरान उत्सव का एक खिलौना शायद ठोकर लगने से उसके बेड के नीचे चला गया था। शालिनी और उत्सव के जाने के बाद वह सारी रात उस खिलौने को देख—देखकर रोती रही। अनामिका हर दूसरे—तीसरे दिन रघुनाथ के घर जाकर उत्सव से मिल आती थी। शालिनी से तो वह ऑफिस में ही मिल लेती थी। साल भर बाद उसके घर वालों ने अनामिका की शादी एनआरआई से कर दी और विवाह के बाद वह पति के साथ आस्ट्रेलिया चली गई।

रघुनाथ की नींद टूट गई। उसने बेड के पास लटकता स्विच ऑन किया। कमरे में ट्यूब लाइट की सफेद रोशनी फैल गई। एकाएक रोशनी फैल जाने से शालिनी की आंखें चौंधिया गर्इं। उसने आंखों पर अपनी हथेली रख ली।

‘अरे तुम जाग रही हो? तुम्हारी आंखें लाल क्यों हैं? क्या रात भर जागती रही हो? बात क्या है?' रघुनाथ चिंतित हो उठा।

‘बस, यों ही...! एक उलझन—सी रही रात भर।' शालिनी ने मुस्कुराकर बात टाल दी।

क्रमषः...