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भूली-बिसरी वीरांगनाएँ

भूली-बिसरी वीरांगनाएँ

मधु शर्मा कटिहा

स्वतन्त्रता-संग्राम में बलिदान देने वाली कुछ भूली-बिसरी वीरांगनाओं की यश-गाथाएँ.....

1 - वेलू नाचियार

स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का प्रारम्भ समान्यतः 1857 से माना जाता है, किन्तु वह एक संगठित आंदोलन था। सच तो यह है कि उससे पहले भी कई देशप्रेमी अंग्रेजों की छाती पर मूंग दल चुके थे। दक्षिण भारत के रामनद राज्य के रामनाथपुरम के राजा चेल्लामुथु सेथुपरी और रानी सकंधीमुथल की पुत्री वेलू नाचियार स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाली पहली महिला हैं। इनका जन्म 3 जनवरी, 1730 को हुआ था. तमिल लोगों में वे वीरमंगई अर्थात बहादुर महिला के नाम से भी जानी जाती हैं। वे अनेक युद्ध कलाओं जैसे वलारी(दूर से एक विशेष हथियार फेंकना), सिलंबम(डंडों से लड़ाई) व धनुष-बाण आदि में निपुण थी। घुड़सवारी जानने के अतिरिक्त वे विभिन्न भाषाओं जैसे अंग्रेज़ी, फ्रेंच व उर्दू की विदुषी भी थीं।

इनका विवाह मुथुवदूगन थापेरिया उद्यथीवार के साथ हुआ जो शिवगंगे के राजा थे। अर्कोट के नवाबज़ादे ने जब अंग्रेज़ सैनिकों के साथ मिलकर वेलू नाचियार के पति की हत्या कर इनके राज्य पर अधिकार कर लिया तो ये अपनी पुत्री के साथ बचकर वहाँ से निकल भागी किन्तु मन ही मन अपने राज्य को वापिस लेने की ठान ली। वहाँ ये कोपल्ला नायक्कर के संरक्षण में विरूपाची, डिंडीगुल में रहीं और उन्होने एक महिला सैन्य दल बनाया, जिसका नाम इनकी बेटी के नाम पर उडयाल रखा। उस समय फिरंगियों से बदला लेने के लिए वेलू ने कोपल्ला नायक्कर और हैदर अली से संधि कर दुश्मनों पर आक्रमण शुरू कर दिये।

अंग्रेजों के गोला-बारूद व अन्य सामग्री नष्ट करने के उद्देश्य से एक महिला सैन्य दल की कमांडर कोयली अपने शरीर पर घी डालकर अंग्रेजों की शस्त्रशाला में कूद पड़ी। भयंकर विस्फोट के साथ सब नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इसे विश्व का पहला मानव बम भी कहा जा सकता है। इस प्रकार 1780 में वेलू ने अपना राज्य अंग्रेजों से वापिस छीन लिया।

इनकी मृत्यु 25 दिसंबर, 1796 को हुई। अंग्रेजों के जबड़े से अपना शासन वापिस छीनकर स्वतन्त्रता का स्वप्न दिखाने का श्रेय निश्चय ही रानी वेलु नचियार को जाता है।

  • 2 - भीमा बाई
  • झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से अंग्रेज़ बेहद प्रभावित थे, किन्तु सालों पहले उन्होने यह अनुमान लगाना प्रारम्भ कर दिया था कि भारत में अब ज़्यादा समय तक टिक पाना संभव नहीं. यह पाठ उनको पढ़ाने वाली थीं भीमा बाई। इस महान वीरांगना का जन्म 17 सितम्बर, 1795 में यशवंत राव होलकर के घर हुआ जो इंदौर के राजा थे. पिता ने इन्हें युद्ध सम्बन्धी सभी जानकारियाँ दीं और तीर, तलवारबाजी व बल्लम आदि की शिक्षा दी. भाषाओँ में संस्कृत, फ़ारसी. मराठी व हिंदी की अच्छी जानकार थीं वे. 1809 में इनका विवाह गोविंदराव बोलिया के साथ हो गया.

    1811 में अपने पिता के निधन के बाद मराठे व गैर मराठे दोनों को षड्यंत्र करने का अवसर मिल गया. इनकी माता तुलसीबाई होलकर ने मल्हारराव होलकर को गोद ले लिया जो राजा की दूसरी पत्नी का पुत्र था. मल्हारराव की आयु बहुत कम थी अतः राजकाज रानी ही संभालती थीं. अंग्रेज इस सत्ता पर अपनी लोलुप दृष्टि रखे हुए थे. कुछ विश्वासपात्र सेवकों ने अंग्रेजों की साथ मिलकर विश्वासघात किया और रानी तुलसीबाई और पुत्र की हत्या का षड्यंत्र रचा. रानी को इस षड्यंत्र का पता पहले की लग गया और मल्हारराव को लेकर वे कोटा नरेश जालिम सिंह के पास पहुँच गयीं. किन्तु बाद में रानी का सिर काट दिया गया.

    भीमा बाई होलकर इस अपमानजनक हत्या से बेहद विचलित हो गयीं तथा अंग्रेजों की नाक में दम करने का निश्चय किया. 3000 घुड़सवारों, 80 तोपों व अनेक पैदल सैनिकों की मदद से छत्रपति शिवाजी से प्रेरित होकर भीमा बाई ने छापामार युद्ध आरम्भ कर दिया. अंग्रेजी रसद, चौकियाँ व खज़ाने लूटे जाने लगे. अंग्रेज़ आश्चर्य चकित थे कि न जाने अचानक कहाँ से सेना आकर उन्हें लूट लेती है. इंदौर पर अधिकार करके भी वे उसका सुख नहीं उठा पा रहे थे. चौकियों पर उनका प्रभुत्त्व स्थापित ही नहीं हो पा रहा था. एक स्त्री द्वारा इस प्रकार पुरूषों को संगठित कर अचानक धावा बोलने का इतिहास में यह प्रथम उदहारण है.

    कर्नल मैल्कम चिंतित हो उठा. भीमा बाई को वह किसी भी हालत में समाप्त कर देना चाहता था, किन्तु भीमा बाई की शक्ति बढ़ती जा रही थी. अपने गुप्तचरों की मदद से वह किसी तरह उनके ठिकाने तक पहुँचता, लेकिन वे पहली ही अपना ठिकाना बदल लेती थीं. इस प्रकार वे जंगल-जंगल भटकती, कष्ट उठातीं, किन्तु अंग्रेज़ों की आगे सिर झुकाने को तैयार न होतीं.

    एक दिन दुर्भाग्य से शिकार करने गए कर्नल मैल्कम की नज़र भीमा बाई पर पड़ गयी जो अपने एक सैनिक के साथ वहाँ मौज़ूद थीं. भीमा बाई ने अपने सैनिक को जाने को कह दिया और स्वयं वहीं तनकर अपने घोड़े पर बैठी रहीं. रहीं. कर्नल मैल्कम शिकार को इतने करीब देख बेहद प्रसन्न हुए और अपने सैनिकों से एक घेरा बनाकर इन्हें कैद करने का हुक्म दे दिया. घेरा पास आता जा रहा था पर ये ज़रा भी विचलित नहीं हो रहीं थीं. अंत में जब कर्नल मैल्कम बहुत निकट आ गया तो इन्होनें अपने घोड़े की लगाम खींची, घोड़ा पूरा ज़ोर लगा कर भागा. कर्नल मैल्कम झुककर घोड़े से बचने का प्रयास करने लगे और इनका घोड़ा सरपट दौड़ पड़ा. देखते ही देखते ये अंग्रेजों की आँखों से ओझल हो गयीं. और जीते जी उनके हाथ नहीं लगीं।

    जब तक ये जीवित रहीं, अंग्रेज़ों को चैन की नींद नहीं सोने दिया. अनेक भारतीयों के लिए प्रेरणा बन उनके ह्रदय में देशप्रेम की ज्योति प्रज्वलित कर 28 नवम्बर, 1858 में अपनी मातृभूमि इंदौर में इनकी मृत्यु हो गयी.

    3 - झलकारी बाई

    महारानी लक्ष्मी बाई की सेना की महिला शाखा दुर्ग की सेनापति झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झाँसी के पास भोजला गाँव में कोली निर्धन परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता सदोवर सिंह व माता जमुना देवी एक निर्धन कोली परिवार से थे। जब ये छोटी थीं तो माँ की मृत्यु हो गई। पिता ने इनकी देखभाल एक पुत्र की भाँति की।

    बचपन से ही झलकारी बाई बेहद बहादुर थी। घुड़सवारी की बेहद शौकीन थीं। एक बार वे लकड़ियाँ एकत्र करने जंगल में गई और वहाँ तेंदुए से सामना होने पर उसे कुल्हाड़ी से मार गिराया। एक अन्य घटना में गाँव के एक व्यापारी पर हमला करने वाले डकैत को इनके कारण ही पीछे हटना पड़ा था। इनकी बहादुरी से प्रसन्न होकर गांववालों ने इनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने की रखवाली करने वाले एक तोपची से करा दिया। विवाह के बाद ये झाँसी आ गईं।

    एक दिन गौरी पूजा के दिन महारानी लक्ष्मी बाई को सम्मान देने वाली महिलाओं के साथ इन्हे देखकर लक्ष्मीबाई आश्चर्यचकित रह गईं क्योंकि वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं। इनकी बहादुरी के विषय में जानकर लक्ष्मीबाई ने उन्हे अपनी दुर्गा-सेना में सम्मिलित कर लिया।

    अप्रैल 1858 में अंग्रेजों द्वारा झाँसी के किले पर आक्रमण किया गया। रानी के एक धूर्त सेनानायक दूल्हेराव ने किले के गुप्त द्वार को खोल दिया और झलकारी बाई का पति किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। झलकारी बाई ने हिम्मत से काम लेते हुए लक्ष्मीबाई की वेषभूषा धारण कर दुश्मन से सामना करने का निश्चय किया। उनके ऐसा करने पर महारानी को किले से भाग निकलने का मौका मिल गया। झलकारी बाई किले से बाहर निकल गईं और ह्यूग रोज़ से मिलने शिविर में चली गई। ह्यूग रोज़ तत्कालीन ब्रिटिश जनरल थे। वहाँ जाकर वे क्रोध में भरकर चिल्लाईं कि उन्हें ह्यूग रोज़ से मिलना है। अंग्रेज़ सैनिक उन्हें झाँसी की रानी समझ कर प्रसन्न थे कि झाँसी पर कब्जे के साथ ही भविष्य में किसी विद्रोह की संभावना समाप्त हो गई क्योंकि महारानी भी यहाँ आ गईं। जब उनसे पूछा गया कि वे क्या चाहती हैं तो उन्होने कहा कि उनको फांसी दे दी जाए। कहते हैं कि जर्नल रोज़ ने तब यह कहा था कि भारत की 1% महिलाएँ भी ऐसी हो जाएँ तो ब्रिटिश लोगों को भारत छोड़कर जाना पड़ेगा। इतिहासकर मानते हैं कि उनके साहस से प्रसन्न होकर उन्हें मुक्त कर दिया गया। किन्तु कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इसके बाद झलकारी बाई के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती, इससे लगता है कि इस युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हो गईं थीं। कहीं यह संकेत भी मिलता है कि उन्हें फाँसी दे दी गई थी।

    4 - अवंतीबाई लोधी

    1857 के संग्राम में एक और वीरांगना की भूमिका बेहद अहम् है, वे हैं रानी अवंतीबाई लोधी। इनका जन्म 16 अगस्त, 1831 को सिवनी जिले के मनकेहणी गाँव में हुआ। इनके पिता राव जुझार सिंह एक जमींदार थे। बचपन से ही इन्हें घुड़सवारी और तलवारबाज़ी का शौक था। जब बचपन में ये तलवारबाज़ी करतीं तो लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते।

    इनका विवाह रामगढ़ के राजकुमार विक्रमादित्य से हुआ। सन 1850 में अपने पिता की मृत्यु होने पर विक्रमादित्य को रियासत का राजा बना दिया गया, लेकिन कुछ सालों बाद वे भी अस्वस्थ रहने लगे। राज्य का सारा कार्यभार अवंतीबाई को संभालना पड़ा, क्योंकि उनके दोनों पुत्र अभी बहुत छोटे थे।

    यह वह समय था जब लॉर्ड डलहौजी भारत के गवर्नर जनरल थे। यह कानून बना दिया गया था कि जिस रियासत का कोई उत्तरदायी नहीं होगा उसे अंग्रेज़ अपने साथ मिलाकर ब्रिटिश शासन का हिस्सा मान लेंगे। यही नहीं उन्होने यह कानून भी बना दिया कि जो रियासतें अंगरेजी शासन के अधीन हैं वे बिना अनुमति के संतान गोद नहीं ले सकते। रामगढ़ के विषय में जब अंग्रेजों को पता लगा तो उन्होने वहाँ कोर्ट ऑफ वार्ड्स लागू कर अपने अधीन कर लिया अर्थात वहाँ अपनी ओर से राज्य की देखभाल के लिए एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया जो और अवंतीबाई के परिवार को पैंशन देनी प्रारम्भ कर दी।

    मई 1857 में अपने पति के निधन के बाद अवंतीबाई अंग्रेजों से बदला लेने के लिए मौके की तलाश में रहने लगीं। 1857 के विद्रोह की चिंगारियाँ जब रामगढ़ तक पहुँची तो रानी ने इस आग को आगे बढ़ाते हुए आसपास के राजाओं व जमींदारों को 2-2 काली चूड़ियाँ भिजवाईं और साथ में एक पत्र भी दिया, जिसमें लिखा था कि या तो ये चूड़ियाँ पहनकर घर पर बैठो, अन्यथा अंग्रेजों से भिड़ने की तैयारी करो। अवंतीबाई के इस साहसी कृत्य को देख सभी के हृदय में देशप्रेम की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गए। रानी ने अपने अदम्य साहस परिचय देते हुए रामगढ़ से कोर्ट ऑफ वार्ड्स संबंधी अधिकारियों को निकाल बाहर किया। इसके अतिरिक्त अन्य सहयोगियों की मदद से घुघरी, बिछिया तथा रामनगर आदि से अंग्रेजी राज का खात्मा करवा दिया। इस प्रकार वे मध्य भारत की एक क्रांतिकारी वीरांगना के रूप में उभरीं।

    उनका अगला निशाना मंडला क्षेत्र था। मंडला में इनकी सेना ने अंग्रेज़ सेना पर हमला किया और जमकर युद्ध हुआ। अवंतीबाई और मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन के बीच भी आमने-सामने मुठभेड़ हुई। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर का घोड़ा बुरी तरह ज़ख्मी हो गया और कमिश्नर उस पर से उतरकर भागने लगा। अवंतीबाई ने उस पर आक्रमण किया ही था कि उसके एक सिपाही ने बीच में आकर उसे बचा लिया, किन्तु इसके बाद वाडिंगटन भयभीत होकर वहाँ से भाग चुका था। अतः वह क्षेत्र भी रानी के कब्ज़े में आ गया।

    अपनी हार का बदला लेने के लिए वाडिंगटन ने कुछ समय बाद रामगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि अवंतीबाई की सेना ने पूरा दम लगाकर उस आक्रमण का सामना किया किन्तु अंग्रेज़ सेना के मुक़ाबले में उनके पास हथियारों की कमी थी तथा संख्या में भी वे कम थे। आने वाले खतरे का अनुमान लगते ही रानी सेना सहित देवहारगढ़ की ओर रवाना हो गईं। अंग्रेज़ सेना वहाँ भी पहुँच गई और उन्हें आत्मसमर्पण करने को कहा, लेकिन इसके लिए वे तैयार न हुईं। अतः वाडिंगटन के नेतृत्व में फिरंगी सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया।

    इस युद्ध में अवंतीबाई के कई सैनिक शहीद हो गए। 20 मार्च, 1858 के दिन रानी के बाएँ हाथ में गोली लगी और इनकी बंदूक हाथ से छूट गई। अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपने अंगरक्षक से तलवार लेकर अपना अंत कर लिया। तलवार अपने सीने में भोंकते समय उन्होने रानी दुर्गावती को याद करते हुए कहा कि उनकी तरह ही वे भी नहीं चाहतीं कि वैरी उनके जीते जी उनके शरीर को हाथ लगाए।

    5 - मालतीबाई लोधी

    इस वीरांगना का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। महारानी लक्ष्मीबाई विवाह के बाद ही राज्य का भ्रमण कर रही थीं तब उनकी भेंट मालतीबाई से हुई। इनके साहस और तीरंदाज़ी को देख लक्ष्मीबाई चकित रह गईं। मालतीबाई से बात कर लक्ष्मीबाई ने अपने महल से घोड़ा, तलवार और तीरकमान इनके लिए भेजे और अभ्यास करने के साथ ही अन्य युवक और युवतियों को भी तीर व तलवार चलाना सिखाने को कहा। कुछ दिनों में ही वहाँ एक छोटी से सेना तैयार हो गई। 1857 में जब अंग्रेजों ने झाँसी हड़पने की योजना बनाई तो मालतीबाई व उनकी सेना भी झाँसी जा पहुंचे। मालतीबाई को रानी ने अपनी अंगरक्षिका बना लिया।

    युद्ध के समय महारानी का घोड़ा नाले को पार नहीं कर पा रहा था। कई बार कोशिश करने पर वह गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। ऐसे में मालतीबाई ने उन को अपना घोड़ा दे दिया। कुछ देर बाद ही गोली का शिकार होकर मालतीबाई की सांसें थम गईं।

    6 - ऊदा देवी

    ऊदा देवी का जन्म अवध के उजरियांव में हुआ था, किन्तु कब इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छोटी आयु में ही इनका विवाह मक्का पासी नामक युवक से हो गया।

    1847 में जब वाजिद अली अवध व लखनऊ के नवाब बने तो अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सेना संगठित करने के लिए उन्होंने नए लोगों को भर्ती करना शुरू कर दिया। मक्का पासी भी उनकी सेना का अंग बन गए। अपने पति को देश के लिए सेना में भर्ती होते देख ऊदा देवी भी महिला दस्ते का हिस्सा बन गईं। 1857 में जब विद्रोह की ज्वाला भड़की तो अंग्रेज भी स्थान-स्थान पर आक्रमण करने लगे। 10 जून 1857 को उन्होने अवध पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में मक्का पासी शहीद हो गए। यह खबर पाकर ऊदा देवी का खून खौलने लगा और उन्होने अंग्रेजों से लोहा लेने का निश्चय किया। उन्होने बेगम हज़रत महल की सहायता से महिलाओं की लड़ाका बटालियन बना ली।

    नवंबर 1857 में फिरंगी सेना ने लखनऊ में आक्रमण किया और वे शस्त्र लेकर सिकंदर बाग की ओर चल दिये क्योंकि वहाँ पर राज्य के सैनिक मोर्चा संभाले थे। ऊदा देवी पुरुष वेश बाग के प्रवेश द्वार के पास लगे पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं और वहीं से अंग्रेज़ी सेना पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं । 30 से अधिक ब्रिटिश सैनिकों के ढेर हो जाने के कारण अंग्रेज़ सेना तिलमिला गई। अपने सैनिकों के शव देखने पर उन्हें पता लगा कि कोई ऊपर से गोलियाँ चला रहा है। जब पीपल के पेड़ पर एक मानवकृति दिखाई दी तो उन्होने वहाँ निशाना लगाकर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। गोलियों से छलनी ऊदा देवी जब नीचे गिरीं तो उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। उस समय ही अंग्रेज़ सैनिक यह जान पाये की वह एक पुरुष नहीं स्त्री थीं, जिसने इतनी देर तक उन्हें प्रवेश द्वार पर रोके रखा। अंग्रेज़ सेना की इस टीम का नेतृत्त्व जनरल काल्विन कर रहे थे। वे उनकी बहादुरी से इतने प्रभावित हुए कि अपना हैट उतारकर ऊदा देवी को श्रद्धांजलि अर्पित की।

    7 - रानी तपस्विनी

    एक महान वीरांगना और महारानी लक्ष्मीबाई की भतीजी रानी तपस्विनी का जन्म 1842 में हुआ था। इनके पिता एक जमींदार थे। बचपन से ही अदम्य साहस की मूर्ति रानी तपस्विनी अस्त्र-शस्त्र चलाने के साथ-साथ घुड़सवारी का अभ्यास भी किया करती थीं। इनका वास्तविक नाम सुनन्दा था। बालविधवा होने के कारण अपने पिता की मृत्यु होने पर संपत्ति की देखरेख का सारा कार्यभार सुनन्दा ने संभाला। वे अक्सर पूजा-पाठ में लीन रहती थीं, किन्तु अस्त्र-शस्त्र चलाने का अभ्यास करना नहीं छोड़ा।

    1857 में जब स्वतन्त्रता आंदोलन का सूत्रपात हुआ तो उसमें सुनन्दा ने खुलकर भाग लिया, यही नहीं इनके कहने पर कई और लोगों ने भी इसमें सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाई। उनके इस कृत्य से बौखलाए अंग्रेजों ने सुनन्दा को पकड़कर तिरुचिरापल्ली की जेल में डाल दिया। बाद में रिहा होने पर ये नाना साहब के साथ नेपाल चली गईं।

    वहाँ अनेक भारतीय भी रहते थे, जिनके दिलों में इनके द्वारा देशप्रेम की ज्योति जलाई गई। इसके अतिरिक्त नेपाल के प्रधान सेनापति चन्द्र शमशेर जंग की मदद लेकर इन्होने गोला-बारूद बनाने की एक फैक्ट्री भी लगाई, जिससे सामान भारतीय क्रांतिकारियों तक पहुँचे और उनकी मदद हो पाये। किन्तु कुछ समय बाद ही इनको नेपाल छोड़कर कलकत्ता जाना पड़ा, क्योंकि इनके एक सहयोगी के मित्र ने अंग्रेजों को सब बता दिया था।

    कलकता में बच्चों को देशप्रेम की शिक्षा देने के उद्देश्य से इन्होनें एक पाठशाला खोली। 1905 में बंगाल विभाजन के समय हुए क्रन्तिकारी आन्दोलन में इन्होनें सक्रिय रूप से भाग लिया था। अपना सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि को समर्पित कर 1907 में ये इस दुनिया से दूर चली गईं।

    8 - कुमारी मैना

    मैना ऐसी वीरांगना थी जिसने किशोरावस्था में ही देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये थे।

    नाना साहब पेशवा के नेतृत्त्व में 1857 के संग्राम में भारतीय पक्ष विजयी होने के बाद कमज़ोर पड़ने लगा था। नाना साहब पर अंग्रेजी सरकार ने इनाम रख दिया था। अतः वे चाहते थे कि बिठूर से कहीं दूर जाकर सुरक्षित स्थान ढूँढें व नए सिरे से सेना संगठित कर अंग्रेजों पर धावा बोलें। नाना साहब की एक दत्तक पुत्री थी, नाम था मैना। उस समय उसकी आयु केवल 13 वर्ष थी। नाना साहब समझ नहीं पा रहे थे कि उसको साथ ले जाएँ या नहीं। दोनों ही तरह से उसकी जान को खतरा था। मैना एक साहसी बाला थी। उसने पिता के कार्य में व्यवधान बनने के स्थान पर महल में ही रहना उचित समझा।

    नाना साहब के जाने की सूचना मिलते ही अंग्रेजों ने उनके महल को घेर लिया और गोले दागने शुरू कर दिये। कुमारी मैना भागकर एक गुप्त स्थान पर छुप गई। जब तोप की आवाज़ आनी बंद हो गई तो मैना महल से बाहर आ गई। वहाँ मलबे के पास ही कुछ अंग्रेज़ सिपाही मौजूद थे। जनरल आउट्रम के आदेश पर उसे गिरफ़्तार कर लिया गया।

    अंग्रेज़ मैना को बंदी बनाकर अपने साथ ले गए। वे प्रसन्न थे कि उनके हाथ एक कम उम्र की लड़की आई है। अब तो विरोधियों के नाम और ठिकाने वे निश्चय ही जाने जा सकेंगे।

    फिरंगियों ने मैना को खूब यातनाएं दी। मारा-पीटा और कई दिनों तक भूखा-प्यासा भी रखा। किन्तु मैना ने अपना मुँह नहीं खोला। अंत में उसे एक पेड़ से बाँधा गया और चारों ओर लकड़ियाँ जलाईं गई। तपती गर्मी में इस कष्ट से गुजरने पर भी मैना की ज़बान नहीं खुली। फिर इसी आग में जलकर 3 सितंबर,1857 को इस बाल-वीरांगना ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

    9 - आशा देवी गुर्जराणी

    आशा देवी का जन्म 1829 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस हिस्से में हुआ था जिसे अब शामली के नाम से जाना जाता है। 1857 में स्वतन्त्रता संग्राम का बिगुल बजा तो देशप्रेमी सक्रिय हो उठे। पर कुछ इसे सैनिक विद्रोह मान रहे थे। आशा देवी गुर्जराणी का यह विचार था कि स्वतन्त्रता संग्राम में सैनिकों का लड़ना ही पर्याप्त नहीं है। समाज के प्रत्येक वर्ग को इस लड़ाई में भाग लेना चाहिए। इस सोच के साथ ही उन्होने महिलाओं की एक सेना संगठित कर ली और आसपास के इलाकों में अपनी पैठ बना ली। अंग्रेजों को इनकी सेना ने कई बार मुश्किल में डाला। अंग्रेज इन्हें जीवित ही पकड़ना चाहते थे,पर इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। 250 महिला सैनिकों को मारने के बाद ही अंग्रेज़ इन्हें ज़िंदा पकड़ पाये। बाद में 11 अन्य महिलाओं के साथ इन्हें 8 मई, 1857 को फाँसी दे दी गई।

    10 - महावीरी देवी

    वीरांगना महावीरी देवी का बलिदान कम गौरवपूर्ण नहीं है। मुज़फ्फ़रनगर जिले के मुंदभर गाँव की रहनेवाली महावीरी देवी अशिक्षित, लेकिन तीव्र बुद्धि की स्वामिनी थी। इनके पिता सूप-पंखे बनाने का कार्य करते थे।

    देशभक्त होने के साथ साथ वे समाजसेविका के गुण भी समेटे थीं। 1857 में उन्होने 22 स्त्रियों की एक ऐसी टीम बनाई जो महिलाओं और बच्चों को मान-सम्मान से जीना सिखाती थी। अंग्रेजों ने जब मुज़फ्फ़रनगर पर आक्रमण किया तो इसी महिला संगठन ने उन्हें छटी का दूध याद दिलाने का निश्चय किया। बाईस नारियों की ये सेना गंडासे और कांते हाथों में थामे अंग्रेजों से भिड़ गई। अंग्रेज़ी सेना के अनेक सैनिक महावीरी देवी के हाथों मारे गए। अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अंत में ये बलिवेदी पर चढ़ गईं।

    11 - अजीज़न बाई

    स्वतन्त्रता आंदोलन,1857 में जब भी कानपुर का ज़िक्र होगा, तब-तब अजीज़न बाई का नाम भी लिया जाता रहेगा। अजीज़न बाई का जन्म 1832 में हुआ था। उनके पिता लखनऊ में उस समय के जानेमाने गायक थे. पेशे से नर्तकी अजीज़न बाई अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात कानपुर आ गयीं थीं.

    जब नाना साहब के नेतृत्त्व में वहाँ क्रांति का बिगुल बजा तो अजीज़न बाई ने भी उसमें भाग लिया। अपने नर्तकी होने का लाभ उठाते हुए उन्होने सेना के लिए गुप्तचर की भूमिका निभाई और साथ ही साथ एक क्रांतिकारी बनकर अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। दिन में ये पुरुष वेष में युद्ध करतीं तथा रात में अंग्रेजों की छावनी में जाकर नृत्य करतीं व उनकी गुप्त सूचनाएँ एकत्र करतीं।

    इनका काम अंग्रेजों से मिले हुए भारतीय सैनिकों को नाच गाकर बहलाते हुए नाना जी की ओर करना भी था। नाना साहब उनका बहुत सम्मान करते थे और उनसे राखी भी बंधवाते थे।

    अजीज़न बाई द्वारा महिलाओं को प्रशिक्षित कर मस्तानी टोली बनाई गई। इस संगठन का कार्य बंदूकों में कारतूस डालना, तोपों में बारूद भरना, घायल सैनिकों की मदद कर उनके भोजन आदि का ध्यान रखना था। मस्तानी टोली की मदद से नाना साहब की सेना ने अंग्रेजों को हरा दिया था। मस्तानी टोली में लगभग 25 नर्तकियाँ सम्मिलित थीं। इन सबने मिलकर लाल बंगला में रहने वाले सभी अंग्रेजों को भी मौत के घाट उतार दिया। इस हार से बौखलाए अंग्रेजों ने बाद में ज़्यादा तैयारी कर कानपुर पर फिर से चढ़ाई कर दी। कुछ लोगों का कहना है कि इस युद्ध के दौरान ही अजीज़न बाई अंग्रेज़ी सेना की पकड़ में आ गईं। अंग्रेजों ने उन्हें रिहाई का लालच दिया किन्तु बदले में अपनी सेना की सेवा करने की शर्त रखी। इस शर्त को मानने इस बात से क्षुब्ध होकर इन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।

    वहीं कुछ लोगों मानना है कि वे आज़ादी के लिए बनाई गई सेना के सेनापति तात्या टोपे से मिली थीं और उनके आदेश पर ही अंग्रेज़ों के खेमों में जाकर उनकी गुप्त योजनाएँ तात्या टोपे को बताती थीं। इस बात का पता लगने पर इन्हें गिरफ्तार कर अंग्रेज़ कमांडर हेनरी हैवलॉक के समक्ष प्रस्तुत किया गया। हेनरी हैवलॉक इनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गया और केवल एक क्रांतिकारी अजीम उल्ला खां का पता बता देने पर माफ़ करने का वादा किया। माफ़ी मांगने से इंकार करने पर इनके शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया गया।

    12 - प्रीतिलता वादेदार

    स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाली वीरांगनाओं का उल्लेख करते हुए प्रीतिलता वादेदार का नाम सम्मिलित न हो तो चर्चा अधूरी ही होगी। इनका जन्म 5 मई, 1911 में चटगांव में हुआ। बचपन से ही इनकी इच्छा अध्यापिका बनने की थी। इसके अतिरिक्त ये रानी लक्ष्मी बाई से बेहद प्रभावित थीं व उनकी तरह ही मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहती थीं। बेहद तीव्र बुद्धि की इस बालिका ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया और बीए में दाखिला लिया। इसके बाद लीला नाग के दीपाली संघ में शस्त्र विद्या का प्रशिक्षण लेकर महान क्रांतिकारी सूर्यसेन की सेना में सम्मिलित हो गईं।

    18 अप्रैल,1930 को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध सूर्यसेन की सेना ने चटगांव में बने शस्त्रागार से हथियार लूट लिए। अंग्रेज़ सेना ने क्रांतिकारियों पर गोलियाँ बरसा दीं, जिसमें सूर्यसेन के कई साथी मारे गए। प्रीतिलता व सूर्यसेन बचकर भाग निकले और कुछ दिन छुप कर बिताए। कुछ समय बाद अपने साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई। इस योजना के अंतर्गत उन्हें एक नाईट क्लब पर आक्रमण करना था, जहाँ फिरंगी स्त्री और पुरुष शराब पीकर नाच-गाना किया करते थे।

    प्रीतिलता को आभास था कि अपनी जान की बाजी लगाते हुए वे कभी भी अंग्रेजों के हाथ लग सकती हैं। किन्तु वे चाहती थीं कि जब तक उनके शरीर में प्राण हैं कोई दुश्मन उन्हें हाथ न लगाए। इसलिए उन्होने पोटैशियम सायनाइड नामक विष अपने साथ रख लिया।

    23 सितंबर, 1932 को अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होने क्लब पर आक्रमण कर दिया और अनेक अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतार दिया। उन्हें अपने साथियों की मृत्यु का बदला तो मिल गया पर अंग्रेज़ों की ओर से चलाई गोली में प्रीतिलता घायल हो गईं। जब इन्हें आभास हो गया कि अब वहाँ से बचकर निकलना मुश्किल है तो पोटैशियम सायनाइड खाकर इस वीरांगना ने अपनी जान दे दी। धन्य है वह आत्मा जिसने 21 वर्ष की अल्प आयु में आत्मबलिदान दिया और देश को स्वतन्त्रता के मार्ग पर ले जाने का पुण्य कर्म किया।

    13 - कनकलता बरुआ

    कनकलता बरुआ एक अन्य महान वीरांगना हैं। अपना नाम छोटी आयु में ही शहीदों की सूची में दर्ज़ करवाकर ये सदा के लिए अमर हो गईं।

    इनका जन्म 22 दिसंबर, 1924 में असम के बारंगबड़ी गाँव में हुआ था। दुर्भाग्य से बचपन में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। इनका लालन-पालन नानी के घर हुआ।

    मई 1931 में इनके ननिहाल के पास गाँव में रैयत सभा हुई। अपने दो मामायों यदुराम बोस और देवेंद्र नाथ के साथ ये भी उस सभा में गईं। वहाँ ज्योतिप्रासाद अगरवाला के गीतों को सुनकर कनकलता भावविभोर हो उठीं। ज्योतिप्रासाद अगरवाला उस समय के प्रसिद्ध गीतकार व नेता थे। सभा की अध्यक्षता करते हुए उनके द्वारा सुनाये गीतों ने कनकलता के हृदय में देशभक्ति की आग सुलगा दी।

    अंग्रेजों ने इस सभा में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोही कहकर जेल में बंद कर दिया गया। इससे असम में आक्रोश बढ़ गया। कनकलता का नन्हा हृदय भी अंग्रेजों के प्रति घृणा से भर गया। फिर 1942 में जब मुंबई में अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित हुआ तो वहाँ से असम लौटने पर नेताओं को बंदी बना लिया गया। इससे आम जनता में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह और भड़क उठा। भारत छोड़ो का प्रभाव आग में घी डाल रहा था।

    20 सितंबर, 1942 को ज्योतिप्रासाद अगरवाला के नेत्तृत्व में गुप्त सभा हुई और स्वतन्त्रता का आह्वान करने हेतु थानों पर तिरंगा झण्डा फहराने का फैसला किया गया।

    गुहपुर थाने पर तिरंगा फहराने जो जूलुस जा रहा था उसकी अगुआई 19 वर्षीय कनकलता कर रही थीं। जैसे ही जूलुस वहाँ पहुँचा थाने के प्रभारी पी.एम. सोम ने बीच में आकर उनका रास्ता रोक लिया। कनकलता ने उसे समझाने का प्रयास किया कि वे किसी प्रकार का संघर्ष नहीं करेंगे, अपितु तिरंगा लहराकर स्वतन्त्रता का आह्वान मात्र करना चाहते हैं। थाने के प्रभारी ने उन्हें धमकी दी कि एक कदम बढ़ाने पर ही उन पर गोलियाँ चला दी जाएंगी। कनकलता निडर होकर बोलीं कि गोली चलाकर कोई उन्हें उनके कर्त्तव्य से विमुख नहीं कर सकता और वे आगे बढ़ गईं। उनके आगे बढ़ते ही गोलियाँ चला दी गईं। कनकलता को गोली लगी और वे वहीं ढेर हो गईं। लेकिन उनके बलिदान से युवकों में जोश भर गया और वे आगे बढ़ते रहे, उधर गोलियों की बौछार भी जारी थी। अंत में रामपती राजखोवा नामक वीर ने वहाँ तिरंगा फहरा ही दिया। कनकलता का शव क्रांतिकारी वीर अपने कन्धों पर उठाकर लाये और बारंगबड़ी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। वीरांगना कनकलता की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। इसके बाद क्रांति की आग और तेज़ी से भड़की और अंत में स्वतन्त्रता प्राप्ति का उनका सपना साकार हुआ।

    14 - कालीबाई

    ब्रिटिश काल में स्थान-स्थान पर लोगों पर दुहरी मार पड़ रही थी। एक ओर अंग्रेजों का निरंकुश शासन तो दूसरी ओर सामंतों के द्वारा शोषण। लोग पढे-लिखे भी नहीं थे कि अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों। कुछ समाजसेवी संस्थाओं और क्रांतिकारियों की मदद से कई स्थानों पर विद्यालय चलाये जा रहे थे।

    एक ऐसा ही विद्यालय राजस्थान के डूँगरपुर जिले के रास्तापाल नामक गाँव में खोला गया। इस पाठशाला के संरक्षक एक प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी नानाभाई खांट थे और सेंगाभाई रोत वहाँ अध्यापन का कार्य करते थे।

    1947 के समय पूरे देश में आज़ादी के संग्राम का बिगुल बजा हुआ था। डूँगरपुर में आम जनता तक यह आवाज़ पहुँचाने का कार्य इसी प्रकार की पाठशालाओं के माध्यम से हो रहा था। शिक्षक अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियाँ सुनाया करते थे।

    रास्तापाल की पाठशाला में कालीबाई कलसुआ नामक एक 13 वर्षीय छात्रा भी पढ़ती थी जो भील जाति की थी। आज़ादी की कहानियाँ सुन वह भी स्वतंत्र देश की कल्पना लिया करती थी। अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति उसके मन में नफरत का बीज अंकुरित हो चुका था।

    स्वतन्त्रता आंदोलन का दमन करते हुए अंग्रेजों ऐसी पाठशालाएँ बंद करवा देना चाहते थे। रास्तापाल की पाठशाला बंद करवाने के लिए भी अनेक बार प्रयास हुए।

    19 जून, 1947 को डूँगरपुर का पुलिस अधिकारी कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ पाठशाला में आ पहुंचा और नानाभाई व सेंगाभाई को अंतिम चेतावनी के तौर पर पाठशाला बंद करने का हुक्म सुना दिया। जब वे नहीं माने तो डंडे और बंदूक की बट से उनकी पिटाई करनी शुरू कर दी। नानाभाई वृद्ध थे, अतः इस पिटाई को सहन न कर पाये और उनके प्राण पखेरू उड़ गए। सेंगाभाई को अधिकारी ने अपने ट्रक के पीछे बाँध दिया।

    गाँववाले खड़े होकर सब देखते रहे पर किसी की कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उसी समय कालीबाई भी वहाँ आ पहुँची जो खेतों में अपने जानवरों के लिए घास काट रही थी।

    कालीबाई ने पूछा कि उनके गुरु को क्यों बांधा गया है? पुलिस अधिकारी बौखलाकर चुप हो गया। कालीबाई के बार-बार पूछने पर उसे कारण बताना ही पड़ा। इस पर कालीबाई ने कहा कि स्कूल चलाना तो अपराध नहीं है। मैंने तो सुना है इससे हमारा विकास होता है। गाँववाले यह वार्तालाप सुनकर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध नारे लगाने लगे। यह देख पुलिस अधिकारी क्रोध में आ गया और कर उसने ट्रक चलाने का आदेश दे दिया। कालीबाई ने आव देखा न ताव। वह दौड़कर अपने गुरु के पास पहुँची और अपने हाथ में पकड़ी हंसिया से उनकी रस्सी काट दी। इस बात से वह अधिकारी आग-बबूला हो गया और उसने अपनी पिस्तौल निकालकर कालीबाई पर गोलियाँ चला दीं। गाँववालों ने यह दृश्य देखकर पथराव करना शुरू कर दिया जिससे डरकर पुलिस वाले वहाँ से भाग गए। कालीबाई को डूँगरपुर के अस्पताल ले जाया गया पर उसके प्राण नहीं बच सके। कालीबाई के इस बलिदान से सेंगाभाई की जान बच गई और आज़ादी की लहर तीव्र हो गई।

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    इन वीरांगनाओं के बलिदान के लिए देश इनका ऋणी रहेगा।