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अतीत के पन्ने

अतीत के पन्ने

आज मेरी ज़िंदगी का सबसे अच्छा दिन था। मेरी मेहनत रंग लाई थी। मैंने वह पा लिया था जिसके लिए मैं इतने वर्षों से पूरी लगन के साथ जुटा था। एक निर्माता निर्देशक के तौर पर मेरी पहली फिल्म रिलीज़ हुई थी। पहला शो देख कर लोगों ने अच्छी प्रतिक्रया दी थी।

सभी तरफ से मिल रही बधाइयों के बीच मेरे अतीत के पन्ने मेरी आँखों के सामने फड़फड़ा रहे थे। मैं उनके भीतर झांक रहा था। वह पन्ने जो उजले नहीं थे। उनका उजलापन समय की धूल पड़ने से नहीं गया था। वह वैसे ही थे।

मुझसे यह सवाल किया जा सकता है कि फिर मैं क्यों उस अतीत में झांक रहा था जो उजला नहीं था। जिसमें दुख था तकलीफ थी। अमूमन तो लोग उस अतीत को याद करते हैं जो खुशनुमा हो। बचपन की उस बेफिक्री को याद करते हैं जब जीवन सतरंगी सपनों से घिरा था।

मेरा जवाब है कि मैं उसे याद कर रहा हूँ क्योंकी वह मेरा अतीत है। मेरे आज की नींव है। मेरा बचपन बेफिक्र नहीं था। लेकिन तब भी मेरी आँखों में सपने थे। मेरे सपने किसी अनदेखे परी लोक से संबंधित नहीं थे। वे सभी सपने वास्तविकता के पथरीले धरातल को चीर कर उपजे थे। वो मुझे गुदगुदाते नहीं थे बल्की उन्हें पूरा करने के लिए कोचते रहते थे।

अतीत के पन्ने पलटते हुए मैं उस जगह आ गया जो मेरे जीवन की सबसे दुखद घटना थी। मेरी उम्र सात साल की थी। मैं बिस्तर पर लेटे हुए छत को ताक रहा था। मेरे पास लेटी मम्मी भी चिंता में डूबी थीं। केवल हम दोनों के बीच में लेटी मेरी दो साल की बहन रीमा निश्चिंत सो रही थी। वह नहीं जानती थी कि रोज़ दफ्तर से लौट कर उसे गोद में खिलाने वाले पापा अब हमें छोड़ कर जा चुके थे।

उस छोटी सी उम्र में मैं इतना समझ गया था कि पापा के अचानक चले जाने से घर में एक खालीपन आ गया था। मम्मी अंदर से परेशान रहती थीं लेकिन मुझसे छिपाने का प्रयास करती थीं। लेकिन लोगों के बर्ताव से मैं समझ रहा था कि बहुत कुछ बदल गया है।

हमारे मकान मालिक आज शाम को ही घर आए थे। वो पहले भी आते थे। तब पापा उन्हें पैसे देकर विदा कर देते थे। लेकिन पापा के जाने के बाद मम्मी इधर दो महीनों से किराया नहीं दे पाईं थीं। आज वो पैसे को लेकर मम्मी से बहस कर रहे थे। मम्मी उनसे कुछ और समय माँग रही थीं। उनका कहना था कि अब और समय नहीं दे सकते। अगले हफ्ते तक मकान खाली कर दीजिए।

मैंने मम्मी को उनकी सहेली रश्मी आंटी से बात करते सुना था कि उनके पास दो विकल्प थे। एक यह कि अपनी ससुरल चली जाएं जहाँ किसी ने भी उन्हें अपनाया नहीं था। या फिर अपने माता पिता के पास चली जाएं जिनसे सारे रिश्ते उन्होंने खुद ही तोड़ दिए थे। उन्होंने बताया था कि वह दोनों ही विकल्प चुनना नहीं चाहती थीं।

रश्मी आंटी ने अपने किसी डॉक्टर रिश्तेदार की क्लीनिक में रिसेप्शनिस्ट का जॉब दिलवा दिया। मम्मी मुझे और रीमा को लेकर आगरा में नौकरी करने चली गईं। वहाँ पूरी तरह तो नहीं किंतु कुछ हद तक हमारे जीवन में ठहराव आ गया। मैं स्कूल जाने लगा। रीमा को क्रेच में छोड़ कर मम्मी काम पर जाती थीं। रीमा जब बड़ी हुई तो मेरे साथ ही स्कूल जाती थी। छुट्टी होने पर हम दोनों साथ लौटते थे। मम्मी के आने तक मैं उसकी देखभाल करता था।

शुरुआती दिन बहुत कठिन थे। घर में अक्सर पैसों की तंगी रहती थी। ऐसे में हमें अपनी ख़्वाहिशों को अपने मन में दबा कर जीना पड़ता था। तब से ही मेरे मन में यह बात बैठ गई थी कि मुझे ऐसा कुछ करना है जिसके द्वारा मैं बहुत से पैसे कमा कर अपनी और रीमा की हर इच्छा पूरी कर सकूं। तब मैं यह नहीं जानता था कि वह कुछ क्या होगा। मुझे बस यह पता था कि उससे मेरी मम्मी की तकलीफें कम हो जाएंगी।

जब मैं कुछ और बड़ा हुआ तब मुझे अनुभव हुआ कि केवल पैसे की कमी ही मम्मी की एकमात्र समस्या नहीं है। उन्हें एक अकेली औरत होने का दर्द भी झेलना पड़ता था। समाज में एक अकेली स्त्री के लिए अपना स्थान बनाना आसान नहीं था। समाज के कुछ लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण उस स्त्री का सम्मान के साथ जीना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं।

मम्मी जिस क्लीनिक में रिसेप्शनिस्ट का जॉब करती थीं वहाँ सुधाकर नाम का एक क्लर्क था। अक्सर वह हमारे घर आ जाता था। हम दोनों भाई बहन के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करता था। हमारे लिए चॉकलेट लाता था। हमारा कोई रिश्तेदार नहीं था। अतः रीमा उसके आने से खुश होती थी। लेकिन मुझे वह पसंद नहीं था। मैंने महसूस किया था कि मम्मी भी उसका आना पसंद नहीं करती थीं।

एक बार मैं और रीमा मोहल्ले में एक बर्थडे पार्टी में गए थे। रीमा की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। मैं उसे लेकर घर लौट आया। जब मैं घर में घुसा तो देखा कि उसने मम्मी का हाथ पकड़ रखा था। मम्मी उससे अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं। वह बड़ी बेशर्मी से हंस रहा था। यह देख कर मेरा खून खौल उठा। ना जाने कौन सी शक्ती मेरे भीतर आ गई। मैंने झपट कर मम्मी का हाथ छुड़ाया। उसे ज़ोर से धक्का दिया। वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उसके सर पर चोट आ गई। वह देख लेने की धमकी देकर चला गया।

उसके बाद उसने मम्मी के बारे में गलत बातें करनी शुरू कर दीं। मम्मी का वहाँ काम करना कठिन हो गया। वह अक्सर काम से परेशान लौटती थीं। मम्मी दूसरी जगह काम तलाश रही थीं। किंतु कहीं बात नहीं बन पा रही थी। उन मुश्किल भरे दिनों में हम तीनों ही एक दूसरे का सहारा थे। सभी दुख तकलीफ मिल कर बांट लेते थे। मैं और रीमा मम्मी को खुश रखने की कोशिश करते थे।

उसी समय की बात है मैं नवीं कक्षा में था। रीमा को एक गुड़िया बहुत पसंद थी। मैं जानता था कि वह उसे खरीदना चाहती है किंतु घर की स्थिति देख कर कुछ नहीं कह रही थी। मैं उसकी यह इच्छा पूरी करना चाहता था। मैंने इसका उपाय ढूंढ़ निकाला। अपने पड़ोस में रहने वाले पांचवीं कक्षा के एक बच्चे को मैंने पढ़ाना आरंभ कर दिया। मैंने मम्मी को यह बात नहीं बताई थी। रीमा को भी कुछ बताने को मना कर दिया। था। मुझे पढ़ाने के जो पैसे मिले उससे मैंने रीमा के लिए गुड़िया खरीदी। मम्मी को जब पता चला तो उन्होंने नाराज़गी दिखाई। लेकिन जब मैंने वजह बताई तो उन्होंने मुझे शाबासी दी। इससे मैंने दो बातें सीखीं। एक कि पैसा बहुत मेहनत से मिलता है। दूसरी कि अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत ज़रूरी है।

करीब छह महीने परेशान रहने के बाद मम्मी को आगरा के एक होटल में जॉब मिल गई। यहाँ वेतन भी अच्छा था। हमारी स्थिति में सुधार आ गया। अब मैं अपनी पढ़ाई को लेकर गंभीर हो गया था। रीमा को भी प्रोत्साहित करता था। बारहवीं के बाद मैं इंजीनियरिंग करने दिल्ली चला गया।

दिल्ली आकर मेरे जीवन में बहुत सारे बदलाव आए। यहाँ आकर मैंने दुनियादारी की कई बातें सीखीं। नई दुनिया की चकाचौंध में कुछ दिनों के लिए मैं बहक गया। नतीजा यह हुआ कि मेरे पहले सेमेस्टर का रिज़ल्ट खराब हो गया। मम्मी को जब पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ। लेकिन मेरी आँखें खोलने को एक ठोकर ही काफी थी। मैं संभल गया। उसके बाद चार साल मैंने स्वयं को पढ़ाई में लगा दिया। पढ़ाई के अलावा मेरा ध्यान केवल कॉलेज में होने वाली कलात्मक गतिविधियों में ही लगता था। हमारे कॉलेज में ड्रामा की एक वर्कशाप होती थी। मुझे नाटकों में भाग लेना बहुत अच्छा लगता था।

इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने दिल्ली में ही नौकरी शुरू कर दी। मेरी मम्मी बहुत खुश थीं। रीमा भी अब कॉलेज में आ गई थी। नौकरी करते हुए मुझे महसूस हो रहा था कि सब सही होते हुए भी कहीं कुछ कमी है। मैंने विचार करके देखा तो पाया कि ड्रामा से मेरी दूरी ही इसका कारण है।

कॉलेज में ड्रामा के ज़रिए मैं अपने भीतर का बहुत कुछ अभिव्यक्त कर पाता था। उन दिनों मैंने एक नाटक लिख कर उसका निर्देशन भी किया था। वह नाटक बहुत पसंद किया गया था। मैं दिल्ली के एक थिएटर ग्रुप में शामिल हो गया। इस ग्रुप में अधिकांश लोग नौकरी पेशा थे। हम सभी रविवार के दिन या दफ्तर के बाद नाटकों के लिए रिहर्सल करते थे। नाटकों का बजट बहुत कम होता था। कुछ खास दर्शक ही उन्हें देखने आते थे।

करीब एक साल उस ग्रुप से जुड़े रहने के बाद मैंने यह अनुभव किया कि कला ही वह क्षेत्र है जो मुझे संतुष्टि दे सकता है। वह जो मेरे भीतर छिपा है और बाहर आने को बेचैन है वह इंजीनियर नहीं एक कलाकार है। मैं कई दिनों तक मानसिक द्वंद से गुज़रता रहा। अपने मन का करने का अर्थ था पुनः एक नए क्षेत्र में खुद को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना। संघर्ष से बचने का अर्थ था वह करना जिसमें मन ना लगे।

मुझे मम्मी का संघर्ष याद आया। उन्होंने ससुराल या मायके जाकर संघर्ष से बचने की बजाय संघर्ष को चुना था। वह अक्सर कहती थीं कि जो आसान लगता है वह वास्तव में कभी खुशी नहीं देता। उनकी इस बात ने मुझे बल दिया। मैंने मम्मी को अपना निर्णय सुनाया। उन्होंने कहा कि मैं वही करूं जो मुझे सही लगे।

मैंने फिल्म इंस्टिट्यूट से फिल्म निर्माण का कोर्स किया। फिल्में मुझे अभिव्यक्ति का साधन भी दे सकती थीं और पैसा भी। उसके बाद पुनः एक नया अध्याय शुरू हुआ। मैंने कई निर्देशकों के साथ सहायक के तौर पर काम किया। फिर वह दिन भी आया जब मुझे स्वतंत्रत रूप से फिल्म निर्देशन का मौका मिला। किंतु मुझे तसल्ली नहीं हुई थी। मैं अपने हिसाब से फिल्में बनाना चाहता था।

मैं धैर्य पूर्वक उस समय की प्रतीक्षा करने लगा। फिर वह दिन भी आया जब मैंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा। उसका निर्देशन भी किया। आज मेरी फिल्म लोगों के सामने थी। बधाई और तारीफों के बीच मुझे मम्मी की याद आ रही थी जो मेरे सपने के साकार होने से पहले ही दुनिया से चली गई थीं। रीमा विदेश में अपने कैरियर व जीवन में मसरूफ थी। अपनी व्यस्ताओं के कारण वह आ नहीं सकी थी।

मैं भीड़ में भी अकेलापन महसूस कर रहा था। मेरे अतीत के पन्ने मुझे उन दिनों की याद दिला रहे थे जब मम्मी मैं और रीमा मिलकर छोटी छोटी खुशियों का जश्न मनाते थे। आज बीते दिनों का संघर्ष मुझे एक ताकत दे रहा था। संदेश दे रहा था कि संघर्ष ही सफलता के फूल खिलाता है।

मैं अतीत में झांक कर उन दिनों को धन्यवाद देना चाहता था जिनके कारण मैं आज यहाँ था।

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