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ख़ोरेश्ट

ख़ोरेश्ट

हम दिल्ली में थे। मेरा बच्चा बीमार था। मैंने पड़ोस के डाक्टर कापड़िया को बुलाया वो एक कुबड़ा आदमी था। बहुत पस्तक़द, लेकिन बेहद शरीफ़। उस ने मेरे बच्चे का बड़े अच्छे तरीक़े पर इलाज किया। उस को फीस दी तो उस ने क़ुबूल न की। यूं तो वो पार्सी था लेकिन बड़ी शुस्ता व रफ़्ता उर्दू बोलता था, इस लिए कि वो दिल्ली ही में पैदा हुआ था और तालीम उस ने वहीं हासिल की थी।

हमारे सामने के फ़्लैट में मिस्टर खेश वाला रहता था। ये भी पार्सी था। उसी के ज़रीये से हम ने डाक्टर कापड़िया को बुलाया था। तीन चार मर्तबा हमारे यहां आया तो उस से हमारे तअल्लुक़ात बढ़ गए। डाक्टर के हाँ मेरा और मेरी बीवी का आना जाना शुरू होगया। इस के बाद डाक्टर ने हमारी मुलाक़ात अपने लड़के से कराई उस का नाम सावक कापड़िया था। वो बहुत ही मिलनसार आदमी था। रंग बेहद ज़र्द ऐसा लगता था कि उस में ख़ून है ही नहीं। सिंगर मशीन कंपनी में मुलाज़िम था। ग़ालिबन पाँच छः सौ रुपेय माहवार पाता था। बहुत साफ़ सुथरा रहता था। उस का घर जो हमारे घर से कुछ फ़ासले पर था बहुत नफ़ासत से सजा हुआ था। मजाल है कि गर्द-ओ-ग़ुबार का एक ज़र्रा भी कहीं नज़र आ जाए।

जब मैं और मेरी बीवी शाम को उन के हाँ जाते तो वो उस की बीवी ख़ुरशीद जिस को पार्सियों की ज़बान में ख़ुरुश्ट कहा जाता था। बड़े तपाक से पेश आते और हमारी ख़ूब ख़ातिर तवाज़ो करते।

ख़ुरशीद यानी ख़ोरेश्ट लंबे क़द की औरत थी। आम पार्सियों की तरह उस की नाक बदनुमा नहीं थी, लेकिन ख़ूबसूरत भी नहीं। मोटी पकोड़ा ऐसी नाक थी, लेकिन रंग सफ़ैद था इस लिए गवारा होगई थी। बाल कटे हुए थे। चेहरा गोल था। ख़ुशपोश थी इस लिए अच्छी लगी थी। मेरी बीवी से चंद मुलाक़ातों ही में दोस्ती होगई। चुनांचे हम उन के हाँ अक्सर जाने लगे। वो दोनों मियां बीवी भी हर दूसरे तीसरे रोज़ हमारे हाँ आजाते थे और देर तक बैठे रहते थे।

हम जब भी सावक के हाँ गए, एक सिख को उन के हाँ देखा। ये सिख एक तंवमंद आदमी था। बहुत ख़ुश खल्क़। सावक ने मुझे बताया कि सरदार ज़ोर आवर सिंह उस का बचपन का दोस्त है। दोनों इकट्ठे पढ़ते थे। एक साथ उन्हों ने बी ए पास किया। लेकिन शक्ल ओ सूरत के एतबार से सरदार ज़ोर आवर सिंह, सावक के मुक़ाबले में ज़्यादा मुअम्मर नज़र आता था। सावक शायद ख़ून की कमी के बाइस बहुत ही छोटा मालूम होता था। ऐसा लगता था कि उस की उम्र अठ्ठारह बरस से ज़्यादा नहीं, लेकिन सरदार ज़ोर आवर सिंह चालीस के ऊपर मालूम होता था।

सरदार ज़ोर आवर सिंह कुँवारा था। जंग का ज़माना था। उस ने गवर्मन्ट से कई ठेके ले रखे थे। उस का बाप बहुत पुराना गवर्मन्ट कंट्रैक्टर था। लेकिन बाप बेटे में बनती नहीं थी। सरदार ज़ोर आवर सिंह आज़ाद ख़याल था लेकिन वो अपने बाप ही के साथ रहता था पर वो एक दूसरे से बात नहीं करते थे। अलबत्ता उस की माँ उस से बहुत प्यार करती थी जैसे वो छोटा सा बच्चा है। उस की वजह ये थी कि वो माँ का इकलौता लड़का था। तीन लड़कीयां थीं, वो अपने घर में आबाद हो चुकी थीं। अब उस की ख़ाहिश थी कि वो शादी कर ले और उस के कलेजे को ठंडक पहुंचाए, मगर वह उस के मुतअल्लिक़ बात करने के लिए तैय्यार ही नहीं था।

मैंने एक दफ़ा उस से दरयाफ़्त किया। “सरदार साहब आप शादी क्यों नहीं करते”?

उस ने मोंछों के अंदर हंस कर जवाब दिया। “इतनी जल्दी क्या है”?

मैंने पूछा। “आप की उम्र क्या है”?

उस ने कहा। “आप का क्या ख़याल है”?

“मेरे ख़ल के मुताबिक़ आप की उम्र ग़ालिबन चालीस बरस होगी”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया। “आप का अंदाज़ा ग़लत है”!

“आप फ़रमाईए, आप की उम्र क्या है”?

सरदार ज़ोर आवर सिंह फिर मुस्कुराया। “मैं आप से बहुत छोटा हूँ…… उम्र के लिहाज़ से भी…… मैं अभी परसों उनत्तीस अगस्त को पच्चीस बरस का हुआ हूँ”।

मैंने अपने ग़लत अंदाज़े की माफ़ी चाही। “लेकिन आप की शक्ल सूरत से जहां तक मैं समझता हूँ, कोई भी ये नहीं कह सकता कि आप की उम्र पच्चीस बरस है”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह हँसा। “मैं सिख हूँ...... और बड़ा ग़ैरमामूली सिख”। ये कह कर उस ने ग़ौर से मुझे देखा, “मंटो साहब आप हजामत क्यूं नहीं कराते। इतने बड़े बालों से आप को वहशत नहीं होती।

मैंने गर्दन पर हाथ फेरा। बाल वाक़ई बहुत बढ़े हुए थे। ग़ालिबन तीन महीने हो गए थे जब मैंने बाल कटवाए थे। सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बात की तो मुझे सर पर एक बोझ सा महसूस हुआ”। याद ही नहीं रहा। अब आप ने कहा है तो मुझे वहशत महसूस हुई है। ख़ुदा मालूम मुझे क्यूं बाल कटवाने याद नहीं रहते......ये सिलसिला है ही कुछ वाहियात। एक घंटा नाई के सामने सर न्यौढ़ाये बैठे रहो। वो अपनी ख़ुराफ़ात बकता रहे और आप मजबूरन कान समेटे सुनते रहें....... फ़लां ऐक्ट्रस ऐसी है, फ़लां ऐक्ट्रस वैसी है। अमरीका ने ऐटम बम ईजाद कर लिया है। रूस के पास इस का बहुत ही तगड़ा जवाब मौजूद है। ये इटली कौन है?...... और वो मुस्सोलिनि कहाँ गया....... अब मैं अगर उस से कहूं कि जहन्नम में गया है तो वो ज़रूर पूछता कि साहब कैसे गया, किस रास्ते से गया। कौन से जहन्नम में गया”।

मेरी इतनी लंबी चौड़ी बात सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह ने अपनी सफ़ेद पगड़ी उतारी...... मुझे सख़्त हैरत हुई। इस लिए कि उस के केस नदारद थे। उन के बजाय हल्के ख़सख़सी बाल थे। लेकिन वो पगड़ी कुछ इस अंदाज़ से बांधता था कि मालूम होता था कि उस के केस हैं और साबित-ओ-सालिम हैं।

बड़ी सफ़ाई से पगड़ी उतार कर उस ने मेरी तिपाई पर रख्खी और मुस्कुरा कर कहा। “मैं तो उस से बड़े बाल कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता”।

मैंने उस के बालों के मुतअल्लिक़ कोई बात न की, इस लिए कि मैंने मुनासिब ख़याल न किया। उस ने भी उन के मुतअल्लिक़ कोई बात ना छेड़ी। पगड़ी तिपाई पर रख देने के बाद उस ने सिर्फ़ इतना कहा था। “मैं तो इस से बड़े बाल कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता”। इस के बाद उस ने गुफ़्तुगू का मौज़ू बदल दिया। और कहा। “मंटो साहब, ख़ुरशीद के लिए आप कुछ कीजीए”?

मैं कुछ न समझा। “कौन ख़ुरशीद”?

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने पगड़ी उठा कर अपने सर पर रख ली। “ख़ुरशीद कापड़िया के लिए”।

“मैं उन की क्या ख़िदमत कर सकता हूँ”।

“उस को गाने का बहुत शौक़ है”।

मुझे मालूम नहीं था। कि ख़ुरुश्ट गाती है। “कैसा गाती हैं”?

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने ख़ुरुश्ट की गाइगी के बारे में इतनी तारीफ़ की कि मुझे ये सब मुबालग़ा मालूम हुआ। “मंटो साहब बहुत अच्छी आवाज़ पाई है। ख़ुसूसन ठुमरी ऐसी अच्छी गाती है कि आप वज्द में आजाऐंगे। आप को ऐसा मालूम होगा कि ख़ास साहब अबदुलकरीम को सुन रहे हैं। और लुतफ़ ये कि ख़ुरशीद ने किसी की शागिर्दी नहीं की... बस जो मिला है क़ुदरत से मिला है। आप आज शाम को आईए...... मिसिज़ मंटो भी ज़रूर तशरीफ़ लाएं। मैं ख़ुरशीद को बुलाऊंगा। आप ज़रा उसे सुनिएगा”।

मैंने कहा। "ज़रूर, ज़रूर….. मुझे मालूम नहीं था कि वो गाती हैं”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने सिफ़ारिश के तौर पर कहा। “आप रेडियो स्टेशन में हैं। में चाहता हूँ कि ख़ुरशीद को हर महीने कुछ प्रोग्राम मिल जाया करें। रुपये की उस को कोई ख़ाहिश नहीं है”।

“लेकिन अगर उन को प्रोग्राम मिलेगा तो मुआवज़ा भी ज़रूर मिलेगा। गर्वनमैंट इन का मुआवज़ा किस खाते में डालेगी”?

ये सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया। “तो ठीक है। लेकिन उसे प्रोग्राम ज़रूर दिलवाईएगा…… मुझे यक़ीन है कि सुनने वाले उसे बहुत पसंद करेंगे”।

इस गुफ़्तुगू के बाद हम तीसरे रोज़ सावक के हाँ गए। वो मौजूद नहीं था लेकिन ड्राइंगरूम में सरदार ज़ोर आवर सिंह बैठा सिगरेट पी रहा था। पार्सियों में सिगरट पीना मना है, सिख भी सिगरट नहीं पीते, लेकिन वो बड़े इतमीनान और ठाट से कश पे कश ले रहा था। मैं और मेरी बीवी कमरे में दाख़िल हुए तो उस ने सिगरट पीना बंद कर दिया। ऐश ट्रे में उस की गर्दन मरोड़ कर उस ने हमें ख़ालिस इस्लामी अंदाज़ में सलाम किया और कहा। “ख़ुरशीद की तबीयत आज कुछ नासाज़ है”।

ख़ुरशीद कुछ देर के बाद आई तो मैंने महसूस किया कि उस की तबीयत क़तअन नासाज़ नहीं है। मैंने उस से पूछा। तो उस ने अपने मोटे होंटों पर मुस्कुराहट पैदा करके कहा। “ज़रा ज़ुकाम था”।

मगर उस को ज़ुकाम नहीं था। सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बड़े ज़ोरदार अंदाज़ में ख़ुरशीद से उस का हाल पूछा, ज़ुकाम के लिए कम अज़ कम दस दवाएं तजवीज़ कीं, पाँच डाक्टरों के हवाले दिए,मगर वो ख़ामोश रही, जैसे वो इस किस्म की बकवास सुनने की आदी है। इतने में ख़ुरशीद का ख़ाविंद सावक कापड़िया आगया। दफ़्तर में काम की ज़्यादती की वजह से उसे देर होगई थी। मुझ से और मेरी बीवी से उस ने माज़रत चाही, सरदार ज़ोर आवर सिंह से कुछ देर मज़ाक़ किया और हम से चंद मिनट की रुख़स्त लेकर अन्दर चला गया, इस लिए कि उसे अपनी बच्ची को देखना था।

उस की पलौठी की बच्ची बहुत प्यारी थी। मियां बीवी की बस यही एक औलाद थी।

क़रीबन डेढ़ साल की थी। रंग बाप की तरह ज़र्द...... कुछ नक़्श माँ पर थे। बाक़ी मालूम नहीं किस के थे। बहुत हँसमुख थी। सावक उस को गोद में उठा कर लाया और हमारे पास बैठ गया। उस को अपनी बच्ची से बेहद प्यार था। दफ़्तर से वापिस आकर वो सारा वक़्त उस के साथ खेलता रहता। मेरा ख़याल है क़रीब क़रीब हर हफ़्ते वो उस के लिए खिलौने लाता था। शीशों वाली बड़ी अलमारी थी। जो इन खिलौनों से भरी हुई थी।

सरदार ज़ोर आवर सिंह के मुतअल्लिक़ बात छिड़ी तो सावक ने उस की बहुत तारीफ़ की। उस ने मुझ से और मेरी बीवी से कहा। “सरदार ज़ोर आवर मेरा बहुत पुराना दोस्त है। हम दोनों लंगोटीए हैं। उस के वालिद साहब और मेरे वालिद साहब इसी तरह लंगोटीए थे। दोनों इकट्ठे पढ़ा करते थे। पहली जमाअत से लेकर अब तक हम दोनों हर रोज़ एक दूसरे से मिलते रहे हैं। बअज़ औक़ात तो मुझे ऐसा महसूस होता कि हम स्कूल ही में पढ़ रहे हैं”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराता रहा। उस के सर पर सिखों की बहुत बड़ी पगड़ी थी, मगर मुझे उस के होते हुए उस के सर की ख़सख़सी बाल नज़र आरहे थे। और मुझे अपने सर अपने बालों का बोझ महसूस होरहा था।

सरदार ज़ोर आवर सिंह के पैहम इसरार पर ख़ुरशीद ने बाजा मंगा कर हमें गाना सुनाया। वो कुन सुरी थी, लेकिन ख़ुरशीद, उस के ख़ाविंद, और सरदार ज़ोर आवर सिंह की ख़ातिर मुझे उस के गाने की मजबूरन तारीफ़ करना पड़ी। मैंने सिर्फ़ इतना कहा। “माशा अल्लाह आप ख़ूब गाती हैं”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बड़े ज़ोर से ताली बजाई और कहा। “ख़ुरशीद, आज तो तुम ने कमाल कर दिया है”। फिर मुझ से मुख़ातब हुआ। “उस को आफ़ताब-ए-मूसीक़ी का ख़िताब मिल चुका है मंटो साहब।

मैंने तो कुछ न कहा, लेकिन मेरी बीवी ने पूछा। “कब”?

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने कहा। “अख़बार का वो कटिंग लाना”।

ख़ुरशीद अख़बार का कटिंग लाई। कोई ख़ुशामदी क़िस्म का रिपोर्टर था जिस ने छः महीने पहले एक प्राईवेट महफ़िल में ख़ुरशीद का गाना सुन कर उसे आफ़ताब-ए-मूसीक़ी का ख़िताब अता फ़रमाया था। मैं ये कटिंग पढ़ कर मुस्कुराया और शरारतन ख़ुरशीद से कहा। “आप का ये ख़िताब ग़लत है”!

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने मुझ से पूछा। “क्यूं”?

मैंने फिर शरारतन कहा। “औरत के लिए आफ़ताब नहीं……. आफ़ताबा होना चाहिए।

ख़ुरशीद साहबा, आफ़ताब-ए-मूसीक़ी नहीं। आफ़ताबा मूसीक़ी हैं”।

मेरा मज़ाक़ सब के सर पर से गुज़र गया। मैंने ख़ुदा का शुक्र किया, क्यूं कि ये मज़ाक़ करने के बाद मैंने फ़ौरन ही सोचा था कि और कोई नहीं तो सरदार ज़ोर आवर सिंह ज़रूर उस को समझ जाएगा,मगर वो मुस्कुराया। “ये अख़बार वाले हमेशा ग़लत ज़बान लिखते हैं। आफ़ताब की जगह आफ़ताबा होना चाहिए था। आप बिल्कुल सही फ़रमाते हैं”।

मैंने और कुछ न कहा, इस लिए कि मुझे एहसास था कि कहीं मेरा मज़ाक़ फ़ाश न हो जाये।

सावक कुछ और ही ख़यालात में ग़र्क़ था। उस को सरदार ज़ोर आवर सिंह की दोस्ती के वाक़ियात याद आरहे थे। “मिस्टर मंटो, ऐसा दोस्त मुझे कभी नहीं मिलेगा। उस ने हमेशा मेरी मदद की है। हमेशा मेरे साथ इंतिहाई ख़ुलूस बरता है पिछले दिनों में हस्पताल में बीमार था। उस ने नर्सों से बढ़ कर मेरी ख़िदमत की। मेरे घर बार का ख़याल रख्खा। ख़ुरशीद अकेली घबरा जाती, मगर उस ने हर तरह उस की दिलजोई की। मेरी बच्ची को घंटों खिलाता रहा। इस के अलावा मेरे पास बैठ कर कई अख़बार पढ़ कर सुनाता रहा। मैं उस का शुक्रिया अदा नहीं कर सकता”।

ये सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया और ख़ुरशीद से मुख़ातब हुआ। “ख़ुरशीद आज तुम्हारा ख़ाविंद बहुत सनटी मैंटल होरहा है....... मैंने क्या किया था जो ये मेरी इतनी तारीफ़ कररहा है”।

सावक ने कहा। “बकवास न करो……. तुम्हारी तारीफ़ मैं कर ही नहीं सकता। मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारी दोस्ती पर मुझे नाज़ है और हमेशा रहेगा। बचपन से लेकर अब तक तुम एक से रहे। मेरे साथ तुम्हारे सुलूक में कभी फ़र्क़ नहीं आया”।

मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह की तरफ़ देखा। वो ये तारीफ़ी कलिमात यूं सुन रहा था। जैसे रेडियो से ख़बरें। जब सावक बोल चुका तो उस ने मुझ से पूछा। “तो ख़ुरशीद को प्रोग्राम मिल जाऐंगे ना”?

मैंने चौंक कर जवाब दिया। “जी?...... मैं कोशिश करूंगा”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह ने ज़रा हैरत से कहा। “कोशिश?..... यानी उन के लिए प्रोग्राम हासिल करने के लिए आप को कोशिश करनी पड़ेगी। आप भी कमाल करते हैं….. कल सुबह उन को अपने साथ ले जाईए। मेरा ख़याल है उन का गाना सुनते ही म्यूज़िक डायरेक्टर इसी महीने में उन को कम अज़ कम दो प्रोग्राम दे देगा”।

मैंने उस की दिल शिकनी मुनासिब न समझी और कहा। “यक़ीनन”।

लेकिन ख़ुरशीद ने सरदार ज़ोर आवर से कहा। “मैं सुबह नहीं जा सकती। बेबी सुबह को मेरे बगै़र घर में नहीं रह सकती। दोपहर को अलबत्ता जा सकती हूँ”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह मुझ से मुख़ातब हुआ। “मंटो साहब, वाक़ई बच्ची उस को सुबह बहुत तंग करती है। मैं ख़ुद से रोज़ ख़ुरशीद को दोपहर के वक़्त रेडियो स्टेशन ले आऊँगा”।

ख़ुरशीद को दोपहर के वक़्त रेडियो स्टेशन लाने की नौबत न आई। क्यूं कि मैंने दूसरे रोज़ ही एक दम इरादा किया कि मैं दिल्ली छोड़कर बंबई चला जाऊंगा, चुनांचे मैं उस से अगले दिन इस्तीफ़ा दे कर बंबई रवाना होगया। मेरी बीवी मुझ से कुछ दिन बाद चली आई। हम मिसिज़ ख़ुरुश्ट कापड़िया और सरदार ज़ोर आवर सिंह को भूल गए।

मैं एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था। बीमारी के बाइस इत्तिफ़ाक़ से एक रोज़ मैं वहां न गया। दूसरे रोज़ वहां पहुंचा तो गेट कीपर ने मुझे एक काग़ज़ दिया कि कल एक साहब आप से मिलने यहां आए थे। वो ये दे गए हैं। मैंने रुक़्क़ा पढ़ा। सरदार ज़ोर आवर सिंह का था। मुख़्तसर सी तहरीर थी, मैं और मेरी बीवी आप से मिलने यहां आए, मगर आप मौजूद नहीं थे....... हम ताज होटल में ठहरे हैं....... अगर आप तशरीफ़ लाएं तो हमें बड़ी ख़ुशी होगी.......मिसिज़ मंटो को ज़रूर साथ लाईएगा”।

कमरे का नंबर वग़ैरा दर्ज था। मैं और मेरी बीवी उसी शाम टैक्सी में ताज होटल गए। कमरा तलाश करने में कोई दिक़्क़त न हुई। सरदार ज़ोर आवर सिंह वहां मौजूद था। हम जब अंदर कमरे में दाख़िल होते तो वो अपने छोटे छोटे ख़सख़सी बालों में कंघी कर रहा था। बड़े तपाक से मिला। मेरी बीवी उस की बीवी को देखने के लिए बेक़रार थी, चुनांचे उस ने पूछा। “सरदार साहब, आप की मिसिज़ कहाँ हैं।

सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया। अभी आती हैं……. बाथरूम में हैं।

उस ने ये कहा और दूसरे कमरे से ख़ुरुश्ट नुमूदार हुई। मेरी बीवी उठ कर उस से गले मिली और सब से पहला सवाल उस से ये क्या। “बच्ची कैसी है ख़ुरशीद”।

ख़ुरुश्ट ने जवाब दिया। “अच्छी है”।

फिर मेरी बीवी ने उस से पूछा। “सावक कहाँ हैं”?

ख़ुरुश्ट ने कोई जवाब न दिया। जब वो और मेरी बीवी पास पास बैठ गईं तो मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह से पूछा। “सरदार साहब, आप अपनी बीवी को तो बाहर निकालिये”।

सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया। ख़ुरुश्ट की तरफ़ देख कर उस ने कहा। “ख़ुरशीद मेरी बीवी को बाहर निकालो”।

ख़ुरुश्ट मेरी बीवी से मुख़ातब हो कर मुस्कराईं। “मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह से शादी करली है। हम यहां हनीमून मनाने आए हैं”।

मेरी बीवी ने ये सुना तो उस की समझ में कुछ न आया कि क्या कहे। उठी और मेरा हाथ पकड़ कर कहा। “चलीए सआदत साहब……” और हम कमरे से बाहर थे। ख़ुदा मालूम सरदार ज़ोर आवर सिंह और ख़ुरुश्ट ने हमारी इस बदतमीज़ी के मुतअल्लिक़ क्या कहा होगा।

28जुलाई1950 ई