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बगिया

बगिया

वैसे मुझे लग रहा था कि मैं सही रास्ते पर हूँ फिर भी एक बार किसी से पूँछ लेना सही समझा। कार रोक कर मैंने राह चलते एक आदमी से पूँछा।

"भाई साहब यहाँ स्पेशल बच्चों का एक स्कूल है....."

"वही मंद बुद्धी लोगों का स्कूल... सही जा रहे हैं। आगे जाकर बांई तरफ मुड़ जाइएगा।"

"धन्यवाद..."

मंद बुद्धी... कुछ शब्द यूं तो सामान्य लगते हैं किंतु जब अपने जीवन से जुड़ जाएं तो मन में हलचल पैदा कर देते हैं। इस शब्द ने भी मेरे मन में एक कंकड़ी की तरह असर किया। 'दिमाग का सुस्त है' 'दिमागी तौर पर कमज़ोर है' 'मंद बुद्धी है' कभी दबे स्वरों में तो कभी बेबाकी से बोले गए ऐसे जुमले हम पति पत्नी के कानों में पड़ते रहते थे। कुछ लोग तो और अधिक असंवेदनशील होते थे। यह सब कुछ हमारी इकलौती संतान व्योम से संबंधित होता था।

दूसरों की तरह हम भी बहुत खुश थे जब हमें पता चला कि हम माता पिता बनने वाले हैं। हमने भी सपने बुनने शुरू कर दिए। अक्सर हम बेकार की बहस में उलझ जाते थे। मेरी पत्नी दीपा कहती थी कि उसे लगता है कि बेटा होगा। मैं कहता कि हो ही नहीं सकता। मैंने तो हमेशा बेटी की ख़्वाहिश की है।

"तुम कैसे कह सकते हो? बच्चा तो मेरे पेट में है।"

"तो तुम कौन सा भीतर झांक कर देख सकती हो"

इसी तरह के और भी तर्क वितर्क हम करते रहते थे। वजह कोई नहीं होती थी। बस हमें अच्छा लगता था। किंतु जब समय आया तो दीपा की बात सच निकली।

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मैंने निर्देशानुसार कार बाईं तरफ मोड़ दी। कुछ ही आगे चलने पर मुझे पेड़ों के झुरमुट के पीछे से झांकता बोर्ड दिखाई पड़ा 'बगिया'। मैंने उस भवन के सामने गाड़ी रोक दी। यह कोई बंगला था जिसमें 'बगिया' नाम से स्पेशल बच्चों के लिए स्कूल चलाया जाता था। रागिनी आहूजा इसकी संचालिका थीं। उनके पति स्व. सुरेंद्र आहूजा अवकाश प्राप्त कर्नल थे।

कार से उतर कर मैं बंगले के गेट तक गया। वहाँ बैठे सिक्योरिटी गार्ड से मैंने बताया कि मुझे रागिनी जी से मिलना है। कुछ ही पलों में मैं बंगले के अंदर था। एक हेल्पर मुझे वहाँ ले गया जहाँ रागिनी जी थीं।

बंगले के पीछे एक बड़ा बागीचा था। वहाँ कई तरह की सब्ज़ियां और फल उगाए जाते थे। कुछ फूल भी थे। बच्चे पौधों की देखभाल कर रहे थे। कोई पानी दे रहा था। कोई सूखी पंक्तियां साफ कर रहा था। रागिनी जी एक बच्चे को गुड़ाई करने के निर्देश दे रही थीं। उन बच्चों में मुझे व्योम का चेहरा दिखाई पड़ रहा था।

***

'डाउन सिंड्रोम' यह अपरिचित सा शब्द अचानक हमारी 'ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गया था। अक्सर कुछ खास बच्चों को कुदरत कुछ अतिरिक्त देती है। हमारे बच्चे को वह अतिरिक्त 'क्रोमोसोम' के रूप में मिला था। जैसा कि डॉक्टर ने हमें समझाया था।

"जन्म से हमें कुल 46 क्रोमोसोम मिलते हैं। 23 माता से और 23 पिता से। पर कुछ बच्चों में एक अतिरिक्त क्रोमोसोम होता है। यह बच्चे के विकास को बाधित करता है। बच्चे की सीखने की क्षमता को प्रभावित करता है। इसे ही डाउन सिंड्रोम कहते हैं। व्योम भी डाउन सिंड्रोम से ग्रसित है।"

उस वक्त बिना आवाज़ किए बहुत से सपने टूट कर बिखर गए थे। सिर्फ उनकी चुभन महसूस हो रही थी। यह सत्य स्वीकार करना कठिन था कि हमारा बच्चा और बच्चों से अलग है। कई महीने तो ईश्वर को उलाहने देने और शिकायत में ही बीत गए। 'हमने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया। फिर हमारी संतान को क्यों ऐसा बनाया?" पर ऐसे सवालों के सीधे जवाब नहीं होते हैं। हमें भी नहीं मिले। अंत में हमने भी स्वीकार कर लिया कि इसी सच के साथ जीना है।

हम इस सच को धीरे धीरे गले के नीचे उतारने लगे। खुद को सामान्य रखने की कोशिश करते। पर सारी कोशिशें बेकार हो जाती थीं जब कोई अपने बच्चे के बारे में बात करता था।

"क्या बताएं परी बहुत तेज़ है। अभी सात महीने की है। पर बोलने की कोशिश करती है।"

हम देखते थे अपने तीन साल के व्योम को छोटी छोटी चीज़ों के लिए संघर्ष करते हुए। ऊपर से यह सांत्वना जले पर नमक सी लगती थी।

"व्योम भी सीख जाएगा। कुछ बच्चे होते हैं। देर से सीखते हैं।"

तब लगता था कि दुनिया में हम ही अकेले हैं जिसके बच्चे को डाउन सिंड्रोम है। इस अकेलेपन का एहसास और सताता था।

***

रागिनी जी की नज़र मुझ पर पड़ी तो वह मेरे पास आकर बोलीं।

"मि. त्यागी आइए। देखिए हमारे बच्चे कैसे बागीचे में काम कर रहे हैं। हमने बंगले के पीछे पड़ी ज़मीन खरीद कर उसे मिला लिया। यहाँ हम लोग फल व सब्ज़ियां उगाते हैं। कुछ हमारे काम आता है। कुछ बाज़ार में बेंच देते हैं। बच्चों को यह एहसास होता है कि वह कुछ उपयोगी कर रहे हैं।"

रागिनी जी ने एक बच्चे को आवाज़ देकर बुलाया।

"हर्ष हम लोगों के लिए कुर्सियां ले आओ।"

हर्ष प्लास्टिक की दो कुर्सियां ले आया। रागिनी जी ने उसे शाबसी दी। कुर्सी पर बैठ कर मैंने कहा।

"बगिया.. बड़ा प्यारा नाम रखा है आपने इस स्कूल का।"

"मि. त्यागी यह बगिया ही तो है। यह सब बच्चे इसके फूल हैं। ना जाने क्यों हम सबको एक ही सांचे में ढालना चाहते हैं। जबकी प्रकृति की सुंदरता विविधता में है। ये बच्चे औरों से अलग हैं। लोगों की भाषा में कहें तो सुस्त हैं। क्योंकी ये बच्चे दूसरों से अधिक समय लेते हैं सीखने में। पर थोड़े धैर्य और प्यार से इन्हें भी बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। यह बगिया उन फूलों के लिए है जिन्हें खिलने के लिए प्यार की धूप चाहिए।"

मैं बहुत ही ध्यान से उन्हें सुन रहा था। मेरे घर में भी एक ऐसा ही फूल था। वह सही प्रकार से खिल सके इसीलिए मैं यहाँ आया था।

"आपका बच्चा भी डाउन सिंड्रोम से ग्रसित है।"

"जी.."

"नाम क्या है? कितने साल का है?"

"व्योम नाम है। सात साल का हो गया है। पर अभी ठीक से बोल नहीं पाता है।"

"मैंने आपको बताया ना मि. त्यागी कि धैर्य और प्यार से इन बच्चों को बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। आप व्योम को हमारे स्कूल में लेकर आईए। हमारे यहाँ इस उद्देश्य के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षक हैं। यहाँ हम अलग अलग गतिविधियों के माध्यम से उनमें सीखने की क्षमता का विकास करते हैं।"

रागिनी जी की बातें सुनकर मेरे मन में भी उम्मीद की किरण जगमगाने लगी थी।

"आईए आपको बच्चों से मिलवाती हूँ।"

मैं उनके साथ बच्चों से मिलने चला गया।

***

हम दोनों पति पत्नी व्योम के भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे। दीपा व्योम को सिखाने का बहुत प्रयास करती थी। इंटरनेट पर हम डाउन सिंड्रोम के बारे में जितना जान सकते थे जानने की कोशिश करते थे। उन बातों का प्रयोग व्योम की परवरिश में करते थे।

एक दिन फेसबुक पर मैंने आरती भान का प्रोफाइल देखा। अपनी बच्ची के साथ उन्होंने कुछ तस्वीरें डाली थीं। तस्वीरें बयान कर रही थीं कि बच्ची को भी डाउन सिंड्रोम है। मैंने फौरन फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी। फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार होने के बाद मैंने उनकी बच्ची के बारे में पूँछताछ की। बच्ची का नाम शुभी था। वह भी डाउन सिंड्रोम से ग्रसित थी।

आरती ने मुझे शुभी द्वारा बनाए कुछ चित्रों की तस्वीर भेजी। बहुत सुंदर चित्र थे। आरती और मेरे बीच शुभी के बारे में बहुत सारी बातें हुईं। मैने भी उन्हें व्योम के बारे में बताया। मैंने आरती से एक बार मिलने की इच्छा जताई। आरती ने हमें अपने घर आने का न्यौता दिया।

तीन घंटे की ड्राइव थी। एक रविवार मैं दीपा और व्योम को लेकर आरती के घर पहुँच गया। आरती और उनके पति कैलाश ने हमारा स्वागत किया। कुछ देर बातचीत के बाद जब आरती चाय नाश्ते की व्यवस्था करने के लिए गईं तब कैलाश मुझे दूसरे कमरे में ले गए। कमरे की दीवारों पर फ्रेम किए हुए चित्र टंगे थे। सभी शुभी ने बनाए थे। एक अलमारी में कुछ फ्रेम किए हुए सर्टिफिकेट, ट्राफियां रखी थीं जो शुभी को मिली थीं। सब कुछ दिखाते हुए कैलाश की आँखों में गर्व का भाव था।

चाय पीते हुए कैलाश बोले।

"बहुत से रिश्तेदार यह एहसास दिलाते थे कि मानसिक रूप से विकलांग बेटी एक बोझ है। बहुत से अनावश्यक सहानुभूति दिखाते थे। पर कोई भी हिम्मत नहीं देता था।"

चाय का प्याला रखते हुए उन्होंने आरती की तरफ देखा।

"सिवा आरती के। इसने सदा हिम्मत से काम लिया और मुझे भी हौंसला दिया। वैसे तो हर बच्चे को माता पिता के सहारे की ज़रूरत होती है। किंतु बच्चे में कोई कमी हो तो फिर माता पिता की हिम्मत ही उसे संघर्ष की प्रेरणा देती है। हमने कभी अपनी हिम्मत टूटने नहीं दी।"

आरती ने मुझसे और चाय के लिए पूँछा। मेरे मना करने पर वह बोली।

"माता पिता के साथ साथ इन बच्चों को प्रशिक्षित शिक्षकों की भी ज़रूरत होती है। आज शुभी ने जो भी सीखा है वह अपने स्कूल से ही सीखा है। इसके स्कूल में विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षक हैं। जब से इसने स्कूल जाना शुरू किया हमने इसमें बहुत परिवर्तन देखा है।"

दीपा सभी बातें बहुत ध्यान से सुन रही थी। उसने आरती से पूँछा।

"आपको डर नहीं लगता कहीं कुछ गलत ना हो जाए।"

जवाब कैलाश ने दिया।

"मैं आपकी चिंता समझ रहा हूँ। ये बच्चे अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकते। पर जिन्हें हम सामान्य बच्चे कहते हैं वह भी उतने ही खतरे में हैं। हम उन्हें भी तो स्कूल भेजते हैं। इन बच्चों के लिए भी स्कूल जाना उतना ही आवश्यक है। तभी तो यह दूसरों के साथ संवाद करना सीख सकेंगे।"

दीपा को और तसल्ली देने के लिए आरती ने कहा।

"आप लोग यहाँ आए मुझे बहुत अच्छा लगा। यह बहुत आवश्यक है कि इन विशेष बच्चों के माता पिता एक दूसरे के संपर्क में रह कर मदद करें। आज इंटरनेट के दौर में यह बहुत मुश्किल भी नहीं है। इस तरह इस बारे में जागरूकता भी बढ़ेगी और हम एक दूसरे का सहारा भी बन सकेंगे।"

कैलाश और आरती से मिलना हमारे लिए ना केवल सुखद बल्कि जानकारीपूर्ण रहा। हम व्योम को भी शिक्षित करने का संकल्प लेकर वहाँ से लौट आए।

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आरती के घर से लैटने के बाद मैं और दीपा इस प्रयास में जुट गए कि व्योम को स्कूल भेजा जाए। हमने कुछ शुभचिंतकों से भी बात की। एक दिन दीपा इंटरनेट पर इसी विषय में खोजबीन कर रही थी। उसे एक न्यूज़ पोर्टल पर बगिया के विषय में एक लेख पढ़ने को मिला। इसे एक दिवंगत कर्नल की पत्नी रागिनी आहूजा चला रही थीं। यह स्कूल उन्होंने अपने उस बेटे की याद में शुरू किया था जो डाउन सिंड्रोम से ग्रसित था। अपने व्यक्तिगत अनुभवों से रागिनी ने महसूस किया था कि इन बच्चों के लिए कुछ किया जाना बहुत आवश्यक है। अतः अपने पुत्र की मृत्यु के बाद रागिनी ने यह स्कूल खोल लिया।

लेख के अंत में संपर्क के लिए ई मेल तथा पता दिया हुआ था। यह जानकर दीपा को खुशी हुई कि स्कूल उनके ही शहर में है। उसने फौरन उन्हें व्योम के बारे में बताते हुए विस्तृत मेल भेज दिया। शाम को जब मैं लौटा तो उसने मुझे यह खुशखबरी सुनाई।

हम लोग जवाब का इंतज़ार करने लगे। जल्दी ही जवाब आ गया। रागिनी जी का फोन नंबर भी दिया था। मैंने फोन कर स्कूल देखने आने की इच्छा जताई। व्योम की तबीयत ठीक ना होने के कारण मैं अकेले ही स्कूल देखने पहुँच गया।

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रागिनी जी मुझे बड़े उत्साह के साथ बच्चों से मिलवा रही थीं। बच्चों की उपलब्धियों के बारे में बता रही थीं। उन्होंने मुझे अपने शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों से भी परिचित कराया। मुझे वहाँ का माहौल बहुत अच्छा लग रहा था। सबसे मिल कर तथा स्कूल का भली भांति मुआयना करने के बाद मैं घर के लिए चल दिया।

कार चलाते हुए पहली बार मैं व्योम के भविष्य को लेकर आशान्वित था। अब हमारा बच्चा भी जीवन में आगे बढ़ेगा। भले ही वह दूसरे बच्चों की तरह ना हो। सीखने में कुछ समय लगाए। लेकिन धीमी गति से ही सही वह सीखने की तरफ अपना कदम बढ़ाएगा।

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