Swabhiman - Laghukatha - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

स्वाभिमान - लघुकथा - 4

स्वाभिमान

आज शीला की शादी का दिन था। पिछले सात महीनों से वैभव उसके प्रति जिस प्यार का इजहार करता आ रहा था, उससे शीला भी बहुत खुश थी। इतना बड़ा घर और पढ़ा- लिखा लड़का, उसे तो खुद से खुशनसीब कोई नजर ही नहीं आ रहा था। फेरो के समय उसने कनखियों से वैभव को देखा तो वह भी उसे देखकर मुस्कुरा रहा था ।पंडितजी के मंत्री चल रहे थे और वह अपने भविष्य के सपने बुन रही थी । अचानक " रूक जाओ " शब्द ने उसकी तल्लीनता भंग कर दी। वैभव के पिता कह रहे थे ," हमारे घर की परंपरा है कि लड़की वाले जब 50 हजार रुपये देते हैं तभी लड़का फेरों के लिए पैर आगे बढ़ाता है।"

"पर, साहब आप लोगों ने पहले तो बताया नहीं, अब फेरों का महूरत निकाल रहा है, इतनी जल्दी मैं इतने पैसों का इंतजाम कैसे करूँ ।" यह शीला के पिता की बेबसी से भरी आवाज थी ।

" लड़की की शादी करने बैठे हैं और इतना भी इंतजाम नहीं है। जल्दी बताओ, नही तो हम बारात वापस ले जायेंगे ।" उपेक्षा भरी आवाज़ वैभव के पिता की थी।

" वैभव, आप अपने पिताजी को समझाइये न! मेरे पिता के पास पैसे सचमुच नहीं है, वर्ना वे इनकार नहीं करते ।" शीला ने अनूप भरे शब्दों में कहा।

" मैं अपने पिता की आज्ञा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता ।" वैभव ने रूखे शब्दों में कहा।

सब ओर कानाफूसी चल रही थी । शीला के पिता की अनुनय का बारातियों पर कोई असर नहीं हो रहा था । पर शीला के स्वाभिमान को यह मंजूर नहीं था। प्यार को रूपयों से तौलने वाले इस परिवार को वह हरगिज अपनाना नहीं चाहती थी। उसने निश्चय किया कि वह अपने पैरों पर खड़ी होगी पर ऐसे लालची अमीरों को अपनी जिंदगी का हिस्सा कभी नहीं बनने देगी।

शीला ने अपनी सहेली से मोबाइल लिया और किसी से बात करने लगी।

" मैं, शीला, होटल स्नेह बंधन से बोल रही हूँ ।

मेरी शादी है , पर 50 हजार के बगैर मेरी शादी नहीं हो सकती ।

जी ...

आप कृपया जल्दी आ जाइये ।"

लड़की ने पैसों का इंतजाम कर लिया, सोचकर सभी बराती खुश हो गए

और पैसों का इंतजार करने लगे। तभी चार - पांच पुलिस वाले हथकड़ी लहराते हुए विवाह मंडप में दाखिल हुए । अब अनुनय विनय की बारी वैभव और उसके पिता की थी ।

***

काली के नमकीन

आलोक के चेहरे पर स्वाभिमान भरी मुस्कान थी। आज उसकी नमकीन की दुकान का उद्घाटन इसकी वजह नहीं थी, बल्कि वर्षों से जो बात उसके आत्मसम्मान को चोट पहुचा रही थी उसने आज उसका तोड़ निकाल लिया था।

पिता की असमय मृत्यु के बाद मां के साथ घर - घर जाकर उसने नमकीन बेचे थे। माँ के हाथ में स्वाद था, सो नमकीन भी जल्दी ही प्रसिद्ध हो गए। उसके निम्नवर्गीय परिवार की कोई खास पहचान तो थी नहीं, अतः लोगों द्वारा उसकी मां के सावले रंग को उनकी पहचान बना दिया गया। शहर में हर जगह ' काली के नमकीन 'लोगों के स्वाद को बढ़ाने लगे।

माँ को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी मगर बड़े होते आलोक को इसमें माॅ का अपमान दिखता।

माँ कहती," यह नाम हमारा परिचय है, नाम बदलने से ग्राहक भटक सकते हैं। " बात ठीक भी थी अतः वह भी पुरजोर विरोध नहीं कर पा रहा था। मगर आज उसने नमकीन के पैकेट पर जगदम्बा मा काली की तस्वीर के साथ ऊपर काली के नमकीन छपवा दिया था। उद्घाटन पर आने वाले लोग उसे मा काली का भक्त मानकर काली माता की जय के नारे लगा रहे थे।

नाम - कीर्ति गांधी