Bhige Pankh - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

भीगे पंख - 9

भीगे पंख

9. रज़िया एक

काल की गति अबाध है- वह निर्लिप्त, निरपेक्ष, निस्पृह एवं निर्मम रहकर प्रवाहित होता रहता था। वषानुवर्ष गर्मिंयों की छुट्टियों के आगमन के साथ रज़िया के हृदय में बढ़ने वाली धड़कन, नयनों में उद्वेलित प्रतीक्षा की प्यास, और मोहित के न आने से लू के थपेडा़ें से सूखे चेहरे पर बहने वाले अश्रुओं से उसे क्या मतलब? उसे तो बस अनवरत वर्तमान से भविष्य की ओर प्रवाहित होते रहना है। कहते हैं कि लम्बा समय बीत जाने से हृदय के घाव भर जाते हैं और समय पुराने सम्बंधों की चमक को फीकाकर नये सम्बंध बना देता है; परंतु रज़िया के जीवन में ऐसा कुछ घटित नहीं हो रहा था। उसका जीवन मोहित पर ठहर सा गया था- उसका तो जो भी था वह मोहित ही था; न तो उसके मन में कोई नवीन सम्बंध बनाने की लालसा थी और न वह अपने को इस योग्य समझती थी। वह तो ऐसी मीरा थी जिसके लिये उनका पद ‘ंमेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ अक्षरश चरितार्थ होता था।

रज़िया अब बडी़ हो रही थी और ‘जहां मौका मिले मुंह मारने वाले’ उसके अब्बा और भाइयों का उसके विषय में उूंच-नीच हो जाने से आशंकित रहना स्वाभाविक था; उनकी उस पर पहरेदारी सख़्त होती जा रही थी। उसके मोहित की मौसी के घर जाने पर भी रोक लगा दी गई थी। इस वर्ष पुन गर्मियों की छुट्टियां प्रारम्भ हो चुकीं थीं और मोहित के आगमन की आशा में रज़िया के हृदय की धड़कनें बढ़ गईं थीं। एक दोपहर में वह अपने घर से निकलकर तालाब की ओर गई और जामुन के वृक्ष के नीचे खड़ी होकर कुछ देर तक मोहित की स्मृतियों में खोई रही और फिर दीवानी मीरा की भांति मोहित के आने की खबर जानने मौसी के घर को चल दी। उस दोपहर उसे रोकने वाला कोई नहीं था क्योंकि सबसे बडे़ भाई की तहसील में चपरासी की नौकरी लग गई थी और वह वहीं गया हुआ था, दूसरा भाई अपने दोस्त की बडी़ बहन के साथ भाग गया था और उसका कुछ पता नहीं था, तीसरा भाई मिंया फ़ज़लू की दूकान पर टेलरिंग सीखने के बहाने रेलवे स्टेशन पर जेबकतरी की टे्निंग ले रहा था, और छोटा भाई सायकिल की दूकान पर पंचर जोड़ता था तथा सायकिल की दूकान के लौंडेबाज़ मालिक का माशूक बन जानेे के कारण अधिकतर समय वहीं बिताता था। रज़िया के अब्बा सेवानिवृत्त हो चुके थे और अब खा़ली थेे, परंतु अब अपनी दूसरी बीबी से भी उनका मन उचटने लगा था और उन्होंने अपनी खा़लाजा़द बहिन को पटा लिया था और मुआफ़िक मौका पाते ही उसके घर में दाखिल हो जाते थे। आज उन्हें ऐसा मैेाका मिल गया था और वह अपने घर की मुर्गियों द्वारा उस दिन दिये हुए चार अंडे लेकर वहीं चले गये थे।

वाह्य संसार से बेखबर शंख के अंदर बंद प्राणी की तरह रज़िया अपने में खोई हुई चली जा रही थी कि पीछे से घोडा़ दौडा़ता हुआ एक घुड़सवार उसके इतने निकट से आगे निकला था कि रज़िया बहुत घबरा गई थी और साधारत विपरीत परिस्थितियों को चुपचाप सहने वाली रज़िया के मुंह से घबराहट में निकल गया था,

‘‘घोडे़ पर काबू नहीं रख सकते हैं तो चढ़ते क्यों हैं?’’

शानदार शर्ट, ब्रीचेज़ और हैट पहने इस अधेड़ आयु के घुड़सवार को एक तुच्छ लड़की द्वारा यूं बोलना बडा़ नागवार लगा था और वह घोडा़ रोककर पीछे लड़की की ओर घूरने लगा था। वह कुछ बोलता कि उसके पीछे से दौड़कर आये साईस ने रज़िया से कहा,

‘‘जानती भी हो कि किससे बात कर रही हो? यह तालुकदार सलाहुद्दीन साहब है।’’

रज़िया ने तालुकदार साहब के रोबदाब के बारे में सुन रखा था और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अपने को कुछ भी कहने में असमर्थ पा रही थी। तभी उस घुड़सवार ने साईस को अपने पास बुलाकर फुसफुसाकर उससे कहा,

‘‘पता लगाओ कि यह किसकी लड़की है।’’

फिर घुड़सवार और साईस दोनों उसी गति से आगे बढ़ गये थे। रज़िया उनकी बात स्पष्ट नहीं सुन पाई थी किंतु उसका सम्वेदनशील मन किसी आने वाली विपत्ति की सम्भावना से विचलित होने लगा था। वह घबराई सी जल्दी जल्दी मौसी के घर पहुंची- वहां मोहित नहीं आया था बस उसकी माॅ की खबर आई थी कि अब मोहित की कालेज की पढा़ई कठिन हो गई है, अत वे लोग इस वर्ष भी न आ सकेंगे। वास्तविकता यह थी कि छुट्टियां होने पर मोहित ने तो मां से फ़तेहपुर चलने का प्रस्ताव रखा था और ज़िद भी की थी परंतु उसकी माॅ एक तो साम्प्रदायिक दंगों के पश्चात फ़तेहपुर जाने में भय खाने लगीं थीं और दूसरे अब आयु में बढ़ते हुए मोहित का रज़िया से मिलना जुलना उन्हें पसंद नहीं था; मोहित में माॅ की अवज्ञा कर अकेला आने का साहस नहीं था। मोहित के न आने की बात जानकर आज रज़िया के मन की पीडा़ का बांध फट पडा़ था और वह मौसी के कंधे पर सिर रखकर फूट फूट कर रोने लगी थी। मौसी रज़िया के मन की वेदना को समझतीं थीं परंतु सामाजिक बंधनों को तोड़ पाने की असम्भाविता को भी वह जानतीं थीं। उन्होंने रज़िया को अपने सीने से लगा लिया और देर तक उसके बालों को सहलातीं रहीं। जब रज़िया का अश्रुप्रवाह रुका तो वह अपने को धीरे से छुडा़कर सूनी आंखों से मौसी को देखते हुए अपने घर को चल दी थी- मौसी को भी सांत्वना के कोई शब्द न सूझे और वह उसे जाते हुए चुपचाप देखतीं रहीं थीं।

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रज़िया की परिस्थितियों की यह विडम्बना थी कि माॅ को छोड़कर न केवल उसके अपने घरवाले उससे शत्रुवत व्यवहार करते थे वरन् उसके स्वयं के व्यक्तित्व के सद्गुण भी उसके शत्रु बन रहे थे वह सीधी-साधी और आज्ञाकारिणी थी अत उसके पिता और भाई उससे घर के सब काम कराते थे और उसी को ताड़ना भी देते थे, वह धार्मिक भेदभावों के उूपर रहकर इंसानियत की कद्र करती थी अत उसने किसी मुस्लिम लड़के के बजाय एक हिंदू लड़के को अपना मनमीत बना लिया था जिससे चिरमिलन असम्भव था, और वह देखने में अत्यंत आकर्षक थी अत दिलफेंक तालुकदार सलाहुद्दीन का उस पर दिल आ गया था। तालुकदार साहब ने अभी तक जो दो शादियां की थीं उनमें पहली बीवी मर चुकी थी, और पहली व दूसरी में से किसी के कोई संतान नहीं थी, इसलिये उनके लिये न केवल तीन और बीवियों को रखने की गुंजाइश थी वरन् नाम चलाने के लिये और बीवियों की ज़रूरत भी थी। उनके रिश्तेदार और गुमाश्ते उन्हें जल्दी और शादी कर लेने को उकसाया करते थे जिससे इतनी बडी़ जा़यदाद का वारिस तो आये। कुछ दिन पहले उन्होंने एक राह चलते फ़कीर को सम्मानपूर्वक घर बुलाकर संतान का सवाल उठाया था तो वह काफी़ देर तक उन्हें घूरता रहा था और फिर किसी भी अधेड़ पुरुष की चाहत को ध्यान में रखकर बोला था,

‘‘अब की बार आाप किसी कमसिन से निकाह कीजिये, औलाद ज़रूर पैदा होगी।’’

तब से तालुकदार साहब सोच में पड़ गये थे कि उनके चालीस की उमर पार कर लेने के बाद अब किसी ज़मीदार खा़नदान की कमसिन के घरवाले उनसे निकाह को क्योंकर राज़ी होंगे। तभी उनकी निगाह रज़िया पर पड़ गई थी जो अपने फटे पुराने सलवार कुर्ते में उन्हें किसी निर्धन मुसलमान के घर की लगी थी और कमसिन होने के साथ साथ बहुत दिलकश भी लगी थी। एक निगाह में ही उनका दिल लोटनकबूतर हो गया था। तीसरे दिन जांच पड़ताल के बाद उनके साईस ने उन्हें बताया था,

‘‘हुजू़र! उस लड़की का नाम रज़िया है। उसकी माॅ मर चुकी है और उसका बाप मीरअली मरभुखा पियक्कड़ है। घर में खाने पीने के लाले पडे़ रहते हैं।’’

मीरअली के पियक्कड़ होने की बात जानकर सलाहुद्दीन को यह सोचकर खुशी हुई थी कि उसको पटाने मे कठिनाई नहीं होगी। उसी शाम सलाहुद्दीन के गुमाश्ते ने मीरअली के दरवाजे़ की सांकल खटकाई थी और दरवाजा़ मीरअली ने ही खोला था। गुमाश्ता उनसे बस इतना कहकर चला गया था,

‘‘तालुकदार सलाहुद्दीन साहब ने कल सबेरे आप को याद फ़रमाया है।’’

सलाहुद्दीन से हुई आकस्मिक मुठभेड़ के उपरांत रज़िया के मन में एक ऐसा भय समा गया था जैसा बाघ की आहट पाकर हरिणी के मन में समा जाता है और वह विशेष चैकन्नी रहने लगी थी। अत घर के अंदर होते हुए भी उसनेे गुमाश्ते की बात सुन ली थी और उसका दिल धक से रह गया था। बाघ द्वारा घात लगाये जाने वाली हरिणी की छठी इंद्रिय जाग्रत रहती है और वह आने वाले खतरे की भयावहता का पहले से आभास पा लेती है, उसी तरह रज़िया को आभास हो गया था कि यह बुलावा रज़िया द्वारा तालुकदार के प्रति की गयी गुस्ताखी़ के लिये नहीं है वरन् उसके जीवन के साथ खिलवाड़ किये जाने के लिये है। वह हताशा के अथाह सागर में गोते लगाने लगी थी- वह स्वयं तो अकिंचन और निरीह थी ही, उसका एकमात्र अवलम्ब मोहित भी मोहन की भांति रूठकर बिना पता ठिकाना बताये ही वृंदावन छोड़कर चला गया था। रज़िया उस रात सोते सोते बार बार चैंक कर उठती रही और हर बार उसे रात्रि और अधिक अंधकारमय दिखाई दी थी।

रज़िया के अब्बा भी उस रात सोच में डूबे रहे थे। तालुकदार साहब के यहां से उन्हें पहली बार ऐसा फ़रमान मिला था और उनका अनुमान था कि ज़रूर उनके किसी लौंडे की करतूत से ख़फा़ होकर तालुकदरार साहब ने बुलाया होगा। वह सबेरे जल्दी तैयार होकर कोठी पर पहुंचे और उन्हें बिना इंतजा़र कराये तालुकदार साहब के हुजू़र में पेश किया गया। तालुकदार साहब गद्देदार आरामकुर्सी पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। वह गहरे सोच में डूबे लग रहे थे और आदत के अनुसार अपनी दांयें हाथ की उंगलियों से अपनी सफे़द होने लगी मूंछों को उमेठ रहे थे। रज़िया के अब्बा के बैठक में घुसते ही उन्होने उनको अंदर लाने वाले व्यक्ति से कहा,

‘‘आप जाइये। इनसे अकेले में बातें करनी हैं।’’

साथ ही मीरअली को सामने रखे सोफे़ पर तशरीफ़ रखने को कहा। मीरअली सकपका गये और उनका अस्सलामवालिकउम करने के लिये उठा हाथ उठा ही रह गया। तालुकदार साहब उनकी मनोदशा समझकर बोले,

‘‘बैठिये, बैठिये मीरअली साहब।’’

तालुकदार साहब का अपने प्रति इतना सम्मानजनक सम्बोधन सुन मीरअली उन्हें अवाक देखते हुए अधबैठे से सोफ़े पर बैठ गये। तभी तालुकदार साहब की मूंछें और अधिक चंद्राकार हो गईं क्योंकि उनके होठों पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कान आ गई थी। वह बोले,

‘‘मीरअली साहब! आप के घर में एक हीरा है जिसे मैं अपना बनाना चाहता हूं।’’

रज़िया के अब्बा अभी भी भौंचक्के थे और मुंह फाड़कर तालुकदार साहब की तरफ़ देख रहे थे। तब तालुकदार साहब ने बात का खुलासा करते हुए कहा,

‘‘मैं आप की बेटी रज़िया से शादी करना चाहता हूं।’’

रज़िया के अब्बा कोे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था- वह अविश्वास, आश्चर्य और आह्लाद के समुद्र मे गोते लगाने लगे थेे। तालुकदार साहब उनके चेहरे पर आने वाले भावों को समझते हुए बोले,

‘‘मैने आप की बेटी को कुछ दिन पहले राह चलते देखा था और तभी फै़सला कर लिया था कि रज़िया से पैदा होने वाली संतान ही मेरी वारिस बनेगी।’’

अब मीरअली प्रस्ताव की गम्भीरता के विषय में आश्वस्त हो चुके थे और अपने स्वर्णिम भविष्य की कल्पना करने लगे थे, पर अपने को बहुत उतावला होना न लगने देने के इरादे से बोले थेे,

‘‘हुजू़र इससे बडी़ इज्ज़्त अफ़जा़ई मेरे लिये क्या हो सकती है, पर रज़िया अभी बच्ची है।’’

‘‘आप फ़िक्र न करें, मैं रज़िया की बहबूदी का पूरा ख़़याल रखूंगा।’’

‘‘हुजू़र फिर मुझे क्या उज्र हो सकती है?’’

मीरअली के यह कहने पर तालुकदार साहब ने गुमाश्ते को बुलाकर मीरअली के लिये नाश्ता-पानी मंगाया और काजी़ साहब को बुला लाने को कहा। काजी़ साहब आनन फ़ानन में उपस्थित हो गये और उनके मशविरे से सात दिन बाद ही निकाह की तारीख़ तय हो गइ्र्र।

मीरअली के विदा होते वक्त तालुकदार साहब ने चुपचाप उन्हें नोटों की दस गड्डियां शादी के इंतजा़मात के लिये थमा दीं थीं और गुमाश्ते के हाथ शराब की दस बोतलें भी उनके साथ भिजवा दीं थीं। मीरअली सातवें आसमान पर उड़ रहे थे।

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उस दिन के बाद रज़िया के घर में गहमागहमी मच गई थी। इतने कम समय में कितना प्रबंध करना था- घर में जगह कम होने के कारण पास के बगीचे में बडा़ सा शामियाना लगाया जाने लगा; मिठाइयों, पकवानों, शर्बतों और इत्रों की सूची बनने लगी। पास पडो़स के वे लोग भी शादी के प्रबंध में सलाह देने औा सहायता करने आने लगे, जो कल तक मीरअली को धेले भर इज्ज़त नहीं देते थे- उनकी निगाह में वह अब मियाॅ मीरअली हो गये थे। मीरअली की खु़द की और उनके बेटों की निगाह में रज़िया की इज्ज़त बहुत बढ़ गई थी और अब वह अपने को उसका खा़स होना दिखाने में एक दूसरे से होड़ ले रहे थे।

इस बीच तालुकदार साहब के गुमाश्ते बीच बीच में मीरअली के घर आते और मीरअली से पूछकर आवश्यकतानुसार रुपया और मदिरा मीरअली को दे जाते थे। बाहर से देखने में मीरअली का सारा घर मगन था, पर यह सारी गहमागहमी, गुमाश्तों के चक्कर और पडो़सियों की इज्ज़्तभरी निगाहें रज़िया को ऐसे लगतीं थीं जैसे बलि देने से पहले बकरी के समक्ष सुस्वादु भोजन परोसे जा रहे हों। रज़िया के मन में विद्रोह का तूफ़ान उठता था, पर फिर अपनी बेबसी का ध्यान कर अश्रुभरी सिसकन के रूप में फूट पड़ता था। विवाह के विषय मंे उससे पूछने की बात भी किसी के मन में नहीं आई थी- और आती भी किसलिये जब रज़िया की सहमति का न तो कोई मूल्य था और न ही कोइ्र्र यह सोच सकता था कि इतने बडे़ खानदान में विवाह के प्रस्ताव पर रज़िया को कोई आपत्ति हो सकती है? रज़िया स्वयं भी नहीं जानती थी कि अगर कोई कुछ पूछता भी तो वह क्या कहती और किस आशा के सहारे कुछ कहती? उसके जीवन में तो बस एक ही आया था मोहित, और वह उसका मन मोहित कर न जाने कहां अंतर्धान हो गया था? कभी कभी वह यह कल्पना अवश्य करती थी कि मोहित अकस्मात आ जायेगा और वह अपने मन की समस्त व्यथा और उलाहना उसे समर्पित कर अपना मन हल्का कर लेगी और उसके प्रेम की शीतल छाया में गहरी नींद सो जायेगी। पर न मोहित आ रहा था और न उसके आने की कोई खबर मिल रही थी। रज़िया को कहीं कोई प्रकाश की किरण नहीं दिखाई दे रही थी- उसके सामने थी बस अंधकार की एक अंतहीन सुरंग। इस सुरंग से उसे बाहर निकालने वाला बिना बताये ही कहीं चला गया था और अंधकार में स्वयं मार्ग ढूंढ लेने की क्षमता रज़िया में जन्मजात नहीं थी। वह मन ही मन अल्लाह से रहम की भीख मांगती और दुआ करती कि मोहित को भेजकर उसे मुक्ति दिला दे और कभी कभी वह स्वप्न में देखती कि मोहित मुस्कराता हुआ आ रहा है और उसे अपने में छिपा लेने हेतु अपनी ओर बुला रहा है।

पर सपने सपने होते हैं- प्यार भरे और मीठे, परंतु वास्तविकता प्राय कठोर एवं निर्मम होती है। रज़िया के सपनों का राजकुमार तो नहीं आया, वरन् सातवें दिन सायंकाल हाथी, घोडा़ें और कारों पर सवार एक लम्बी सी बारात लेकर तालुकदार साहब रज़िया को ब्याहने आ गये थे। अब तक रज़िया का मन इतना त्रसित और निराश हो चुका था कि वह बुझे हुए शोले के समान हो गया था और रज़िया मूर्तिवत हो गई थी। फिर वह यंत्रवत वह सब करती रही थी जो उससे करने को कहा गया था। काजी़ साहब ने जब उससे पूछा था,

‘‘रज़िया बानों! क्या दस हजा़र रुपये के मेहर पर जनाब सलाहुद्दीन वल्द अलाउद्दीन साहब से निकाह कुबूल है?’’, तब उसके मुंह से एक षब्द भी नहीं निकला था, परंतु उसकी प्रतीक्षा किये बगैर ही उसके भाई लोग, अब्बा और पडा़ेसिनें ‘मुबारक हो, मुबारक हो’ बोल पडे़ थे और का़जी़ साहब ने मुस्कराकर अनुमोदन कर दिया था। फिर हर कोई रज़िया को मुबारकबादी देने को बेताब हो उठा था, और हर मुबारक पर रज़िया को ऐसे लगता था जैसे उसे बेहोशी की दवा खिलाने के बाद हथैाडे़ से कूटा जा रहा हो। जब रुख़सती के वक्त रज़िया की आंखों से एक भी आंसू नहीं निकला, तो दिलजली पडो़सिनें आपस में धीरे से बोल पडी़ं थीं,

‘‘हाय, ऐसी क्या खु़शी कि दिखावे के लिये भी टेसुए नहीं बहा सकती है?’’

बाजे गाजे के साथ रज़िया की पालकी जब तालुकदार साहब के दरवाजे़ पर पहुंची तो वहां स्वागत के लिये टोले, मुहल्लेवालों का हुजूम लगा हुआ था। अंदर हवेली औरतों से ठसाठस भरी हुई थी जिनमें तालुकदार साहब की दूसरी बेगम भी शामिल थीं। यद्यपि उनके सीने में आग धधक रही थी पर चेहरे पर दिखावटी मुस्कान कायम थी और मुंह दिखाई की रस्म अदा करते समय उन्होंने भी औरों की हां में हां मिलाई थी कि छोटी बेगम का मुखडा़ चांद जैसा है। देर रात तक रस्मो-रिवाज़ निभाये जाते रहे थे और हंसी-ठिठोली होती रही थी, पर रज़िया ऐसी विस्मृति की दशा में थी कि उसे जैसे अपनी अवस्था का भान ही नहीं था। उसके ज्ञानतंतु तब जाग्रत हुए थे जब कुछ लड़कियों ने उसे सुहागरात के लिये फूलों से सजे अैार इत्र-फुलेल से गमकते हुए एक कमरे में पहुंचा दिया था और खिलखिलाकर हंसते हुए दरवाजा़ बंदकर चलीं गईं थीं।

कमरे के अंदर का दृश्य जितना भव्य था, रज़िया के लिये उतना ही भयजनक था। कमरा इतना बडा़ था कि उसमें रज़िया के घर का कमरा, बरामदा और आंगन तीनों समा जायें, उसकी उूंचाई्र रज़िया के घर के कमरों की उूंचाई की दोगुनी से भी अधिक थी। मोजे़क के फ़र्श पर बने लाल हरे रंग के बेल-बूटे, चारों दीवालों में लगे आदमकद शीशे, खिड़कियों और दरवाजों़ पर टंगे भारी मखमली परदे और बीच में दैत्य सम पडा़ विशालकाय पलंग अपने आकार के अनुपात में रज़िया को अपनी अकिंचन एवं असहाय स्थिति का गहराई से भान करा रहे थे। घबराहट में उसके हृदय की गति अनियंत्रित हो रही थी। अपनी निरीहता की इस चरमावस्था में भी रज़िया का मन मोहित द्वारा उसे उबार लेने की आशा को तिलांजलि नहीं दे पा रहा था। तभी सुहाग-सेज पर उसकी दृष्टि पुन पड़ी और उसका काल्पनिक विश्वास भी तिरोहित होने लगा। वह भयाक्रांत हो पलंग से दूर दीवाल की ओर हटने लगी और वहां रखे सोफे़ से टकराकर उस पर गिर गई। भय एवं निराशा का आधिक्य जब असहनीय होने लगता है तो मन की रक्षाप्रणाली मनुष्य को मूर्छावस्था की ओर ले जाती है- रज़िया की आंखें बंद हो गईं और वह अर्धमूर्छित सी हो गई। कुछ देर के उपरंात वह उसी अवस्था में दिवास्वप्न देखने लगी उसे लगा कि वह अपने घर में असहनीय ग्रीष्म से त्रस्त हो रही है कि तभी घनघोर घटायें उमड़ आतीं हैं और पहले रिमझिम रिमझिम तथा कुछ देर में मूसलाधार बरसने लगतीं हैं। वह बारिश में नहाने को उतावली होकर बाहर ताल की ओर दौड़ पड़ती है। वहां जामुन के पेड़ के नीचे मोहित खडा़ है और रज़िया को देखकर प्रसन्नता से बांहें फैला देता है और रज़िया दौड़कर उनमें समा जाती हैं। मोहित की बांहों का अवगुंठन उसके मन का समस्त ताप हर लेता है और तब रज़िया उससे शिकायत करती है,

‘‘मोहित तुम अब तक क्यों नहीं आये थे?.....अब मुझे छोड़कर कहीं नहीे जाना।’’

पर तभी आकाश में ‘तड़-तड़, तड़-तड़, तड़ाक-तडा़क.......’ बिजली के कड़कने से वह भयभीत हरिणी सी जाग गई थी और बाहर से आने वाली रिमझिम की ध्वनि से उसने जाना कि सचमुच वर्षा हो रही है। वह उठकर एक खिड़की का पर्दा खींचकर बाहर निहारने लगी थी कि तभी पीछे से उसके पास आकर सलाहुद्दीन उसे बांहों में भरकर अपनी छाती में ऐसे कसने लगेे थे कि उसकी सांस ही रुकने लगी थी। रज़िया की सांस सलाहुद्दीन के मुंह से आने वाली भभक से भी रुक रही थी। वह इस भभक से परिचित थी क्योंकि इस प्रकार की भभक उसके अब्बा के मुंह से प्राय आती रहती थी। रज़िया इस भभक से बचपन से ही घृणा करती थी क्योंकि जब यह भभक उसके अब्बा के मुंह से आती थी, तभी वह उसकी अम्मी और उसके प्रति अधिक निर्दयता का व्यवहार करते थे। रज़िया को लगा कि वह उसके अब्बा के समान एक निर्दयी शराबी के जाल में फंसी हुई्र है। अनायास ही रज़िया उस जाल से निकलने का प्रयत्न करने लगी थी, परंतु नारी की कोमल भावनाओं से पूर्णत निर्लिप्त एवं रज़िया की मनस्थिति सेे अनजान तालुकदार साहब ने उसे अपनी बांहों में उठाकर पलंग पर गिरा दिया था। उसके पलंग पर गिरते ही शराब के नशे में धुत तालुकदार ने उसके कपडे़ फाडकर उतार फेंके थे और फिर उस पर जुट पड़े थे। आक्रमण की आकस्मिकता, भयावहता, एवं जंगलीपन से नांेचे-खसोटे जाने से उत्पन्न पीड़ा एवं ग्लानि असह्य हो जाने पर रज़िया सचमुच मूर्छित हो गइ्र्र थी।

बडी़ देर बाद रज़िया की पलकों में हलका सा कम्पन हुआ था, परंतु उनको उठाने में भी उसे असह्य पीडा़ हुइ्र्र और वे पुन मुंद गईं थीं। फिर धीरे धीरे प्रयास कर रज़िया ने पलकें खोलीं और उसके होठों से अनायास निकला,

‘‘हाय अम्मी!’’

अपने चारों ओर देखने पर पहले उसे लगा कि वह किसी अनजान स्थान पर है, पर फिर उसका परिस्थिति-ज्ञान उभरने लगा था। उसने देखा कि उसके बगल में तालुकदार साहब गहरी नींद में खर्राटे ले रहे थे, उसके स्वयं के कपडे़ फटे हुए थे, और उसका नग्न वक्ष दीवालों में लगे आदमकद शीशों में उसे सरेआम नंगा कर रहा था। उनको ढकने के उद्देश्य से उसने जैसे ही उठने का प्रयास किया, तो उसे अपनी जंघाओं के मध्य में गहरी पीडा़ का आभास हुआ था। पीडा़-स्थल को देखने के प्रयत्न में वह जैसे ही झुकी, तो पलंग पर बिछी चादर पर फैली रक्त की धार को वह भयविस्फारित नेत्रों से देखती रह गई थी। किसी प्रकार साहस कर बिना कराहे वह पलंग से चुपचाप नीचे उतरी और अपने संदूक से दूसरा सलवार कुर्ता निकालकर गुसलखाने में चली गई थी। उसने पानी से अपने को रगड़ रगड़ कर ऐसे धोना प्रारम्भ किया जैसे वह अपने शरीर में चिपकी मलिनता, पीडा़ एवं ग्लानि से मुक्ति पाने का प्रयास कर रही हो- वह तब तक अपने को धोती रही थी जब तक पानी की अंतिम बूंद भी समाप्त नहीं हो गई थी। नहाकर जब वह बाहर आयी तब उसे भान हुआ कि वह अपने जीवन में बहुत कुछ खो चुकी थी- अपना कौमार्य, अपना सम्मान और अपना मोहित। उसे लगा कि वह जीने की इच्छा भी खो चुकी थी, परंतु तुरंत कुछ कर गुज़रने हेतु न तो साधन उपलब्ध थे और न साहस था।

उसने अपनी अम्मी को अब्बा के अत्याचार सहते देखा था, उन्हें अपने भाग्य को कोसते भी सुना था और वह समझ गई थी कि अब उसका भविष्य भी उसकी अम्मी के जीवन जैसा ही है- बिना विरोध दर्शाये आततायी के अत्याचार सहते रहना और तिल तिल मरना। वह जानती थी कि अत्याचारों के खुले विरोध की क्षमता उसमें नहीे है परंतु फिर भी अपने को उस प्रकार के जीवन में ढाल लेना उसकी प्रकृति मंे नहीं था।

उस समय सलाहुद्दीन का सामना होने से बचने के लिये वह चुपचाप दरवाजा़ खोलकर बाहर चली गई थी।

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प्रातकाल का भुकभुका हो चुका था। यद्यपि वर्षा पूरी तरह थम चुकी थी, तथापि आकाश में बादल घटाटोप छाये हुए थे। शीत वायु के झोंके आंगन मंे आकर दीवालों से वैसे ही टकरा रहे थे जैसे समुद्र की वेगवती लहरें किनारे से टकराकर चूर चूर होकर शांत हो जातीं हैं। रज़िया इन बादलों और शीत वायु के झोंकों से बेखबर बरामदे में ऐसे छिपी खडी़ थी कि कहीं किसी के सामने न पड़ जाये और कोई उसकी दुर्दशा का साक्षी न बन जाये, कि तभी बड़ी बेगम अपने कमरे का दरवाजा़ खोलकर बाहर आयीं और कुछ देर तक घूरकर रज़िया को देखतीं रहीं थीं। फिर कुटिल स्मित की एक क्षीण रेखा उनके चेहरे पर उभर आई थी। उनसे निगाह मिलते ही रज़िया अप्रतिभ हो गई थी कि वह चिल्लांईं,

‘‘अल्लाहरक्खी! मुई कहां मर गई है? अभी तक चाय नहीं लाई है?’’

‘‘अभी लाई बडी़ बेगम।’’ अल्लाहरक्खी का उत्तर सुनकर उन्होंने कमरे में वापस मुड़कर फटाक से कमरे का दरवाजा़ बंद किया जैसे रज़िया के मुंह पर तमाचा मारा हो। उस अरूप तमाचे की चोट से रज़िया के रुके हुए आंसू बहने लगे थे।

बडी़ बेगम को चाय देने जाते समय अल्लाहरक्खी ने रज़िया को देख लिया था और आदाब भी किया था, पर रज़िया के मुंह से कोई उत्तर नहीं निकला था। बड़ी बेगम को चाय देने के बाद अल्लाहरखी एक टे् में रज़िया के लिये चाय ले आयी थी और बरामदे में रखी मेज़ पर रख दी थी, पर रज़िया उससे बेखबर सिसकती रही थी। फिर अल्लाहरक्खी एक कप में चाय बनाकर रज़िया के पाछे खडी़ हो गई थी और उसे चुपचाप निहारती रही थी। इस हवेली की हर हलचल की बीसियों वर्ष से गवाह रही अल्लाहरक्खी की अनुभवी आंखें रज़िया को देखते ही समझ गईं थीं कि वह निर्मम शेर द्वारा भभोडी़ हुई हिरनी है। रज़िया केा देखते देखते उसकी आंखों में भी आंसू उतर आये थे- दो साल पहले उसने ऐसी ही एक प्रात में अपनी इकलौती किशोरी बेटी को इसी बरामदे में लगभग ऐसी ही दशा में गुमसुम खडा़ पाया था। उसके पूछने पर वह कुछ नहीं बोली थी परंतु फिर उसे उसकी लाश ही देखने को मिली थी। अल्लाहरक्खी बहुत रोई थी। यद्यपि उसकी लड़की ने अपनी अम्मी अल्लाहरक्खी से कुछ भी नहीं कहा था, पर अल्लाहरक्खी सब बात समझ गइ्र्र थी और उसके मन मंे तालुकदार के लिये एक गाली बस गई थी, ‘हरामी का पिल्ला’। आज अनायास उसके मुंह से ये शब्द निकल पडे़ थे। अल्लाहरक्खी के मुंह से इन्हें सुनकर रज़िया चैंक पडी़ थी और अल्लाहरक्खी के हाथ से चाय का प्याला लेकर अपने आंसुओं को रोकने का प्रयत्न करने लगी थी।



‘‘छोटी बेगम! आप यहां सर्दी में क्यों खडीं हैं?’’ रज़िया के कानों में सलाहुद्दीन की आवाज़ ऐसे गूंजी जैसें जंगल के अंधकार में भयातुर खडे़ किसी व्यक्ति के पीछे आकर शेर दहाड़ मार दे। शेर से मनुष्य केवल अपने प्राणों के लिये डरता है, जिनके एक बार निकल जाने पर उसे भविष्य के समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता है, परंतु रज़िया का भय कहीं अधिक स्थायी था क्योंकि वह जान गई थी कि तालुकदार रूपी शेर तो रज़िया के शरीर के साथ उसके आत्मसम्मान को एवं उसके मन में बसी मोहित की मूरत को तिल तिल मारता रहेगा।

तालुकदार के स्वर में अपने किये हुए पर किसी प्रकार के खेद अथवा पश्चात्ताप का भाव नहीं था, वरन् उसमें एक विजेता के स्वर की खनक थी। यह खनक रज़िया को अपनी तुच्छता एवं असहायता का और गहन आभास करा रही थी। उसने अपने अब्बा को नशे में धुत होकर घर मे घुसते ही अम्मी को गालियां बकने और उनकी मारकूट करते हुए देखा था और अपनी अम्मी को अपनी विवशता पर आंसू बहाते देखा था। उसके मन में यह स्थायी भाव घर कर गया था कि पुरुष अत्याचारी है और नारी अत्याचार सहने को विवश। उसके मुंह से तालुकदार साहब के प्रश्न का कोई उत्तर न निकला था और वह अपने मन का उद्वेलन एवं पीडा़ छिपाने हेतु बरामदे के फ़र्श पर बने बेल-बूटों की ओर एकटक देखती रही थी। स्वयं में मग्न तालुकदार साहब बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये थे- उन्हें अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा थी भी कहां? उन्होने अपना प्रश्न तो ऐसे फेंका था जैसे भिखारी की ओर कोई सिक्का फेंक देता है- यदि भिखारी सिक्के को न उठाये तो दानदाता उसकी मनुहार थोडे़ ही करेगा?

तालुकदार साहब का स्वर सुनकर बडी़ बेगम भी यह दृश्य देखने हेतु अपने कमरे के दरवाजे़ पर आकर खडी़ हो गइ्र्रं थीं, और रज़िया ने देख लिया था कि सब कुछ देखसुनकर बडी़ बेगम के चेहरे पर अनिर्वचनीय संतोष का भाव परिलक्षित हुआ था। तालुकदार साहब के जाते ही बडी़ बेगम रज़िया को लक्ष्य कर बोलीं थीं,

‘‘रज़िया बेगम! ठंड में क्यों खडी़ हैं? यहां तशरीफ़ ले आइये।’’

बडी़ बेगम के स्वर में एक चुभने वाली चहक थी, परंतु रज़िया को उन्हें मना करने का न तो साहस था और न उसे कोई बहाना ही सूझा। मदारी की डोर में बंधी बंदरिया सी वह हौले हौले बडी़ बेगम के कमरे में पहुंच गई थी। बडी़ बेगम एक हाथी दांत के फ्ऱेम वाले मखमली सोफे़ की ओर इशारा करते हुए बडी़ अदा से बोलीं थीं,

‘‘तशरीफ़ रखिये।’’

और रज़िया उसके एक कोने में दुबकी सी बैठ गई थी।

‘‘आराम से बैठिये छोटी बेगम। सोफा़ शायद आपको आराम देह लगे- असली आइवरी का है।’’ यह कहकर बडी़ बेगम ने ठसक के साथ जोडा़ था, ‘‘मेरे माइके से दहेज़ में आया था।’’

रज़िया आइवरी का मतलब नहीे जानती थी पर वह इतना अवश्य समझ रही थी कि बडी़ बेगम की बात का निहितार्थ रज़िया को जताना है कि रज़िया तुच्छ खानदान की है और बिना दहेज़ के आई है जबकि वह ऐसे वैसे खानदान की नहीं हैं।

रज़िया ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस निगाह उठाकर एक नज़र बेगम को देखा और फिर सोफे़ के मरमरी हत्थे को। बेगम का भरा भरा गोरा बदन और हाथी दांत के सोफ़े की चिकनाई दोनो रज़िया की हीनभावना को अग्नि में घृत डाल देने के समान प्रज्वलित करने लगे थे। स्वयं की तुच्छता के आभास के वशीभूत होकर उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसकी यह चुप्पी देखकर बडी़ बेगम का साहस और बढ़ रहा था, और जिस प्रकार भय से वशीभूत मेमने की चुप्पी देखकर भेड़िया आक्रमण की मुद्रा में आ जाता है, उसी तरह बड़ी बेगम सब कुछ जानते हुए बोलीं थीं,

‘‘छोटी बेगम! आप के भाई लोग क्या क्या करते हैं?’’

बडी़ बेगम के कहने के अंदाज़ से ही रज़िया समझ गई थी कि उन्होंने उनके भाइयों की करतूतों का कच्चा चिट्ठा पहले ही जान रखा है, परंतु अब कोई न कोइ्र्र उत्तर देना परिस्थितिजन्य विवशता बन गई थी। वह मन में बुदबुदाती सी बोली थी,

‘‘कुछ खा़स नहीं।’’ और फिर यह कहकर उठ खडी़ हुई थी,

‘‘मेरे सिर में तेज़ दर्द है। अभी माफ़ी चाहती हूं। फिर आउूंगी।’’

रज़िया का सिर सचमुच दर्द से फटा जा रहा था।

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‘‘अल्लाहरक्खी, ओ अल्लाहरक्खी! कहां मर गई है हरामज़ादी? छोटी बेगम कहां हैं?’’- नशे में धुत तालुकदार साहब दहाड़ रहे थे। रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी और तालुकदार साहब दोस्तों और चाटुकारों की रुख़्सती होने पर अभी अभी ज़नानखाने में लड़खड़ाते हुए तशरीफ़ लाये थे। कमरे में छोटी बेगम को न पाकर उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ रहा था। दिन भर की थकावट से चूर अल्लाहरक्खी की आंख लग गई थी, इसलिये उसे आने में दो पल की देर हुई थी। इस अंधेरी रात में छोटी बेगम के कमरे में न होने की बात जानकर वह भी भौचक्की रह गई थी। अविलम्ब उसके मन में आशंका उठी कि कहीं उसकी बेटी की तरह छोटी बेगम भी छत से न कूद पडी़ हों, पर मन की बात मन में छिपाकर वह अदब से बोली थी,

‘‘शायद बडी़ बेगम के कमरे में होंगी। अभी बुलाती हूं।’’

अल्लारक्खी दिन में काम करते समय कनखियों से छोटी बेगम पर नज़र रख रही थी और उसे रज़िया की विक्षिप्त सी मनोदशा का आभास था; वह यह भी समझती थी कि अपने भर छोटी बेगम बडी़ बेगम के कमरे में नहीं गईं होगीं। पर उसे उस समय तालुकदार को शांत करने को वही बहाना कारगर लगा था क्योंकि वह जानती थी कि बडी़ बेगम का नाम ले लेने पर तालुकदार साहब कुछ न बोल पायेंगे। फिर वह कमरे से निकलकर बडी़ बेगम के कमरे में जाने के बजाय हांफती हुई सीधी छत पर चढ़ गई थी, जहां रज़िया को मुंडेर पर बैठकर शून्य में निहारते हुए देखकर उसे बड़ी तसल्ली हुई थी क्योंकि रज़िया के कमरे में न मिलने पर उसे आशंका हो रही थी कि कहीं रज़िया उसी तरह छत से न कूद पड़ी हो जैसे एक दिन उसकी बेटी नीचे कूद पडी़ थी। वह घबराहट में बोली,

‘‘छोटी बेगम!’’

रज़िया ने शाम को अल्लाहरक्खी के यह पूछने पर कि वह कब खाना खायेगी, उससे कह दिया था कि उसे भूख नहीं है और वह खाना नहीं खायेगी। वह चुपचाप एकांत में पडी़ रहना चाहती थी, परंतु ज्यों ज्यों अंधेरा बढ़ने लगा था, रज़िया का मन तालुकदार के आगमन की कल्पना से अधिकाधिक भयभीत होने लगा था। जब यह स्थिति असह्य होने लगी थी, तो वह अंधेरे में सबकी निगाह बचाकर छत पर चली गई थी और मुंडेर पर एक कोने में गुमसुम बैठकर आकाष के षून्य को निहारने लगी थी। तभी पूरब दिशा में एक इकलौते चमकते तारे को देखकर उसके मन में विचार आया था कि हो सकता है मोहित भी कहीं एकांत मे बैठकर उस तारे को देख रहा हो, और उसके मन ने उस तारे के माध्यम से मोहित से एक सुखद तादात्म्य स्थापित कर लिया था। उसे लगने लगा था कि वह मोहित के पास है- मोहित की शरण में, मोहित की छत्रछाया में और मोहित के बाहुपाश में;उन दोनों के बीच के समस्त अवरोध समाप्त हो रहे है, उसके समस्त संताप मोहित के स्पर्श से पिघल कर बह रहे हैं और मोहित के तन का स्पर्ष उसके तन में षीतलता व्याप्त कर रहा है। पता नहीं कितनी देर तक रज़िया इस अवर्णनीय सुख में डूबी रही थी, जब अल्लाहरक्खी ने उसे पुकारा था। गहरी नींद में सुख-स्वप्न देखते हुए किसी व्यक्ति को जगाने हेतु यदि कोई उसकी चादर खींच दे, तो सोने वाला व्यक्ति और जो़र से चादर में अपने को छिपा लेने का प्रयास करने लगता है, उसी प्रकार प्रथम बार अल्लाहरक्खी की आवाज़ सुनकर रज़िया भी अपने को उस तारे में व्याप्त मोहित की छवि में छिपाने लगी थी, पर तभी अल्लाहरक्खी ने फिर जो़र से पुकारा था,

‘‘छोटी बेगम! जल्दी चलिये। तालुकदार साहब ज़नानखाने में तशरीफ़ ला चुके हैं और आप को फौ़रन याद फ़रमा रहे हैं।’’

तालुकदार साहब का फ़र्मान सुनकर रज़िया वास्तविकता के धरातल पर उतर आयी थी और निर्दयी मालिक के डंडे से भयभीत गाय सी धीरे से उठकर अल्लाहरक्खी के पीछे चल दी थी। उसके कमरे में घुसते ही अल्लाहरक्खी ने दरवाजा़ बाहर से उढ़का दिया था और अल्लाह से रज़िया की ख़ैर की दुआ करती हुई अपनी कोठरी में चली गई थी।

रज़िया के कमरेेे में घुसते ही तालुकदार साहब क्रोध में बोले थे,

‘‘इतनी देर कहां कर दी छोटी बेगम?’’- और रज़िया के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उसे बेसब्री से बांहों में उठा लिया था और पलंग पर डालकर उसका सलवार और अंगिया फाड़ने लगे थे। रज़िया आंख मूंदकर निस्पंद पडी़ रही थी और तालुकदार साहब उसके अंग अंग से नृशंसता से खेलते रहे थे। बीच बीच मे रज़िया की पीडा़ भरी कराहों को सुनकर वह अपने विजयोल्लास मंें और उन्मत्त हो जाते थे।

रज़ि़या षीघ्र ही समझ गई कि उसकी देह, उसर्की अिस्मता, उसका आत्मसम्मान एवं उसके मन में विराजमान मोहित की मूरत को मसला जाना ही उसकी नियति है। शनै शनै उसने अपने को ऐसा बना लिया था कि उसकी देह को मसले जाने पर यथासम्भव उसके मुंह से आह भी न निकले। उसने अपने अस्तित्व को स्वयं ही नकार सा दिया था वह बडी़ बेगम के ताने मारने पर कोई प्रतिक्रिया प्रदर्शित नहीं करती थी; और कुचले मसले जाते समय वह स्वयं शवासन जैसी स्थिति में चली जाती थी तथा मन में बसी मोहित की मूरत को विस्मृति की खोह में डाल देती थी, पर दूसरी सुबह उसे खोह से निकालकर बडे़ दुलार से धोती-पोंछती थी और फिर उसकी पूजा करने लगती थी।

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