I am still waiting for you, Shachi - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 8

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 8

(अभिषेक, एक पत्रिका में कोई रिपोर्ट लिखने के उद्देश्य से एक कस्बे में आता है. वहाँ उसे शची जैसी ही. आवाज़ सुनायी देती है और वह पुरानी यादों में खो जाता है कि शची नयी नयी कॉलेज में आई थी. शुरू में तो शची उसे अपनी विरोधी जान पड़ी थी पर धीरे धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित हुआ. पर शची की उपेक्षा ही मिली उसे और उसने कुछ अपने जैसे अमीर घराने वालों से दोस्ती कर ली. पर कुछ ही दिन बाद ऊब गया उनकी संगति से और शची से अपने मन की बात कह डाली. पर उनका प्यार अभी परवान चढ़ा भी नहीं था कि एक दिन शची ने कुछ बताना चाह पर रोती ही रह गयी )

गतांक से आगे

रात आँखों में ही कटी. किसी तरह तैयार हो, कॉलेज पहुंचा और जैसी की उसे थोड़ी थोड़ी आशंका हो रही थी, शची कॉलेज नहीं आई... क्या सफाई देती अपनी सूजी सूजी आँखों का?

बिलकुल मन नहीं लग रहा था उसका कॉलेज में, मनीष ने लक्ष्य किया, और पूछ बैठा, "कल गया था ना, तू शची के यहाँ "

'हाँ " अनमने ढंग से बोला वह...

"ओह समझा... कोई बात तो हो नहीं पायी होगी... भाभी ने शुरू कर दिया होगा, अपना आख्यान... तुमलोगों को कहीं और मिलना चाहिए था

"हम्म.. "

"पर आज शची आई क्यूँ नहीं.. "

"पता नहीं... "

"चीयर अप, यार.... चलते हैं शाम को... मैं भाभी को उलझा लूँगा बातों में या किसी बहाने शची को बाहर ले आयेंगे.. फिर मैं फूट लूँगा वहाँ से... "

"ना... कल ही गया था, रोज जाना ठीक नहीं.... " मनीष कितना भी अजीज़ दोस्त था उसका... पर हर रिश्ते की एक सीमा थी... शची की सारी बातें वो मनीष से नहीं शेयर कर सकता था... ऐसे ही शायद मनीष की भी कुछ बातें वो शची को नहीं बता पाए.

"आज मूड नहीं और क्लास करने का... मैं घर जा रहा हूँ "... उसका एक पल दिल नहीं लग रहा था.

"हाँ... हाँ... देवदास... पारो तो आई नहीं... क्या करेगा... जा जा ग़ज़लें सुन... सूने घर मे बैठ "... और एक जोर की धौल जमा दी उसकी पीठ पर.

वह कुछ बोल भी नहीं पाया एक फीकी मुस्कान फेंक... चला आया.

घर में भी मन क्या लगता... खुद से सौ सवाल जबाब कर, हिचकते हुए शची की दीदी के घर फोन लगाया. हालांकि पता था, ज्यादा बात हो नहीं पाएगी, देख चुका था, फोन लिविंग रूम में एक ऊँचे से टेबल पर सजा कर रखा था. कोई प्रायवेसी नहीं थी. पर कम से कम आवाज़ तो सुन पायेगा.

उसकी दीदी ने ही फोन उठाया... पहले तो ढेर सारी शिकायत की कि इतने दिनों वह क्यूँ नहीं आया. फिर.. इधर उधर की बातें की... इसके, उसके, सबके हालचाल पूछ फिर जब उसने पूछा, "शची है क्या... आज कॉलेज भी नहीं आई "

"हाँ... उसकी तबियत ठीक नहीं... बुला दूँ क्या... ? " और उसके हाँ कहने पर, वहीँ से जोर की आवाज़ लगाई शची को... उसे रिसीवर कान से हटा लेना पड़ा.

शची ने "हेल्लो... " कहा और उसके गले में कुछ अटक सा गया. किसी तरह थूक निगल बस इतना बोल पाया, " अब कैसी हो ?"

"हाँ ठीक हूँ.... ऐसे ही थोड़ी तबियत ठीक नहीं थी... इसलिए नहीं आई... कुछ ख़ास हुआ क्या कॉलेज में "... शची का स्वर बिलकुल संयत था... पता चल गया उसे, उसकी दीदी वहीँ खड़ी होंगी जरूर.

"मैं तो एक क्लास के बाद ही आ गया... मन ही नहीं लगा... कॉलेज में "

"हम्म... ओके, कल आती हूँ कॉलेज मैं " और शची ने फोन रख दिया.

"बैड आइडिया" मन ही मन कहा उसने... ओह यह बेकार आइडिया था फोन करने का.... इस से अच्छा तो घर ही चला जाता, किसी बहाने.... कि इधर से गुजर रहा था... या कोई भी बहाना बना देता. पर अब क्या हो सकता था... अब तो फोन कर चुका था वह.

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दूसरे दिन, शची कॉलेज आई, बिलकुल सहज, शांत. वही सहेलियों से घिरी उनके सौ सवालों के जबाब देती. बस जब उस से नज़रें मिलतीं तो थोड़ी असहज हो, दूसरी तरफ देखने लगती.

क्लास में ही बस उन्हें थोड़ा सामीप्य नसीब होता. सहपाठी थोड़ी, इनायत कर उन्हें एक बेंच पर अकेले छोड़ देते. वे दोनों भी किसी और से आग्रह नहीं करते, पास बैठने का. पर लेक्चर के समय बात कहाँ हो पाती. प्रोफ के क्लास में कदम रखने तक तो सब ग्रुप बना खड़े रहते. जब तक प्रोफ. अपनी टेबल तक ना पहुँच जाए, स्टुडेंट्स अपनी जगह तक नहीं पहुँचते. आज भी जैसे ही भीड़ छंटी और शची के साथ अकेले बैठने का मौका मिला. तीव्र इच्छा जगी, मन में, एक बार कंधे से घेर, उसके बाल सहला, पूछ ले, "ठीक हो ना तुम"

शची अपनी नोटबुक खोले, उस पे फूल, पत्ती, चिड़िया बना रही थी. आखिर कोई उपाय ना देख, उसने अपनी नोटबुक में ही लिख डाला, "ठीक हो ना, तुम "

और शची ने लिख कर जबाब देने के बजाय उसकी तरफ देख, सर हिला दिया.

उसने फिर लिखा, "आखिर हुआ क्या, मैं बहुत परेशान हूँ "

"बताती हूँ "... शची ने अपनी नोटबुक में लिखा.

"कब"

"कॉलेज ख़त्म होने के बाद, वहीँ चलते हैं, तुम्हारी पुरानी जगह "

'ना... इसी क्लास के बाद"

"ओके" और उसके बाद का सारा समय तो हर दो मिनट के बाद घड़ी देखते गुजरा. प्रोफ. क्लास से निकले भी नहीं थे कि वह उठ खड़ा हुआ, शची को चलने का इशारा किया और बिना किसी की ओर नज़र किए उनके पीछे पीछे ही चल पड़ा. शची को देखने को भी पीछे नहीं मुडा.

कुछ दूर जाकर सेमल के पेड़ के नीचे खड़े हो, जब मुड कर देखा, तो पाया शची भी बस उस से दो कदम की ही दूरी पर है. पर सर झुकाए, बड़े शांत, गंभीर चाल से चल रही थी. उसके जैसी व्यग्रता नहीं झलक रही थी, उसके हाव भाव से. उसके आने का इंतज़ार करने लगा, और पास पहुँच, शची ने उसकी तरफ जो नज़रें उठा अपराधी नज़रों से उसे देख, फीकी सी मुस्कुराहट बिखेरी कि ह्रदय विदीर्ण हो गया, उसका.

अनायास ही हाथ, उसके कंधे पर चले गए, और बोल उठा, "डोंट वरी, एवरीथिंग इज गोइंग टु बी फाइन. "

शची थोड़ी और सिमट गयी खुद में और फिर ख़ामोशी से चलते दोनों कार के समीप पहुँच गए.

उसने ही शची को सहज करने के इरादे से इधर उधर की बातें शुरू कीं, "आज मौसम अच्छा हो रहा है "

"हम्म"

"लगता है, इस बार मौनसून जल्दी आएगा "

"हम्म लगता तो है "

"कहीं बारिश ना हो जाए... "

"हम्म हो सकता है.... "

"अरे... अभी गाड़ी मोड़ लेता हूँ... क्लासरूम में ही छूट गया... "

"क्या s s... "

"तुम्हारी जुबान.... "और जोर से हंस पड़ा वह.

"क्या अभिषेक.. तुम भी..... "और शची भी खुल कर मुस्कुरा दी... पर दूसरे ही पल गहरा निश्वास खींच... खिड़की से बाहर नज़रें टिका दीं

आज गार्डेन में. उसने तालाब की सीढियों के किनारे बैठना तय किया, जहाँ पीपल के एक शाख की घनी छाया थी... अगर बादल छंट भी जाते तब भी उन तक धूप नहीं पहुँचती.

और वहाँ बैठ उसने एक पल की भी देरी नहीं की... शची का हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर बोला, "अब कह डालो सब कुछ.. मैं सब देख लूँगा... तुम्हे परेशान होने की जरूरत नहीं "..... खुद पर ही आश्चर्य हो रहा था... एक दिन में ही कितना करीब आ गया वह शची के. अब जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती उसे, उसका हाथ अपने हाथ में लेने में, या कंधे पर हाथ ही रखने में... कितना डरता था, पहले.

पर शची ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और थोड़ा सा दूर खिसक गयी. एक बार उसे लगा, ऐसा तो नहीं सोच रही वह मौके का फायदा उठा रहा है... पर इस ख्याल को झटक दिया, अभी कुछ सोचने की फुर्सत नहीं थी उसे, बेताबी से शची के कुछ कहने की प्रतीक्षा कर रहा था. लेकिन वह भी थोड़ा दूर खिसक गया और हाथ पीछे की ओर टेक दिए.

शची ने शुरुआत की, " मुझे पता है... तुम बहुत परेशान होगे मेरे उस दिन के व्यवहार से... एक्चुअली मुझे भी वैसे बिहेव नहीं करना चाहिए था, पता नहीं कैसे क्या हो गया. "

"शची.. कम टु द पॉइंट, प्लीज़... भूमिका मत बांधो. ".. शची के हाथ छुडाने से भन्नाया था ही... झुंझला उठा.

शची थोड़ी देर सामने देखती रही. फिर अपनी हथेली पर नज़रें जमाये बोली, "तुम मेरा साथ छोड़ दो.. "

धक्का सा लगा, उसे "क्या कह रही हो.... " आश्चर्य में डूब गयी, उसकी आवाज़.

"यही कि मुझसे मिलना जुलना छोड़ दो "

"क्यूँ ??""

"बस ऐसे ही "

"और तुममे कोई चाह नहीं ?"

"चाहने से क्या होता है, अभिषेक.... और चाहता तो आदमी बहुत कुछ है... पर करता वही है जो उचित हो" जैसे किसी गहरे कुएं से आ रही थी, उसकी आवाज़.

"क्या उचित है और क्या अनुचित... मैं कुछ समझ नहीं पा रहा... ये सब क्या कह रही हो तुम "

"समझोगे भी नहीं... बस भूल जाओ मुझे "... बड़ी आजिजी से कहा शची ने.

झल्ला उठा वह, "क्या भूल जाऊं और कैसे भूल जाऊं... क्या मतलब है तुम्हारी इन सब बातों का"

"कहा ना बस मेरा मन है "

रोष उफनने लगा, " सब कुछ तुम्हारे मन से ही होगा, जब चाहे पास बुला लो, जब चाहे ठुकरा दो... भूलना इतना आसान नहीं होता शची "

"लेकिन चाहा जाए तो आसान किया जा सकता है... आखिर जब तुम अपनी उन फ्रेंड्स को भूल सकते हो तो अब क्या मुश्किल है "

"तुम्हारी ये सब पहेली मेरी बिलकुल समझ में नहीं आ रही... पर जब उन फ्रेंड्स की बात कर रही हो... तो ये भी पता है तुम्हे, मेरी रूचि बिलकुल नहीं मेल खाती थी, उन सबसे और तुम्हारी बेरुखी ने ही तो धकेला था, मुझे उस राह पर.... अब मैं... ना शची, अब दूर जाना बिलकुल असंभव है... पर क्यूँ, सिर्फ तुम्हारी इक जिद के लिए ?"

"जिद मेरी नहीं, तुम्हारी है अभिषेक, तुम कुछ समझने की कोशिश ही नहीं कर रहें. ज़िन्दगी सिर्फ भावुकता के सहारे नहीं चलती, यथार्थ बहुत कड़वा होता है, अभिषेक और जीवन, उसी के बल पर आगे बढ़ता है. "

"लेकिन कोई कारण तो हो... भले ही एक दूसरे पर हमारे राज खुले कुछ ही दिन हुए हैं, पर आकर्षण तो महीनो रहा है. कितने सारे सपने देखे हैं मैंने, क्यूँ उन सबको अपनी एक जिद की वजह से तोड़ने पर तुली हो "... आवाज़ गीली हो आई उसकी.

शायद उसे सहज करने के इरादे से ही धीमे से हंस दी, शची "सपने तो टूटने के लिए ही हुआ करते हैं, उनमे नया क्या है?"

"शची प्लीज़ सच कहना, क्या मैं तुम्हारी पसंद के काबिल नहीं... यदि ऐसा है तो चुपचाप हट जाऊंगा, तुम्हारे रास्ते से... पर आखिर क्या कमी रह गयी मुझमे.... ये तो बता दो, कम से कम"

"कमी और तुम में.. ऐसा सोचना भी गुनाह है.... इतने खुले खुले वातावरण में रह कर भी तुमने अपना चरित्र इतना सुदृढ़ रखा है... यही तमाम कमियों को ढंकने में समर्थ है.... मोस्ट एलिजिबल बैचलर.. में क्या कमी होगी.. और तुम तो देखने, सुनने, पढने लिखने,.... "

"काम की बात करो, शची तुम विषय से हट रही हो... " बीच में ही बात काट दी उसने.

"काम की ही तो कर रही हूँ, कि खुद को पहचानो... और अपने जैसा ही... "और जैसे कुछ सूझ गया उसे, "मैं तुम्हारे लायक नहीं, अभिषेक "

"अपना मूल्यांकन कोई खुद नहीं करता, दूसरे ही सोचेंगे तुम लायक हो या नहीं"

"दूसरों की छोडो उन्हें क्या पड़ी है जो पता लगाते फिरें... "मूल आशय बड़े कौशल से टाल दिया, शची ने "और हाँ, तुम्हें इतना बता दूँ, एक बहुत ही सभ्य सुसंस्कृत लड़की है मेरी नज़र में..... और तुम्हे भी बहुत चाहती है "

"वाह!! मुझे चाहती है और मुझे ही खबर नहीं... जोक ऑफ द सेंचुरी "... उपेक्षा से हंस दिया वह

"हाँ अभिषेक! तुमने कभी पता करने की कोशिश ही नहीं की, बोलो, कभी कविता को देखा है उस नज़र से"

""तो आप यही सब देखती रहती हैं... पर आप ही तो सर्वोपरि नहीं.... मेरी पसंद नापसंद की भी कोई अहमियत है. " तिक्त स्वर में बोला, वह.

"वो तो है ही "... अपनी ही रौ में कहती चली गयी... "इतना तो मैं जानती ही हूँ कि कैसी पसंद है तुम्हारी.. और गौर किया है... आजकल बहुत उदास रहती है कविता... जब कणिका लोगों से तुम्हारी दोस्ती बढ़ रही थी... तब भी कितनी रुआंसी रहती थी.

"काफी रिसर्च कर रखा है, इस विषय पर " आवाज़ को कसैला बनाना चाहा पर अजीब किसी गहराई में डूबी हुई सी आवाज़ निकली. जैसे खुद से ही बात कर रहा हो. शची ने भी लक्ष्य किया इसे क्यूंकि आशा के विपरीत चुप रही. इन सब बातों की चर्चा उसे बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी. अजीब बेचैनी सी हो रही थी, जीवन के किस मोड़ पर ला पटकेंगी, ये बातें... मन में उथल पुथल मचा दी थी, शची की इन बातों ने और शची थी कि कुछ भी स्पष्ट बोल नहीं रही थी. ह्रदय डूब रहा था, उसका. तभी शची ने पूछा, क्या सोच रहें हो... कविता है, ना बहुत अच्छी "

सब कुछ भूल फिर से उसका हाथ थाम लिया अभिषेक ने और बड़े मायूस और भीगे स्वर में बोला, "इस तरह मत जलाओ, शची. इन सब की छोडो सिर्फ इतना बता दो, आखिर क्यूँ... आखिर किसलिए मुझे यूँ मझधार में छोड़ दूर चली जाना चाहती हो, देखो शची तुम्हे मेरे सर की कसम, कुछ मत छुपाना, "और उसकी हथेली दोनों हाथों से भींच डाली.

"ओह अभिषेक, तुमने तो इतनी बड़ी कसम दे डाली.... शची की आँखों में आंसू छलक आए, थोड़ी देर वैसे ही बैठी रही फिर एक दीर्घ निश्वास खींचा उसने और नीचे सर झुकाए बोला, :मुझे 'रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़' है... और दो बूँद जलते आंसू उसके हाथों पर टपक पड़े.

उन बूंदों को देखता, आहत बैठा रह गया वह. काँप गया उसका सारा शरीर. ईश्वर का ये कैसा अन्याय है, उनके प्रति. बेहद दया उमड़ आई शची पर. कितना गलत समझता रहा, वह शची के प्रत्येक व्यवहार को. शची की सारी उपेक्षा अब समझ में आने लगी. कितनी सफाई से टाला था इस लड़की ने उसे. किन्तु उसने भी दृढ रहकर शची के अटल निश्चय को तोड़ डाला. तो क्या अब उसकी कल्पनाएँ भी दम तोड़ देंगी?? किन्तु अभी उसे अपनी नहीं, शची की फ़िक्र करनी थी. उबारना था, उसे इस स्थिति से.

जबरदस्ती हँसते हुये बोला, " बस इतनी सी बात और इस कदर परेशान हो तुम. गज़ब करती हो शची तुम भी. चलो उठो अब, ये कोई ऐसी बात नहीं, जिसके लिए इतना घुला रही हो खुद को. 'उफ्फ अपने साथ मुझे भी परेशान कर डाला. "

"शची ने हाथ खींच दोनों हाथों से अपने बाल समेटे और एक निश्चय के साथ बोली, "नहीं अभिषेक, मेरा फैसला अंतिम है. अपने पीछे एक और जीवन तबाह कर डालूं. मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाता. "

"ये कोई ऐसी बीमारी तो नहीं, जो ठीक नहीं हो सके. "

अजीब सी हंसी हंस दी शची. विशुद्ध हंसी थी या अथाह दर्द शामिल था उसमे, "नो होप... अब कुछ भी संभव नहीं.... अगर बचपन में डायग्नोज़ हो जाता तो कुछ हो सकता था. अब देर हो चुकी है, ऑपरेशन का रिस्क डॉक्टर नहीं लेना चाहते. "

"अभिषेक को इतना छोटा मत समझो शची, तुम्हारी बिमारी की खातिर कुछ भी कर सकता हूँ. विदेश ले जाकर भी तुम्हारा इलाज़ करवा सकता हूँ. "

"ना.. मेरे लिए क्यूँ इतना करोगे... मुझसे जाने कितनी अच्छी लडकियां मिल जायेंगी, तुम्हे. और तुम क्या सोचते हो, कम इलाज़ हो रहा मेरा. डैडी कम परेशान हैं मेरे लिए. हर बड़े अस्पताल के चक्कर लगा चुकी हूँ. ना जाने कितने फौरेन के डॉक्टर से भी दिखा चुके हैं... पर सबका यही कहना है... अब रिस्क है ऑपरेशन में "... कुछ देर चुप रही... फिर एक लम्बी जम्हाई ले मुस्करा दी.. "जब आयुरेखा ही ना हो हाथ में तो क्या करे कोई "

और अचानक शची ने जो ऊपर देखा तो उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा... खड़ी हो बालों को हथेलियों से जमाते उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी.... "ओह.. आह.. अरे.. अस्फुट से स्वर निकल रहें थे. और बोल पड़ी.. "क्या अभिषेक इतने ख़ूबसूरत मौसम का खून कर डाला हमने... जरा नज़रें उठा कर देखो तो सही... कितना बढ़िया मौसम है. "

मौसम सचमुच बहुत मनमोहक था. सूरज निस्तेज पड़ चुका था. पूरी सृष्टि को सिंदूरी रंग से नहलाते खुद भी एक बड़ा सा लाल ठंढा गोला भर दिख रहा था. पूरे आकाश में हलके हलके बादल छितराए थे. जिनमे समुद्र की लहरों सा उतार चढ़ाव नज़र आ रहा था. पल-पल वे रंग बादल रहें थे. कभी गुलाबी, कभी पीले, कभी नारंगी तो कभी गहरे सिन्दूरी. झकोरे की हवा चल रही थी. और पक्षियों की कतार स्कूल से छूटे बच्चों की तरह बहस करती बतियाती, अपने अपने नीड़ों की ओर लौट रही थी.

कुल मिलाकर एक आदर्श वातावरण था. जानता था वह भी, शची को बेहद पसंद है, ऐसा मौसम. यदि लेक्चर चल रहा हो और बाहर ऐसा मौसम बिखरा पड़ा हो तो शची की ललचाई निगाहें बार बार नोटबुक से उचट कर खिड़की से टकराते कई बार देख चुका था. और मौका मिलते ही किसी को भी साथ ले, एक परिक्रमा जरूर कर आती वह कॉलेज का.

किन्तु इस भारीपन में उसका यूँ चहकना शीयर हिप्पोक्रेसी लग रही थी. इतनी मार्मिक बातचीत के बीच शची का यूँ किलकना उसे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. उसके अंदर तो कोई उत्साह नहीं जगाया इस मौसम में. पर शची ऐसे ही तो पल पल चौंकती है. गंभीरता तोड़ खिलखिला पड़ेगी और कभी हँसते हँसते गंभीर हो जाएगी. ये उसकी खासियत है या कमजोरी.

जी में आया कोई नश्तर सी तेज बात कहे कि उसका ये मुलम्मा छिलके सा उतर जाए. पर आज बाजी शची के हाथ थी. विहंसती हुई सी बोल रही थी. "देखो ना, शायद इन्हें भी पता चल गया कि आखिरी अलविदा कहने आए हैं हम. अब तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ. किस तरह सारे पेड़ अपनी शाखें हिला हिला कर और पंछी अपने पंख हिला हिला कर विदा दे रहें हैं हमें. तो हम भी उन्हें गुडबाय कह डालें क्यूँ ?"और मुस्करा कर हाथ बढ़ा दिया उसकी तरफ..., " लेट्स पार्ट फौरेवर एज अन्फौर्गेटेबल फ्रेंड्स"

(क्रमशः)